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'बुतो! शाबाश है तुमको, तरक्की इसको कहते हैं,
अगर न तराशे तो पत्थर थे, तराशे तो खुदा ठहरे।' देवयोग से निर्माता के अनुशासन कौशल में किस कदर महाप्रज्ञ की महा प्रतिभा का प्रस्फुटन हुआ, वर्णनातीत है। एतद् विषयक प्रस्तुति स्वयं महाप्रज्ञ भी शब्दातीत अनुभव करते। उनका यह मानना था-'निर्माण का फौलादी संकल्प मुनि तुलसी का था। कोई नियति का योग ही था कि एक ऐसा व्यक्ति हाथ में आ गया, जो गाँव में जन्मा हुआ, प्रकृति से सरल, जिसने कभी विद्यालय का दरवाजा नहीं देखा और जो अंतरिक्ष का जल ही पीता रहा। कितना कठिन था ऐसे अबोध बालक की प्रतिभा का निर्माण। ज्ञात-अज्ञात प्रेरणा से एक संकल्प बन गया कि यह कार्य भले ही कठिन है, फिर भी मुझे (तुलसी) करना है। कार्य प्रारंभ हो गया। कठिनाइयों के बावजूद निर्माण के हाथ अपनी छेनी चलाते रहे। आखिर एक दिन निर्माण कौशल जनता के समक्ष साकार हो गया। एक अबोध बालक को प्रबुद्धता के उच्चासन पर आसीन कर देना क्या विश्व का महान् आश्चर्य नहीं है।' इस आश्चर्य की पृष्ठभूमि में मुखर है-सर्वात्मना समर्पण। महाप्रज्ञ की सफलता का यही राज था। आचार्य महाप्रज्ञ कहा करते-'मैं मानता हूँ, मेरे जीवन की सफलता का एक सूत्र था-मैंने मुनि तुलसी और आचार्य तुलसी को गुरु रूप में स्वीकार किया। मैं वैसा कोई भी काम नहीं करूँगा? जिससे मुनि तुलसी और आचार्य तुलसी अप्रसन्न हों। इस सूत्र ने मुझे बार-बार उबारा और मेरा पथ प्रशस्त किया।'62
सर्वात्मना समर्पण की राहों में उठने वाले मनोद्वेग को मुनि नथमल अप्रभावी करते हुए लक्ष्य भेदी साधना में सतत् गतिमान बनें रहे। महाप्रज्ञ ने अखंड समर्पण को साधा और फिर से गीता के स्थितप्रज्ञ की याद दिलवायी। यह उनकी भावी भवितव्यता का महासेतु बन गया।
प्रशिक्षण के प्रारंभिक दिनों में प्रतिदिन दशवैकालिक सूत्र (जैन आगम) की दो-तीन गाथाएं बड़ी मुश्किल से कंठस्थ करने वाले बाल मुनि 'नथमल' के बारे में कोई कल्पना नहीं कर सकता कि इनमें क्षमताओं का अजस्र प्रवाह विद्यमान है? कुछ ही दिनों में विद्या गुरु तुलसी के प्रयत्न से यह संख्या 30-40 गाथाओं तक पहुँच गयी। समझ की अपरिपक्व स्थिति में मुनि ‘नथमल' अध्यापक मुनि तुलसी के समक्ष विचित्र प्रश्न खड़ा कर देते। 'कालू कौमुदी' (संस्कृत व्याकरण ग्रंथ) की साधनिका में स्वराँत पुलिंग का 'जिन' एक शब्द है। उसकी प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय का योग करने पर 'जिन' रूप बनता है। यह बात मुनि 'नथमल' के समझ में नहीं आई। प्रश्न कर डाला-'जिन' शब्द के साथ 'सि' प्रत्यय ही क्यों जोड़ा जाए? 'ति' क्यो नहीं जोड़ सकते? ऐसा बेहुदा तर्क सनकर मनि तलसी बोल उठे-'क्या तम भी कभी समझ पाओगे?' मानो प्रशिक्षक के प्रतिप्रश्न ने मुनि 'नथमल' के भीतरी समझ में सिहरन पैदा कर दी। परिणामतः बौद्धिक समझ के साथ ही मानसिक समझ का द्वार खुल गया। यह एकमात्र श्रेष्ठ गुरू के संयोग का वरदान था।
अपने निर्माण से बेखबर मुनि 'नथमल' ने पूर्ण निश्चितता का जीवन जीया। इसकी पुष्टि उनके शब्दों में देखी जा सकती है- 'मैंने कभी अपने जीवन में चिन्ता नहीं की। मुझे क्या करना है, क्या खाना है, कहाँ रहना है, कहाँ सोना है, इन सबकी मैंने कभी कोई चिन्ता नहीं की। जब चिंता करने वाला कोई दूसरा है तो मैं चिन्ता क्यों करूँ?' समर्पण के इस अलभ्य उदाहरण ने एकलव्य की स्मृति फिर से करवाई। अखंड समर्पण की धुरा पर चेतना पर आये आवरण को हटना पड़ा। मेधा का
164 / अँधेरे में उजाला