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निर्मात्री भी होती है, यह साबित कर दिखाया । महाप्रज्ञ ने अध्यात्म की जिन ऊँचाइयों को छूआ उसका मूल श्रेय माँ बालू को है । महाप्रज्ञ के शब्दों में- 'मैं अपने जीवन निर्माण में संस्कारदात्री माता के योग को बहुत मूल्यवान मानता हूँ।' यह स्वीकृत सच है कि संतान के संस्कार निर्माण में माता का विशिष्ट योगदान होता है । वह संतान में वांछित संस्कार बीजों का वपन कर सकती है। माता बालू ने मन-वचन-कर्म से बालक 'नथमल' के अवचेतन मन में कुछ ऐसे अलोकिक अध्यात्मिक संस्कार प्रक्षिप्त कियें जिनका स्पष्ट प्रभाव महाप्रज्ञ के जीवन दर्शन में प्रतिबिम्बित था ।
माता बालू धार्मिक संस्कारों से भिगी हुई कुशल गृहणी थी । नियति ने उसकी परीक्षा की - पति की अकस्मात मृत्यु हो गयी । मानों परिस्थितियों का पहाड़ टूट पड़ा। पति का वियोग, पुत्री का ससुराल में कष्टपूर्ण जीवन, छोटी पुत्री कुंवारी, पुत्र छोटा, पारिवारिक दबाव। इस सारी स्थितियों को उसने बड़े धैर्य और साहस के साथ झेला। अपना संतुलन कभी नहीं खोया । पारिवारिक जिम्मेदारियों का वहन करते हुए गृहकार्य से निवृत्त होने पर अपना सारा समय धर्माराधना में बिताती । ब्रह्ममुहूर्त में नियमित जल्दी 3-4 बजे उठकर सामायिक - स्वाध्याय, आत्म चिंतन किया करती थीं। माता के इस आध्यात्मिक अनुष्ठान का असर शिशु के बाल मानस में समाता गया। सोये हुए बालक में संस्कार संप्रेषण की यह अद्भुत कला सफल हुई। सुप्त, अर्ध जागृत और जागृत अवस्था में माता से मिलें ये अध्यात्मिक संस्कार बालक 'नथमल' के जीवन की अनमोल धरोहर बन गये। इसकी पुष्टि महाप्रज्ञ के कथन से होती है- 'माता ने मुझे अध्यात्म के संस्कार दिये । बचपन की बात मुझे याद है, जब रात्रि के पिछले प्रहर में गाती थीं- 'संत भीखणजी रो समरण कीजै ।' चौबीसी - आराधना के बोल उनके द्वारा मेरे भीतर जमते गए।" माता के प्रति अहोभाव भरे बोल, कृतज्ञता से उपरत महाप्रज्ञ सात्त्विक गर्व के साथ कहते - 'मेरे निर्माण में मेरी माँ साध्वी बालूजी का बहुत बड़ा हाथ था।' एक बार महाप्रज्ञ का तार्किक मन जिज्ञासु बनकर उनसे ( माता - साध्वी बालूजी) पूछ बैठा - 'बचपन में मुझे क्या संस्कार दिये थे?' समाहित करते हुए साध्वी बालूजी ने बताया
प्रतिदिन साधु दर्शन की प्रेरणा देती थी, साधु-दर्शन के बिना कलेवा (नाश्ता) नहीं देती थी । सत्य बोलने पर बल देती थी ।
जाप करना सिखाती थी ।
सुनकर महाप्रज्ञ का हृदय बोल उठा इन्हीं संस्कारों के कारण मैं श्रद्धाशील बन गया। बालूजी का विवेक बहुत प्रखर था । उनकी विवेकशक्ति ने मुझे सदा स्वस्थ बनाए रखा। मेरे आहार-विहार का वे बहुत ध्यान रखती थी । स्पष्टीकरण में लिखा- 'मैं एक छोटे से गाँव में जन्मा । वहाँ विकास के साधन बहुत सीमित थे। माँ की विवेक चेतना विकसित थी । वह सदा ध्यान रखती कि कब खाना चाहिए? क्या और कितना खाना चाहिए? किस समय खेलना चाहिए? 52 इस मंतव्य में मातृ जगत् के उतरदायित्व एवं संतान के कृत्कृत्य भाव की युति है जो माता-पुत्र दोनों के चैतसिक वैशिष्ट्य का निदर्शन करती है ।
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पिता का साया बहुत पहले ही उठ चुका था पर प्रबुद्ध मातृत्व ने बालक 'नथमल' को उसकी कभी कमी न खलने दी। माता ने अपने दोहरे दायित्व का वहन बड़ी कुशलता से किया । पुत्र का पालन-पोषण, वात्सल्य और कर्तव्य भाव के साथ प्यार-दुलार से किया । पुष्टि में एक घटना प्रसंग का उल्लेख औचित्य पूर्ण होगा
घर-आँगन में अपनी दूसरी बहिन की शादी थी। खुशी और उमंग का माहौल था। बाल लीला
अमूल्य बोध पाठ / 157