________________
वर्ष की उम्र में उनको बम्बई की एक सार्वजनिक सभा में डॉ. पिटर्सन की अध्यक्षता में शतावधान के प्रयोग पर 'सुवर्णचन्द्रक' प्रदान किया और साक्षात् सरस्वती की उपाधि से सम्मानित किया गया।
बंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सर चार्ल्स सारजन्ट द्वारा यूरोप में जाकर अपनी शक्तियां दिखाने का अनुरोध भी श्रीमद् रायचंदजी ने अस्वीकृत कर दिया, उनकी निस्पृहता का यह भाव सघन बना, आत्मोन्नति में ऐसी प्रवृत्ति बाधक और सन्मार्ग रोधक जानकर बीस वर्ष की उम्र के पश्चात् उन्होंने अवधान प्रयोग कभी नहीं किये।
16 वर्ष की उम्र में 'मोक्षमाला' मात्र तीन दिन में लिख डाली। यह उनकी प्रबुद्धता का परिचायक है। श्रीमद् जी जाति के ओसवाल तथा जैन धर्म के मानने वाले, शादीशुदा पारिवारिक सह जवाहरात के व्यापारी थे। यह उनका ऊपरी परिचय है।
महात्मा गांधी श्रीमद् रायचंद के प्रति मंत्र मुग्ध हो गये। वे जिस शक्ति से प्रभावित हुए उसका उल्लेख किया-मैं कितने ही वर्षों से भारत में धार्मिक पुरुषों की शोध में हूँ। परन्तु मैंने ऐसा धार्मिक पुरुष अब तक नहीं देखा। यूरोप के तत्त्वज्ञानियों में मैं टॉल्स्टॉय को पहली श्रेणी का और रस्किन को दूसरी श्रेणी का विद्वान समझता हूं और इन दोनों के जीवन से भी मैंने बहुत कुछ सीखा है, पर श्रीमद् रायचन्द भाई का अनुभव इन दोनों से भी बढ़ाचढ़ा है। वे किसी बाड़ेबंदी के पुरुष नहीं हैं। उनका हृदय विशाल और उदार है।” प्रकटतः गांधी के दिल में श्रीमद्जी का महत्त्वपूर्ण स्थान था। उन्होंने स्वीकारा रायचन्दभाई ने अपने गाढ़ परिचय से मेरे हृदय में स्थान बनाया है। जब मुझे हिन्दूधर्म में शंका पैदा हुई उस समय उसके निवारण करने में मदद करने वाले रायचन्द भाई थे।
गांधी को अपनी ओर खींचने वाला श्रीमद् रायचन्द में जो कुछ था, वह था- 'उनका व्यापक शास्त्रज्ञान, उनका शुद्ध चारित्र और आत्मदर्शन करने का उनका उत्कट उत्साह। बाद में मुझे (गांधी को) पता चला कि वे आत्मदर्शन के लिए ही अपना जीवन बिता रहे थे।
हसतां रमतां प्रकट हरि देखें रे, मारुं जीव्युं सफल तब लेखु रे, मुक्तानन्दनो नाथ विहारी रे, मुक्तानन्दनो नाथ विहारी रे,
ओधा जीवन दोरी हमारी रे, अर्थात् जब हंसते-खेलते हर काम में मुझे हरि के दर्शन हों तभी मैं अपने जीवन को सफल मानूंगा। मुक्तानन्द कहते हैं, मेरे स्वामी तो भगवान हैं और वे ही मेरे जीवन की जेर हैं। मुक्तानन्द का यह वचन उनकी जीभ पर तो था ही, पर वह उनके हृदय में भी अंकित था।' उन्होंने उनमें कुछ और भी पाया, उसको अपनी आत्मकथा में विस्तार से लिखा-वे स्वयं हजारों का व्यापार करते, हीरे-मोती की परख करते. व्यापार की समस्यायें सलझाते. पर यह सब उनका विषय न था। उनका विषय-उनका पुरुषार्थ तो था आत्म-परिचय-हरिदर्शन। उनकी गद्दी पर दूसरी कोई चीज हो चाहे न हो पर कोई-न-कोई धर्म पुस्तक और डायरी तो अवश्य रहती थी। व्यापार की बात समाप्त होते ही धर्म पुस्तक खुलती अथवा उनकी डायरी खुलती थी।....जो मनुष्य लाखों के लेन-देन की बात करके तुरंत ही आत्म-ज्ञान की गूढ़ बातें लिखने बैठ जायें, उसकी जाति व्यापारी की नहीं, बल्कि शुद्ध ज्ञानी की है। उनका ऐसा अनुभव मुझे एक बार नहीं, कई बार हुआ था। मैंने कभी उन्हें मूर्छा
आध्यात्मिक-नैतिक बोध पाठ / 145