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इन दो सूत्रों ने ही मुझे समय-समय पर आगे बढ़ने में योग दिया है। निश्चित रूप से गुरु एवं माता के प्रति सम्मान में बने इस लक्ष्य ने महाप्रज्ञ के लिए विकास का अनूठा द्वार उद्घाटित किया । माता बालू की विवेक संपन्नता की छाप महाप्रज्ञ के हृदय में ताउम्र अँकित रही । तथ्य को प्रस्तुति मिली - 'विवेक चेतना का विकास निसर्ग से होता है । साध्वी श्री बालूजी साक्षर थीं। पढ़ाई की कोई उपाधि उनके पास नहीं थी पर विवेक चेतना बहुत विकसित थी । उसी के आधार पर वे हिताहित का संज्ञान करती थीं । गृहस्थ का जीवन विवेक के साथ जीया। पति का वियोग हो जाने पर एक पुत्र और दो पुत्रियों का पालन-पोषण समझदारी के साथ किया । संयम का जीवन विवेक के साथ जीया। मैं प्रणत हूँ उस विवेक चेतना के प्रति ।' महाप्रज्ञ की जागृत प्रज्ञा का मूल आधार माता बालू का विवेक है । जिसने सदैव हितशिक्षा के द्वारा अपने पुत्र का पथ प्रशस्त किया ।
महाप्रज्ञ को जन्म देने वाली मणिधर माता साध्वी बालूजी के संदर्भ में आचार्य तुलसी ने कहा - 'साध्वी बालूजी की सब से बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने हमें एक ऐसे बालक को दिया है, जो अपनी प्रज्ञा और प्रतिभा से धर्म शासन की अच्छी सेवा कर रहा है। मुनि नथमल ( महाप्रज्ञ ) सचमुच भाग्यशाली हैं, जो अपनी माता के ऋण से मुक्त हो गये ।' ये विचार आचार्य तुलसी ने साध्वी बालूजी के समाधिमय जीवन यात्रा की परिसम्पन्नता पर कहे थे।
महाप्रज्ञ के जीवन में जो वैशिष्ट्य था - व्यवस्थित दिनचर्या, पुष्कल मेधा, संकल्प की दृढ़ता, अंतर्दृष्टि जागरण इत्यादि । इन महनीयता के नियामक तत्त्वों का मूल उत्स माँ बालू के जीवनवृत में स्पष्ट परिलक्षित होता है । इसका पुख्ता प्रमाण है साध्वी बालूजी के संबंध में की गई महाप्रज्ञ की टिप्पणी - श्रद्धा का अर्थ क्या है? इसका बोध कराती थी उनकी जीवन चर्या । पुस्तकीय ज्ञान के अभाव में भी कितना जागृत होता है अन्तर्ज्ञान, अंतर्दृष्टि-इसका उदाहरण था उनका निर्मल मस्तिष्क । संकल्पशक्ति और संयम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । यह प्रमाणित कर रहा था उनका समग्र जीवन ।
मेरी माँ साध्वी बालूजी ने विशेषता का जीवन जीया । वह प्रेरक बना रहेगा। इस कथन में औपचारिकता से उपरत एक सच्चाई का निदर्शन है । महाप्रज्ञ ने स्वीकारा है- 'उनका जीवन मेरे लिए एक आलोक रश्मि रहा। वे सदा गंभीर चिन्तन करतीं । छिछलापन उन्हें कभी पसंद नहीं था।' यह महाप्रज्ञ के चिंतन-मंथन मौलिक विशेषता भी रही है ।
विदेह माता का सुखद साया पुत्र पर बरकरार रहा । इसकी अनुभूति महाप्रज्ञ जी को यदाकदा होती भी थी । व्यवहार जगत में उनके शब्दों से प्रतीति की जा सकती है। महाप्रज्ञ ने लिखा है - विकास के अनेक कार्य उनके स्वर्गवास के बाद प्रारंभ हुए हैं । उनमें मातुश्री की परोक्ष साक्षी या सान्निध्य नहीं है, यह मैं नहीं मानता। अध्यात्म साधना केन्द्र, दिल्ली में घटित घटना आज भी मेरे लिए आश्चर्यपूर्ण प्रश्न बनी हुई है । मेरी माँ का जीवन मेरे लिए प्रेरक रहा है, रहेगा।
रहस्यविद् लोग कहते हैं - आपको अपनी माता का सान्निध्य मिला हुआ है । वे आती हैं आप उन्हें पहचान पाते हैं या नहीं यह पता नहीं । वे मेरे लिए अज्ञात नहीं हैं इसलिए साक्षात् है ।" कथन इस बात का सबूत है कि जननी जगत की अमिट प्रेरणाएँ प्रत्यक्ष रूप से तो होती ही है, पर परोक्ष रूप से भी हो सकती है।
माता बालू का अपार वात्सल्य, अनवरत जागरूक व्यवहार, संघ और संघपति के प्रति सर्वात्मना समर्पण की जीवन्त प्रेरणा ने अबोध बालक को सुबोध बनाया । विशेष रूप
संस्कार घूँटी के बतौर
अमूल्य बोध पाठ / 159