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की। इसकी पुष्टि उनके साहित्य से होती है। महाप्रज्ञ के व्यक्तित्व निर्माण में अतीन्द्रिय चेतना की अनन्य भूमिका रही है। इस अर्हता ने अन्तर्दृष्टि संपन्न बनाया। अन्तर्दृष्टि संपन्नता का कोई कारण पूछे तो बता पाना स्वयं महाप्रज्ञ के लिए कठिन था। अल्बर्ट आइंस्टीन से पूछा गया-आपने सापेक्षवाद का प्रणयन कैसे किया? आइंस्टीन ने कहा-'इट सो हेपेन्ड'-यह हो गया। कैसे हुआ, मैं नहीं कह सकता। महाप्रज्ञ के जीवन में कुछ ऐसी ही घटनाएँ घटित हुई जो उन्हें अन्तर्दृष्टि संपन्न सत्यापित करती है। उदाहरण स्वरूप दो-तीन प्रसंगों का उल्लेख प्रासंगिक होगा।
सन् 1978 में पारमार्थिक शिक्षण संस्था की मुमुक्षु बहनों का शिविर आयोजित हुआ। उस शिविर में महाप्रज्ञ ने ग्यारह चैतन्यकेन्द्रों की नई अभिधा निर्धारित कर प्रयोग करवाए। हठयोग में छह या सात चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान का प्रयोग करवाया जाता है। महाप्रज्ञ ने नये नामकरण के साथ उसमें पाँच चैतन्यकेन्द्र और जोड़ दिए। प्रेक्षाध्यान का एक नया रूप सामने आ गया। एक
की जिज्ञासा थी-चैतन्यकेन्द्रों का नामकरण किस आधार पर किया गया? महाप्रज्ञ ने कहा-'आधार के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। क्यों किया, इस बारे में भी कुछ नहीं कहा जा सकता। यह अनायास हुआ। अपने आप आभास हुआ कि मणिपुर चक्र को तैजसकेन्द्र कहना ज्यादा संगत है। इससे तैजस शरीर की अधिक संगति है। अनाहत चक्र के लिए आनंदकेन्द्र नाम अधिक उपयक्त है। यह संगति और उपयुक्तता बाद में सोची गई किन्तु नामकरण संगति या उपयुक्तता के आधार पर नहीं किया गया, बल्कि यह सहज और अन्तःस्फूर्तभाव से किया गया। कथन के आलोक में अन्तर्दृष्टि संपन्नता की पुष्टि होती है।
इसका संवादी एक और प्रसंग-जेन विश्व भारती के प्रांगण में होली पर्व का प्रसंग था। शिविर में संभागी साधकों के भीतर ऊहापोह जगा आज हम होली कैसे मनायेंगे? भावनाएँ महाप्रज्ञ के समक्ष रखी गई। साधकों की इस भावना से एक नये प्रयोग का सूत्रपात हो गया। विभिन्न चैतन्य केन्द्रों पर लाल, गुलाबी, हरा, नीला और श्वेत-इन पाँच रंगों का प्रयोग करवाया। आध्यात्मिक प्रेम और पवित्रता से सराबोर इन रंगों से प्रत्येक साधक का अन्तर्मानस रंगीन बन गया। ध्यान की समाप्ति पर साधक झूम उठे-यह रंगों का प्रयोग सर्वथा नवीन है। इस प्रयोग के सामने बाहरी और कृत्रिम रंग कुछ भी नहीं हैं। क्या यह प्रयोग आपने पहली बार करवाया है?
महाप्रज्ञ का उत्तर था-मैंने हाल में प्रवेश के पूर्व इस सन्दर्भ में कुछ भी नहीं सोचा था। एकाएक अन्तःप्रेरणा जगी और रंगों का ध्यान करवा दिया। कालान्तर में यही प्रयोग लेश्याध्यान के नाम से प्रतिष्ठित हुआ। जैन विश्व भारती में प्रेक्षाध्यान शिविर प्रसंग में महाप्रज्ञ ने चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा प्रयोग के मध्य चक्राकार चैतन्यकेन्द्र प्रेक्षा का प्रयोग करवाया। समस्त चैतन्य केन्द्रों की एक साथ यात्रा का प्रयोग प्रत्येक साधक को रोमांचित बना रहा था। प्रयोग की संपन्नता पर रहस्य खुला। प्रथम बार महाप्रज्ञ ने आन्तरिक स्फुरणा से अभिनव प्रयोग करवाया। निश्चित रूप से अन्तर्दृष्टि से निष्पन्न इन प्रयोगों से योग की परंपरा अधिक समृद्ध बनी है। ऐसे ही अन्य प्रयोग यथा-अन्तर्यात्रा, मंगलभावना, कायोत्सर्ग-प्रतिमा (जो विशेष रूप से समण श्रेणी के साधकों के लिए बनाई गई) आदि उनकी अंत चेतना के स्फुलिंग है। अन्तर्दृष्टि संपन्न महाप्रज्ञ ने न केवल स्वयं को आलोकित किया अपितु प्रयोगभूमि से गुजरने वाले लोगों को भी प्रकाशवान बनाया।
यह सच्चाई है कि महाप्रज्ञ की ज्ञान चेतना अन्तर्दृष्टि से प्रखर बनी। अनेक मौलिक तथ्यों का प्रतिपादन इसका प्रमाण है। आचारांग के सूत्रार्थ की गहरी पकड़ को देखकर गुरुदेव श्री तुलसी
176 / अँधेरे में उजाला