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की स्थिति में नहीं पाया। मेरे साथ उनका कोई स्वार्थ नहीं था । मैं उनके बहुत निकट सम्पर्क में रहा हूँ। उस समय मैं एक भिखारी बारिस्टर था। पर जब भी मैं उनकी दुकान पर पहुंचता, वे मेरे साथ धर्म-चर्चा के सिवा दूसरी कोई बात ही न करते थे ।
रायचन्द भाई की धर्म- चर्चा मैं रुचिपूर्वक सुनता था । उसके बाद मैं अनेक धर्माचार्यों के सम्पर्क में आया हूं। मैंने हर एक धर्म के आचार्यों से मिलने का प्रयत्न किया है । पर मुझ पर जो छाप रायचन्द भाई ने डाली, वैसी दूसरा कोई न डाल सका। उनके बहुतेरे वचन मेरे हृदय में सीधे उतर जाते थे। मैं उनकी बुद्धि का सम्मान करता था । उनकी प्रामाणिकता के लिए मेरे मन में उतना ही आदर था। इसलिए मैं जानता था कि वे मुझे जान-बूझकर गलत रास्ते नहीं ले जायेंगे और जो उनके मन में होगा वही कहेंगे । इस कारण अपने आध्यात्मिक संकट के समय मैं उनका अपने हृदय में स्थान दे सका। ये उद्गार उनकी आत्मतृप्ति और सत्यानुभूति के साक्षी हैं। प्रश्न उठता है क्या श्रीमद्जी का जीवन-व्यवहार इतना उन्नत था, जिसे राष्ट्र पिता अपनी आस्था - अहोभाव समर्पित कर सके? उनके संपर्क में आने वालों का यह अनुभव रहा कि वे जवाहरात के व्यापारी भले ही थे पर उनका लक्ष्य आत्मा की ओर अधिक था ।
श्रीमद्जी के भागीदार श्री माणेकलाल धेलाभाई ने लिखा- 'व्यापार में अनेक प्रकार की कठिनाइयां आती थीं, उनके सामने श्रीमद्जी एक अडोल पर्वत के समान टिके रहते थे। मैंने उन्हें जड़ वस्तुओं की चिंता से चिंतातुर नहीं देखा । वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे ।' ऐसी ही अनेक विशेषतायें उनके जीवन का उपहार बनीं। उनके करुणापूरित व्यवहार में अहिंसा की अनुगूँज थी। इसका एक उदाहरण ही पर्याप्त होगा की कर्मक्षेत्र धर्मक्षेत्र कैसे बन सकता है? एक बार एक व्यापारी के साथ श्रीमद्जी ने हीरों का सौदा किया कि अमुक समय में निश्चित किये हुए भाव से वह व्यापारी श्रीमद्जी को अमुक हीरे दे । उस विषय का दस्तावेज़ भी हो गया । परंतु हुआ ऐसा कि मुद्दत के समय भाव बहुत बढ़ गये । श्रीमद् जी खुद उस व्यापारी के यहाँ जा पहुँचे और उसे चिंतामग्न देखकर वह दस्तावेज लेकर फाड़ डाला और बोले - 'भाई, इस चिट्ठी (दस्तावेज) के कारण तुम्हारे हाथ-पाँव बंधे हु थे बाजार भाव बढ़ जाने से मेरे साठ-सत्तर हजार रुपये लेने निकलते हैं, परन्तु मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूँ। इतने अधिक रूपये मैं तुमसे ले लूँ तो तुम्हारी क्या दशा हो ? रायचन्द्र दूध पी सकता है, खून नहीं ।" यह देख व्यापारी स्तब्ध रह गया। उसके पास कृतज्ञ भाव प्रकट करने के लिए शब्द ही न रहे। यह उदाहरण उनके आंतरिक सौदर्य का प्रतीक कहा जा सकता है।
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महात्मा गांधी ने लिखा- 'मैंने किसी को गुरु तो नहीं बनाया लेकिन मुझ पर अहिंसा का सबसे अधिक प्रभाव श्रीमद् रायचन्द का पड़ा है । वे आध्यात्मिक साधक थे । वे गृहस्थ थे । गृहस्थ जीवन में भी उनकी साधना इतनी उच्च थी कि कई साधु भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाते। बड़े योगी, तपस्वी साधक थे।' गांधी पर उनके वैराग्य की जो छवि अंकित थी उसका अंदाजा इस कथन से लगाया जा सकता है - जो वैराग्य ( अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे?) इस काव्य की कड़ियों में झलक रहा है वह मैंने उनके दो वर्ष के गाढ़ परिचय में प्रतिक्षण उनमें देखा है। उनके लेखों में एक असाधारणता यह है कि उन्होंने जो अनुभव किया वही लिखा है । उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं । दूसरे पर प्रभाव डालने के लिए एक पंक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नहीं देखा ।.... खाते, बैठते, सोते, प्रत्येक क्रिया करते उनमें वैराग्य तो होता ही । किसी समय इस जगत् के किसी भी वैभव में उन्हें मोह हुआ हो ऐसा मैंने नहीं देखा । ....व्यवहार कुशलता और धर्मपरायणता का जितना उत्तम मेल मैंने
146 / अँधेरे में उजाला