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विमर्शतः महाभारत के अनुशासन पर्व, शांतिपर्व आदि में अहिंसा का जो विशुद्ध रूप प्रकट हुआ है उसमें अहिंसा के नैतिक और धार्मिक उभय पक्षों का समाहार है। एक ओर जहाँ अहिंसा को परम धर्म बतलाया वहीं इसे परम मित्र भी बतलाया। अहिंसा पथगामी की तपस्या अक्षय कही गयी। अहिंसा के आचरण पर विशेष बल दिया गया। इससे अनुमित होता है कि महाभारत के रचनाकाल तक अहिंसा की स्थिति विकासमान थी। श्रीमद्भगवत् गीता में अहिंसा गीता भारतीय जनमानस का समादरणीय ग्रंथ है। इसमें अनेक विषयों का प्रतिपादन है। विभिन्न विषयों पर प्रकाश डालने के बावजद आमधारणा है कि गीता अनासक्त कर्म योग का प्रतिपादक ग्रंथ है। प्रश्न है गीताकार ने अनासक्त कर्मयोग पर इतना बल क्यों दिया? यह अपने आप में रहस्यपूर्ण तथ्य है। संभव है कर्म बंधन की परंपरा का उच्छेद करने के लिये ही ऐसा प्रतिपादन किया गया है। कर्म बंधन के मुख्य दो कारण-राग और द्वेष ही हैं। इन दोनों से मुक्त रहकर समतामय आचरण हेतु ऐसी प्रस्तुति प्रमुख रूप से की गयी है। ये अहिंसा के विकास में बाधक तत्त्व हैं। गीता का सर्वोच्च आदर्श है-ईश्वर। उसके स्वरूप में नानाभावों का समावेश स्वीकृत है। स्वरूप प्रतिपादक श्लोक में प्रथम स्थान अहिंसा को मिला।7 भाष्यकार ने इसे व्याख्यायित किया- 'अहिंसा अपीड़ा प्राणिनाम्'–प्राणियों को किसी प्रकार पीड़ा न पहुँचाना अहिंसा है। ईश्वर के स्वरूप चिंतन में अहिंसा का प्रथम स्थान गीता में इसके महत्त्वपूर्ण स्थान का द्योतक है।
ईश्वर से अभिन्न भूतों की (प्राणी मात्र) परिकल्पना अहिंसा के विकास का द्योतक है। इष्ट में समस्त प्राणियों की परिकल्पना जीव जगत् के साथ तादात्म्य विकसित करने की प्रक्रिया है। स्थूल दृष्टया अहिंसा का स्वतंत्र प्रतिपादन विमर्श्व ग्रंथ में भले नजर न आये पर, अहिंसक के लक्षणों का प्रतिपादन अनेक संदर्भो में हुआ है। कार्य-कारण भाव की दृष्टि से अहिंसक का वर्णन अहिंसा का ही प्रतिपादन है। 'ज्ञान निष्ठ व्यक्ति के गुण समुदाय में तीसरा गुणसमुदाय अहिंसा को कहा है।' ब्रह्म स्वरूपावस्था हेतु अहिंसा का जो विधान किया गया उसमें आत्मतुला का अहोभाव छुपा हुआ है। इसका प्रतिपादक कथ्य है-'जिस समय भूतों के अलग-अलग भावों को, उनकी पृथक्ता को एक आत्मा में ही स्थित देखता है तथा समस्त विस्तार आत्मा से ही निर्मित निहारता है, वह ब्रह्मरूप ही हो जाता है।'68 अपनी आत्मा में ही सर्वभूतों के समाहार का आशय है किसी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाना, क्योंकि अपनी आत्मा को कोई कष्ट पहुंचाना नहीं चाहता। जब कष्ट देना ही मान्य नहीं उस स्थिति में उसके प्राणाघात का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अहिंसा के विकास का यह महत्त्वपूर्ण कथन गीता में इसके गौरवपूर्ण स्थान का द्योतक है।
गीता में त्रय प्रकृतियों-देवी, आसुरी और राक्षसी का विस्तार से वर्णन किया गया है। स्वरूप विमर्श में-'अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, अपैशुन, भूतों पर दया, अलोलुपता, कोमलता, लज्जा, अचपलता आदि देवी प्रकृति के लक्षण हैं। 69 इन लक्षणों का मनन करने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वयं अहिंसा भगवती का ही स्वरूप निर्धारित हुआ है। देवी स्वरूप के अनेक लक्षण अहिंसा के ही पर्यायवाची हैं। देवी प्रकृति का स्वरूप उच्चकोटि की अहिंसा एवं अहिंसक के स्वरूप को एक साथ प्रस्तुत करता है।
त्रिविध तप में 'शारीरिक तप के वर्णन में अहिंसा का ग्रहण है।' क्षमा भारतीय जन-मानस
44 / अँधेरे में उजाला