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ब्रह्मचर्य एवं अहिंसा के संबंध को गांधी ने मात्र स्वीकारा ही नहीं जीवन में भी अपनाया । उनकी अहिंसा ब्रह्मचर्य की साधना से निष्पन्न हुई। उन्होंने अहिंसा की साधना हेतु ब्रह्मचर्य के अनेक प्रयोग किये। गांधी के ब्रह्मचर्य संबंधी विचित्र प्रयोगों को देखकर आचार्य कृपलानी ने लिखा- 'गांधी जी ऐसे विचित्र प्रयोग कर रहे हैं । मेरा ऐसा विश्वास है कि मैं अगर गांधी को अनाचार करता हुआ देख भी लूँ तो एक बार सोचूंगा मेरी आँखें मुझे धोखा गई । वे ऐसा नहीं कर सकते । ' ' ' 3 जाहिर है गांधी ने अहिंसा के विकास की पृष्ठभूमि में ब्रह्मचर्य की साधना स्वीकार की । ब्रह्मचर्य के द्वारा धृति एवं मनोबल का विकास होता है । लोग आश्चर्य करते हैं कि गांधी का एक मुट्ठीभर हड्डी का शरीर था । इतना दुबला-पतला, सुन्दर भी नहीं थे। चमकता हुआ चेहरा भी नहीं था । किंतु मनोबल इतना था कि बड़ी से बड़ी सत्ता के सामने कभी झुकने या डरने की बात नहीं आती थी । जहाँ मरने की बात होती - सबसे आगे होते । कभी मन में भय नहीं होता कि मैं मारा जाऊँगा । ब्रह्मचर्य से आत्म-विश्वास, मनोबल पैदा होता है । यह सूक्ष्म शक्ति ब्रह्मचर्य की है। इसके द्वारा आंतरिक शक्तियों का विकास होता है ।
अहिंसा और अपरिग्रह की व्याप्ति
‘अहिंसा परमो धर्मः अहिंसा परमं दानम्' यह घोष बहुत पुराना है । आज एक नये घोष की जरूरत है। आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में वह घोष है - ' अपरिग्रहः परमो धर्मः ।' यह परम धर्म की व्याख्या सामयिक है । अहिंसा और अपरिग्रह दोनों को अलग-अलग देखने से पूरी बात समझ में नहीं आयेगी । अपरिग्रह के बिना अहिंसा को नहीं समझा जा सकता । अहिंसा को समझने के लिए अपरिग्रह को समझना जरूरी है और अपरिग्रह को समझने के लिये अहिंसा को समझना जरूरी है । 'अहिंसा और अपरिग्रह का एक जोड़ा है, उसे काट दिया गया। उसे वापिस जोड़कर ही हम समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। जिस दिन 'अपरिग्रह परमो धर्मः' स्वर बुलंद होगा, आर्थिक समस्या का समाधान उपलब्ध हो जाएगा।' 14 इस कथन में बहुत बड़े सत्य का निदर्शन है ।
अहिंसा और अपरिग्रह की एकात्मकता को भूलाने का परिणाम निकला - अहिंसा न मारने के सिद्धांत में सिमट गयी । अपरिग्रह उसकी आत्मा है; इसकी विस्मृति हो गई । अहिंसा अपरिग्रह से मुक्त हो गई और अपरिग्रह अहिंसा से विमुक्त हो गया । परिग्रह और हिंसा की एकात्मकता है वैसे ही अपरिग्रह और अहिंसा की एकात्मकता है। महाप्रज्ञ के शब्दों में- 'अपरिग्रह के बिना अहिंसा असंभव है अहिंसा के बिना अपरिग्रह असंभव है । भगवान् महावीर की क्रांन्ति का मुख्य सूत्र है - अपरिग्रह और अहिंसा की एक आसन पर एक साथ उपस्थिति ।' महावीर ने हिंसा के मूल को पकड़ा। हिंसा होती है परिग्रह के लिए । परिग्रह के बिना हिंसा का कोई प्रयोजन नहीं होता । परिग्रह के लिए हिंसा है, हिंसा के लिए परिग्रह नहीं है । प्रकटतया हिंसा का मुख्य कारण है परिग्रह । कोई अहिंसा करना चाहे और अपरिग्रह करना न चाहे, यह कभी संभव नहीं है 1
इच्छा, हिंसा और परिग्रह - तीनों में परस्पर संबंध । आर्थिक विषमता के चलते समाज में हिंसा बढ़ेगी। आर्थिक समानता रहेगी तो समाज में हिंसा कम होगी, अहिंसा का विकास होगा। एक और साम्यवादी विचारधारा के प्रवर्तक मार्क्स ने इस बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित किया तो दूसरी ओर अहिंसा के प्रबल समर्थक महात्मा गांधी ने भी इस विषय पर चिंतन-मंथन किया। मार्क्स अहिंसा की दृष्टि से मुख्य विचारक नहीं थे। गांधी के पास अहिंसा के चिंतन के अलावा कोई विकल्प नहीं
अहिंसा एक : संदर्भ अनेक / 61