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होकर नहीं व्यवहारिक होकर अपनाते थे। 'मेरी अहिंसा कोई किताबी सिद्धांत नहीं है जो अनुकूल अवसर देखकर बतलायी जाय । यह वैसा सिद्धांत है, जिसे मैं सभी कार्यक्षेत्रों में लाने का प्रयत्न अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में कर रहा हूं।' उनका यह प्रयत्न सबके लिए प्रेरणा बनता गया।
अहिंसा के विभिन्न प्रयोग उनकी जीवनशाला के पर्याय बनें। परिणाम स्वरूप नया दर्शन प्रस्फुटित हुआ, जिसकी झलक-अहिंसा के प्रयोग से में यह सीखा हूं कि असली अहिंसा का अर्थ सव लोगों का शरीर श्रम है। एक रूसी दार्शनिक बोर्ड रेफ ने इसे रोटी के लिए श्रम कहा है। इसका परिणाम यह होगा कि लोगों में आपस में गहरे से गहरा सहयोग हो......चौंतीस साल के सत्य और अहिंसा के लगातार प्रयोग और अनुभव से मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है कि यदि अहिंसा का ज्ञानपूर्वक शरीर श्रम के साथ संबंध न होगा और हमारे पड़ोसियों के साथ रोजमर्रा के व्यवहार में उसका परिचय न मिलेगा तो अहिंसा टिक नहीं सकेगी। 78 यह रचनात्मक कार्यक्रम का रहस्य भी था। अहिंसा की शक्ति अणु और परमाणु की तुलना में अहिंसा की शक्ति श्रेष्ठ और विशाल है- 'एटम बम के युग में शुद्ध अहिंसा ही ऐसी शक्ति है जो हिंसा की संपूर्ण चालों को विफल कर सकती है।' विराट् सामर्थ्य के कारण ही गांधी ने अहिंसा को प्रचण्ड शक्ति के रूप में स्वीकार किया और महाप्रचण्ड शक्ति का दर्जा दिया। उनका अभिमत था कि अहिंसा की शक्ति का कोई माप नहीं, जिसमें धीरज होगा वह जरूर उसका रस लूटेगा।
अहिंसा की अजेय शक्ति में उनका दृढ़ विश्वास था-अहिंसा और शायद अकेली अहिंसा ही विप को अमृत में बदलने की शक्ति रखती है। बहुत से लोग यह स्वीकार करते हैं कि आज के चारों ओर फैले विष को अमृत में बदलने का एक मात्र मार्ग अहिंसा ही है किन्तु उनमें इस स्वर्णिम मार्ग को अपनाने का साहस नहीं है। मैं डंके की चोट से कह सकता हूँ कि अहिंसा कभी असफल नहीं रही। लोग बेशक अहिंसा की ऊँचाई तक नहीं पहुँच सके। स्पष्टतया उनकी सोच में यह दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति है जिसका कोई विकल्प नहीं।
अहिंसा सदैव सक्रिय रहने वाली अति सूक्ष्म शक्ति है जिसकी तुलना रेडियम की शक्ति से की है। आत्मा और शरीर के भेद की उपमा के आधार पर गांधी ने अहिंसा और हिंसा शक्ति में अंतर किया है। अहिंसा सक्रिय रेडियम धातु की तरह है। उसका अति सूक्ष्म कण भी, चाहे उसे कितना ही दवाकर रखा गया हो, परोक्ष रीति से निरन्तर अपना कार्य करता रहेगा। वह समस्त मल
और रोग को आरोग्यदायी वस्त में परिणत कर देगा। इसी प्रकार थोडी-सी सच्ची अ सूक्ष्म और परोक्ष रीति से काम करती है। वह समस्त समाज में खमीर की भाँति व्याप्त हो जाती है। इस अपेक्षा से अहिंसा स्वयं सक्रिय है। आत्मा मृत्यु के पश्चात् भी बनी रहती है। जिस प्रकार उसका अस्तित्व शरीर के आधार पर नहीं टिका है, उसी प्रकार अहिंसा अथवा आत्म शक्ति भी अपने विस्तार को शारीरिक या भौतिक आधारों पर अवलम्बित नहीं करती। वह स्वतंत्र रीति से काम करती है। वह देश और काल को लांघ जाती है। अहिंसा यदि एक स्थान पर भी सफलता के साथ खिल सके; तो उसकी सुगंध चारों ओर फैल जायेगी। गांधी ने अपने मंतव्य को कई बार दोहराया कि मेरी धारणा के अनुरूप तो अहिंसा किसी भी रूप या अर्थ में निष्क्रिय वृत्ति है ही नहीं।
वैज्ञानिक प्रयोगों की आश्चर्य-जनकता को पार करने वाली अद्भुत शक्ति अहिंसा में है। गांधी
महात्मा गांधी का अहिंसा में योगदान / 85