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पर्यावरण-विज्ञान का एक सूत्र है-लिमिटेशन। पदार्थ की सीमा है। कोई भी पदार्थ असीम नहीं है। क्या पदार्थ की सीमा का यह सूत्र संयम का सूत्र नहीं है? पर्यावरण-विज्ञान का दूसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र है-पदार्थ सीमित है; इसलिए उपभोग कम करो। धर्म का दृष्टिकोण है पदार्थ का अपव्यय मत करो, संयम करो। पर्यावरण विज्ञान की भाषा है-पदार्थ कम है, उपभोक्ता अधिक है, इसलिए उपभोग की सीमा करो। महावीर ने भोगोपभोग के संयम का जो व्रत दिया वह पर्यावरण-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। आचार्य महाप्रज्ञ कहते हैं-पदार्थ ज्यादा काम में मत लो, अनावश्यक चीज को काम में मत लो, यह है संयम और इसी का नाम अहिंसा है, पर्यावरण विज्ञान है। इस संदर्भ में अणुव्रत का संयम घोष महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है। आज की अपेक्षा है-हम पर्यावरण, अहिंसा और संयम का मूल्य आंकें।
पर्यावरणविद् पर्यावरण संरक्षण एवं संवर्धन को लेकर चिंतित हैं। पेड़ पर्यावरण के प्रदूषण को कम करते हैं। इस दृष्टि से पार्कों और वनस्थलियों का बहुत महत्त्व है। पर आचार्य महाप्रज्ञ समस्या के मूल पर ध्यान केन्द्रित कर कहते हैं-प्रदूषण के स्रोत निरंतर बढ़ रहे हैं और वे बढ़ते ही चले जाएंगे तो बेचारे पेड़ कब तक प्रदूषण को कम करेंगे। मूल समस्या है प्रदूषण कम करने वाली मनोरचना की। समाज की मनोरचना है प्रदूषण बढ़ाने वाली और बात है उसे घटाने की। आज का आदमी केवल शारीरिक स्वास्थ्य की ही उपेक्षा नहीं कर रहा है वह मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य की उपेक्षा कर रहा है। शरीर स्वस्थ तो मन स्वस्थ। यह सत्य को देखने का एक पहलू है, मन स्वस्थ तो शरीर स्वस्थ। शरीर और मन दोनों का स्वास्थ्य आध्यात्मिक स्वास्थ्य का हेतु बनता है। पदार्थ की भाषा को समझने वाला आदमी क्या अहिंसा की इस भाषा को समझने का प्रयत्न करेगा?142 यह यथार्थ का चित्रांकन है। पर प्रयोग की भूमिका पर मुक्त मानसिकता और मुक्त भोग के वातावरण में संयम के सूत्र का अर्थ समझे बिना हम पर्यावरण के प्रदूषण को कम कैसे कर सकते हैं?
पर्यावरण संबंधी गांधी के विचार मौलिक हैं। उन्होंने अपने जीवन में जो संयम साधा, मानो 'लिमिटेशन' सूत्र का ही जीवंत प्रयोगात्मक पक्ष था। पर्यावरण के प्रति उनकी आत्मानुभूति कितनी गहरी थी इसका अंदाजा एक उदाहरण से लगाया जा सकता है। जब मीराबेन ने रात्रि के समय पेड़ की पत्तियां मंगवाई। बहिन ने पत्तियों को सिकुड़कर सोया हुआ पाया तब बापू के कमरे में जाकर बोली- 'देखो बापू, छोटी पत्तियां नींद में कैसे सिकुड़ी हुई है।' बापू ने छोटी पत्तियों की तरफ नजर डालते हुए क्रोध तथा दया से कहा-'पेड़ भी हमारी ही तरह जीव है। वे सांस लेते हैं, वे हमारी तरह खाते-पीते भी हैं और हमारी ही तरह उन्हें नींद की जरूरत होती है। पेड़ रात में आराम करते हैं। यह ठीक नहीं, रात में इनकी पत्तियों को नहीं तोड़ना चाहिए। इसके अलावा तुमने इतनी अधिक पत्तियाँ क्यों तोड़ ली? थोड़ी-सी पत्तियों से काम चल जाता। तुमने सुना होगा मैंने कल सभा में क्या कहा। मैंने इस पर दुख प्रकट किया था कि लोग कोमल फूलों की जगह हाथ से बने हुए सूत की माला भेंट करें तो मझे ज्यादा खशी होगी।' गांधी ने मीरा बेन से फिर कहा-'यह तम्हारी नासमझी थी कि तुमने रात को स्वयं सेवक को पत्तियां तोड़ने भेजा। उसने कोमल पत्तियों को सोते में तोड़कर पेड़ को दर्द पहुँचाया। हमें प्रकृति के साथ ऐसा संबंध रखना चाहिए जैसे जीवित प्राणियों के साथ। 143 इस कथन से प्रकट होता है कि गांधी पर्यावरण के प्रति कितने सजग थे। उनकी दृष्टि में पेड़-पौधों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। उनके इस 'संयम और करुणा' प्रधान विचार को अपनाया जाए तो पर्यावरण प्रदूषण की समस्या का काफी हदतक समाधान हो सकता है।
अहिंसा एक : संदर्भ अनेक / 71