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आचार्य भिक्षु के इन मन्तव्यों ने महाप्रज्ञ की चेतना को झकझोरा। उनके सिद्धान्तों की गहराई में पैठने का भाव प्रबल बना। भिक्षु का अहिंसामृत शास्त्रों के विलोडन और प्रतिभा के प्रस्फोटन से निकला था। पर तात्कालिक परिस्थितियों के संदर्भ में अहिंसा का सिंहनाद भिक्षु के अहिंसा-प्रचेता का द्योतक है। वे मन, वाणी कर्म से अहिंसा के प्रतिस्रोत मार्गानुगामी बनें। महाप्रज्ञ भिक्षु के इस प्रसाद से अधिक आश्वस्त बनें और तेरापथ के मौलिक सिद्धांतों का उन्होंने तलस्पर्शी ज्ञान ही नहीं किया अपितु अहिंसा के आलोक में आधुनिक प्रस्तुति भी दी। महाप्रज्ञ की शब्दात्मक प्रस्तुति में आचार्य भिक्षु ने एक आध्यात्मिक प्रासाद का निर्माण किया। जिसकी चार भूमिकाएँ हैं
1. आचार और विचार की पवित्रता। 2. अहं और मम का विसर्जन। 3. अनुशासन।
4. विकास। आचार्य भिक्षु के जीवन दर्शन और तत्वविशलेषण की गहरी छाप महाप्रज्ञ की सोच और साधना में प्रतिबिम्बित बनीं। उनके दर्शन को जीने का संकल्प लिया और अहिंसा के क्षेत्र में विकास की ऊँचाइयों को छूआ। जिसकी सबल अभिव्यक्ति महाप्रज्ञ के जीवन व्यवहार के प्रत्येक संदर्भ में संपृक्त थी। गांधी साहित्य का प्रभाव महाप्रज्ञ की गतिशील दार्शनिक लेखनी को बदलने की प्रेरणा तब मिली जब राष्ट्र पिता महात्मा गांधी का साहित्य उनके हाथ लगा। उनका साहित्य प्रेम धर्म एवं सम्प्रदाय की सीमाओं से मुक्त-ऐतिहासिक, सम-सामायिक, दार्शनिक, राजनैतिक विचारों को पढ़ने और उसके मौलिकता की थाह लेने में कभी कुंठित नहीं हुआ। अपितु अध्ययन का अनन्य अंग बना। इसकी बदौलत महाप्रज्ञ की सृजन चेतना को नव आयाम मिला। जिसका एक घटक है गांधी साहित्य। इस साहित्य ने उनकी चिंतनधारा को मात्र अभिप्रेरित ही नहीं किया उसकी दिशा बदलने में भी अहं भूमिका निभाई।
महाप्रज्ञ के शब्दों में-'गांधी साहित्य से मुझे जैन धर्म को आधुनिक संदर्भ में पढ़ने की प्रेरणा मिली।' इस प्रेरणा का प्रभाव रचनाओं में स्पष्ट परिलक्षित हुआ। उदाहरण के तौर पर ‘आँखें खोले' पुस्तक के पांच अध्यायों में एक अध्याय है-जातिवाद। आचार्य तुलसी ने उसे देखकर कहा-'यह पुस्तक बाहर आएगी तो समाज में बहुत चर्चा होगी। अभी इसे रहने दो।' फिर दो क्षण के चिंतन के बाद कहा-'यह तो वास्तविकता है। जैन धर्म में जातिवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। फिर चर्चा से क्यों डरना चाहिए?' पुस्तक प्रकाशित हुई। ऊहापोह के बावजूद यथार्थ की प्रस्तुति से लेखक को आत्मतोष हुआ। इतना ही नहीं प्रेरणा का स्थायित्व इस कदर हुआ कि सदा-सदा के लिए लेखन की दिशा बदल गयी।।
आचार्य महाप्रज्ञ ने यह भी लिखा-'गांधी साहित्य के माध्यम से मैंने रस्किन और टॉलस्टॉय को पढ़ा तो मुझे और अधिक व्यापक संदर्भ में चिंतन करने का अवसर मिला।75 गांधी के साहित्य में रस्किन और टॉलस्टॉय के बारे में पढ़ा तब महाप्रज्ञ के भीतर इन पाश्चात्य दार्शनिकों को पढ़ने की चाह जगी और स्वतंत्र रूप से इनके साहित्य को पढ़ा। साहित्य जनित प्रेरणा महाप्रज्ञ की रचना धर्मिता का आधार पाकर मुखर हो उठी। उसकी झलक उनके विशाल साहित्य सृजन में गम्य है। महावीर दर्शन की अमिट छाप भगवान महावीर का शासन (जैन धर्म) मुमुक्षुओं के लिए त्राण-शरण एवं द्वीप भूत है। लाखों में इससे प्रेरणा पाकर सत्य का साक्षात्कार किया है। उसी श्रृंखला में आचार्य महाप्रज्ञ अद्वैत की भूमिका पर
सजनात्मक कड़ियाँ बनाम आस्था । 173