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मैं अपने प्रति, अपने हितों के प्रति सतत जागरूक था।' इस संकल्पना में बोलता है मुनि नथमल का जागृत विवेक जो सदैव साधना पथ को आलोकित करता रहा। संकल्प स्रष्टा ने आत्मसाक्षी से, अहोभाव पूर्वक स्वनिर्धारित सूत्रों का पालन कर विकास की मंजिलें तय की।
विभिन्न सूत्रों के साथ दैनिक जीवन में घटने वाली छोटी-छोटी बातों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। इस दिशा में जागरूक बनते हए मनि नथमल-आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने संकल्पों के बारे में लिखा है-मैं कोई प्रमाद न करूँ, कभी उलाहना न सुनें, अध्ययन में किसी से पीछे न रहूँ-इन छोटे-छोटे संकल्प सूत्रों ने मेरी चेतना के जागरण में योग दिया, ऐसा मैं अनुभव करता हैं। इस मंतव्य से यह स्पष्ट होता है कि महाप्रज्ञ की संकल्प शक्ति और जागरूकता ने उनके व्यक्तित्व को सजाया-संवारा एवं अप्रतिम बना दिया। यद्यपि महाप्रज्ञ द्वारा संकल्पित सूत्रों में कहीं-कहीं पुनरावर्तन भी दृष्टिगोचर होता है पर 'द्विबद्धं सुबद्धं स्यात्' की अपेक्षा से उन्हें यथारूप प्रस्तुत किया गया है।
सफलता की राह में अनुकूल योग की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। महाप्रज्ञ इस संदर्भ में सौभाग्यशाली रहे हैं। उनका प्रेरणास्पद जीवन-वृत्त जिन प्रेरक आदर्शों से विनिर्मित हुआ उन्हें जाने बिना महाप्रज्ञ को समझना अधूरा होगा। अपने जीवन की सफलता के कतिपय महत्त्वपूर्ण घटक की चर्चा ‘मेरे जीवन के रहस्य' कृति में महाप्रज्ञ ने की है
अनेकांत की दृष्टि : भाग्य मानूँ या नियति? सबसे पहली बात-मुझे जैन शासन मिला। जिनशासन का अर्थ है-अनेकांत का दृष्टिकोण। महाप्रज्ञ ने इसको जीया। इसकी पुष्टि कैलाशचंद्र शास्त्री
बिर विद्वान के कथन से होती है। महाप्रज्ञ का ग्रन्थ 'जैन दर्शन : मनन और मीमांसा' में- मुनि नथमलजी ने श्वेतांबर-दिगंबर परंपरा के बारे में जो लिखना था, वह लिख दिया, पर वह हमें अखरा नहीं, चुभा नहीं। जिस समन्वय की शैली से लिखा है, वह हमें बहुत अच्छा लगा। आचार्य महाप्रज्ञ ने माना है इस अनेकांत दृष्टि की बदौलत वे कहीं दलदल में नहीं फँसे। जिस व्यक्ति को अनेकांत की दृष्टि मिल जाए, अनेकांत की आँख से दुनिया को देखना शुरू करे तो बहुत-सारी समस्याओं का समाधान अपने आप हो जाता है। यह विकास एवं सफलता का राज है।
अनशासन: तेरापंथ धर्म संघ अनशासन और मर्यादा की धरा पर टिका है। इसमें आचार्य महाप्रज्ञ को दीक्षित होने का सौभाग्य मिला जो उनकी महानता का कारक बना। महानता के दो सूत्र हैं-स्वेच्छाकृत विनम्रता और आत्मानुशासन। ये सूत्र तेरापंथ की संस्कार घूटी में दिये जाते हैं। इन सूत्रों को उन्होंने आत्मसात् बनाया। महाप्रज्ञ का यह मानना था कि-इस विनम्रता ने हर क्षेत्र में मुझे आगे बढ़ाया। जो साधु बड़े थे, उनका सम्मान हृदय से हर-क्षण करता रहा। मैंने आत्मानुशासन का विकास किया।
गुरु अनुग्रह : जीवन पोथी में जिस संयम-निष्ठा, व्रत-त्याग निष्ठा की प्रतिष्ठा है वह आचार्य भिक्षु के जीवन वृत्त के सघन मनन की छाप है। महाप्रज्ञ उसे गुरुदेव (आचार्य श्री तुलसी) का अनुग्रह मानते थे। वे कहते जब भी प्रसंग आया, मुझे कहा- 'तुम यह पढ़ो। शायद आचार्य भिक्षु को पढ़ने का जितना मुझे अवसर दिया गया, मैं कह सकता हूँ-तेरापंथ के किसी भी पुराने या नए साधु को उतना पढ़ने का अवसर नहीं मिला। उनकी क्षमाशीलता, विनम्रता, सत्यनिष्ठा को समझने और वैसा ही जीने का प्रयत्न भी मैंने किया।'
नवीनता का आकर्षण : 'मैं केवल अपने अतीत का गीत गाने के लिए नहीं जन्मा हूँ।' सिद्धसेन दिवाकर के इस कथन ने महाप्रज्ञ को अत्यधिक प्रभावित किया। वे कहते-मैं शायद उस भाषा में
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