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दृष्टि से विचार करें तो समझ में आ जायेगा कि शस्त्रों के इस आविष्कार ने मनुष्य को कितना निर्दयी बना दिया है। चूंकि शस्त्र और हिंसा पर्यायवाची बन चुके हैं। दोनों ही ऊँचाइयों के क्षितिज छूने जा रहे हैं। प्रस्तर युग में पाषाण अस्त्र बनें-विकास होते-होते अणुबम और हाइड्रोजन बम का यग आया, अण-शस्त्र बनें, बनते चले जा रहे हैं। शस्त्रीकरण का यह दौर आज जैविक-रासायनिक किटान्विक प्रक्रिया तक पहुंच चुका है। इसका अगला रूप क्या होगा, कुछ भी कहना कठिन है। आणविक युद्धों की विभीषिका से आज सारा संसार अशांत और व्याकुल है। सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने अपनी मृत्यु के कछ ही दिन पूर्व कहा था-'आणविक-युद्धों में विश्व का सार्वभौम नाश निश्चित है।' विज्ञान अब तक इन ध्वंसात्मक अस्त्रों का प्रतिकार नहीं दे सका है।
एक-से-एक अधिक भयानक शस्त्रों का निर्माण दुनिया का प्रमुख 'उद्योग' तथा रोजगार का साधन बनता जा रहा है। आज जिस तरह से छोटे-बड़े सब देश हजारों-लाखों की स्थाई सेना (स्टेन्डिंग आर्मी) रखने लगे हैं वह तीन-चार सौ वर्ष पहले तक आम बात नहीं थी। इन सबसे होने वाले दुष्परिणामों की ओर ध्यान केन्द्रित करते हुए महाप्रज्ञ ने लिखा-'आज युद्ध और स्थाई सेनाओं के कारण प्राकृतिक संसाधनों का घोर अपव्यय हो रहा है। जो संसाधन और श्रम गरीबी अभाव आदि दूर करने में लगते वे लोगों को मारने की तैयारी में लग रहे हैं। युद्ध और शस्त्रों की होड़ दुनिया में गरीबी और अभाव बढ़ने का एक प्रमुख कारण है।
शस्त्रीकरण आज की ज्वलंत समस्या है। सौ वर्ष पूर्व किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि राजनीतिक लोग कभी निःशस्त्रीकरण शब्द का उच्चारण करेंगे, जनता निःशस्त्रीकरण की बात पर आंदोलन करेगी।.......महावीर का निःशस्त्रीकरण का विचार 20वीं 21वीं शताब्दी में स्वतः बलवान् बन रहा है। निःशस्त्रीकरण का स्वर शस्त्रीकरण की परिणति के कारण शक्तिशाली होता जा रहा है। अगर अणुशस्त्रों के भंडार पर ध्यान नहीं दिया गया तो शायद एक समय ऐसा भी आएगा, सारी की सारी मानव सभ्यता नष्ट हो जायेगी। संभावना का आकलन महाप्रज्ञ के शब्दों में-'दुनिया वापस प्रस्तर युग में चली जाए। महाभारत के युद्ध के बाद हिन्दुस्तान की सभ्यता, संस्कृति और विद्या का ह्रास हुआ है उससे यह संभावना बलवती बनी है अणुशस्त्रों के युद्ध के बाद शायद मनुष्य यह प्रार्थना करेगा-'हे भगवन्! हमें वही बना दो जो हम पहले थे।135 यदि इस स्थिति से उबरना है, शस्त्रों के प्रसार को रोकना है तो इस आर्ष वचन पर ध्यान देना होगा-'नत्थि असत्यं परेण परं'-अशस्त्र में कोई परम्परा नहीं है। शस्त्रों के विकास से होने वाले महाविनाश से बचने का एक मात्र उपाय अहिंसा ही है।
महापुरुषों का अशांत भयाक्रांत विश्व के लिए निशस्त्रीकरण का संदेश सामयिक एवं प्राणवान् है। शस्त्राशस्त्र के वैज्ञानिक विकास के सामने अहिंसा की शक्ति को प्रतिष्ठित करना अदभ्य साहस का सबूत है। पर्यावरण और अहिंसा विज्ञान अर्वाचीन है, अहिंसा का सिद्धांत बहुत प्राचीन है। प्राचीन और अर्वाचीनता के बावजूद भी दोनों में अभिन्नता है। धर्म जहाँ प्राण विनाश की दृष्टि से अहिंसा पर विचार करता है, विज्ञान उस पर प्रदूषण की दृष्टि से विचार कर रहा है। धर्म जहाँ प्राणीमात्र की दृष्टि से अहिंसा पर विचार करता है वहाँ विज्ञान केवल मनुष्य की दृष्टि से विचार करता है। परिणाम की दृष्टि से दोनों का
68 / अँधेरे में उजाला