________________
मैंने आचार्य भिक्षु को तर्क की कसौटी पर कसा और उन्हें समझने का प्रयास किया। पहले श्रद्धा से समझा, बाद में तर्क से समझा। अब मैं आचार्य भिक्षु को प्रतिबिम्बों में समझ रहा हूँ प्रतिक्रियाओं से समझ रहा हूँ।” महाप्रज्ञ ने माना कि बचपन में माता से मिला भिक्षु श्रद्धा का उपहार तर्क की कसौटी पर अधिक पुष्ट बना । आचार्य भिक्षु के सिद्धान्तों की गहराई में अवगाहन से महाप्रज्ञ की अहिंसक चेतना अधिक प्रखर बनीं। आचार्य भिक्षु ने एक सूत्र दिया था - ' - 'बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों को मारना अहिंसा नहीं है। छोटे जीवों को मारकर बड़े जीवों का पोषण करना अहिंसा नहीं है। इस सूत्र ने मुझे बहुत आंदोलित किया ।' विशेषरूप से आचार्य भिक्षु की क्रांतवाणी से उनका मानस अत्यधिक प्रभावित बना। क्योंकि भिक्षु ने उस समय सत्य पक्ष को उजागर किया जब बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों के वध को पुण्य माना जाता था । अहिंसा के क्षेत्र में भी बल-प्रयोग मान्य था । पुण्य के लिए धर्म करना सम्मत था । अशुद्ध साधन के द्वारा शुद्ध साधन की प्राप्ति मानी जाती थी और दान मात्र को पुण्य माना जाता था । आचार्य भिक्षु ने इन मान्यताओं का अहिंसा के आलोक में खंडन किया। यह उनकी अहिंसक चेतना का पराक्रम था । आचार्य भिक्षु के इन मौलिक विचारों ने महाप्रज्ञ के हृदय में अभिनव प्रेरणा का संचार किया । अहिंसा पर कुछ विशेष विश्लेषण की चाह जगी ।
महाप्रज्ञ की दृष्टि में आचार्य भिक्षु अहिंसा के मर्मज्ञ थे । उन्होंने अहिंसा को गहरी सूक्ष्म दृष्टि से देखा और उसकी समीक्षा की । भिक्षु की अहिंसक समीक्षा ने महाप्रज्ञ को आधुनिक संदर्भ में कुछ लिखने के लिए प्रेरित किया । जिसकी निष्पत्ति है - भिक्षु विचार दर्शन । इसमें आचार्य भिक्षु के सिद्धांतों को आधुनिक प्रस्तुति दी - जीव-जीव का जीवन है - यह प्राणी की विवशता है पर अहिंसा नहीं । बहुसंख्यकों के हित के लिए अल्पसंख्यकों का अहित क्षम्य है, यह जनतन्त्र का सिद्धांत है पर अहिंसा नहीं । बड़ों के लिए छोटों का बलिदान क्षम्य है, यह राजतन्त्र की मान्यता है पर अहिंसा नहीं है। इन सिद्धान्तों से आत्मौपम्य या सर्वभूतात्मभूतवाद की रीढ़ टूटी है । विवशता, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक तथा छोटे और बड़े के प्रश्न सामाजिक क्षेत्र उठते हैं। अहिंसा का स्वरूप इन सभी प्रश्नों से मुक्त । इस मंतव्य ने महाप्रज्ञ के दिल पर गहरी छाप छोड़ी।
आचार्य भिक्षु द्वारा खींची गई हिंसा-अहिंसा की भेद रेखा - जीव जीता है, वह अहिंसा या दया नहीं है। कोई मरता है वह हिंसा नहीं है। मारने की प्रवृत्ति हिंसा है और मारने की प्रवृत्ति का संयम करना अहिंसा है। महाप्रज्ञ आचार्य भिक्षु के शुद्ध साध्य की सिद्धि के लिए शुद्ध साधन की अनिवार्यता के सिद्धांत से बहुत प्रभावित हुए । उनके अभिमत में इस सिद्धांत पर बल देने और तार्किक पद्धति से विश्लेषण करने वाले भारतीय मनीषियों में आचार्य भिक्षु और महात्मा गांधी का नाम अग्रणी है । इस विषय में महाप्रज्ञ ने दोनों मनीषियों के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन किया । प्रयोग पुरस्सर लेखनी का विषय भी बनाया।
आचार्य भिक्षु के सिद्धान्तों की गहराई में अवगाहन करते समय महाप्रज्ञ को अहिंसा संबंधी कुछ मौलिक तथ्य हृदयगंम हुए। आ. भिक्षु ने कहा भय, बल-प्रयोग और प्रलोभन से प्रतिक्रिया पैदा होती है। वह प्रतिक्रिया हिंसा को जन्म देती है । अतः हिंसा छुड़वाने के ये सारे साधन गलत है। ऐसे में प्रश्न उठा हिंसा क्यों छुड़ाएँ ? क्यों नहीं छुड़ाएँ ? छुड़ाना है तो कैसे छुड़ाएँ? हिंसा से आदमी को कैसे बचाएँ ? आचार्य भिक्षु ने सूत्र दिया - अहिंसा का शुद्ध साधन है हृदय परिवर्तन । हिंसा करने वाले का हृदय बदले । हिंसक का चैतन्य जागे तभी अहिंसा होगी । अहिंसा का और कोई भी उपाय नहीं है । एक मात्र उपाय है - हृदय परिवर्तन । हिंसक का हृदय बदलने से ही अहिंसा सिद्ध होगी।
172 / अँधेरे में उजाला