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कि उनकी मनुष्य मात्र में सजीव श्रद्धा हो। जब हम अहिंसा को अपना जीवन सिद्धांत बना लें तो वह हमारे संपूर्ण जीवन में व्याप्त होना चाहिए। यों कभी-कभी उसे पकड़ने और छोड़ने से लाभ नहीं हो सकता। अहिंसा की सतत् आराधना ही वांछित परिणाम लाती है। गांधी के समान आचार्य महाप्रज्ञ ने भी अहिंसा को मानव जीवन की आधारशिला माना है। उनके शब्दों में 'अहिंसा है तो जीवन है। यह नहीं है तो जीवन टिक नहीं पाता।' अहिंसा के संस्कार का अभाव ही इसके अस्तित्व को अपरिहार्य तत्त्व न स्वीकारने का मुख्य कारण है। अहिंसा का विचार जब तक संस्कार नहीं बनता तब तक व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के लिए अहिंसा वरदायी साबित नहीं हो सकती। पात्र कौन सिंहनी का दुग्ध स्वर्ण पात्र में ही ठहरता है अन्यत्र नहीं-यह विश्रुत जनोक्ति है। ऐसा ही नियम अहिंसा के साथ जुड़ा हुआ है। यह पात्र व्यक्ति में ही समाती है अपात्र में नहीं। प्रश्न उठता है अहिंसा का पात्र कौन? पात्र का तात्पर्य है जिसका हृदय पवित्र और निश्छल है, वहीं अहिंसा प्रकट होती है। 'अहिंसा हृदय का गुण है।' इस सूत्रात्मक विचार को स्पष्ट करते हुए गांधी ने बताया कि खाद्याखाद्य में ही अहिंसा की परिसमाप्ति नहीं होती। सूक्ष्म दृष्टि से इन वस्तुओं का ख्याल रखना स्तुत्य है। परन्तु जो अहिंसा परम धर्म है, वह इस अहिंसा से कहीं बढ़कर है। अहिंसा हृदय की उच्चतम भावना है। जब तक हमारा व्यवहार शुद्ध नहीं है, जब तक हम किसी को अपना दुश्मन समझते हैं तब तक यह कहना चाहिए कि हमने अहिंसा भाव का स्पर्श तक नहीं किया है। जिस हृदय में प्रेम-करुणा और मैत्री की धारा बहती है अहिंसा वहीं है। गांधी के मंतव्य को और अधिक परिपुष्ट करने वाले विचार आचार्य महाप्रज्ञ के प्रतीत होते हैं। उन्होंने कहा 'अनुत्तरं साम्यमुपैति योगी'योगी अनुत्तर साम्य को पाता है। जैन दर्शन की भाषा में अहिंसा और समता एक है। लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में जो सम रहे, वो ही अहिंसा की आराधना कर सकते हैं।'' अर्थात् समता का जीवन जीने वाला ही अहिंसा जैसी दिव्य शक्ति की उपासना कर सकता है। जिसमें समता का विकास नहीं हुआ है, उसमें अहिंसा प्रतिष्ठित नहीं हो सकती।
राष्ट्र निर्माण के स्वप्न में गांधी ने व्यक्ति की अहम् भूमिका स्वीकार की। उनकी दृष्टि में संपूर्ण निर्माण की आधारभूत इकाई व्यक्ति है। आदर्श व्यक्ति के बिना समाज, राष्ट्र और विश्वशांति की कल्पना कभी साकार नहीं हो सकती। व्यक्ति अथवा मानव के प्रति उनके उदात्त विचार थे गांधी ने दर्शन, अनुभव एवं इतिहास के आधार पर बताया कि मानव मूलतः अहिंसाप्रिय प्राणी है। अनुभव बताता है कि मानव काम, क्रोध, द्वेष आदि आवेगों से प्रभावित होकर हिंसक आचरण कर सकता है, किन्तु जैसे ही वह अपनी सहज अवस्था में लौटता है उसका अन्तःकरण तथा विवेक उसे अहिंसा को अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं। गांधी का कथन है-अहिंसा हमारी प्रजाति का शाश्वत नियम है, जबकि हिंसा पशुओं का नियम है। पशुओं में आत्मा आवृत्त रहती है और वे भौतिक शक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते हैं। व्यक्ति का सद्विवेक व्यक्ति को एक उच्च नियम-आत्मा के संघर्ष-को मानने के लिए बाध्य करता है। अहिंसा........एक ऐसा आदर्श है जिसकी ओर व्यक्ति प्राकृतिक रूप से बिना इच्छा किये ही, चलते हैं.......।
मानव समाज के विकास का इतिहास भी यह बताता है कि मानव की मूल प्रवृत्ति अहिंसा ही है। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण ही मानव ने नर भक्षण के दोष से मुक्ति पायी है; मांसाहार
अहिंसा की मूल इकाई : व्यक्ति / 189