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. अहिंसा का दृढ़ता से पालन। . लक्ष्य प्राप्ति के सर्वोच्च साधन रूप में स्वीकृति। . चेतना की समान अनुभूति-आत्मतुला का बोध, आदि।
अहिंसा जैन धर्म का प्रमुख सिद्धांत है, यह निर्विवाद सच है। इसे परमधर्म रूप में स्वीकृति लब्ध है। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह ज्ञातव्य है कि महावीर का मूल सिद्धांत समता है या अहिंसा? मंथन से उजागर होता है कि भगवान् महावीर का मूल सिद्धांत समता है और अहिंसा उसका एक अंग है। प्राकृत का 'सम' शब्द संस्कृत में तीन रूपों में व्याख्यायित हुआ है-सम-समता, शम-शांति, श्रम-तपस्या, स्वावलंबन और आत्म निर्भरता। भगवान् महावीर का मुख्य सिद्धांत यह त्रिपदात्मक 'सम' है। कालक्रम से यह घटित हुआ कि समता पृष्ठभूमि में चली गई और अहिंसा उभरकर सामने आ गयी, पर क्या उपरोक्त त्रिपदी के बिना अहिंसा की कल्पना की जा सकती है? आचरणात्मक पक्ष से भी यह पुष्ट होता है। ‘समण' शब्द 'सम' शब्द से व्युत्पन्न है-'सममणई तेण सो समणो' जो सब जीवों को तुल्य मानता है वह ‘समण' है। जैसे मुझे दुःख प्रिय नहीं, उसी प्रकार सब जीवों को
य नहीं है-इस समता की दृष्टि से जो किसी भी प्राणी का वध न करता है, न करवाता
अपनी समगति के कारण 'समण' कहलाता है। इस समता की साधना में एक विशिष्ट वर्ग प्रतिष्ठित हुआ जिसे आम भाषा में साधु-संत कहते हैं।
समता का प्रायोगिक पक्ष बहुत प्रखर बना जिसके आधार पर ही भिक्षु संघ में सब वर्गों के व्यक्ति दीक्षित होते थे। प्रमुख श्रमणों में चारों वर्षों से दीक्षित मुनि थे। आचार्य महाप्रज्ञ ने बताया- 'नमिराजर्षि, संजय, मृगापुत्रादि क्षत्रिय थे। कपिल, जयघोष, विजयघोष, भृगुआदि ब्राह्मण थे। अनाथी, समुद्रपाल आदि वैश्य थे। हरिकेशबल, चित्र-संभूति आदि चाण्डाल थे। श्रमणों की यह समता अहिंसा पर आधारित थी। इस प्रकार समता और अहिंसा ये दोनों तत्त्व समण (या श्रमण) संस्कृति के मूल बीज थे।79
मौलिक तथ्य के रूप में अहिंसा के इतिहास में तेबीसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म का अध्याय अपूर्व कोटि का माना जाता है। यह भी अब निर्विवादसा होता जा रहा है कि भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध की सुविकसित अहिंसा का मूल उद्गम पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म ही है। यह कथन अहिंसा की ऐतिहासिकता का स्पष्ट प्रमाण है।
भगवान महावीर अहिंसा के प्रखर प्रवक्ता एवं उदग्र प्रयोक्ता थे। उनका युग अहिंसा की पराकाष्ठा का युग माना जाता है। महावीर की अहिंसा जितनी विस्तृत थी उतनी ही गम्भीर थी। प्रश्न है उस समय की अहिंसा का स्वरूप क्या था? वह निषेध प्रधान थी या विधि-प्रधान ? उसका आशय आत्मोन्नयन से था या पुद्गल पोषण से? उद्देश्य श्रेयोऽवाप्ति था या लौकिक अभ्युदय ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान जैन दर्शन की अहिंसा में खोजा जा सकता है। जैन दर्शन में अहिंसा की सूक्ष्म मीमांसा की गई- 'आत्मा में राग-द्वेष-मोहादि भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और इन भावों का आत्मा में उत्पन्न होना ही अहिंसा है।। वस्तुतः हिंसा-अहिंसा का संबंध दूसरे जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख से न होकर आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष जनित परिणामों से है।
मारने का भाव को हिंसा है ही किंतु बचाने का व्यामोह भी हिंसा ही है क्योंकि वह भी राग भाव है और राग भाव मात्र हिंसा है। राग को अग्नि की उपमा दी जाती है। आग चाहे नीम की हो या चंदन की दोनों ही जलायेगी। राग भाव कैसा भी क्यों न हो आखिर वह हिंसा ही है। इसके
48 / अँधेरे में उजाला