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अकारण ही हंस पड़ते। पूज्य कालूगणीराज ने इस अकारण हास्य वृत्ति पर नियंत्रण करने के लिए मनोवैज्ञानिक नुस्खा अपनाते हुए एक श्लोक सिखाया
'बाल सखित्वमकारण हास्यं, स्त्रीषु विवादमसज्जनसेवा।
गर्दभयानमसंस्कृतवाणी, षट्सु नरो लघुतामुपयाति॥'' अर्थात् छोटे बच्चों को मित्र बनाना, बिना प्रयोजन हंसना, स्त्रियों के साथ विवाद करना, दुर्जन आदमी से संपर्क रखना, गधे की सवारी करना, असभ्य भाषा बोलना-ये बातें आदमी को लघु बनाती है। इस जादुई प्रशिक्षण पूर्वक अनुशासनात्मक कारवाई से बाल मुनि 'नथमल' के भीतर अकारण हास्य की वृत्ति पर विराम लग गया।
___निर्मेय की प्रत्येक क्रिया पर सूक्ष्म नजर रखना निर्माता के कौशल का द्योतक है। प्रसंग था सुंदर हस्तलिपि का। आज से सात दशक पूर्व सुन्दर हस्तलिपि का मूल्य मात्र ज्ञान सुरक्षा के लिए था पर वर्तमान में हस्तलिपि व्यक्तित्व अंकन का पेरामीटर भी है। अक्षर विन्यास कला के आधार पर संपूर्ण व्यक्तित्व का विश्लेषण किया जाता है। कालूगणी ने सभी बाल-संतों को सुन्दर हस्तलिपि के लिए प्रेरित किया। एकदा सभी बाल-संतों की हस्तलिपि देखी। महाप्रज्ञ के समवयस्क एवं सहपाठी साधुओं की लिपि सुन्दर और सुघड़ थी। बाल मनि 'नथमल' की हस्तलिपि को देखा, मस्कुराए, लेकिन कहा कुछ भी नहीं। पास में बैठे मंत्री मुनि मगनलाल जी ने टिप्पणी की-'नाथूजी के अक्षर तो छत पर सुखाने जैसे हैं।' उस समय छत पर उपले (गोबर के पोठे) सुखाये जाते थे, अक्षर भी वैसे ही टेढ़े-मेढ़े थे। इस घटना प्रसंग से बाल मुनि 'नथमल' का बौद्धिक तंत्र आंदोलित ही नहीं हुआ, संकल्पित बन गया। प्रयत्न शुरू हुआ-मैं किसी से पीछे नहीं रहूँगा। पुरुषार्थ का दीप प्रज्वलित हो उठा। कुछ वर्ष बाद पाली में 'पार्श्वनाथ स्तोत्र' की प्रतिलिपि की। पूज्य कालूगणी उसे देख प्रसन्नचित्त बोले-अब तुम्हारी लिपि ठीक हो गयी है। गुरू के श्रीमुख से यह सुनकर किशोर मुनि का मन विश्वस्त हो गया। इस तरह बालमुनि के भीतर छिपी क्षमताओं को सकारात्मक प्रोत्साहन मिलने से विकास का मार्ग प्रशस्त बनता गया।
व्यस्त दिनचर्या में अवकाश के स्वल्प क्षणों का नियोजन पूज्य कालूगणी बाल संतों के व्यक्तित्व निर्माण में करते। उनका सुनहला स्वप्न था भावी पीढ़ी का उत्तम निर्माण। फुर्सत के क्षणों में वे बाल मुनियों को अपने पास बिठाकर उनसे विविध प्रकार के प्रश्न पूछते, तत्त्व समझाते, दोहा-सोरठा आदि भी सिखलाते। एकदा एक दोहा बाल मुनियों को कंठस्थ करवाया
हर डर गुर डर गाम उर, डर करणी में सार। तलसी डरे सो ऊबरै, गाफिल खावै मार।।60
अर्थात् भगवान से डरो, गुरु से डरो, गांव से डरो। भय निकम्मा नहीं है। भय में बहुत सार है। जो डरता है, वह बच जाता है। जो नहीं डरता है, वह मार खाता है।
___ गोस्वामी तुलसीदासजी के नाम से अनभिज्ञ मुनि ‘नथमल' एवं साथी मुनि 'बुद्धमल्ल' ने अपने तरीके से अर्थ निकाला-अध्यापक मुनि तुलसी से जो डरता है, वह अपना उद्धार करता है। इस दोहे को सीखने के पश्चात् दोनों मुनि अध्यापक मुनि तुलसीरामजी से ज्यादा डरने लगे। पूज्य कालूगणी द्वारा सहजभाव से सिखाये इस दोहे ने मुनि 'नथमल' के भीतर रचनात्मक भय रच डाला। परिणामतः
162 / अँधेरे में उजाला