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में मग्न बालक 'नथमल' के मन में एक तरंग उठी और सहसा आँखों पर रूमाल बांधकर चलने लगा। दरवाजे के निकट पहुँचते-पहुँचते सिर भित्ति से टकराया और ठीक ललाट के मध्य भाग में चोट लगी। खून निकल आया । व्यस्त माहौल में किसी ने ध्यान नहीं दिया। जोर-जोर से रोते हुए बालक 'नथमल' अपनी माँ के पास पहुँचा । माता ने हाथ के कार्य को शीघ्र छोड़कर पुत्र के सिर पर उपचार पूर्वक पट्टी बाँधी और सहलाते हुए बोली- 'आज तेरा भाग्य खुल गया, चिंता मत कर, रो मत। सब ठीक हो जायेगा। माँ के मुख से निकला वात्सल्य भरा आशीर्वाद बालक के लिए अमिट वरदान बन गया । वरदान फलित हुआ कि बालक 'नथमल' मात्र साढ़े दस वर्ष की अल्पायु में प्रतिस्रोतगामी बन शाश्वत सत्य की खोज में जुट गया। जो उम्र आम बच्चे के लिए खेल-कूद, मोज-मस्ती की होती है उस समय बालक नथमल ने आद्य शंकराचार्य का स्मरण करवाते हुए नये इतिहास का सृजन किया । गृहत्यागी कठोर व्रतधारी संयमी साधना मार्ग में दीक्षित हो गया। माता बालू ने पुत्र के साथ संयम मार्ग को अंगीकार किया ।
दीक्षित के लिए गुरु दृष्टि की आराधना जीवन-निर्माण में योगभूत बनती है । समर्पित की संयम संपदा द्वीतिया के चाँद की कलावत् बढ़ती ही जाती है । गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण एवं कर्तव्य बोध की मौलिक शिक्षा साध्वी माता बालूजी अपने संन्यस्त बेटे बाल मुनि नथमल को यदा-कदा देती रहती थी। वे तीन बातों पर बल देती थी। 'गुरू के प्रति समर्पण, आचार-विचार में जागरूकता और अनुशासन एवं मर्यादा का सम्यक् पालन ।' माता की सत् प्रेरणा ने पुत्र के संयमी जीवन को आदर्शवान् बनाने में अनन्य भूमिका निभाई । आचार्य महाप्रज्ञ माता के इस उपकार को बड़े अहोभाव से कहते - गुरुदेव के प्रति समर्पित रहने में माता ने पूरा योग दिया। वे हमेशा यही कहती - 'गुरुदेव की दृष्टि को हमेशा ध्यान में रखना । गुरुदेव की दृष्टि के प्रतिकूल कभी कोई कार्य मत करना । हम पर आचार्य श्री का बहुत उपकार है। आपका निर्माण उनके हाथों हुआ है। उन्होंने आप पर बहुत श्रम किया है। उससे उऋण नहीं हुआ जा सकता। आपको सदा उनके प्रति कृतज्ञ रहना है। 54 माता की इस नेक सीख से मुनि 'नथमल' के आन्तरिक विनय समर्पण के संस्कार को सदैव पोषण मिलता रहा । इन संस्कारों की बदौलत ही एक सामान्य बुद्धि वाला मुनि महाप्रज्ञ की उच्च भूमिका पर आसीन हुआ ।
साध्वी माता बालू के प्रति महाप्रज्ञ के प्रोन्नत विचार निश्चिय रूप से सन्तान वर्ग के लिए मननीय है। उन्होंने मातुश्री के प्रति यहाँ तक कह दिया- 'मेरी माँ का मेरे पर बहुत बड़ा उपकार है। मेरी माँ वास्तव में माँ ही थी। ऐसा प्रबुद्ध मातृत्व किसी-किसी महिला में ही मिलता है ।' ऐसा ही कथन गांधी ने अपने माता-पिता के स्नेह के संबंध में कहा था । महापुरूषों की यह महानता होती है कि वे अपने माता-पिता के उपकार को कभी विस्मृत नहीं करते हैं। माता-पिता के ऋण से संतान का उऋण होना दुष्कर है। पर महाप्रज्ञ को इस विषय का आत्मतोष था कि वे अपनी माता के ऋण से मुक्त बन पाये। कैसे? का समाधान महाप्रज्ञ के शब्दों में मिलता है - माता का ऋण बहुत था। उनका मेरे निर्माण में बहुत बड़ा हाथ था । पूज्य कालूगणी - मेरे दीक्षा गुरु ने उन्हें साध्वी बनाकर मुझे ऋणमुक्त कर दिया। गुरुदेव श्री तुलसी ने सेवा का अवसर दिलाकर मुझे ऋणमुक्त कर दिया। माता और गुरु से संबंधित दो महत्त्वपूर्ण सूत्रों का जिक्र महाप्रज्ञ ने इसी प्रसंग में किया। मेरे जीवन के दो ही सूत्र थे
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मैं जो कुछ करूँ, उससे पहले सोचूँ कि इसका गुरुदेव के मन पर क्या असर होगा ?
मैं ऐसा कार्य न करूँ, जिससे साध्वी बालूजी के मन पर अन्यथा असर हो ।
158 / अँधेरे में उजाला