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भाषा में बोले ? एक ओर अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन, दूसरी ओर युद्ध की भाषा का प्रयोग । इन दोनों में संगति कहाँ है? मनोवैज्ञानिक बतलाते हैं - युद्ध एक मौलिक मनोवृत्ति है। मनोविज्ञान में चौदह मौलिक मनोवृत्तियाँ मानी गई है। उनमें एक है युद्ध । क्या फिर ये माना जाए-महावीर में भी यह मौलिक मनोवृत्ति विद्यमान थी । " महावीर में युद्ध की मौलिक मनोवृत्ति स्वीकारने पर भी उसकी मौलिकता आम सोच से भिन्न है। महावीर ने दूसरे के साथ लड़ने की बात नहीं कही। उन्होंने अपने साथ युद्ध की बात कही जिसका उल्लेख उत्तराध्ययन सूत्र में मिलता है - 'आत्मा के साथ युद्ध कर, बाहरी युद्ध से तुझे क्या लाभ? आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जीत कर, मनुष्य सुख पाता है । 120 महावीर की दृष्टि में बाहरी युद्ध से अधिक महत्त्वपूर्ण है अपनी आत्मा से युद्ध करना और स्वयं पर विजय पाना ही सच्ची जीत है । आत्मयुद्ध के प्रसंग में इन्द्रिय, मन और कषायआत्मा से लड़ना एवं उन पर आत्म-नियंत्रण स्थापित करना ही वास्तविक विजयश्री का वरण करना /
अध्यात्म में बुराई से निवृत्त होने के अनेक उपाय निर्दिष्ट हैं जिसका चित्रण महाप्रज्ञ की भाषा में
'संकल्पः शमनं, ज्ञातृद्रष्टभाव विभावनम् । स्मरणं प्रतिक्रमणं युद्धं पंचविधं स्मृतम् ॥'
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आत्मयुद्ध के पांच प्रकार हैं- संकल्प, शमन, ज्ञाता - द्रष्टा-भाव, स्मरण, प्रतिक्रमण ।
आत्मयुद्ध की ओर इंगित करते हुए महावीर ने कहा- 'जुद्धारिहं खलु दुल्लहं - युद्ध का क्षण दुर्लभ है । कोई-कोई क्षण ऐसा होता है, जो युद्ध का क्षण होता है। किसी भाग्यशाली को ही युद्ध का क्षण उपलब्ध होता है। महावीर जैसे अहिंसा के प्रवक्ता हैं वैसे ही युद्ध के प्रवक्ता भी हैं ।' युद्ध से महावीर का तात्पर्य था आत्म रिपुओं चेतना से भिन्न विजातीय पुद्गलों के साथ युद्ध करना । ऐसा करना सचमुच दुर्लभ क्षणों का द्योतक है । भगवान् महावीर ने साक्षात् देखा कि समरभूमि में लड़े जाने वाले युद्ध से स्थायी समाधान नहीं निकल सकता उसका स्थायी समाधान अध्यात्म भूमिका पर ही हो सकता है
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लोहा लोहे को काटता है यह व्यावहारिक सच्चाई है पर युद्ध से युद्ध का अंत हो जायेगा, भविष्य में युद्ध की स्थिति नहीं आयेगी ऐसा कदापि नहीं हुआ । इतिहास इसका साक्षी है । द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने से भी दुनिया में शांति नहीं आई। इसके पश्चात् भी अनेक क्षेत्रीय और गृहयुद्ध होते रहे हैं जो अपनी हिंसक आक्रामकता और क्रूरता में कम नहीं कहे जा सकते। दक्षिण-पूर्व एशिया के सभी देशों में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद युद्धों का सिलसिला जारी रहा, जिनमें परोक्ष रूप से रूस एवं चीन और प्रत्यक्ष रूप से अमेरिका की पूरी भागीदारी रही। इनमें वियतनाम का युद्ध तो अपनी तकनीकी बारीकियों और ध्वंसात्मक प्रभावों में द्वितीय विश्व युद्ध से भी अधिक भयानक था । युद्ध के विस्तृत अध्ययन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि युद्ध मानव मस्तिष्क से उपजा अभिशाप है । जिससे ग्रसित मानवता संत्रस्त है। इन नाजुक परिस्थितियों में भगवान् महावीर का ‘आत्मनाः युद्धस्व' प्रतिबोध मानव के लिए दिव्य संदेश है।
युद्ध की भयावहता अस्त्र-शस्त्रों की प्रविधि से जुड़ी हुई है। जिस दिन मानव ने शस्त्र का प्रयोग अथवा निर्माण किया उसी दिन युद्ध की चेतना ने जन्म ले लिया । यह भी संभव है जिस दिन युद्ध की भावना पैदा हुई उसी दिन से अस्त्र-शस्त्र का बीजारोपण हो गया। दोनों एक दूसरे जुड़े हु हैं
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64 / अँधेरे में उजाला