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हैं। मैंने बार-बार इस बात को कहा है कि अहिंसा को संकुचित अर्थों में न लें। उसके व्यापक स्वरूप को देखने और समझने का प्रयत्न करें। मानवोचित कर्म अहिंसा है, जिससे स्वयं का और दूसरों का कल्याण हों, ऐसा हर कार्य अहिंसा है।204 इस प्रस्तुति के आलोक में उनकी विराट् अहिंसा सोच का अनुमान किया जा सकता है।
अहिंसा अमूर्त है उसे देखा नहीं जा सकता, पर आदमी के व्यवहार से उसका स्पर्श किया जा सकता है। जहाँ करुणा, अभय और प्रेम का भाव है वहाँ अहिंसा है। अहिंसा का असीम स्वरूप प्रेम का पुरस्कार है। प्रेम और अहिंसा में अद्वैत भाव है जैसा कि आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा-'प्रेम ही विराट् अहिंसा है, जो सर्वभूत-साम्य की भावना से उत्पन्न होता है और आत्मौपम्य की सीमा में फिर विलीन हो जाता है।'205 अहिंसा का यह विशिष्ट रूप है। अहिंसा के व्यापक संदर्भ को प्रकट करने वाला आचार्य महाप्रज्ञ का मंतव्य है-आज के युग में मानव जाति केवल प्राणियों के प्रति ही हिंसक नहीं हो रही है बल्कि वनस्पति एवं पृथ्वी, जल, आकाश एवं हवा के प्रति भी हिंसक हो रही है। अतः आज की अहिंसा को केवल जीवदया तक सीमित नहीं रहना है, बल्कि पथ्वी. जल.
श, हवा के प्रति भी अहिंसक होना है। इसलिए 'सब प्राणियों तक ही सीमित अहिंसा के पालन के बजाय अब हमें 'सर्वत्र' अहिंसा के व्यापक पालन पर ध्यान देना होगा। कथन के संदर्भ में अहिंसा की अनंत गहराई और ऊँचाई का अवबोध है।
अहिंसा की सीधी-सी परिभाषा बतलायी-जब आदमी अपने प्रति जागता है तब ममत्व का धागा टूटता है, परिणाम स्वरूप प्राणीमात्र के प्रति प्रेम का भाव पुष्ट होता है। यही इसका आधार भूत तथ्य है। प्रकटतया अपने प्रति जागने का अर्थ है अहिंसा।
__ न मारना-अहिंसा है, किंतु यह अहिंसा की समग्र परिभाषा नहीं है। अहिंसा की पृष्ठभूमि में दया, करुणा, मैत्री, समत्व सह आत्मा की अनुभूति है। इस भूमिका से अहिंसा धर्म का प्राण है। उच्चतम कक्षा में प्रवेश कर जाने के बाद अहिंसा सहज रूप में स्वीकृत हो जाती है।
सामान्यतया अहिंसा की व्याख्या विधि और निषेध रूपों में की जाती है। बुराइयों से बचाव करना, असत्यप्रवृत्ति न करना, यह निषेध रूप है। स्वाध्याय, ध्यान, उपदेश, कायिक, वाचिक, मानसिक सत्प्रवृत्तियां, प्राणीमात्र के साथ बंधुत्व भावना, आत्म शुद्धि का सहयोग करना विधि रूप है। विधि
और निषेध की सीमाओं से पार महाप्रज्ञ ने कहा-'अहिंसा दुनिया का सबसे बड़ा ब्रह्मास्त्र है।' जिसका प्रयोग कभी निष्फल नहीं होता। यही वजह है आचार्य महाप्रज्ञ हर समस्या का स्थायी समाधान अहिंसा में आंकते।
साधना की उच्च भूमिका पर अहिंसा के विराट् स्वरूप को अनुभव के आलोक में प्रस्तुति मिली-'अहिंसा का अर्थ है-निर्विकार-दशा।' जब-जब चेतना में विकारभाव की तरंगे तरंगित होती है बिना प्रवृत्ति के भी हिंसा हो जाती है। इस सच्चाई का संज्ञान बड़ा कठिन है पर महाप्रज्ञ ने अनुभूति के स्तर पर अहिंसा का जो स्वरूप प्रकट किया वैशिष्ठ्यवान् है। उनकी दृष्टि में अहिंसा का अर्थ है-संयम, अहिंसा का अर्थ है-अप्रमाद। जब संयम ही अहिंसा है, अप्रमाद ही अहिंसा है तब कौनसी मानसिक हिंसा बचती है? कौन-सा बुरा भाव बचता है? संयम का अर्थ है निग्रह करना। अठारह पाप का प्रत्याख्यान करने का अर्थ है संयम । प्रस्तुत मंतव्य अहिंसा के सूक्ष्म स्वरूप का निदर्शन है। जो विशेष साधना से संपृक्त भावितात्मा की चेतना को भी भावित बनाने वाला है। साथ ही जन साधारण को भी अहिंसा की दिशा में प्रेरित करने वाला है।
आचार्य महाप्रज्ञ का अहिंसा में योगदान / 97