________________
करने वाली मैंने नहीं देखा। उसकी पवित्रता की छाप ही सदा के लिए मुझ पर बनी हई है।' इससे अंदाज लगा सकते है कि पुतलीबा का आंतरिक सौंदर्य कितना उन्नत था।
उच्च शिक्षा प्राप्ति हेतु विदेश जाने के प्रसंग पर मां का मन किशोर पुत्र को विलायत भेजने में संकुचाया। कहीं मेरा बेटा पवित्रता के राजमार्ग से भटक न जाये। बेचरजी स्वामी के परामर्श पर भेजने का निर्णय लिया। बेचरजी स्वामी मोढ़ बनियों में से बने एक जैन साधु थे। उन्होंने समाधान किया। मैं इस लड़के मोहन को तीन चीजों के व्रत दिला दूंगा फिर इसे जाने देने में कोई हानि नहीं होगी। मोहन गांधी विदेश में उच्च शिक्षा पाने हेतु किसी भी प्रतिज्ञा को स्वीकारने के लिए तैयार थे। प्रतिज्ञा लिवायी-'मांस, मंदिरा तथा स्त्री-संगम से दूर रहना। प्रतिज्ञावान पुत्र को माता ने सहर्ष जाने की अनुमति दी। इंग्लैंड प्रवास के प्रथम तीन वर्षों में उनकी सबसे जटिल समस्या थी माता से की हई प्रतिज्ञा को निभाना। पर व्रतों का फौलादी कवच एवं मन की दढता मांस. मदिरा और मायाविनी के प्रलोभनों से रक्षा करने में सफल रही। इस सफलता का सारा श्रेय माँ पुतलीबा को जाता है। गांधी को शाकाहार-अन्नाहार पर गुजर करते देखकर डॉक्टर मेहता ने उन्हें मांसाहार की आवश्यकता बताई। व्रतग्रहण का गांधी ने दृढ़ता से जिक्र किया। पर गांधी की दृढ़ता तथा उनके आहार के गुण दोषों का अध्ययन डॉ. मेहता के मांसाहार त्याग का निमित्त बन गया। साथ ही डॉ. मेहता ने पूर्ण निरामिष भोजन, खादी का परिधान, स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग और मात भाषा द्वारा शिक्षण में प्रचार-ये सभी गांधी मार्ग अपनाये। कालांतर में डॉ. मेहता ने अपनी आय का बड़ा हिस्सा गुजरात विद्यापीठ, आश्रम के मकान, गुरुकुल का मकान, राजकोट की राष्ट्रीय शाला आदि परमार्थ के कामों के लिए गांधी को दिया। इसका सारा श्रेय गांधी ने माता पुतलीबा के प्रतिज्ञा प्रदान शिक्षण को दिया।
इंग्लैंड में शाकाहार को अपनाये रखा और इसे प्रतिष्ठित करते हुए 'वेजीटेरियन' (शाकाहारी) पत्रिका में नौ लेख, लिखकर उन्होंने पत्रकारिता की दिशा में पहला कदम उठाया। वो लंदन की शाकाहारी संस्था की कार्यकारिणी के सदस्य बन गये। उन्होंने शाकाहारी क्लब की स्थापना की। आहार के जो प्रयोग प्रतिज्ञा, स्वास्थ्य और मितव्ययिता की दृष्टि से शुरू किये थे, वे आगे चलकर उनके धार्मिक और आध्यात्मिक विकास के पर्याय बन गये। शाकाहार के विषय में अंग्रेजी पुस्तकों के विचार बड़े प्रेरणादायी लगे। उन्होंने धार्मिक, वैज्ञानिक, व्यवहारिक दृष्टि से छानबीन की।
नैतिक दृष्टि से मनुष्य को पशु-पक्षियों पर जो प्रभुत्व प्राप्त हुआ है, वह उन्हें मारकर खाने के लिए नहीं बल्कि उनकी रक्षा के लिए है। अथवा जिस प्रकार मनुष्य एक-दूसरे का उपयोग करते हैं, पर एक-दूसरे को खाते नहीं, उसी प्रकार पशु-पक्षी भी उपयोग के लिए हैं खाने के लिए नहीं। खाना भोग के लिए नहीं जीने के लिए है अतः न केवल मांस का निषेध अपितु अंडों और दूध का त्याग भी सुझाया। स्वयं ने प्रयोग भी किया। विज्ञान की दृष्टि से और मानव शरीर रचनानुसार पक्वफल खाने के लिए ही मनुष्य शरीर बना है। वैद्यक दृष्टि से सादा सुपाच्य-बिना मिर्च-मसाले का आहार व व्यावहारिक आर्थिक दृष्टि से कम खर्चीला आहार अन्नाहार ही हो सकता है।' गांधी इस निर्णय पर पहुंचे की स्वाद का सच्चा स्थान जीभ नहीं पर मन है। मन से स्वीकृत यह व्रत उनके लिए माता द्वारा प्रदत्त अनमोल उपहार बन गया। _ 'आप में सब देवताओं को खुश करने की खूबी है। जिस लेख में आप वाइसराय के भाषण की तारीफ करते हैं, उसी में जयप्रकाश और समाजवादियों के लिए भी कुछ मीठी बात कर डालते
संस्कारों की मूल इकाई / 129