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जरूरी है। जीवन के साथ वही व्यक्ति मैत्री स्थापित कर सकता है जो जीवन प्रणाली को बदले। साथ ही करुणा, मैत्री और संवेदनशीलता का विकास करे। व्यक्ति अपने प्रति प्रतिदिन मंगल भावना करे-'शिवसंकल्पमस्तु में मनः।' यह चिंतन जीवन निर्माण के लिए सबसे शक्तिशाली चिन्तन है। व्यक्ति के मन में यह चिन्तन प्रबल बने-'मेत्ति मे सव्वभूएसु'-सब प्राणियों के प्रति मेरी मैत्री है। इससे बड़ा कोई मंगल कार्य हो नहीं सकता। अहिंसा शक्तिशाली बने, धर्म मंगल व कल्याणकारी बने, इसके लिए आध्यात्मिकता का विकास जरूरी है। ऐसा तभी संभव है जब व्यक्ति की अन्तर चेतना में अहिंसा प्रकट हो। यह अहिंसा विकास की महत्त्वपूर्ण शर्त है। अहिंसक : स्वरूप विमर्श संकल्प और पुरुषार्थ की युति जब व्यक्ति की चेतना से संपृक्त होकर सघन बन जाती है अहिंसा वहीं व्यक्ति का सौंदर्य बनकर निखरती है। अहिंसा का जीवंत पुजारी ‘अहिंसक' की अभिधा से सुशोभित होता है। मापदण्ड की पृष्ठभूमि में अनेक प्रश्न खड़े होते हैं। क्या अहिंसक व्यक्ति विशेष ही बन सकता है? क्या अहिंसा का पालन जीवन के किसी घटना प्रसंग में ही करणीय है? क्या संन्यासी ही अहिंसक बन सकता है अथवा कोई भी? क्या अहिंसक जीवन की प्रत्येक पहेली को अहिंसा से ही बुझाता है? इत्यादि जिज्ञासाओं का समाधान पाने के लिए मनीषी द्वय के विचारों का आलोडन जरूरी है।
प्रत्येक मानव के भीतर दिव्यता का उत्स विद्यमान रहता है। आत्मशक्ति के जागरण से उसका साक्षात् अनुभव किया जा सकता है। गांधी का दृढ़ विश्वास था कि 'एक पशु के रूप में मनुष्य हिंसापूर्ण है, किन्तु आत्मा की दृष्टि से अहिंसक है। जिस क्षण उसकी वह भीतरी आत्मा जाग पड़ती है वह नहीं बन सकता। व्यक्ति की अन्तर चेतना में छिपी प्रशस्त भावनाओं के आधार पर अहिंसक की कल्पना की न कि धर्म अथवा जाति विशेष के आधार पर। हिन्दू मात्र अहिंसक हो, कहा नहीं जा सकता। 'तमाम हिन्दू अहिंसक है? सवाल की जड़ में जाकर विचार करने पर मालूम होता है कि कोई भी अहिंसक नहीं है, क्योंकि जीव को तो हम मारते ही हैं। लेकिन इस हिंसा से हम छूटना चाहते हैं, इसलिए अहिंसक कहलाते हैं।
साधारण विचार करने से मालूम होता है कि बहुत से हिन्दू मांस खाने वाले हैं, इसलिए वे अहिंसक नहीं माने जा सकते। खींच-तानकर दूसरा अर्थ करना हो तो मुझे कुछ कहना नहीं है। अहिंसक का दर्जा महान् है। उसमें आत्मौपम्य की चेतना जाग जाती है। अहिंसक मनुष्य तो सदा आत्मनिरीक्षण ही करेगा और इस परम सत्य का पता लगा लेगा कि-'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत' हमें वही बरताव दूसरों के साथ करना चाहिये जो हम उनसे अपने प्रति कराना चाहते हैं। यही सर्वोत्तम मार्ग है। अगर वह स्वयं हत्यारा होता तो वह अपने पागलपन के लिए अपना वध कभी नहीं करवाना चाहेगा। वह तो यह चाहेगा कि उसे अपने को सुधारने का अवसर मिले। अहिंसक यह भी जानता है कि जिसे मैं बना नहीं सकता उसे मिटाना भी नहीं चाहिये। जिसके भीतर ऐसी चेतना जागृत हो जाती है वही सच्चा अहिंसक हो सकता है।
अहिंसावादी उपयोगितावाद का समर्थन नहीं कर सकता। वह तो 'सर्वभूतहिताय' यानि सबके लिए अधिकतम लाभ के लिए ही प्रयत्न करेगा और इस आदर्श की प्राप्ति में मर जायगा। इस प्रकार वह इसलिए मरना चाहेगा जिसमें दूसरे जी सकें। अहिंसक स्वतन्त्रतापूर्वक तभी जी सकता है, जबकि
अहिंसा की मूल इकाई : व्यक्ति । 197