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और दार्शनिक मंच से, सामाजिक और राजनैतिक मंच से, जो हिंसा का कोई विकल्प खोज सके । ऐसा करने से सारी मनुष्य जाति का भला हो सकेगा । किन्तु चुनना होगा व्यक्ति को ।
अहिंसा की बात कहाँ से शुरू करें? इस संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ कहते - ' व्यक्ति से शुरू करें । व्यक्ति स्वयं बदले, उसके संस्कार बदले, धारणा बदले, मान्यता बदले और यह धारणा पुष्ट बन जाए कि अहिंसा मेरा स्वभाव है। मुझे अहिंसा का जीवन जीना है, मेरी जीवन-शैली अहिंसा की होगी ।' विश्व शांति की मूल इकाई व्यक्ति है । शान्ति की चर्चा करते समय हमें युद्ध और शस्त्र की बात एक बार छोड़ देना चाहिए। सबसे पहले चर्चा शुरू करनी चाहिए व्यक्ति से । व्यक्ति में शांति है या नहीं? परिवार में शांति है या नहीं? राष्ट्र में शांति है या नहीं? सबसे पहले व्यक्ति फिर परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व का प्रश्न आता है । हम सीधे विश्वशांति के प्रश्न को छूते हैं और सब बातों को छोड़ देते हैं । इसे मूर्खता की बात न कहूँ किन्तु समझदारी की बात भी तो नहीं है और उसका परिणाम यह होगा कि विश्व शांति शायद कभी नहीं बनेगी। यह स्पष्ट संकेत है कि व्यक्ति की अहिंसक चेतना को जगाये बिना विश्व शांति का सपना कभी साकार नहीं हो
सकता ।
जिस व्यक्ति की चेतना में शांति का स्रोत बह रहा है उसके लिए अहिंसा प्रत्येक स्थिति में आदर्श बनी रहेगी। प्रत्येक सामाजिक प्राणी अहिंसा को पसंद करता है । इसलिए कि वह शांति को पसंद करता है। शांति के बिना सुख नहीं । अतः सुख के लिए शांति और शांति के लिए अहिंसा जरूरी है। शांति और अहिंसा का तादात्म्य संबंध । दोनों के अस्तित्व और विकास की कल्पना एक दूसरे के बिना अधूरी है।
अहिंसा का स्वरूप पवित्रता है, इसलिए वह व्यापक होने पर वैयक्तिक है । अहिंसा व्यक्ति की उन्मुक्त स्वतन्त्रता है । जो व्यक्ति उसको हृदय की पूर्ण स्वतन्त्रता से स्वीकार करता है वह परिस्थिति का सामना कर लेता है, किंतु अनैतिक आचरण नहीं करता या कर ही नहीं सकता। इसका हेतु है करुणा का विकास, आत्मौपम्य की भावना का विकास। जिसके भीतर करुणा का दरिया सूख जाता है, आत्मौपम्य की धारा टूट जाती है वह अहिंसा के मूल्य को भूल जाता है । ऐसा होने पर व्यक्ति हिंसक बन जाता है 1
प्रश्न है मनुष्य सबसे ज्यादा हिंस्र किस पर होता है। तथ्य बोलते हैं कि साधारण से साधारण और परम पुरुषार्थी व्यक्ति भी प्रायः सबसे ज्यादा हिंसा स्वयं एवं स्वजनों की करता है । अपनी आलोचना, प्रताड़ना और हीनता एवं दूसरी ओर अहंकार तथा स्व-केन्द्रिता स्वयं पर हिंसा नहीं तो क्या है? विवशता क्या सबसे बड़ी हिंसा नहीं है? अपनों से कठोर वाणी में बात करना, अनुशासन के नाम पर और मर्यादा की आड़ में मौलिकता छीनने वाले नियमों का पालन परिवार या कार्यालय में हिंसा नहीं तो और क्या है? स्वयं पर हिंसा करने वाला व्यक्ति ही परिवार तथा परिवार के पश्चात् सामाजिक हिंसा का स्रोत बनता है । केवल मार-काट करना ही हिंसा नहीं है अपितु ईर्ष्या, द्वेष, स्वार्थ, मनमुटाव, उदासीनता, बेईमानी, छल-कपट, परपीड़न, परिग्रह, दया- करुणा की कमी, परहित व परपोषण का अभाव भी दूसरे रूप में हिंसा के ही प्रारूप हैं जिनके व्यापक प्रभाव सामुदायिक चेतना पर दिखाई पड़ते हैं ।" ये वो कारक हैं जिनके चलते व्यक्ति अपने आप की हिंसा कर रहा है ।
व्यक्ति तनाव का जीवन जीता है। तनाव अपने आपमें हिंसा है। जितने भी नकारात्मक भाव पैदा होते हैं, वे सब हिंसा हैं, हिंसा के कारण हैं । चेतना में उठने वाली हिंसा की तरंगें ही बाहर
अहिंसा की मूल इकाई : व्यक्ति / 191