________________
अहिंसा की अखंड आराधना में निमग्न बनें। उनके प्रत्येक क्रिया-कर्म में 'खेमंकरी' की अनुगूंज थी । इसका मूल सेतु बना-महावीर का धर्म दर्शन । जीवन के बहुत प्रारंभ में ही बालक नथमल ने आत्मविकास के लिए जैन धर्म की कठोर संयम साधना स्वीकार की । संकल्प की पूर्णाहुति में महावीर की तत्त्व मीमांसा को आत्मसात् करने की प्रक्रिया में अनुभव किया अहिंसा और महावीर दो नहीं है । इस आस्था ने महाप्रज्ञ के भीतर नई चेतना का संचार किया। उसकी छाप महाप्रज्ञ की जीवन-शैली के प्रत्येक पहलू में देखी गई । विशेष रूप से वर्तमान की वैश्विक समस्याओं का समाधान उन्होंने अहिंसा की प्रतिष्ठा में खोजा ।
महावीर ने अपने समय में पनपने वाली विषमताओं का समाधान अहिंसा के आलोक में किया । अतः अहिंसा के अग्रदूत कहलाये । पुरुषोत्तम महावीर में लिखा- 'महावीर का अर्थ अहिंसा और अहिंसा का अर्थ महावीर हो गया। उनकी अहिंसा का आदि भाग था अभय, मध्य भाग था उपेक्षा और अन्तिम भाग था समता।' समता के महान प्रचेता भगवान् महावीर के जीवन की प्रत्येक धारा में 'अहिंसा' की ही गति थी । उन्होंने कुछ किया वह भी अहिंसा के लिए और नहीं किया वह भी अहिंसा के लिए। उनका आचार अहिंसा मूलक, विचार अनेकान्त - दृष्टिमूलक और भाषा स्याद्वादमूलक थी I वस्तुतः सभी अहिंसा मूलक थे। मानसिक अहिंसा के लिए अनेकान्त - दृष्टि और वाचिक अहिंसा के लिए स्याद्वाद उनकी गतिविधि के स्रोत थे । इनका विशेष प्रयोग आचार्य महाप्रज्ञ की साधना का अभिन्न अंग था ।
भगवान महावीर के प्राणवान् दर्शन की प्रासंगिकता वर्तमान के संदर्भ में स्वतः प्रमाणित है । चूँकि समता, अहिंसा, समानता और अपरिग्रह युग की मांग है। महावीर द्वारा दर्शित धर्म विशुद्ध रूपेण आध्यात्मिक है। उसका प्रारंभ बिन्दु है आत्मा का संज्ञान और चरम बिन्दु है आत्मौपलब्धि या आत्म साक्षात्कार। महाप्रज्ञ के भीतर आत्म साक्षात्कार की प्रेरणा प्रबल हुई । महावीर चेतना से उनका साक्षात्कार आकांक्षा पूर्ति की एक सबल कड़ी बना। इसका साक्षी है 'श्रमण महावीर' ग्रंथ
महाप्रज्ञ की कृति है । महावीर की प्राणवान् प्रेरणा का प्रभाव महाप्रज्ञ द्वारा संपादित विशाल आगमराशि से आंका जा सकता है। वीतराग वाणी की आधुनिक परिवेश में वैज्ञानिक संदर्भों के साथ प्रस्तुति उनकी स्थितप्रज्ञता का प्रमाण है ।
महावीर की प्रयोग धर्मा अहिंसक चेतना का प्रभाव महाप्रज्ञ पर सघन रूप से अंकित था इसकी पुष्टि महाप्रज्ञ के कथन से होती है- महावीर अहिंसा के कोरे व्याख्याकार नहीं थे । वे प्रयोगकार थे । उन्होंने अपने जीवन में अहिंसा के संभवतः सर्वाधिक प्रयोग किये । अहिंसा के प्रयोगों से अपना पराक्रम और शौर्य-वीर्य प्रदर्शित किया ।
हम सोचते हैं कि महावीर ने दीर्घकालीन तपस्याएँ की, शरीर को बहुत सताया। पर महावीर के लिए वह बहुत स्वाभाविक था । वह अहिंसा का पहला प्रयोग था । जो चेतना - केन्द्रित नहीं होता वह देह के प्रति अनासक्त नहीं हो सकता। जो देह के प्रति अनासक्त नहीं होता वह अहिंसक नहीं हो सकता । " व्यवहार के धरातल पर महावीर दर्शन का अनूठा रंग महाप्रज्ञ के मन-वचन-कर्म में समाया हुआ था। वे वीतराग गुणों की दिव्य मशाल को जन चेतना में प्रज्ज्वलित करने के लिए अहर्निश उद्यत रहे। इसकी छवि उनके सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक हृदय में अहिंसा की अभिनव स्फुलिंग पैदा करती थी। महावीर दर्शन का जीवंत भाव महाप्रज्ञ की समता दृष्टि, निर्मल चेतना व अहिंसा की अपूर्व उपासना में प्रतिबिम्बित था ।
174 / अँधेरे में उजाला