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संस्कारों की मूल इकाई
'आनेवाली पीढियां शायद मुश्किल से ही विश्वास कर सकेंगी कि गांधी जी जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी इस धरती पर हुआ होगा।' अल्बर्ट आइंस्टीन के कथन में विराट् शक्ति का इंगित है, जो आधिदैविक सत्ता का प्रतिनिधित्व करती है। उसका मानव होना और कालातिक्रांत समय की गति के साथ मानव रूप में स्वीकारना कठिन होगा। पर गांधी भारत के इतिहास की बहुत बड़ी उपलब्धि है। अतिमानवीय चेतना के धनी गांधी का निर्माण जिन फौलादी सत्-संस्कारों से हुआ वे कब, कहां
और कैसे संघटित हुए, विहंगावलोकन अपेक्षित है। गतिशील व्यक्तित्व के निर्मापक कारकों का विमर्श महत्वपूर्ण है। माँ पुतलीबा गांधी का जीवन उनके शब्दों से बड़ा था, उनका आचरण विचारों से महान् और जीवन प्रक्रिया तर्क से अधिक सृजनात्मक थी। ऐसे महामानव को 2 अक्टूबर,1869 (वि.सं. 1925 की भाद्रपद कृष्णा द्वादशी) पोरबन्दर-सुदामा पुरी में जन्म देने का सौभाग्य माता पुतलीबा को मिला। माता केवल जन्मदात्री ही नहीं संस्कार प्रदात्री थी। गांधी ने अनेक बार इस तथ्य को अभिव्यक्ति दी-'मुझ में जो भी अच्छाई है वह सब मेरी माँ की बदौलत है।' मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि शिशु में संस्कारों का बीजवपन माँ
पेट में ही आरंभ हो जाता है। वहीं पर बच्चे के नाजक बालमन की गहराइयों में कछ इच्छाएँ पैठ जाती हैं। भविष्य में ये इच्छाएँ ही उसे तदनुरूप कर्म करने के लए उद्यत करती है। स्टीम इंजन के बॉयलर के प्रेशर की तरह ये इच्छाएं निरंतर एक दबाव बनाये रखती है और आदमी को संचालित करती है। गांधी के जीवन में झांकें तो माँ पुतलीबा की जीवनगत विशेषताएँ-श्रद्धा, भक्ति, सेवा, तपस्या- उपवास-सादगी के संस्कार ही उनमें प्रतिबिम्बित पायेंगे।
व्रतपरायण माता एकादशी, चातुर्मास, चन्द्रायण आदि के व्रत दृढ़ता पूर्वक करती थी। चातुर्मास में एक बार उन्होंने हर तीसरे दिन उपवास का व्रत लिया। लगातार दो-तीन उपवास उनके लिए मामूली बात थी। इस तथ्य की प्रस्तुति गांधी ने दी-मेरी माता के आन्तरिक जीवन का प्रतिघोष उनकी तपश्चर्या में पड़ता था। मुझ में कुछ पवित्रता देखते हो तो वह मेरे पिता की नहीं है, मेरी माता की है। मेरी माता का चालीस वर्ष की आयु में अवसान हुआ था, इसलिए मैंने उनकी भरी जवानी देखी है। किन्तु कभी भी उन्हें उच्छृखल या टीपटाप वाली अथवा कुछ भी शौक या आडंबर
128 / अँधेरे में उजाला