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निष्क्रिय-सक्रिय अहिंसा
इसका स्वरूप विधि एवं निषेध प्रधान है । निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है, विधेयात्मक अहिंसा में सत् क्रियात्मक सक्रियता होती है। सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो हिंसा न करने वाला यदि आन्तरिक प्रवृत्तियों को शुद्ध न करे तो, वह अहिंसा न होगी । इसलिए निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति की अपेक्षा बनी रहती है । सत् प्रवृत्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होना आवश्यक है । इसलिए बिना कोई प्रवृत्ति सत् या अहिंसा नहीं हो सकती, यह निश्चय दृष्टि की बात है । व्यवहार में निषेधात्मक अहिंसा को निष्क्रिय अहिंसा और विधेयात्मक अहिंसा को सक्रिय अहिंसा कहा जाता है । भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा में विधि और निषेध उभय रूप प्रकट होते हैं - 'महावीर
प्रवृत्ति रूप अहिंसा का भी विधान किया है, किंतु सब प्रवृत्ति अहिंसा नहीं होती । चारित्र में जो प्रवृत्ति है वही अहिंसा है । अहिंसा के क्षेत्र में आत्मलक्षी प्रवृत्ति का विधान है और संसार लक्षी या पर पदार्थ - लक्षी प्रवृत्ति का निषेध । ये दोनों क्रमशः विधि रूप अहिंसा और निषेध रूप अहिंसा बनते हैं। 106 इसका समन्वित प्रयोग - 'सब जीवों को अपने समान समझो और किसी को हानि मत पहुँचाओ' - ' – इन शब्दों में अहिंसा का द्वयर्थी सिद्धांत-विधेयात्मक और निषेधात्मक सन्निहित है। विधेयात्मक में एकता का संदेश है - 'सब में अपने आपको देखो ।' निषेधात्मक उससे ध्वनित होता है - 'किसी को भी हानि मत पहुंचाओ सब में अपने आपको देखने का अर्थ है - सबको हानि पहुंचाने से बचना ।'
राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राणवध न करना या प्रवृत्ति मात्र का निषेध करना निषेधात्मक अहिंसा है। सत्प्रवृत्ति करना, स्वाध्याय, अध्यात्म- सेवा, उपदेश, ज्ञान चर्चा आदि आत्म हितकारी क्रिया करना विधेयात्मक अहिंसा है । निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है, विधेयात्मक अहिंसा में सत्-क्रियात्मक सक्रियता होती है । स्पष्टतया - 'अहिंसा का आचरण, यह विधेयात्मक वृत्ति है। हिंसा का वर्जन, यह निषेधात्मक वृत्ति है।' इससे जाहिर है कि मात्र निवृत्ति ही अहिंसा नहीं है, प्रवृत्ति भी अहिंसा होती है। उत्तराध्ययन सूत्र के टिप्पण में उल्लेख है कि 'मनोगुप्ति मानसिक अहिंसा का वचन गुप्ति वाचिक अहिंसा का और कायगुप्ति कायिक अहिंसा का प्रायोगिक रूप है ।' अहिंसा का निष्क्रिय और सक्रिय स्वरूप विभिन्न दृष्टि से निष्पन्न है ।
नैश्चयिक और व्यावहारिक
अहिंसा के ये दोनों महत्त्वपूर्ण पक्ष है । 'नैश्चयिक अहिंसा केवल व्यक्ति की अन्तःचेतना से संबंध रखती है। वह नितांत वैयक्तिक होती है । व्यावहारिक अहिंसा की साधना समाज के संदर्भ में होती है। हजारों-हजारों आदमी एक साथ रहें और दूसरों को क्षति न पहुँचाएं - यह व्यावहारिक अहिंसा है । यह समाज की आधार भित्ति है। 107 नैश्चयिक अहिंसा का जितना विकास होगा व्यक्ति उतना ही मैत्री करुणामय बनेगा । व्यावहारिक अहिंसा का विकास सामाजिक स्तर पर जितना होगा समाज में समरसता बढ़ेगी। दूसरों के आँसुओं पर अपनी स्निग्धता को न बढ़ाने का संकल्प समाज की रोग प्रतिरोधक शक्ति है। इसका विकास निश्चयनिष्ट होकर व्यवहार के धरातल पर कार्यकारी बनता है ।
अहिंसा एक : संदर्भ अनेक / 57