________________
है। अहिंसा के विचारकों, विद्वानों और साधकों ने इसे अपनी सोच और साधना से प्राणवान बनाया है। इसी कारण शब्द से अर्थात्मा की यात्रा में अनेक पहलू समाविष्ट हैं।
सृष्टि का प्रत्येक प्राणी जीना चाहता है, मरना नहीं। सुख चाहता है दुःख नहीं। न चाहने पर भी प्राणी दुःखी क्यों होता है? सुखी कैसे बन सकता है? ऐसी जिज्ञासा इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् महावीर के समक्ष रखी। प्रश्न था-'भगवान्! जीवों के सात वेदनीय कर्म का बंध कैसे होता है?' 'प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की अनुकंपा करने से, दुःख न देने से, शोक नहीं उपजाने से, खेद उत्पन्न नहीं करने से, वेदना न देने से, न मारने से परिताप न देने से जीव सातवेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं। 154 प्राणी जगत् में व्याप्त सुख की चाह अहिंसा की आधारभित्ति है। सुख पाने के लिए हिंसात्मक प्रवृत्तियों से उपरत होने से ही सुख का मार्ग प्रशस्त होगा। ___अहिंसा का आचरण क्यों किया जाये? समाधान होगा-समान चेतनानुभूति का आस्थान। गीता की भाषा में इसलिए अहिंसा प्रतिष्ठित होनी चाहिये क्योंकि सभी प्राणियों में एक ही परब्रह्म परमेश्वर समान रूप से व्याप्त है। अतः परमात्मा की श्रेष्ठतम भक्ति यही होगी-सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् प्रेम रखा जाये अर्थात् सबके प्रति अहिंसा का बर्ताव किया जाये। गीता में स्थान-स्थान पर इसे बहुत महत्त्व मिला है। जिसका संवादी कथन है-'हे अर्जुन! योगी तो वही सर्वश्रेष्ठ माना जाता है जो चाहे तो दुःख में चाहे सुख में सर्वत्र ऐसी दृष्टि रखता हो मानो दूसरा व्यक्ति जो भी सुख या दुख भोग रहा है, वह कोई दूसरा नहीं, बल्कि वह स्वयं ही भोग रहा है।'155 जैन दर्शन एवं गीता के आत्मौपम्य एवं समस्त प्राणियों में परमात्मा/आत्मदर्शन की उदात्त भावना को अपेक्षातः अहिंसा की आधारशिला कहा जा सकता है।
जिस दिन मनुष्य समाज के रूप में संगठित रहने लगा, आपसी सहयोग, विनिमय व व्यवस्था के अनुरूप जीवन बिताने लगा, तब उसे सहिष्णु बनने की आवश्यकता हुई। दूसरे मनुष्य को न मारने, न सताने और कष्ट न देने की वृत्ति बनी। जिसे अहिंसा के व्यवहारिक आधार की संज्ञा दी गयी। महाप्रज्ञ के शब्दों में-प्रारंभ में अपने-अपने परिवार के मनुष्य को न मारने की वृत्ति रही होगी। फिर क्रमशः अपने पड़ौसी को, अपने ग्रामवासी को, अपने राष्ट्रवासी को होते-होते किसी भी मनुष्य को न मारने की चेतना बन गई। मनुष्य के बाद अपने उपयोगी जानवरों व पक्षियों को भी न मारने की वृत्ति बन गई।... दूसरी ओर उसका विकास हुआ-समाज-निरपेक्ष भूमिका एवं आत्म-विकास की भित्ति पर। उसका लक्ष्य था देह मुक्ति। इसलिए वह प्राणी मात्र को न मारने की मर्यादा से भी आगे बढ़ी। सूक्ष्म विचारणा में अविरति और क्रिया के सिद्धांत तक पहुंच गई।'56 अहिंसा की यह भावना सामाजिक जीवन के साथ-साथ ही प्रारंभ हुई और उपयोगिता के साथ विकसित होती गई। एक बिंदु पर उपयोगिता की बात भी छूट गई और देह मुक्ति का परम लक्ष्य प्रमुख बन गया।
अहिंसा का लक्ष्य अहिंसा विराट् लक्ष्य के साथ गतिशील बनी। जिसका विचार समाज की भूमिका से ऊपर शरीर को एक बाजू रखकर केवल आत्म-स्वरूप की भित्ति पर हुआ है, प्रकट रूप से उसका लक्ष्य आत्म शुद्धि या देह-मुक्ति ही है। इस संदर्भ में अहिंसा का लक्ष्य आत्म-शोधन-देह-मुक्ति कहा जा सकता है। चूँकि मोक्ष का स्वरूप विदेह है, आत्यन्तिक निवृत्ति, शरीर से भी निवृत्ति। इसकी सिद्धि में एक सीमा तक प्रवृत्ति मान्य है किंतु वही जो संयममय हो। अहिंसा संबंधी सामाजिक दृष्टिकोण इस बिंदु पर
76 / अँधेरे में उजाला