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'ध्यायते
विषयान्पुसःसंगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते । क्रोधाद् भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृति विभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥ '
इस श्लोक का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा। उनकी भनक मेरे कान में गूँजती ही रही । उस समय मुझे लगा कि भगवद्गीता अमूल्य ग्रंथ है। यह मान्यता धीरे-धीरे बढ़ती गयी और आज तत्त्वज्ञान के लिए मैं उसे सर्वोत्तम ग्रन्थ मानता हूँ । निराशा के समय में इस ग्रंथ ने मेरी अमूल्य सहायता की है ।" प्रकट रूप से बहुमूल्य संस्कार अंर्जित किये। उन्होंने यह स्वीकारा कि गीता अध्ययन से पहले अहिंसा धर्म को बहुत थोड़ा जानते, जीव दया की स्फुरणा नहीं थी । इसके पहले मैं देश में मांसाहार कर चुका था। मैं मानता था कि सर्पादिक का नाश करना धर्म है। मुझे याद है एक बिच्छू को भी मैंने मारा था। उस समय उनका मानना था कि हमें अंग्रेजों के साथ लड़ने की तैयारी करना है । दक्षिण अफ्रीका में गीता का अभ्यास स्वयं द्वारा स्थापित 'जिज्ञासु मण्डल' के साथ शुरू किया। इसी मंडल में स्वामी विवेकानन्द को, राजयोग को, पातंजल योगदर्शन का पठन-पाठन भी चला। इस समय गीता को गहराई से मनन करने का अवसर मिला । केवल मनन ही नहीं किया, गीता के तेरह अध्याय तक कण्ठस्थ किये। ऐसा उल्लेख आत्मकथा में किया है। जोहान्सबर्ग में कोम की सेवा के संकल्प के साथ ही गीता को नये सिरे से पढ़ने पर अन्तर्दृष्टि बढ़ने लगी । इस तथ्य को बखूबी प्रस्तुति दी—उसके अपरिग्रह; 'समभाव' इत्यादि शब्दों ने तो मुझे जैसे पकड़ ही लिया। यही नह थी कि समभाव कैसे प्राप्त करूं । कैसे उसका पालन करूँ? हमारा अपमान करने वाला अधिकारी, रिश्वतखोर, चलते रास्ते विरोध करने वाले, कल जिनका साथ था, ऐसे साथी, उनमें और उन सज्जनों में जिन्होंने हम पर भारी उपकार किया है, क्या कोई भेद नहीं है? अपरिग्रह का पालन किस तरह संभव है? क्या यह हमारी देह ही हमारे लिए कम परिग्रह है ? स्त्री पुरुष आदि यदि परिग्रह नहीं है तो फिर क्या है ? गांधी के भीतर विचारों का नया दौर शुरू हो गया । वे गीता के प्रत्येक निर्देश पर आचरण करने की पूरी-पूरी कोशिश करने लगे ।
गांधी ने अपने लिए गीता की भूमिका का उल्लेख किया- ' गीता मेरे लिए दुनिया के अन्यान्य धर्मग्रंथों की चाबी जैसी बन गयी है । वह मेरे लिए उन ग्रंथों में पाये जाने वाले गहनतम रहस्यों को खोल देती है।' इससे यह अंदाजा किया जा सकता है कि उन्होंने गीता को कितनी सूक्ष्मता से पढ़ा होगा। विभिन्न जिज्ञासाओं का समाधान उसमें खोजा था। बड़ा जटिल प्रश्न है मनुष्य कर्म के बन्धन से अर्थात् पाप के दोष से मुक्त कैसे हो सकता है ? गीता ने इस प्रश्न का उत्तर निश्चित भाषा में दिया है : 'निष्काम कर्म से' कर्मफल का त्याग करके । सब कर्मों को ईश्वरार्पण करने से अर्थात् अपने आपको शरीर और आत्मा के साथ ईश्वर को अर्पण कर देने से। यह गांधी के लिए केवल शब्दपाठ ही न रहा अपितु वोध पाठ बन गया। इसी निष्काम कर्म के आधार पर उन्होंने शारीरिक श्रम को भी महत्त्व दिया ।
एक व्यक्ति का प्रश्न था - 'बापू क्या आप श्रम की महत्ता पर अनावश्यक जोर नहीं दे रहे हैं ?" वापू का उत्तर था - 'बिल्कुल नहीं। काम को जितना महत्त्व दिया जाए, कम है। मैं तो केवल भगवद्गीता की ही शिक्षा दे रहा हूँ । भगवान् ने कहा, 'अगर मैं एक पल भी बिना सोए, सदा काम
138 / अँधेरे में उजाला