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स्तर पर आजादी के लिए जन चेतना जागृत करना। इसी लक्ष्य से गांधी की शिक्षा सोच विभिन्न रूपों में प्रकट हुई। जैसे-स्त्री शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, आजीवन शिक्षा, धार्मिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा आदि।
उनकी संपूर्ण शिक्षा योजना में शिक्षा के दो प्रकारों का विशेष विवरण उपलब्ध होता है-बुनियादी शिक्षा तथा उच्च शिक्षा। 'बुनियादी शिक्षा' की बात गांधी ने 1935 में की। उसका आदि प्रयोग टॉलस्टॉय फार्म में हुआ था, जहां समस्त शिक्षा एक-न-एक शारीरिक श्रम के माध्यम से ही दी जाती थी। बुनियादी शिक्षा की पृष्ठभूमि में उनका सपना था कि स्वतन्त्र भारत में शिक्षा ऐसी चाहिए, जो विद्यार्थियों में परिश्रम के प्रति आदर की भावना पैदा करके उन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने लायक
। सके। शिक्षा विषयक गांधी के अनभव परक मौलिक विचार थे. दक्षिण अफ्रीका की फिनिक्सबस्ती और टॉलस्टॉय फार्म में वे बच्चों के स्कूल चलाने में मदद कर चुके थे। उनका विश्वास दृढ़ हो चुका था कि स्कूलों में किताबी पढ़ाई पर आवश्यकता से अधिक जोर दिया जाता है और छात्रों के चरित्र-निर्माण एवं उन्हें हनर सिखाने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।.....बुनियादी शिक्षा की यह योजना वर्धा-योजना के नाम से प्रसिद्ध है और जिस समिति ने उसे तैयार किया था उसके अध्यक्ष भारत के प्रसिद्ध शिक्षा-शास्त्री डॉ. जाकिर हुसैन थे। बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य वर्धा योजना के आलोचकों के संदेह का निवारण करते हुए गांधी ने कहा-बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को कारीगर बनाना नहीं, बल्कि हस्त-कौशल और अनेक उपरकरणों के द्वारा शिक्षा देना है।
धी ने इसे श्रममूलक शिक्षा कहा था। शारीरिक श्रम के साथ उन्होंने बुद्धि के अन्य गुणों के विकास को नकारा नहीं। उनका कहना था 'उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पायी है, जिसके शरीर को ऐसी आदत डाली गयी है कि वह उसके वश में रहता है, जिसका शरीर चैन से और आसानी से सौंपा हुआ काम करता है। उस आदमी ने सच्ची शिक्षा पायी है, जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी है। बुनियादी शिक्षा का उद्देश्य दस्तकारी के माध्यम से बालकों को शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक विकास के साथ स्वावलम्बी बनाना है। बुनियादी शिक्षा के मुख्य सिद्धांत निम्न हैं. पूरी शिक्षा स्वावलम्बी होनी चाहिये। यानी, आखिर में पूँजी को छोड़कर अपना सारा खर्च
उसे खुद देना चाहिए। इसमें आखिरी दर्जे तक हाथ का परा-परा उपयोग किया जाय। यानि, विद्यार्थी अपने हाथों से कोई न कोई उद्योग-धंधा आखिरी दर्जे तक करें। सारी तालीम विद्यार्थियों की प्रान्तीय भाषा द्वारा दी जानी चाहिये। इसमें साम्प्रदायिक धार्मिक शिक्षा के लिए कोई जगह नहीं होगी। लेकिन बुनियादी नैतिक तालीम के लिए काफी गुंजाइश होगी। यह तालीम, फिर उसे बच्चे लें या बड़े, औरतें ले या मर्द, विद्यार्थियों के घरों में पहुंचेगी। चूँकि इस तालीम को पाने वाले लाखों-करोड़ों विद्यार्थी अपने आपको सारे हिन्दुस्तान के नागरिक समझेंगे, इसलिए उन्हें एक आंतर-प्रांतीय भाषा सीखनी होगी। सारे देश की यह एक भाषा नागरी या उर्दू में लिखी जानेवाली हिन्दुस्तानी ही हो सकती है। इसलिए विद्यार्थियों को दोनों लिपियां अच्छी तरह सीखनी होंगी।
206 / अँधेरे में उजाला