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अहिंसक बनाने की आकांक्षा थी। इसे अभिव्यक्त भी किया-न सिर्फ भारत की बल्कि सारी दुनिया की अर्थरचना ऐसी होनी चाहिये कि किसी को भी अन्न और वस्त्र के अभाव की तकलीफ न सहनी पड़े।
दूसरे शब्दों में, हर एक को इतना काम अवश्य मिल जाना चाहिये कि वह अपने खाने-पहिनने की जरूरतें पूरी कर सके। यह आदर्श निरपवाद रूप से तभी कार्यान्वित किया जा सकता है जब जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं के उत्पादन के साधन जनता के नियंत्रण में रहे। वे हर एक को बिना किसी बाधा के उसी तरह उपलब्ध होने चाहिये जिस तरह कि भगवान की दी हुई हवा और पानी हमें उपलब्ध है; किसी भी हालत में वे दूसरों के शोषण के लिए चलाये जाने वाले व्यापार वाहन न बनें। किसी भी देश, राष्ट्र या समुदाय का उन पर एकाधिकार अन्यायपूर्ण होगा। हम आज न केवल अपने इस दुखी देश में बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी जो गरीबी देखते हैं, उसका कारण इस सरल सिद्धान्त की उपेक्षा ही है।101 इसमें गांधी की आत्मव्यथा का स्पष्ट चित्रण है जो उनके अंतरमन की पीड़ा का प्रतिनिधित्व करती है। आचार्य महाप्रज्ञ ने स्वतंत्र रूप से ग्राम-व्यवस्था का जिक्र भले ही न किया हो, पर उनका स्वस्थ समाज रचना का प्रारूप एवं अणुव्रत ग्राम परियोजना में आर्थिक चिंतन गांधी के आर्थिक विचारों से मिलता-जुलता है। अर्थ-व्यवस्था और समाज-व्यवस्था के पारस्परिक संबंध को उन्होंने स्वीकारा है। अहिंसक समाज को उचित आकार देने में आर्थिक पहलू को गौण नहीं किया जा सकता। ___अर्थ के संबंध में महाप्रज्ञ के विचार बहुत स्पष्ट एवं सुलझे हुए प्रतीत होते हैं। समाज के क्षेत्र में आर्थिक विकास में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती किंतु यह येन-केन प्रकारेण नहीं होना चाहिए। साधन शुद्धि का विवेक अवश्य रहना चाहिए। मूल्यों का हास न हो-समृद्धि के साथ करुणा, संवेदनशीलता का स्त्रोत सूखे नहीं। दूसरों के हित को हानि पहुंचाने वाली वृत्ति त्याज्य है। किसी एक व्यक्ति का स्वार्थ इतना न उभर पाये कि स्वयं का आर्थिक विकास दूसरों को हानि पहुँचाये। हमारे लिए वह अर्थशास्त्र उपयोगी है, जो गरीबी को मिटाये और साथ-साथ हिंसा का संवर्धन भी न करे। आर्थिक समृद्धि और अहिंसा की समृद्धि दोनों की आज अपेक्षा है। उन्होंने अर्थशास्त्र के प्रमुख घटक उत्पादन, वितरण और उपयोग पर भी प्रकाश डाला है।
गरीबी और बेरोजगारी की प्रचण्ड समस्या का समाधान संवेदनशीलता और करुणा में खोजा जा सकता है। उनके शब्दों में-समाजिक प्राणी वह होता है, जो संवेदनशील होता है। जिसमें अपनी अनुभूति का जोड़ होता है, वह दूसरों को भी अपने समान समझता है। अगर संवेदनशीलता का यह सूत्र सफल होता है तो इतनी विशाल धनराशि संहारक अस्त्र-शस्त्र में न लगकर मानव की भलाई में लगती। आर्थिक विचारों की झलक उनके अर्थशास्त्रवेत्ता होने का अहसास कराती है।
भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ चतुष्ट्य का प्रतिपादन किया गया उसमें अर्थ का स्थान नम्बर दो पर और अहिंसा (धर्म) का स्थान प्रथम नम्बर पर रखा। आर्थिक पहलू को धर्म के साथ जोड़कर क्या इसे नया परिवेश प्रदान नहीं किया जा सकता? ऐसा होने से ही सकारात्मक परिणाम संभव होगा। आर्थिक पहलू को जाने बिना अहिंसक समाज-रचना का ज्ञान अधूरा होगा। वर्तमान के संदर्भ में अहिंसा की सफलता का मानदण्ड भी भौतिक-लक्ष्य की पूर्ति बन गया है। आर्थिक कठिनाइयों को मिटा सके तो अहिंसा सफल हुई, यह माना जाएगा और उन्हें न मिटा सकी तो विफल। सचमुच यह भूल भरा चिन्तन है, अहिंसा को लक्ष्यहीन किया जा रहा है। अहिंसा का लक्ष्य जीवन-शोधन
अहिंसक समाज : एक प्रारूप / 229