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अविचल सिद्धांत
व्यक्ति जीवन में अहिंसा को अपनाता है इसकी प्रथम सीढ़ी है वह अपने नित्य जीवन में पारस्परिक व्यवहार में सत्य, नम्रता, सहिष्णुता, प्रेम, करुणा आदि गुणों को विकसित करे। अंग्रेजी में एक कहावत है कि प्रामाणिकता एक श्रेष्ठ व्यवहार नीति है । किन्तु अहिंसा की दृष्टि से यह केवल व्यवहार नी नहीं है । व्यवहार नीति शायद बदल भी जाए और बदलती ही है पर अहिंसा तो अविचल सिद्धांत है। जब इर्द-गिर्द हिंसा का दावानल प्रज्वलित हो रहा है । तब भी इसका पालन करना चाहिये । " सरल शब्दों में- 'चारों ओर, जिन्दगी के हर पहलू में न्याय हो, यह अहिंसा की पहली शर्त है। गांधी आम व्यक्ति को अहिंसा की जीवंत मूर्ति देखना चाहते थे । केवल व्यक्ति का बाह्य स्वरूप ही नहीं भीतर की चेतना भी अहिंसा की परिमल से सुगंधित हो ताकि इसका प्रभाव परिवेश को भी अनुप्राणित कर सके । 'मेरा अनुभव मुझे कहता है कि जहाँ तक आदमी के लिए सम्भव हो, उस हद तक सत्य और अहिंसा का पालन किये बिना, न तो व्यक्तियों को और न जातियों को ही शान्ति मिल सकती है ।' शांति के लिए भी अहिंसा का अनुपालन महत्त्वपूर्ण है ।
हिंसा के भाव व्यक्ति के भीतर तनाव और अशांति पैदा करते हैं । यह अध्यात्म जगत का अभ्युपगम है। आचार्य महाप्रज्ञ अहिंसा के मौलिक स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं -अहिंसा को बहुत स्थूल अर्थ में समझा जा रहा है, उसकी गहराई में जाने का प्रयत्न कम हो रहा है। हिंसा का प्रारंभिक बिन्दु किसी को मार डालना नहीं है और अहिंसा का प्रारंभिक बिन्दु किसी को न मारना ही नहीं है । हिंसा का प्रारंभ बिन्दु है - दूसरे जीव के अस्तित्व को न स्वीकारना, पदार्थ के अस्तित्व को भी न स्वीकारना । अहिंसा का प्रारंभिक बिन्दु है - छोटे-से-छोटे पदार्थ- परमाणु तक के अस्तित्व को स्वीकारना और उनके साथ छेड़छाड़ न करना । अपने अस्तित्व की भांति दूसरों के अस्तित्व का भी सम्मान करना।" यह आत्मौपम्य का सिद्धांत अहिंसा के विकास का महत्त्वपूर्ण सूत्र है । अस्तित्व के ध पर अभेदानुभूति अहिंसा है। इसे सरल शब्दों में प्रस्तुति मिली - 'आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है। आत्मा-आत्मा के बीच अभेदानुभूति है, वह अहिंसा है। यह अहिंसा का नैश्चयिक रूप है।
एक व्यक्ति किस हद तक हिंसक और अहिंसक हो सकता है। आन्तरिक स्थिति का चित्रांकन करते हुए महाप्रज्ञ ने सत्य का उद्घाटन किया । अहिंसा विशाल होती है। हिंसा सीमा से परे नहीं हो सकती । एक व्यक्ति क्रूर होकर भी 'सबका हिंसक बन जाए उतना क्रूर नहीं होता, उसकी हिंसा की भी एक निश्चित रेखा होती है । वह अपने राष्ट्र, समाज, जाति या कम-से-कम परिवार का शत्रु नहीं होता। वह हर क्षण क्रियात्मक हिंसा नहीं करता । व्यक्ति क्रोध करता है पर क्रोध ही करता रहे-ऐसा नहीं होता। हिंसा को सीमित किए बिना व्यक्ति जी नहीं सकता । यथार्थ के धरातल पर देखा जाये तो अहिंसा अनन्त आनन्द का सतत् प्रवाही स्रोत है, फिर भी मनुष्य का स्वभाव उसमें सहजतया नहीं रमता इसका कारण नियन्त्रण शक्ति का अभाव है ।
मन, वाणी और शरीर की निरंकुश - वृत्तियों का प्रतिरोध करने की आत्मशक्ति का जितना कम विकास होता है, उतना ही अधिक हिंसा का वेग बढ़ जाता है। हिंसा की मर्यादाएं कृत्रिम होती हैं । उनमें तड़क-भड़क और लुभावनापन भी होता है । अहिंसा में दिखावटीपन या बनावटीपन नहीं होता । वह आन्तरिक मर्यादा है । वह आती है, तभी व्यक्ति का व्यक्तित्व - जीवन की स्वतन्त्रता निखरती है । 2 ऐसा घटित होने से अहिंसा जीवन का अविचल सिद्धांत ही नहीं जीवन का पर्याय साबित होती है। अहिंसा सिद्धांत संबंधी दोनों मनीषियों के चिंतन में समानता और मौलिकता का संगम है।
194 / अँधेरे में उजाला