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उत्तरज्झयणाणि
१६ अध्ययन १ : श्लोक १२,१३ टि० २२-२५
तीन आदि व्यक्ति करें।' भोजन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि जा सकता है। लघुदाक्ष्य का अर्थ होगा क्रियाशील दक्षता, सूक्ष्म प्रवृत्तियां मण्डली में की जाती हैं। ध्यान मण्डली में नहीं किन्तु निपुणता, अविलंबकारिता।
अकेले में किया जाता है। इस प्राचीन परम्परा का ही यहां २५. दुराशय (दुरासयं) निर्देश है।
इसके संस्कृत रूप दो हो सकते हैं-दुराशयः और दुराश्रयः। वर्तमान में सामूहिक ध्यान (ग्रुप मेडिटेशन) को भी
वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने 'दुराश्रय' शब्द मानकर इसका महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसमें शक्ति-संपन्न साधकों के
अर्थ इस प्रकार किया है। अति कुपित होने के स्वभाव वाले प्रकंपनों से निर्बल साधक सहज ही लाभान्वित हो जाते हैं।
गुरु का आश्रय लेना अत्यंत कष्टप्रद होता है। नेमिचन्द्र ने उनकी एकाग्रता को एक सहारा मिल जाता है और वे ध्यान की
इसका अर्थ-शीघ्र कुपित होने वाला किया है। ये दोनों अर्थ गहराई में जाने लगते हैं।
प्रसंगोपात्त हैं। प्राचीन परम्परा के अनुसार दिन के चार प्रहरों में मुनि
व्याख्याकारों ने इस प्रसंग में एक कथा प्रस्तुत की है-- पहले और चौथे प्रहर में स्वाध्याय करे और दूसरे प्रहर में ६
आचार्य चंद्ररुद्र यान करे। इसी प्रकार रात्री के चार प्रहरों में मुनि पहले और चौथे प्रहर में स्वाध्याय करे और दूसरे प्रहर में ध्यान करे।
आचार्य चंद्ररुद्र अत्यंत क्रोधी थे। एक बार वे अपने दिन-रात में चार प्रहर स्वाध्याय के और दो प्रहर ध्यान के होते
शिष्यों के साथ उज्जयिनी नगरी में आए। वे एकांत में
स्वाध्यायरत थे। इतने में ही एक नव विवाहित युवक अपने ध्यान के दो अर्थ हैं
मित्रों के साथ वहां आया और उपहासपूर्वक साधुओं को वंदना
कर बोला—भंते! मुझे धर्म की बात बताएं। साधु उसके (१) सूत्र के अर्थ का चिंतन (२) धर्म-विचय ।
उपहास को समझ कर मौन रहे। वह युवक फिर बोला--भंते! २२. (गलियस्स......आइण्णे)
आए मुझे दीक्षा दें। मैं गृहवास से निर्विण्ण हो गया हूं। मेरे गलियस्स-इसका अर्थ है अविनीत घोड़ा।" गंडी, गली दारिद्रय को देखकर मेरी पत्नी ने भी मुझे छोड़ दिया है। मेरे और मराली-ये तीन शब्द दुष्ट घोड़े और बैल के पर्यायवाची पर कृपा करें और मेरा उद्धार करें। साधुओं ने उसे आचार्य हैं। गंडी--उछल-कूद करने वाला। गली-पेटू । मराली वाहन के पास भेजा। वह आचार्य से बोला---मुझे प्रव्रजित करें। में जोतने पर लात मारने वाला या जमीन पर लेटने वाला। मैं गहवास से ऊब गया है। आचार्य ने उसकी वाणी के उपहास
आइण्णे इसका अर्थ है विनीत घोड़ा। आकीर्ण, विनीत को भांपकर रोषपूर्ण वाणी में कहा---जा, राख ले आ। वह गया। और भद्रक—ये तीन शब्द विनीत घोड़े और बैल के राख ले आया। आचार्य उसका लुंचन करने लगे। मित्र पर्यायवाची हैं।
घबराए। उन्होंने अपने इस मित्र से कहा—भाग जा। अन्यथा २३. (पावगं परिवज्जए)
मुनि बनना पड़ेगा। अभी-अभी तो तेरा विवाह हुआ है। उसने इसका अर्थ है-मुनि अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ दे। सोचा, अब घर कैसे जाऊं? लोच हो गया है। वह मनि बन बृहद्वृत्तिकार ने 'पावगं पडिवज्जइ' को पाठान्तर मानकर गया, भाव श्रमण हो गया। मित्र वहां से भाग खड़े हुए। उसका अर्थ पावक अर्थात् शुभ अनुष्ठान को स्वीकार करता दूसरे दिन उस नव प्रव्रजित शिष्य ने आचार्य चंद्ररुद्र है--किया है।
से कहा—भंते! यहां से अन्यत्र चलें। क्योंकि मेरे परिवार वाले २४. पटुता से कार्य को संपन्न करने वाले शिष्य मुझे घर चलने के लिए बाध्य करेंगे। रात्रि में आचार्य ने (लहुदक्खोववेया)
अपने उस नव शिष्य के साथ प्रस्थान कर दिया। शिष्य आगे
चल रहा था। चलते-चलते अन्धकार की सघनता के कारण प्रस्तुत प्रसंग में 'लघुदाक्ष्य' समस्त पद है। लघु शब्द के
आचार्य को ठोकर लगी और वे गिर पड़े। उन्होंने क्रोध के अनेक अर्थ हैं। यहां इसका अर्थ हल्का, सक्रिय, अविलंब किया । १. उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. २६ : उक्तं हि—'एकस्य ध्यानं द्वयोरध्ययनं ४. बृहद्वृत्ति, पृ. ४८ : गलि:-अविनीतः, स चासावश्वश्च गल्यश्वः। त्रिप्रभृतिग्रामः', एवं लौकिकाः संप्रतिपन्नाः।
५. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गा. ६४ : गंडी गली मराली अरसे गोणे य हुंति २. प्रवचनसारोद्धार गा. ६६२ :
एगट्ठा। सुत्ते अत्थे भोयण काले आवस्सए य सज्झाए।
६. बृहद्वृत्ति, पत्र ४८ : आकीर्णो-विनीतः, स चेह प्रस्तावादश्वः । संथारे चेव तहा सत्तेया मंडली जइणो।।
७. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा ६४ : आइन्ने य विणीए भद्दए वावि एगट्ठा। ३. उत्तराध्ययन २६/१२,१८ :
८. बृहद्वृत्ति पत्र ४८ : पापमेव पापक, गम्यमानत्वादनुष्ठानं परिवर्जयेत् - पढम पोरिसिं सज्झायं, बीयं झाणं झियायई।
सर्वप्रकार परिहरेत्...पठन्ति च-'पावगं पडिवज्जइ' ति तत्र च पुनातीति तइयाए भिक्खायरियं, पुणो चउत्थीए सज्झायं ।।
पावकं शुभमनुष्ठानं प्रतिपयेत--अंगीकुर्यात्। पढम पोरिसिं सज्झायं, बीयं झाणं झियायई।
६. वही, पत्र, ४६ : दुःखेनाश्रयन्ति तमतिकोपनत्वादिभिरिति दुराश्रयः । तइयाए निद्दमोक्ख तु, चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं ।।
१०, सुखबोधा, पत्र ४ : दुराशयमपि आशुकोपनमपि।
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