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को चाहता है मैं कहूँगा, उसको मेरे पास ले आओ मैं उसे देख लूँ। अपने माता-पिता को मैंने इसी से अपने वश में रखा था।' यह उनके समर्पण का सबूत है ।
अन्य संस्क
चलती-फिरती, फेरियोंवाली सिनेमा - चित्रावली से बालक मोहन के हृदय पर पितृभक्त श्रवण कुमार की अनोखी छाप छपी। इस घटना को पुस्तक में भी पढ़ा और जीवन में गढ़ा । इसका संवादी कथन उपलब्ध है। एक बार अपनी दिल्ली यात्रा में गांधी ने अपने पुत्र रामदास से कहा - 'बस, तुम मेरी ही सेवा में लगे रहो, इससे ही तुमको सब कुछ मिल जायेगा। तुमको मैंने बताया तो है ही कि मैंने सब कुछ पितृ-भक्ति और पितृ-सेवा से ही पाया है।.... बचपन में मैंने एक चित्र काँवर उठाकर चलने वाले श्रवण का देखा, मुझ पर उसका भारी प्रभाव पड़ा । .... ...माँ मुझ पैर दबवाती थीं और मेरे बापू तो मेरे बिना और किसी से सेवा नहीं लेते थे ।" पिता के आखिरी दिन तक सेवा का क्रम उत्तरोत्तर बढ़ता गया । ये सेवा के संस्कार भविष्य में समष्टि भाव को प्राप्त हुए ।
राजकोट में एक बार बालक मोहन ने सत्यवादी राजा 'हरिशचन्द्र' का नाटक देखा। सत्याचरण, सत्यनिष्ठा का गहरा प्रभाव उसके हृदय पर पड़ा । जीवन के अन्तिम क्षणों तक पत्थर में उत्कीर्ण आलेखवत् सत्य की छाप गांधी पर अंकित रही। कालांतर में गांधी ने अनुभव किया कि सत्य का मार्ग खांडे की धार के जैसा है पर वे कभी इससे च्युत न हुए। सत्य के संबंध में उनका अभिमत था 'सत्य एक विशाल वृक्ष है। उसकी ज्यों-ज्यों सेवा की जाती है त्यों-त्यों उसमें अनेक फल आते हुए दिखाई देते हैं । उनका अंत ही नहीं होता । ज्यों-ज्यों हम गहरे पैठते हैं, त्यों-त्यों उनमें से रत्न निकलते हैं सेवा के अवसर हाथ आते रहते हैं ।" बचपन में पड़ा सत्यबीज गांधी के जीवन में शतशाखी बनकर जीवन का ध्येय बना। अपनी आत्मकथा में लिखा- मैं पुजारी तो सत्यरूपी परमेश्वर का ही हूँ। वह एक ही सत्य है, और दूसरा सब मिथ्या है। यह सत्य मुझे मिला नहीं है, लेकिन मैं इसका शोधक हूं। इस शोध के लिए मैं अपनी प्रिय से प्रिय वस्तु का त्याग करने को तैयार हूँ और मुझे यह विश्वास है कि इस शोधरूपी यज्ञ में इस शरीर को होमने की मेरी तैयारी है और शक्ति है । लेकिन जब तक मैं इस सत्य का साक्षात्कार न कर लूँ, तब तक मेरी अन्तरात्मा जिसे सत्य समझती है उस काल्पनिक सत्य को अपना आधार मानकर, अपना दीपस्तम्भ समझकर, उसके सहारे अपना जीवन व्यतीत करता हूँ।" जाहिर है गांधी के भीतर सत्य के संस्कार कितने गहरे और विराट् थे ।
सहिष्णु कस्तूरबा
दांपत्य जीवन में अपनी अर्द्धांगिनी से मिली अहिंसा की प्रेरणा का जिक्र करते हुए गांधी ने जॉन एस. होईलैंड को बताया-पत्नी को अपनी इच्छा के आगे झुकाने की कोशिश में मैंने उनसे अहिंसा का पहला सबक सीखा। एक ओर तो वह मेरे विवेक हीन आदेशों का दृढ़ता से विरोध करतीं, दूसरी ओर मेरे अविचार से जो तकलीफ होती उसे चुपचाप सह लेती थीं। उनके इस आचरण से मुझे अपनेआप पर शर्म आने लगी और मैं इस मूर्खताभरे विचार से अपना पीछा छुड़ा सका कि पति होने के नाते मैं उन पर शासन करने के लिए जन्मा हूँ । इस तरह वह अहिंसा की शिक्षा देने वाली मेरी
132 / अँधेरे में उजाला