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का उच्च आचार है। इसकी चर्चा अनेक प्रौढ़ ग्रंथों में मिलती है। गीता में क्षमावान् का चित्रण है- 'जो सब भूतों में द्वेष नहीं करता, सबके साथ मित्रभाव रखता है और जो करुणामय है, जो ममता और अहंकार से रहित है, सुख और दुःख में सम है। 70 भाष्यकार ने 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां' शब्दों की व्याख्या करते हुए लिखा- 'सर्वाणिभूतानि आत्मत्वेन हि पश्यति' अर्थात् समस्त भूतों को आत्मारूप से ही देखता है। इसमें आत्म तुला का भाव मुखर है। आशय की पुष्टि की गई - 'जो सब प्राणियों में अपने समान ही सुख और दुःख को तुल्यभाव से अनुकूल और प्रतिकूल देखता है, किसी के भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता वह अहिंसक है । इस प्रकार अहिंसक पुरुष पूर्णज्ञान में स्थित है वह परम योगी है । ' सच्चायोगी पुरुष समता का पर्याय होता है उसका चित्रण किया गया - 'योगी समदृष्टिवान् होता है जो सभी भूतों में अपनी आत्मा को स्थित देखता है तथा अपनी आत्मा में समस्तभूतों को देखता है।'' जिसकी अहिंसक चेतना जागृत हो जाती है उसमें प्राणी मात्र के प्रति अद्वैतभाव- समता भाव का संचार हो जाता है। वह स्वार्थ मनोवृत्ति से ऊपर उठकर 'सर्वभूतहितेरताः' के आदर्श को चरितार्थ करता है। एक आदर्शवान् अथवा विशिष्ट योगी पुरुष में अहिंसा का जो स्वरूप गीता में प्रकट हुआ वह अहिंसा के विकासात्मक रूप का द्योतक है।
अनासक्त कर्मयोग के साथ अहिंसा के संबंध में जो विशिष्ट अध्याय गीता में जुड़ा है, उससे यह स्पष्ट है कि अहिंसा के विकास में गीता का अपना अपूर्व योगदान है । समग्र दृष्टि से देखा जाये तो अहिंसा की जो सूक्ष्म मीमांसा परोक्ष रूप से गीताकार ने की वह मौलिक है । विमर्शतः गीता का अनासक्त कर्मयोग अहिंसा के विकासात्मक पक्ष की सबल कड़ी है ।
पुराणों में अहिंसा
पुराण ज्ञान के भंडार हैं। इनमें सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलयुग का विस्तार से वर्णन है। तत्त्व के सुगम बोधार्थ अनेक उपाख्यानों का प्रयोग किया गया है। पुराणों में अहिंसा की चर्चा बहुत विस्तार से नहीं मिलती, फिर भी उसके स्फूलिंग देखे जा सकते हैं । दान के विभिन्न रूप - ज्ञानदान, संयतिदान, द्रव्यदान (धन-धान्य), अभयदान में अन्तिम को सर्वश्रेष्ठ दान बताया गया है । पद्मपुराण के गौ- व्याघ्र संवाद में अभय दान का जो चित्रण है, वह अहिंसा का अभिव्यंजक है। गाय के मुख से निसृत वचन व्याघ्र के हृदय को आंदोलित करने वाले हैं - ' भाई बाघ ! विद्वान् सतयुग में तप की प्रशंसा करते हैं, त्रेता में ज्ञान और कर्म की, द्वापर में यज्ञ की परन्तु कलियुग में एकमात्र दान ही श्रेष्ठ माना गया है। संपूर्ण दानों में एक ही दान सर्वोत्तम है, वह है संपूर्ण भूतों को अभय दान। इससे बढ़कर कोई दूसरा दान नहीं है। 72 कथन का स्पष्ट आशय है कि अभयदान ही सर्वश्रेष्ठ । इस दान को इतर धर्मदर्शनों में एक जैन धर्म ने भी मुख्य रूप से स्वीकार किया है । सूत्रकृतांग में इसकी स्पष्ट प्रस्तुति है - 'सब दानों में अभय दान श्रेष्ठ है। 73 इसकी श्रेष्ठता इसलिए है क्योंकि इससे समस्त प्राणियों की जिजीविषा को आश्वासन मिलता है । अतः अभयदान का तात्पर्य है जीवों की हिंसा से उपरत होना । अभय दान की व्यापकता का उल्लेख किया- 'जो समस्त चराचर प्राणियों को अभयदान देता है वह सर्व प्रकार के भय से मुक्त होकर परब्रह्म को प्राप्त होता है।' इससे दो महत्त्वपूर्ण तथ्य उजागर होते हैं- 1. जो दूसरों को अपनी ओर से अभय बनाता है, वही सबकी ओर से अभय रह सकता 12. परब्रहूम की विशिष्ट उपलब्धि हेतु सूक्ष्म अहिंसा का पालन अनिवार्य है। साधक का सर्वोच्च लक्ष्य आदिपरब्रह्म का साक्षात्कार है तो अहिंसा का आचरण उसके लिए अनिवार्य
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अहिंसा का ऐतिहासिक स्वरूप / 45