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वापस आने पर जब गांधी ने भारतीयों को पस्त अभिमान, भूख, क्लेश और पतन से पीड़ित पाया तो भीतर तक चेतना झंकृत हो उठी। उन्होंने अपने वतन के मुक्ति कार्य को एक चुनौती और सुयोग समझकर तत्काल हाथ में लिया । साधिक तीन दशक ( 32 वर्ष) की कठोर अहिंसक साधना के जरिये प्रतिस्रोत में चलकर देश के सामर्थ्य और गौरव के अनुरूप नेतृत्व प्रदान कर मंजिल को पाया। आंतरिक और बाह्य संघर्ष के बावजूद आजादी का अचूक हथियार अहिंसा को ही बनाये रखना गांधी की अदम्य आत्मशक्ति का प्रतीक है, जिसकी झलक इन पंक्तियों में अंकित है - 'अंग्रेज चाहते हैं कि हम अपने संघर्ष को मशीनगनों के स्तर पर लायें । परन्तु उनके पास शस्त्र हैं, हमारे पास नहीं है । उनके हिसाब से हम उन्हें तभी हरा सकते हैं, जब हम ऐसे स्तर पर बने रहें, जहाँ हमारे पास हथियार हों और उनके पास न हों ।' यह मनोवैज्ञानिक तथ्य था जिसका हार्द पाना गांधी की संवेदनशील चेतना एवं पारदर्शी मेधा का विषय बना ।
तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि गांधी का अहिंसा के क्षेत्र में अपूर्व योगदान है । उनकी अहिंसा साधना व्यक्तिगत आस्था से आरंभ हुई और भारत की आजादी के सफल प्रयोग से निष्पन्न हुई। इतना ही नहीं, इससे आगे अहिंसा की अनुगूँज विश्व क्षितिज पर उन्हीं की बदौलत प्रश्रित हुई। भारत को एक बार फिर से अहिंसा का देश कहलाने का गौरव मिला ।
महात्मा गांधी का अहिंसा में योगदान / 91