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पूर्ववृत्त
अहिंसा का क्षेत्र असीम है। वह सार्वदिक् और सार्वत्रिक है। इस विराट् स्वरूपा अहिंसा पर जो चिंतन महात्मा गांधी और आचार्य महाप्रज्ञ ने व्यष्टि से समष्टि के आलोक में किया वह विशिष्ट है। विश्वसमाज के मानचित्र को आकार देने वाले विभिन्न पहलुओं को अहिंसक प्रस्तुति दी, वे ही तृतीय अध्याय का विमर्थ्य है। धर्म के क्षेत्र में अहिंसा की जो प्राचीन अवधारणा रही वह वैयक्तिक अधिक थी। आज का आदमी जागतिक भाषा में सोचता है किन्तु प्रश्न वहीं का वहीं स्थिर है। क्या अहिंसा के विकास के बिना सार्वभौम या जागतिक अहिंसा का विकास संभव है? विकास की यह यात्रा कहाँ से आरंभ करें? इसका एक समाधान खोजा गया व्यक्ति से। आदर्श व्यक्ति की कल्पना मनीषियों ने आहंसा का कसौटी पर की है। महात्मा गांधी ने अहिंसक
। जो चित्रण किया वह किसी साधक के स्वरूप से कम नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसक व्यक्तित्व निर्माण में हृदय परिवर्तन की प्रमुख भूमिका स्वीकार की है।
अहिंसक समाज की कल्पना व्यक्ति और व्यवस्था परिवर्तन पर घटित हो सकती है। गांधी ने एक स्वस्थ समाज की कल्पना की जिसका प्रत्येक सदस्य आत्म-सम्मान और इज्जत की जिंदगी जी सके। महाप्रज्ञ ने अहिंसक समाज की रचना नैतिक मूल्यों के विकास पर संभव बतलाई। दोनों मनीषियों की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में अहिंसा के विस्तार की संकल्पना महत्त्वपूर्ण है। गांधी ने भारतीय संदर्भ में आत्म-निर्भर आदर्श ग्राम स्वराज्य परक राष्ट्रव्यापी अहिंसा का सपना संजोया। वहीं लोकतंत्र के अहिंसक स्वरूप के विकास हेतु महाप्रज्ञ ने बताया कि इसके लिए दो दिशाओं से प्रस्थान करना जरूरी है। हिंसा और परिग्रह के प्रति जनता का दृष्टिकोण बदले, ऐसा प्रशिक्षण शिक्षा के साथ चले। लोकतंत्र का प्रशिक्षण सिद्धान्त के साथ अभ्यास और आचरण के द्वारा हो।
विश्व व्यवस्था के निर्माण में अनेक घटक काम करते हैं ये परस्पर सापेक्ष हैं। हमारा जीवन सापेक्षता के सिद्धांत से जुड़ा हुआ है। जीवन की सीमा में कोई भी निरपेक्ष नहीं है। व्यक्ति अकेला होते हुए भी वह परिवार, समाज और राष्ट्र सापेक्ष है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अंतर्राष्ट्रीय स्थिति सापेक्ष भी है। परिवार, समाज, राष्ट्र ये शक्ति के तंत्र हैं। ये समर्थ बनें इसके लिए जरूरी है अहिंसा के आदर्श का अनुशीलन। मनीषी द्वय की सोच इसी आदर्श से अनुप्राणित मानवता का पथ-प्रशस्त करने में समर्थ है।
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