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श्रीरामचरित मानस का स्थान सर्वोपरि है। श्रद्धा-भक्ति और भावनाओं का सजीव चित्रण इस रचना में दुर्लभ संयोग है। चित्रकूट वन भ्रमण में स्वप्न एवं झाँकी को आकार देने का दुरूह कार्य रामकृपा से तुलसीदासजी ने संपन्न किया। तुलसीदासजी ने मनुष्यों का चरित न लिखने का अपना प्रण बखूबी निभाया।
रामचरित मानस ग्रंथरत्न का पारायण 'अहिंसा' के आलोक में किया गया तो टीका सहित अष्ट काण्डों में 'अहिंसा' शब्द का प्रयोग अलभ्य रहा। संभव है रचयिता ने इसमें अहिंसा का शाब्दिक प्रयोग न करके अर्थात्मा को महत्त्व दिया है। इस रचना में अहिंसा का भावात्मक प्रयोग अनेक संदर्भों में ग्रहीत है। अहिंसा के अपर पर्याय व्रत, दया, सत्य, नियम, योगादि शब्दों का प्रयोग अनेक संदर्भों में हुआ है। उन्हें अहिंसा के रूप में स्वीकारा जा सकता है। वैसे दया अहिंसा का ही पर्याय है। श्री राम के वनवास जाने पर अवध को अनाथ जानकर पुनः लौटने की प्रार्थना पर श्री राम ने धर्म और सत्य का एक साथ प्रयोग किया । सत्य के बराबर दूसरा धर्म नहीं है । यह वेद, शास्त्र और पुराणों में भी कहा गया है, मैंने उसी धर्म को सुलभ रीति से पाया है, उसे छोड़ने से तीनों लोक में अपयश छा जायेगा । * अतः राम पुनः लौटकर नहीं आये । वनवासी श्री राम का भारद्वाज मुनि ने आतिथ्य कर अहोधन्यता का अनुभव किया । अहिंसा के पर्याय श्री राम-लक्ष्मण सीता को देख कर उन्होंने कहा—आज हमारा तप, तीर्थ, यज्ञ सफल हुआ है। आज हमारा योग, वैराग्य सफल हुआ, हे राम! आज आपका दर्शन करते ही सब शुभ साधनों का समूह सफल हो गया । मनुष्य की बात क्या वन के पशु-पक्षी श्री राम के वनवासी जीवन का संग पाकर बदल गये । हाथी, सिंह, सूकर और हरिण आदि सब वैर छोड़कर एक संग विहार करते रहे । जाहिर है श्री राम का जीवन अहिंसा के आलोक से आलोकित था । उनकी रश्मियों से हिंस्र पशु भी निर्वैर बन मैत्री - प्रेम रस से आप्लावित बन जातें । एक अहिंसक पुरुष का ऐसा ही आभामंडल होता है जिसका संस्पर्श पा वातावरण प्रेममय बन जाता है।
भरत ने जो अपनी आत्म निंदा की है वह अहिंसक व्यक्तित्व का प्रतीक है। अहिंसकचेता ही स्वदर्शन की भूमिका पर आत्मनिंदा कर सकता है।
जब श्री राम से वनवास में अयोध्यावासी मिलने गये तब उन्होंने पाया वनवासी लोग बिना प्रेरणा के ही संयमी बन गये - दूध का आहार, फल, भोजन सिर्फ एक बार रात को करने लगे। आभूषण और भोग छोड़ श्री रामजी के निमित्त नेम और व्रत करने लगे। यह सब अहिंसक चेतना का ही चमत्कार था कि भोग चेतना त्यागमय बन गयी । भरतजी ने राम के वनवासी प्रभाव को मार्मिक शब्दों में चित्रित किया । वन अपनी सम्पत्ति से ऐसा शोभायमान हुआ जैसे अच्छे राजा को पाकर प्रजा सुखी होती है। यहाँ मंत्री वैराग्य, राजा ज्ञान तथा सुहावना वन पवित्र देश है। संयम-नियम उस ज्ञान-रूपी राजा के योद्धा है, पर्वत राजधानी है, शांति, सुमति और पवित्रता ये तीनों सुन्दर रूप वाली रानी है। वह ज्ञान रूपी राजा सब अंगों से परिपूर्ण और रामचन्द्रजी के चरणों के सहारे से उसके चित्त में चाव, आनन्द रहता है ।" वह वन वैर विगत हो गया। इसका उल्लेख अनेक संदर्भों में किया गया ।
वन में रहने वाले भील, स्वभाव से विनम्र और सेवाभावी, आतिथ्य निपुण बन गयें। इसका उदाहरण भरत सहित अयोध्यावासी वन में आये तब प्रस्तुत हुआ । अतिथियों का हृदय से सत्कारसम्मान कर भीलों ने अहोभाग्यता का अनुभव किया। भीलों ने सरल मन से यह भी स्वीकारा कि हम सब जड़ जीवों को मारने वाले खोटे, कुचाली, खोटी बुद्धि वाले कुजाती हैं । रात-दिन पाप करते जाते हैं। कमर में वस्त्र नहीं, पेटभर भोजन नहीं, सपने में भी धर्म बुद्धि किसी की किस भाँति हो,
40 / अँधेरे में उजाला