Book Title: Sanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Author(s): Yudhishthir Mimansak
Publisher: Yudhishthir Mimansak
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (तृतीय भाग) *** युधिष्ठिर मीमांसक Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम् संस्कृत व्याकरण-शास्त्र इतिहास [तीन भागों में पूर्ण] तृतीय भाग [इस संस्करण में परिष्कार तथा परिवर्धन के कारण ७० पृष्ठ बढ़े हैं] -युधिष्ठिर मीमांसक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक युधिष्ठिर मीमांसक बहालगढ़, जिला - सोनीपत (हरयाणा) संस्करण प्रथम भाग अधूरा मुद्रण प्रथम संस्करण सं० २००४ सं० २००७ द्वितीय संस्करण सं० २०२० तृतीय संस्करण सं० २०३० प्रस्तुत संस्करण सं० २०४१ द्वितीय भाग [२] प्रकाशन - काल तृतीय भाग प्रथम संस्करण सं० २०१६ द्वितीय संस्करण सं० २०३० प्रस्तुत संस्करण सं० २०४१ प्रथम संस्करण सं० २०३० प्रस्तुत संस्करण सं० २०४१ चतुर्थ संस्करण' १००० सं० २०४१ वि० सन् १९८४ ई० पृष्ठ-संख्या ३०० ४५७ ५८२ ६४० ७२४ ४०६ ४५६ ५६६ १६८ २७० मूल्य तीनों भाग एक साथ - 150/ परिवर्धन लाहौर में नष्ट १५० पृष्ठ १२५ पृष्ठ ५८ पृष्ठ ८४ पृष्ठ ५० पृष्ठ ४० पृष्ठ ७० पृष्ठ मुद्रक - शान्तिस्वरूप कपूर रामलाल कपूर ट्रस्ट प्रेस बहालगढ़, जिला - सोनीपत (हरयाणा) १. प्रथम भाग की दृष्टि से इस वार द्वितीय और तृतीय भाग पर भी चतुर्थं संस्करण छापा है । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम रूप से परिष्कृत तथा परिवर्धित प्रस्तुत संस्करण की भूमिका पूर्व संस्करणके समान इस बार भी अन्तिम रूप से परिष्कृत एवं परिवधित संस्करण के तीनों भागों का मुद्रण एक ही साथ कर रहा हूं। संशोधन, परिवर्धन, परिष्करण संशोधन-तृतीय भाग के इस संस्करण में से पूर्व संस्करणस्थ सातवां परिशिष्ट, जिसमें भर्तृहरि कृत महाभाष्यदीपिका के दोनों भागों में उद्धृत पाठों पर निर्दिष्ट हस्तलेख की पृष्ठ संख्याकी पूना से मुद्रित ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या से जो तुलनात्मक सूची छापी थी, उसे निकाल दिया है । इस बार मुद्रित ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या भी तत्तत् उद्धरण के साथ दे दी है। परिवर्धन-इस वार चार परिशिष्ट नये जोड़े हैं । सातवें परिशिष्ट में समुद्रगुप्त-विरचित कृष्णचरित का जो स्वल्प भाग उपलब्ध हुआ है उसे दे दिया हैं, क्योंकि इस ग्रन्थ में प्रस्तुत कृष्णचरित के अनेक स्थानों पर पाठ उधत किये हैं। पूर्व गोंडल से मुद्रित कृष्णचरित सम्प्रति उपलब्ध भी नहीं है । पाठवें परिशिष्ट में दूसरे भाग के पृष्ठ ३६२ पर निर्दिष्ट निरुक्त १।१७ के पदप्रकृतिः संहिता, पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि वचन की विशेष विवेचना की है। नवें परिशिष्ट में जार्ज कार्डोना ने अपने 'पाणिनि : ए सर्वे आफ रिसर्च' नामक ग्रन्थ में मेरे 'व्या० शा० का इतिहास के सम्बन्ध में जो कुछ मन्तव्य प्रकट किया है, उसे यथावत् हिन्दी में अनदित करके छापा है । साथ में अपनी कुछ टिप्पणियां भी दी हैं। ग्यारहवें परिशिष्ट में 'सं० व्या० शा० का इतिहास' ग्रन्थ के लेखन, परिष्कार एवं परिवर्धन निमित जिन विद्वज्जनों ने पत्रों द्वारा समय-समय पर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. [४] सहायता प्रदान की, उनके कतिपय विद्यमान पत्रों को छापा है, जिससे मैं उनके उपकार से कुछ सीमा तक उऋण हो सकू। परिष्कार-पूर्व संस्करण में देश नगर व्यक्ति वा ग्रन्थों के नामों की सूचियां दो परिशिष्टों में प्रतिभाग अलग अलग दी थीं; उन्हें इस वार प्रतिभाग अलग अलग न देकर दो परिशिष्टों में इकट्टी दे दी है। विशेष-प्रथम दो भागों का मुद्रण तो सितम्बर १९८४ तक हो गया था। तृतीय भाग का भी कुछ अंश छप गया था, परन्तु कार्याधिक्य के कारण अस्वस्थता बढ़ जाने से दो मास तक काम रुका रहा । अस्वस्थता में ही आगे का कार्य प्रारम्भ किया, परन्तु ज्यों ज्यों शीत बढ़ता गया, शारीरिक प्रतिकुलता बढ़ती गई। एक बार तो मन में पाया कि तीनों भागों में उदधत देश नगर तथा व्यक्तियों के नामों की तथा उद्धृत ग्रन्थों के नामों की सूची न छापू, परन्तु जीवन में यह अन्तिम संस्करण होने के कारण नाम-सूची और ग्रन्थ-सूची, जिनका निर्माण करना अत्यन्त परिश्रम एवं काल साध्य कार्य है, देना आवश्यक मानकर इन सूचियों को देकर तृतीय भाग पूर्ण किया है। इससे पाठकों को जो असुविधा हुई है उसके लिये मुझे खेद है, परन्तु अस्वस्थ अवस्था में भी कार्य किसी प्रकार पूर्ण हो गया, इसकी प्रसन्नता भी है । अंगला संस्करण देवाधीन है। विविध शास्त्र पारङ्गत श्री पं० पद्मनाभ रावजी (प्रात्मकूर) ने ६ दिसम्बर १९८४ के पत्र में निम्न पुस्तकों का 'सं० व्या० शा० का इतिहास' ग्रन्थ में सन्निवेश करने का सुझाव दिया है (द्र० यही भाग, पृष्ठ १६७)१-प्राचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन-एक अध्ययन, डा० नेमिचन्द्र शास्त्री। २-शब्दार्थरत्नम् (दार्शनिक)- श्री तारानाथतर्कवाचस्पति ३- व्याकरणदर्शनभूमिका-श्री रामाज्ञा पाण्डेय ४- व्याकरणदर्शनपीठिका- " " ५-व्याकरणदर्शनप्रतिभा- " " ६-व्यासपाणिनिभावनिर्णय-म० न० सेतुमाधवाचार्य Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७-शब्देन्दुशेखरव्याख्या-श्री म० म० सुब्वरायाचार्य ८-शेखरद्वय (लघु-बृहत् ) व्याख्या- श्री पं० पद्मनाभाचार्य 8-लघुशेखरव्याख्या-एलमेलि विट्ठलाचार्य । इनके अतिरिक्त श्री पं० गुरुपद हालदार कृत 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' ग्रन्थ का निर्देश भी होना चाहिये । जैसे नारायण भट्ट का 'अपाणिनीय-प्रमाणता' ग्रन्थ है, उसी प्रकार के दो ग्रन्थ और हैं-१. मखभूषण, २. पार्षप्रयोगसाधत्वनिरूपण। ये दोनों ग्रन्थ 'प्राडियर लायब्रेरी बुलेटिन' के भाग ३७ (सन् १९७३) तथा भाग ४२ ( सन् ? ) में छपे हैं । इनका निर्देश वा प्रकाशन भी होना चाहिये। इस जीवन में यदि 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' का पुर्नमुद्रण होगा तो इस न्यूनता को भी पूरा करने का प्रयत्न करूंगा। ___ यद्यपि इस जीवन में (चिरकाल से अस्वस्थ रहने के कारण) नये संस्करण के प्रकाशित होने की आशा तो नहीं है, पुनरपि प्रयत्न करूंगा कि जीवन पर्यन्त नये ज्ञात तथ्यों का यथास्थान संकलन और भूलों का परिमार्जन करता जाऊं, जिससे मेरे पश्चात् निकलने वाला संस्करण प्रस्तुत संस्करण से कुछ परिमार्जित एव परिवर्धित हो सके। निवेदन-कार्य की व्यस्तता और अस्वस्थता के कारण इस ग्रन्थ के प्रस्तुत संस्करण में हुई कुछ भूलों वा स्खलनों के लिये मैं पाठकों से क्षमा चाहता हूं और पाठकों से निवेदन करना चाहता हूं कि प्रथम द्वितीय भाग के संबन्ध में तृतीय भाग के दसवें परिशिष्ट में जो संशोधन परिवर्तन परिवर्धन दर्शाये हैं, उन को यथास्थान जोड़कर पढ़ने की कृपा करें। विशेष कर प्रथम भाग, पृष्ठ १३४, तथा द्वितीय भाग, पृष्ठ २०७ पर शस्तन नाम के स्थान में शान्तनव शोध कर पढ़ें । इस संशोधन के लिये द्वितीय भाग में 'फिट-सूत्र-प्रवक्ता पौर व्याख्याता नामक २७ वें अध्याय में पृष्ठ ३४६-३४६ देखें। वहां इसका स्पष्टीकरण किया है। इस बार व्यक्ति-नामों और ग्रन्थनामों की सूचियों में समान नाम Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६] के व्यक्तियों और ग्रन्थों का यथासम्भव भेद प्रकट करने का विशेष यत्न किया है, पुनरपि कहीं कहीं सम्मिश्रण होने की संभावना है। ___ इस ग्रन्थ के मुद्रण-पत्र (=प्रूफ) संशोधन का कार्य श्री ओङ्कारजी ने किया है। कार्याधिक्य तथा अस्वस्थता के कारण मैं मुद्रण-पत्रों का संशोधन नहीं कर सका । इस कार्य के लिये मैं श्री प्रोङ्कार जी का आभारी हूं। इसी प्रकार सूचियों के निर्माण में श्री शिवपूजनसिंह.जी कुशवाह ने जो सहयोग दिया है उसके लिये उनका भी मैं प्राभारी विदुषां वशंवद:युधिष्ठिर मीमांसकः Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका [ प्रथम संस्करण] 1 सं० २००७ में 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ का प्रथम भाग छपा था । उसके लगभग १२ वर्ष पीछे सं० २०१६ में द्वितीय भाग का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ । सं २०२० में जब प्रथम भाग का द्वितीय संस्करण छपा, तो उस समय इस ग्रन्थ से सम्बद्ध अवशिष्ट विषयों की पूर्ति के लिए तृतीय भाग की आवश्यकता का अनुभव हुआ। तृतीय भाग में दी जाने वाली सामग्री की उसमें संक्षिप्त सूची भी प्रकाशित की, परन्तु विविध कार्यों में व्यासक्त होने तथा आर्थिक परिस्थिति के कारण इतने सुदीर्घ काल में भी मैं तृतीय भाग का प्रकाशन न कर सका । उक्त कमी को अब दस वर्ष पश्चात् पूरा किया जा रहा है । व्याकरण - शास्त्र के इतिहास का विषय दो भागों में पूर्ण हो गया । इस भाग में व्याकरण - शास्त्र के इतिहास में यत्र तत्र निर्दिष्ट २-३ दुर्लभ लघु ग्रन्थ, पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या नागोजि भट्ट तथा अनन्त शर्मा पर्यालोचित अष्टाध्यायी का सूत्रपाठ ( दुलभ हस्तलेख ), अष्टाध्यायी के पाठान्तर प्रादि का निर्देश प्रमुख रूप से किया हैं । दोनों भागों के नवीन संस्करणों में यत्र-तत्र पूर्व प्रकाशन के पश्चात् उपलब्ध सामग्री का यथास्थान निर्देश कर दिया था । पुनरपि शोधकार्य कभी पूर्ण नहीं होता । नित्य नई सामग्री उपलब्ध होती. रहती है । प्रतः दोनों भागों के नवीन संस्करण के पश्चात् नूतन उपलब्ध सामग्री का 'संशोधन, परिवर्तन, परिवर्धन' परिशिष्ट में सन्निवेश किया है । इसी प्रकार हमने अपने ग्रन्थ में सर्वत्र भर्तृहरि विरचित महाभाष्यदीपिका के जहां भी उद्धरण दिये हैं, वहां हमने अपने हस्तलेख की पृष्ठ संख्या दी थी, क्योंकि उस समय उक्त ग्रन्थ छपा नहीं था । महाभाष्यदीपिका का मुद्रण हो जाने के पश्चात् यह Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 5 ] प्रावश्यक था कि दोनों भागों में दिये गये महाभाष्यदीपिका के पाठ मुद्रितन्य में किस पृष्ठ पर कहां है, इसका निर्देश किया जाये । इसकी पूर्ति भी आठवें परिशिष्ट में की गई है ।' दोनों भागों के पूर्व संस्करणों में ग्रन्थ में उद्धृत ग्रन्थ, ग्रन्थकार या विशिष्ट व्यक्तियों के नामों की सूची देनी आवश्यक थी। इसके विना शोध कार्य करनेवालों को महती प्रसुविधा होती थी । इस भाग में उक्त सूचियां देकर इस ग्रन्थ की महतो कमी को पूरा कर दिया है । इस प्रकार इस भाग के साथ हमारा ग्रन्थ पूर्ण होता है । तीनों भागों में उद्धृत ग्रन्थ, ग्रन्थकार वा व्यक्ति विशेषों के नामों की सूची बनाने का जटिल एवं समयसाध्य कार्य रामलाल कपूर ट्रस्ट के द्वारा संचालित 'पाणिनि विद्यालय के प्राचार्य श्री पं० विजयपाल जी व्याकरणाचार्य, विद्यावारिधि ने किया है । यदि वे इस कार्य को करना स्वीकार न करते, तो सम्भव है इस संस्करण में भी यह कमी रह जाती । इस महत्त्वपूर्ण कार्य को पूरा करके अपने जा सहयोग दिया है, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं । इसी प्रकार प्रूफ संशोधन का जटिल कार्य रामलाल कपूर ट्रस्ट प्रेस के संशोधक श्री पं० महेन्द्र शास्त्री जो ने किया है । इसके लिए मैं प्राप का धन्यवाद करना अपना कर्त्तव्य समझता हूं । इसके साथ ही रायसाहब श्री चौधरी प्रतापसिंह जी (करनाल) ने भी इस भाग के प्रकाशन में जो अप्रत्यक्ष सहयोग दिया है । उसके लिए मैं आपका अत्यन्त प्रभारी हूं । रामलाल कपूर ट्रस्ट भाद्र पूर्णिमा बहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा) सं० २०३० विदुषां वशंवदःयुधिष्ठिर मोमांसक १. प्रस्तुत सं० २०४१ के संस्करण में 'महाभाष्यदीपिका' के जहां भी उद्धरण दिये हैं, वहां सर्वत्र अपने हस्तलेख की पृष्ठ संख्या के साथ मुद्रित संस्करण की पृष्ठ संख्या भी दे दी है, अतः प्रस्तुत संस्करण में इस परिशिष्ठ की प्रावश्यकता नहीं रही । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हताय माग तृतीय भाग की विषय-सूची परिशिष्ट विषय पृष्ठ १-प्रपाणिनीय-प्रमाणता (नारायणभट्ट-कृत) २-पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या का निदर्शन १५ व्याकरणविषयक दो सिद्धान्त पृष्ठ १५ । वैयाकरणों की कठिनाई १६ । व्याकरणशास्त्र के अर्वाचीन व्याख्याता १७ । व्याकरणशास्त्र का मुख्य आधार १८, कलौ पाराशरी स्मता १६, यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम् १६, प्राचीन मतों का संग्रह १६ । पाणिनीय सूत्रों की भाषाविज्ञानिक व्याख्या २० । प्रस्तुत व्याख्या का आधार २१, प्रकृत्यन्तर सद्भाव की कल्पना-मागम संयूक्त धात्वन्तर २३, आदेशरूप धात्वन्तर २४, वर्णविकार से निष्पन्न धात्वन्तर २४, वर्णविपर्ययरूप धात्वन्तर २१, प्रातिपदिकरूप प्रकृत्यन्तर २६, 'मनोतिावश्यतो षुक च' सूत्र और उसकी वैज्ञानिक व्याख्या २७. मनुष प्रकृत्यन्त र कल्पना का लाभ २७, सुगागमयुक्त सान्त प्रकृति २८, 'कन्यायाः कनीन च' सूत्र और उसकी वैज्ञानिक व्याख्या २६, कनीना प्रकृति कल्पना का लाभ ३०, तवक ममक प्रकृत्यन्तर ३०, 'हग्रहोर्भश्न्द सि हस्य' वार्तिक और वैज्ञानिक व्याख्या ३०, 'राजाहःसखिभ्यष्टच' सूत्र और वैज्ञानिक व्याख्या ३१, वैज्ञानिक व्याख्या का लाभ ३२, प्रकारान्त राज और अह शब्द ३२, 'विभाषा समासान्तो भवति' वचन पर विचार ३३, 'ऊधसोऽनङ्ग' सूत्र और प्रकृत्यन्तर कल्पना ३३, निषेधार्थक न अ अन तीन स्वतन्त्र अव्यय ३३ । प्रत्ययान्तर सद्भाव की कल्पना ३४, गणकार्य का उपलक्षणत्व ३५, लोक में एक से अधिक विकरणों का सह प्रयोग ३६, धातुगत अनुबन्धों की प्रायिकता ३७ । पाणिनीय प्रयोग द्वारा नियमान्तर की कल्पना ३ । विभक्ति नियम ३६ । समानवाक्य में वैकल्पिक विभक्तियों का सहभाव ४०, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] लिङ्ग नियम ४१, समास नियम ४१ । 'उक्तार्थानामप्रयोगः' नियम का ज्ञापन ४२ । उपसंहार ४४ । ३-मागोजि भट्ट पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायीपाठ ४६ ४-अनन्तराम-पर्यालोचित भाष्यसम्मल सूत्रपाठ ५-मूल पाणिनीय शिक्षा सूत्रात्मिका शिक्षा ६२, लघु और वृद्धपाठ ६३, आपिशल शिक्षा और पाणिनीय शिक्षा ६४, पाणिनीय शिक्षा का वृद्धपाठ ६७, लघुपाठ और वृद्धपाठ की तुलना ६६ ।। - पाणिनीय [सूत्रात्मिका] शिक्षा के वृद्ध और लघुपाठ-७१, स्थान-प्रकरण ७१, करण-प्रकरण ७३, अन्तःप्रयत्न-प्रकरण ७३, बाह्यप्रयत्न-प्रकरण ७४; स्थानपीडन-प्रकरण ७६, वृत्तिकार-प्रकरण ७६, प्रक्रम-प्रकरण ७७, नाभितल-प्रकरण ७८ । ६--जाम्बवतीविजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश ८२ ७-समुद्रगुप्त विरचित कृष्णचरित का उपलब्ध ग्रंश ३ -'पदप्रकृतिः संहिता' पर विशेष विचार ९-'सं०व्या०शा०६०' पर श्री जार्ज कार्डीना का अभिमत १०६ १०-संशोधन-परिवर्तन-परिवर्धन प्रथम भाग में-पृष्ठ १२४; द्वितीय भाग में पृष्ठ १३१ ११-'सं० व्या० शा० इ०' के लेखन-कार्य में विशिष्ट विद्वानों के सहयोगात्मक पत्र १२--उद्धृत व्यक्ति-वेश-नगर प्रावि नामों की सूची (तीनों . भागों में निविष्ट) १०१ १२४ सं० च्या० शा० के तृतीय भाग में परिवर्षन संशोधन सं० व्या० शा के इतिहास ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या-निर्देश पूर्वक निर्दिष्ट कतिपय ग्रन्थों का विवरण मात्म-परिचय Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ३म् संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास [परिशिष्टसंग्रहात्मक तृतीय भाग] पहला परिशिष्ट अपाणिनीय-प्रमाणता इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में संस्कृत-भाषा की प्रवृत्ति, विकास और ह्रास' का सप्रमाण विशद उपन्यास किया है। व्याकरणशास्त्र का अध्ययन करते समय संस्कृत-भाषा की विपुलता और उसके उत्तरोत्तर ह्रास का परिज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा आधनिक वैयाकरणों के द्वारा कल्पित 'प्रपाणिनीयत्वाद प्रप्रमाणम् १० अपशब्दो वा, यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम्' प्रादि विविध नियमों के चक्कर में पड़कर शास्त्रतत्त्व तक पहुंचना दुष्कर हो जाता है। इसीलिये हमने उक्त प्रकरण में २० प्रकार के प्रमाण उपस्थित करके यह सिद्ध किया है कि अति पुराकाल में संस्कृत-भाषा अतिविशाल थी, मानवों के मतिमान्द्यादि कारणों से वह उत्तरोत्तर ह्रास को प्राप्त १५ होकर भगवान् पाणिनि के समय अत्यन्त संकुचित हो गई थी। भगवान् पाणिनि ने यथासम्भव स्वसमय में अवशिष्ट भाषा के व्याकरण का प्रवचन किया। प्राचीन आर्षवाङमय में बहुधा तथा अर्वाचीन वाङमय में क्वचित् ऐसे प्रयोग उपलब्ध होते हैं, जो पाणिनीय व्याकरण से सिद्ध २० नहीं होते । आधुनिक वैयाकरण इस प्रकार के अपाणिनीय प्रयोगों को प्रसाधु-अपशब्द मानते हैं । परन्तु यह मन्तव्य शास्त्र-सम्मत नहीं हैं, यह हमने प्रथम अध्याय में विस्तार से दर्शाया है। इस प्रसङ्ग में हमने (भाग १, पृष्ठ ४६) भट्ट नारायणकृत 'प्रपाणिनीयप्रमाणता' का निर्देश किया है। यह निबन्ध 'त्रिवेन्द्रम्' में छपा था, सम्प्रति २५ अलभ्य है । पुस्तक का लेखक आधुनिक धुरन्धर वैयाकरण है । इस Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कारण प्रस्तुत निबन्ध की महत्ता को देखते हुए हम उसे नीचे प्रकाशित कर रहे हैं प्रक्रियासर्वस्वकार-नारायणभट्टकृता अपाणिनीय-प्रमाणता सुदर्शनसमालम्बी सोऽहं नारायणोऽधुना । वैनतेय ! भवत्पक्षमाक्रम्य स्थातुमारभे ॥१॥ तत्रायं संग्रह-- "पाणिन्युक्तं प्रमाणं, न तु पुनरपरं चन्द्रभोजादिसूत्रम्"; केऽप्याहुस्तल्लघिष्ठं, न खलु बहुविदामस्ति निर्मूलवाक्यम् ; बहङ्गीकारभेदो भवति गुणवशात, पाणिनेः प्राक कथं वा; पूर्वोक्तं पाणिनिश्चाप्यनुवदति, विरोधेऽपि कल्प्यो विकल्पः ॥२॥ अत्र तावद् इन्द्रचन्द्रकाशकृत्स्न्यापिशलिशाकटायनादिपुरातनाचार्यविरचितानां व्याकरणानामप्रमाणत्वमेव; मुनित्रयोक्तस्यैव तु प्रामाण्य मिति केचित् पण्डितंमन्या मन्यन्ते । तद् अपहसनीयमेव ; . चन्द्रादिवचसामनाप्तप्रणीतत्वाभावेन प्रामाण्यनिश्चयात् । पुरुषवचसामप्रामाण्यं तावद् अनाप्तप्रणीतत्वहेतुकमेवेति चन्द्रादिशास्त्राणामप्रामाण्य वद्भिस्तेषामनाप्तत्वे प्रमाणं वक्तव्यम् । तत्र तेषामनाप्तत्व तावत् प्रत्यक्षतो न लक्ष्यते । चन्द्रादिवाक्यमप्रमाणम्; शिष्टानङ्गी कृतत्वात् ; अवैदिकवाक्यवत-इत्यनुमानमत्र प्रसरीसति इति चेत् २० तत्र शिष्टानङ्गीकृतत्वमसिद्धमेव । तथा हि-के नामात्र शिष्टा व्यपदिष्टाः ? किं वैदिका एव; उत साधुशब्दव्यवहारिणः ? उत ये केचिद् भवदभीष्टा वा ? तत्राद्ये तावत् परमवैदिकानां वेदव्यासादीनां मुनित्रयालक्षितबहुपदप्रयोगदर्शनात् । 'दृष्टवा बहुव्याकरणं मुनिना भारतं कृतम्'-इति २५ चोक्तत्वात, शङ्कराचार्याणामपि प्रपञ्चसारादिषु 'हनेद' इत्यादि मुनित्रयानुक्तपदप्रयोगात्; वैदिकोत्तमानां च मुरारिमिश्र-सुरेश्वराचार्यादीनां विश्रामादि-शब्दप्रयोगात्, वैदिकवीरस्य नैषधकारस्य १. सुर्दशनम् - सच्छास्त्रमिति च । वैनतेय इति कश्चित पण्डितः । तस्य 'अपाणिनीयमप्रमाणम्' इति मतं निराकर्तु मेव नारायणभटटेन प्रबन्धोऽयं ३० लिखितः । नारायणः सोऽहम् =नारायणीयस्तोत्र-प्रक्रियासर्वस्वादीनां कर्ता॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाणिनोय-प्रमाणता 'नवाल्पमेधसि पटोरुचिमत्त्वमस्य'-इत्यादि प्रयोगात्, वैदिकस्थापकानां 'विद्यारण्याचार्याणां' 'धातुवृत्तौ' कथापयति' इत्यादौ शाकटायनादिमताङ्गीकारात्, वोप्पदेव-कौमुदीकारादीनां च वैदिकवराणामपाणिनीयानेकशब्दप्रदर्शनदर्शनात, इदानीमप्यूत्तरदेशस्थैर्वैदिकश्रेष्ठः सारस्वतादिव्याकरणानां प्रमाणीकरणात्, कौमुद्याश्च सर्वदेशपरि- ५ गृहीतत्वात्, पाणिनीयोत्पत्तेः प्राग्भवैश्च वैदिकैः व्याकरणान्तराणामेवाङ्गीकृतत्वात, पाणिनीयव्यतिरिक्तच्छान्दसलक्षणानां प्रातिशाख्यानां युष्माभिरङ्गीकृतत्वाच्च व्याकरणान्तराणां शिष्टाङ्गीकृतत्वं स्पष्टतरमेव ।। ननु व्यासावृषिवचसां छान्दसत्वेन सिद्धत्वात् तत्सिद्धये कुतो १० व्याकरणान्तराङ्गीकारः ? 'दृष्ट्वा बहुव्याकरणम्' इत्यस्य च एकमेव व्याकरण बहुशो दृष्ट्वा इत्यर्थः-इति चेत्, तन्न, मुनित्रयानुक्तच्छान्दसपदसमर्थनार्थ छान्दसलक्षणतयापि व्याकरणान्तराणां तैरादरणीयत्वात्, 'बहुव्याकरण'मित्यस्य क्लिष्टार्थकल्पनानुपपत्तेः । ननु 'व्यत्ययो बहुलम्" 'बहुलं छन्दसि" 'सर्वे विधयः छन्दसि विकल्प्यन्ते” १५ इति सूत्रवातिकवचनादेव सिद्धेः व्याकरणान्तरं नान्वेष्यमिति चेत् तहि एतैरेव वचनैः कृतार्थों पाणिनिकात्यायनौ छान्दसविषयग्रन्थिकत्यायां किमर्थं परिक्लिष्टौ ? तस्माद् व्यासायुक्तावपि विशेषलक्षणव्याकरणान्तरं लभ्यमेव । न च प्रातिशाख्यलभ्यमिति वाच्यम् ; तेषामपि व्याकरणान्तरत्वेन २० भवदुक्तिविरोधित्वात् । ननु प्रातिशाख्यानि असाधारणव्याकरणान्येव, साधारणव्याकरणान्तराणामेव च प्रामाण्यमस्माकमनिष्टम् इति चेन्न, अपाणिनीयत्वसाम्येऽपि असाधारणव्याकरणानामिष्टत्वे साधारणेषु विद्वेषे च निमित्ताभावात् । पाणिनीयस्य नियमपरत्वात् तत्सदृशेषु अन्येषु प्रद्वेष इति तु पश्चान्निराकरिष्यते । यत्तु–'अपशब्दास्त्रयो २५ माघे' इत्यारभ्य 'व्यासस्तन्यतां गतः' इति तदपि गुरुलघ्वोः ग-लशब्दोक्तिवत्, नामैकदेशेन नामग्रहणादपशब्दा इति अपाणिनोयशब्दा इति व्याचक्षते महान्तः । उक्तं च १. कौमुदीकारशब्देनेह प्रक्रियाकौमुदीकृदिहाभिप्रेत: । कौमुदीशब्देनेह सर्वत्र प्रक्रियाकौमुदी ग्राह्या। २, अष्टा० ३।११८५॥ ३. अष्टा० २।४।७३, ७६ इत्यादि बहुत्र । ४. महाभाष्य १४६॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५ १० "अष्टादशपुराणानि नव व्याकरणानि च । निर्मथ्य चतुरो वेदान् मुनिना भारतं कृतम् ॥” इति । "यान्युज्जहार भगवान् व्यासो व्याकरणाम्बुधः । तानि कि पदरत्नानि मान्ति पाणिनिगोष्पदे ?" ॥ इति च ननु छान्दासानाम् अच्छान्दसत्वेन प्रयोगादेव व्यासस्य व्याकरणानभियुक्तत्वमिति चेत्-मैवं सर्वज्ञं व्यासं प्रत्यमङ्गलं वचः । एवञ्च पाणिनेरपि व्याकरणानभियुक्तत्वं स्याद् इति स्वगलच्छेदकमेवेदं भवतो वचनम्। सोऽपि हि 'वृद्धिरादेच्" इति कुत्वाभावं छान्दसमेव प्रयुकावान् इति 'कुत्वं कस्मान्न भवति' इत्यादिना भाष्यजालेन भाष्यते इत्यास्तां तावत् । एतेन 'साधशब्दव्यवहारत्वं शिष्टत्वम् इति च निरस्तम् । किञ्च, शिष्टव्यवहृतानामेव साधुत्वम् साघुशब्दव्यवहारिणामेव शिष्टत्वम् इति परस्पराश्रयोऽपि प्रसज्येत । शिष्टप्रयुक्तानामेव साधुत्वमिति च व्याकरणमीमांसायामविवादमिति । __ एवं तृतीयपक्षोऽपि म्रदीयान् । 'मुनित्रयमतमात्राङ्गीकारिण एव १५ शिष्टाः' इत्यत्र श्रतिस्मतिवचनाभावेन भवत्कपोलमात्रकल्पितत्वात् । मुनित्रयवचनस्यैव प्रामाण्यात् तदङ्गीकारिणामेव शिष्टत्वमिति चेत कहिचित् प्रामाण्यवशात् तदङ्गीकारिणां शिष्टत्वम्, शिष्टाङ्गीकृतत्वाच्च प्रामाण्यम्-इत्यन्योन्याश्रयलाभ एव धन्यात्मनाम् । अथ ये केचिदेव भवदभीष्टाः शिष्टा इति चेत्-ये केचिद् अस्मदभीष्टा इति २० दुर्युक्ति-युक्त एवायं वादकलहः स्यात् । तदिदमुक्तम "न खलु बहुविदामस्ति निर्मूलवाक्यम्" इति । बहुविदां व्यासशङ्करादीनां निर्मूलपदप्रयोगाभावात् तन्मूलतया व्याकरणान्तराणां तैरङ्गीकृतत्वात्, शिष्टाङ्गीकृतत्वहेतुरसिद्ध एवेति भावः । शब्दाश्च वैदिको वा मन्वादिकथितो वा न व्याकरणान्तरा२५ णामप्रामाण्यबोधको दृश्यते । न च मुनित्रयवचनं तदनुसारि ग्रन्था न्तरं वा पुनरितरप्रमाण्यप्रतिक्षेपकं साक्षादीक्षामहे । ___ यत्तु क्वचिद् ‘विश्रामा'दीनामयुक्तत्वभाषणम्, तल्लक्षणान्तरः दर्शनेन प्रयोक्तव्यम्, इत्येतावत्परम् । अन्यथा सर्वदैव मुनित्रयवचन निबद्धादसणां मुरार्यादीनां तत्प्रयोगानुपपत्तः। ३० किञ्च, मुनित्रयतदनुसारिवचसां प्रामाण्यातिशये सिद्ध एव तैरन्य १. अष्टा० १११११॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाणिनीय-प्रमाणता शास्त्राणां बाधः, अन्यशास्त्राणाम् एतद्बाध्यत्वेन दौर्बल्यातिशये सिद्ध एव च एतद्वचसां प्रामाण्यातिशयसिद्धिः, इत्यन्योन्याश्रयेणैव हन्यन्ते महान्तः । मुनित्रयवचनादेव मुनित्रयवचनप्राबल्यसिद्धिरिति स्वाश्रयमपि प्रसक्तमेव । न च "पञ्च पञ्चनखा भक्ष्याः' इतिवत् मुनित्रयवचनेन 'एत एव साधुशब्दाः' इति नियमितत्वाद् अन्येषामप्रामाण्य- ५ मिति वाच्यम् । 'पाबादयः प्रयोगतोऽनुसर्तव्याः'-इत्यादेः तत्र तत्र वर्णनात्, प्राकृतिगणादिपरिग्रहाच्च नियमाभावस्य स्पष्टत्वात् । अन्यथा पाणिनिकात्यायनाभ्यामेत एव साधव इति नियमनाद भाष्यकारकृतेष्ट्यादिवचनमप्रमाणं स्यात् । पाणिनिनियमितत्वाद्वा कात्यायनवचनान्यपि बाध्येरन्। ननु पतञ्जलेः सर्वोत्कृष्टत्वात् तद्वचनबाधाभावाय व्याकरणन्तरमपि प्राप्तम् । मुनित्रयवचनस्य नियमपरत्वे छान्दससूत्रैरेत एव साधुशब्दा इति नियमितत्वात् प्रातिशाख्यान्यपि प्रत्याख्येयानि स्युः । ननु मुनित्रयवचने वेदविशेषलक्षणानिरीक्षणात् सामान्यलक्षणपराणि व्याकरणान्तराणि एव तेन व्यावय॑न्ते; न वेदवशेषलक्षण- १५ पराणि प्रातिशाख्यानि इति चेन्न-'सम्बुद्धौ शाकल्यस्येतावना यजुष्युरः'3 'देवसुम्नयोर्यजुषि काठके' 'सामसु' इकः प्लुतपूर्वस्य सवर्णदीर्घबाधनार्थ यणादेशो वक्तव्यः' इत्यादि वेदविशेषलक्षणानामपि स्पष्टं दृष्टत्वात् । न च, 'दृष्टानुविधिश्छन्दसि भवति" इति वचनात्, छान्दसेष न नियमः प्रवर्तते, इति वाच्यम् । शास्त्रसाकल्यस्य नियम- २० परत्वे तदन्तर्गतछान्दसेऽपि नियमस्य दुर्वारत्वात् । 'शिष्टप्रयोगानुसारि व्याकरणम्' इति तत्र तत्र दर्शनेन, लौकिकेष्वपि शिष्टानुविधिसाम्याच । तस्माद् प्राकृतिगणादिभिः सावशेषे शास्त्रे एतेषामेव शब्दानां प्रयोगे धर्मो भवतीति नियन्तुमशक्यत्वात्, 'एतत्प्रकाराणां साधुशब्दानां प्रयोगे धर्मः, तदितरापशब्दप्रयोगे तु अधर्मः' इत्येतावदेव २५ १. रामा० किष्किन्धा १८॥३६॥ बु बोधा० प्रश्न १, अ० ५, सू० १५२ । २. अष्टा० १११।१६॥ ३. अष्टा० ६।११११३॥ ४. अष्टा० ७।४।३८॥ ५. द्र०-'यज्ञकर्मण्यजपन्यूजसामसु' अ० १।२।२४॥ ६. द्र०-महाभाष्य ८।२।१०८॥ इह वात्तिकाभिप्रायस्यार्थतोऽनुवादः। ३० ७. महा० १११६॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण का इतिहास नियमपरत्वं वक्तव्यम् । अत एव तद्धितप्रकरणे शिष्टाप्रयोगतोऽनुगन्तव्यम्' इत्यस्मिन्नर्थे वृत्तिकारेण' उक्त पदमञ्जरीकृदाह' ___ 'किमर्थं तहि व्याकरणमिति चेदुच्यते-व्याकरणोक्तान शब्दान् । . विदित्वा तत्सम्यग्व्यहारिणः पुरुषान् दृष्ट्वा शिष्टा एते इत्यवगम्य ५ तत्प्रयुक्तमन्यदपि ग्राह्यतया ज्ञातु शिष्टपरिज्ञानार्थं व्याकरणमिति ।' प्रतो नियमपरत्वं परास्तम । किञ्च, अत्र भाष्यादिगिरा तदुक्तेः प्राबल्यमित्येवमुदीर्यते चेत् ततो मदुक्तवशात् मदुक्तिः प्रमाणमित्येव वचो लघीयः । तत्सिद्धम् अपौरुषेयः पारुषेया वा शब्दो न व्याकरणान्तराणामप्रामाण्यं बोधयतीति । तदिदमुक्तम् 'न खलु बहुविदामस्ति निर्मूलवाक्यम्' इति । बहुविदां भाष्यकारादीनां निर्मूलं शास्त्रान्तराप्रामाणकथनं स्व. वचनप्राबल्यवचनं वा स्वाश्रयाभिभावान्न सम्भवतीति भावः । अत्र क्वचित् परशास्त्रदूषणमस्ति चेदपि युक्तिरसमात्रेणैव इत्यवगन्तव्यम् । किञ्च. 'प्रसिद्धवदत्राभाद्' इत्यादिपरःशतानि सूत्राणि भाष्य१५ निरस्तान्यपि न त्यज्यन्ते । तद् वस्तुपरशास्त्रम् इति । ननु, बह्वङ्गी कारान्यथानुपपत्त्या मुनित्रयवचसामेव प्रामाण्यम्, अन्यशास्त्राणामप्रामाण्यमपि सिद्धम् इत्यर्थापत्तिरेवात्र प्रामाणम् इति चेत् -तदपि न, सुग्रहत्वपरिमितत्वादिगुणातिशयवशादेव बह्वङ्गीकारविशेषणस्य उपपत्तेः । तद्वशादन्येषामप्रामाण्यस्य साधयितुमशक्यत्वात् । अन्यथा तर्कग्रन्थेषु मणिरेव' बह्वङ्गोकृत इति 'कुसुमाञ्जलि-किरणावलि*पक्षिलभाष्यादीनि अप्रमाणानि भवेयुः। शब्दशास्त्रेऽपि कय्यटटीका बह्वङ्गकृतेति भर्तृहरिटीकाद्यप्रमाणं स्यात् । स्मृतिष्वपि मानवादीनां पुराणेष्वपि भागवतादीनां, शिक्षासु च शौनकीयादीनां बह्वङ्गीकृतत्वाद् इतरेषाम् अप्रामाण्यं वदन् भवान् १. अत्र पठितं वृत्तिकृद्ववनं पदमञ्जरीकृद्व्याख्यानं च तद्वितप्रकरणे नोपलभ्यते । पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम् (अ० ६।३।१०६) इत्यस्य सूत्रस्य वृत्ती पदमआर्यां चायमभिप्रायो वर्ण्यते। २. अष्टा० ६।४।२२॥ ३. मणिशब्देनेह गङ्गशोपाध्यायकृतो न्यायविषयकश्चिन्तामणिग्रन्थोऽभिप्रेतः। ४. न्यायवात्स्यायनभाष्यमिति भावः। ५. एतद्विषये द्रष्टव्यम् 'सं० व्या० शास्त्र का इतिहास' भाग १, पृष्ठ २८० (च० सं०)। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाणिनीय-प्रमाणता अवैदिकतमश्च प्रापद्यत ! पाणिनीयानां तु गुणातिशयोऽस्माकमिष्ट एव । इतरेषामप्रामाण्येव तु अनिष्टम् । एतेन मीमांसादिष व्याख्यानाय पाणिनीयमेव गृहीतमिति तस्यैव प्रामाण्यमित्येतदपि निरस्तम् । गुणवत्त्वात् प्रसिद्धतया मीमांसादौ तदुपादानोपपत्तेः । तेन अन्येषाम् अप्रामाण्यकल्पनानवकाशात् । तदिदमुक्तम्'बह्वङ्गीपालभेदो भवति गुणवशाद' । इति । किञ्च, एवं वादिना पाणिनेः प्राक् कथं शब्दव्यवहारवार्ता इति वक्तव्यम् । नहि तदा साधुशब्दव्यवहार एव नास्ति इति युक्तम् । ऊहादिसाधुत्वाभावेन सकलधर्मानुष्ठानविप्लवप्रसङ्गाद् अपशब्दप्रयोगकृतसर्वनरकपातप्रसङ्गाच्च सर्वेषां म्लेच्छताप्रसङ्गात् । न च तदा ज्याकरणं विनैव साधुशब्दान् जानन्ति इति वाच्यम् । 'ब्राह्मणेन निष्कारणो धर्मः षडङ्गो बंदोऽध्येयो ज्ञेयश्च' इति श्रुतिवचनात्', तदानीं षडङ्गाध्ययनाभावेन सर्वेषामब्राह्मणत्वप्रसङ्गात् । न च पञ्चाङ्गान्येव तदानीमध्येयानि इति वा, पाणिनीयस्यैव अङ्गत्वमिति वा वचनमस्ति । 'भाष्यकारोऽपि "तस्मादध्येयं व्या- १५ करणम्" इत्येव' मुहुर्मुहुराह, न तु अध्येयं पाणिनीयमिति । तस्मात् पाणिनीयोत्पत्तेः पूर्वं पूर्वव्याकरणानामेव बह्वङ्गीकारात् तदन्यथानुपपत्तिजं प्रामाण्यं तेषामप्यनिवार्यम् । किञ्च, पूर्वं तावत् पूर्वशास्त्राष्येव बह्वङ्गीकृतानि सम्प्रत्यपि संप्रथन्ते । पाणिनीयं तु इदानीमेव बह्वङ्गीकृतम् पूर्वं न प्रवर्तत इति बह्वङ्गीकारविशेषणप्रामाण्यसाधने २० तेषामेव वैशिष्टयं स्यात् । ननु प्रमाणचराण्यपि पूर्वशास्त्राणि पाणिनीयोत्पत्तेः परस्तात् परास्तप्रामाण्यमनुसृणान्यपि अभूवन् इति चेत् मैवम् । कथं प्रमाणभूतानां कालात् प्रामाण्यानह्नवः ? श्रुतिस्मत्यादयोऽप्येवमप्रमाणाः स्युरेकदा॥३॥ अत एव हि "कृते तु मानवो धर्मः" इति केनचित् साक्षादुक्तमपि २५ अनादृत्य कलियुगेऽपि मनुवचनं प्रमाणीक्रियते । अतो न कालवशात् प्रामाण्यक्षयः । गुणभेदादङ्गीकारभेद एव तु भवति इति । तदिदमुक्तम्-'पाणिनेः प्राक् कथं वा' इति । एवमप्रामाण्य १. महाभाष्यकारेण वचन मिदमागमनाम्नोद्धृतम् । द्र०-५० १, पा० आह्निक १॥ २. व्याकरणप्रयोजनवर्णनक्रमे। ३० Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास हेत्वभावे सिद्धे, न खलु बहुविदामस्ति निर्मूलवाक्यम्' इत्यनेन एव शास्त्रान्तराणां प्रामाण्यं साध्यम् । चन्द्रादिवाक्यं प्रमाणम्, समूलवाक्यत्वात्, पाणिनीयवत् । समूलं च तद्वाक्यं बहुविद्वाक्यत्वात्, तद्वदेव बहुविदश्च ते शास्त्रकारित्वात् पाणिनिवदेव । नहि बहुविधं वक्तव्यजातं सम्यगजानन् शास्त्रं कर्तु मारभते, आरभमाणोऽपि वा परिहासास्पदं स्यात् । तस्मात् शास्त्रकारकत्वेन प्रसिद्धानां तेषामपि शब्दतत्त्वविस्तरवेदित्वात्, भ्रान्ति विप्रलम्भकत्वशङ्कायाश्च पाणिनिवदेव तेषामपि निरवकाशत्वात्, सावकाशत्वे वा पाणिनेरपि तच्छङ्काया दुर्वारत्वाद्, प्राप्तप्रणोतत्वहेतुना व्या१० करणान्तराण्यपि प्रमाणानीति सिद्धम् । ननु पाणिनीयगतज्ञापकादिनैव शिष्टप्रयोगाणां साधयितु शक्यत्वाद् व्याकरणान्तराणां वैफल्यादेव अप्रमाणत्वं ब्रम इति चेत्तदपि न, क्वचित् प्रयोगाल्लक्षणकल्पना, क्वचिल्लक्षणात प्रयोग कल्पनम्-इति पाणिनीयपातिव्रत्यजुषामपि अविवादम् । तत्र शिष्ट१५ प्रयोगे दृष्टे ज्ञापकादिनैव साध्यत्वं नाम। यत्र त 'कथापयति' इत्यादी व्याकरणान्तरलझणमेव दृष्टम्, तत्र कथमस्य गतार्थत्वकृतप्रामाण्यमापद्यते ? अपि च शिष्टप्रयोगदष्टिस्थलेऽपि विश्रामादौ व्याकरणान्तरसाक्षाल्लक्षणस्य स्पष्टदष्टत्वात' क्लिष्टतरज्ञापकादिवर्णनं गौरवायेति प्राप्तेऽपि प्रौढिकामैमुनित्रयपूजनार्थं तदीयज्ञापकादिनैव साध्यते चेद् -अस्माकमपि अदष्टतरमेव । न तु तेन व्याकरणान्तराणां गताथत्वम् अप्रामाण्यं वा इत्यास्तामेतत् । किञ्च, पूर्वाचार्याणां प्रामाण्यं पाणिन्यादीनाम् अनुमतमेव । 'आडि चापः', 'पौङ प्रापः इत्यादी पूर्वाचार्यमतसाक्षात्संज्ञाया एव २५ उपात्तत्वात्। 'व्योलघुप्रयत्नतरः शाकटायनस्य"; वा सुप्यापिशले:५; 'वष्टि १. 'वेः क्रमेर्वा' इति वर्षमान: । द्र०-भागवृत्तिसंकलनम्, पृष्ठ ३७, उद्धरण० ११४ । २. अष्टा० ७।३।१०॥ ३. अष्टा० ७११८॥ ४. अष्टा० ८।३।१८।। ५. अष्टा० ६।१३२॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२ अपाणिनीय प्रमाणता भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः" इत्यादौ पूर्वाचार्यमतस्य साक्षादुपादानाच्च । न हि पूर्वाचार्यसङ्कीर्तनमात्राद् विकल्प उत्तिष्ठति । तन्मतमेवं मम मतमेवम् इति तन्मतोपादानादेव विकल्पसिद्धिः । किञ्च, 'तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्"; 'लुब्योगाप्रख्यानात्" इति पूर्वाचार्योक्तं पाणिनिः स्वयमेव दूषयित्वा पुनः 'जनपदे लुप्" इत्या- ५ दीनि दूषित चराण्येव पूर्वाचार्य वचनानि स्पष्टमुपादत्ते । तेन ज्ञायते क्वचिद् युक्तिरसाद् दूषणे कथितेऽपि पूर्वाचार्यवचनमुपादेयमेवेति । एवं पाणिनिना स्वेन दूषितस्यापि समहात् । पूर्वाचार्यमतं क्वापि व्याख्यादौ इष्यते यदि ॥४॥ युक्तिप्रौढिरसेनैवेत्यवगच्छन्तु कोविदाः । तावता हेयता नेति ज्ञापयामास पाणिनिः ।।५॥ तेन पाणिन्युक्तं प्रमाणमित्यङ्गीकुर्वतापि तदभिमतत्वादेव पूर्वशास्त्राण्यपि प्रमाणमित्यङ्गीकर्तव्यम् । तदिदमुक्तम् 'पूर्वोक्तं पाणिनिश्चाप्यनुवदति' इति । किञ्च, अनादिश्चैषा व्याकरणपरम्परा इत्युक्तत्वात, पूर्वव्या- १५ करणमूलमालोच्य पाणिनिनापि शास्त्रं कृतम् इति वक्तव्यम् । 'तेन प्रोक्तम्' इत्यत्रैव 'पाणिनीयं शास्त्र' मित्युदाह्रियते; न 'कृते ग्रन्थे' इत्यत्र । तस्मात् पाणिनिनापि शास्त्रस्य प्रत्याहारविशेषशालित्वेन उक्तत्वमेव; न कृतत्वम् इत्यवगम्यते । ततश्च अपाणिनीयत्वात् पूर्वशास्त्राणामप्रामाण्यं वदता पाणिनीयस्यापि निर्मूलत्वाद् अप्रामाण्यमेव २० आपादितमिति सकलव्याकरणभञ्जनं सञ्जनितं महाशाब्दिकैः । ननु पाणिनिः पूर्वशास्त्राणि प्रयोगान्तराणि च दृष्ट्वा तेष हेयभागमपहाय शास्त्रं कृतवान् इति पाणिन्यनुक्तं हेयमेवं इति चेत् न; पाणिन्यनुक्तस्य हेयत्वे वातिककीर्तितस्यापि हेयत्वप्रसङ्गात् । न च सूत्रवातिककारयोरसर्व वित्त्वेऽपि भाष्यकारस्तु भगवान् शेष एव इति २५ १. प्रक्रियाकौमुदी भाग १, पृष्ठ १८२। धातुवृत्तिः, इण् धातो, पृष्ठ २४७ । न्यास ६।२।३७, पृष्ठ ३४६ । २. अष्टा० १॥२॥५३॥ ३. अष्टा० ११२॥५४॥ ४. अष्टा० ४।२।१०॥ ५. अष्टा० ४।३।१०१॥ ६. अष्टा० ४।३।११६॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास तस्मिन् अज्ञातृत्वशङ्काभावात तदनुक्तं हेयमेव इति वाच्यम् ? ज्ञातृत्वेऽपि आनन्त्यवशाद् अनुक्तिसम्भवात, अन्यथा प्राकृतिगणादीनि कुतस्तेन परिच्छिन्नानि ? इत्यास्तां तावत् । तेन एवमेव वक्तव्यम् द्रष्ट्वा शास्त्रगणान् प्रयोगसहितान् प्रायेण दाक्षीसुतः, प्रोचे, तस्य तु विच्युतानि कतिचित् कात्यायनः प्रोक्तवान् । तभ्रष्टान्यवदत् पतञ्जलिमुनिस्तेनाप्यनुक्तं क्वचिल्लोकात् प्राक्तनशास्त्रतोऽपि जगदुर्विज्ञाय भोजादयः ॥६॥ अत: सिद्धं पाणिनीयमूलभूतत्वात् पूर्वशास्त्राणां प्रामाण्यमनिवार्यमिति । तदप्युक्तम–'पूर्वोक्तं पाणिनिश्चाप्यनुवदति' इति । ननु, अस्तु तावदेवमविरोधस्थले-पाणिन्यादिवचनविरोधे तु शास्त्रान्तरोक्तं बाध्यमेव इति चेन्न, तेषामपि प्रमाणत्वेन अबाध्यत्वस्य स्थितत्वात् । 'उदितानुदितहोमवत् षोडशिग्रहणाग्रहणवत् च विकल्पस्यैव प्रकल्प्यत्वात् । अत एव स्मतिचन्द्रिकादिषु स्मतिकारवचनयोविरोधे सति द्वयोरपि बिकल्पेन ग्राह्यत्वं तत्र तत्र उच्यते । १५ तत्र तत्र विकल्पार्थ पूर्वाचार्यानुदीरयत् । मतभेदे द्वयं ग्राह्य ज्ञापयत्येव पाणिनिः ॥७॥ न च एकस्यैव शब्दस्य शास्त्रद्वयेन साधुत्वम् असाधुत्वं च बोध्यते, इति वस्तुतो द्वैरूप्ययोगेन विरोधस्यैव युक्तत्वात् न ग्रहणाग्रहणानुष्ठानवद् विकल्प-सम्भव इति वाच्यम्, न हि केनापि शास्त्रेण शास्त्रान्तरोक्तस्य प्रसाधुत्वं बोध्यते । किन्तु, लक्षणशिष्टप्रयोगरहिताः शब्दा असाधव इति दिक्प्रदर्शनन्यायेन बोधितं भवति इति नियमपरत्वदूषणावसर एव भाषितम् । किञ्च षोडशिग्रहणमपि शास्त्राभ्यामदष्टहेतत्वेन प्रत्यवायहेतुत्वेन च बोधितमिति कथं तत्र श्रुतिशरणानां विकल्पेनापि प्रवृत्तिसिद्धिरिति पृष्टे यः परिहारः स एवात्रापि भवि२५ ष्यति इति सिद्धं विरोधप्रतिभानेऽपि विकल्पेन ग्रहणमिति । तदिद मुक्तम्-'विरोधेऽपि कल्प्यो विकल्प:'- इति । किञ्च, विरोध एव पाणिनीयेतरवचसोर्न संभवति । तत्र विधिसूत्रेषु तावद् ऐतेभ्य एवायं १. 'उदिते होतव्यम्' इत्येका श्रुतिः 'अनुदिते होतव्यम्' इत्यपरा । अनयोस्तुल्यबल विरोधित्वाद् विकल्पेन प्रामाण्यमाश्रियते। २. अतिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति' इत्येका श्रुतिः, 'नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णाति' इत्यपरा। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाणिनीय-प्रमाणता प्रत्ययो भवति इत्यादिनियमो न संभवति । अप्राप्ते नियमायोगात् । न च 'सर्व वाक्यं सावधारणम्' इति न्यायेन नियमः शङ्कनीयः । अयोगव्यवच्छेदेनापि अवधारणसम्भवात् । अन्याऽप्राप्तविधिनियमविधिद्वयकथापि उच्छिद्यत । तस्माद् अप्राप्तविधिष तावत् परशास्त्रैरधिकोक्ती न विरोधः, यत्र तु उत्सर्गतः प्राप्तौ अपवादतया नियमार्थ सूत्रं तत्रापि ५ परैरधिकोक्तौ 'क्वचिदपवादविषयेऽपि उत्सर्गो भवति' इति न्यायादविरोधः । न च पाणिनिना न इत्युक्ते परैः अस्ति इत्युच्यमाने विरोधः । ज्ञापकगणननिर्दिष्टानि अनित्यानि इति ननिर्दिष्टस्य अनित्यत्व. कथनेन परविरोधोद्धृतत्वाभावात् । न च भाष्याधुक्तिभिर्विरोध इति १० वाच्यम् । युक्तयो न्यायवाक्योत्था न्यायाश्च ज्ञापकोद्भवाः । ज्ञापकोक्तास्वनित्याश्च न चानित्या विरोधिनः ॥८॥ युक्तैव शब्दसिद्धिश्चेद् विप्लुता शब्दसाधुता । तस्माद् दृढप्रयोगान् वा पूर्वव्याकरणानि वा ॥ ६॥ १५ मालम्ब्यैव हि युक्त्यापि साधयन्ति मनीषिणः । अत एव हि युक्त्युक्त्या साधवे वक्तृचिन्तनम् ॥ १० ॥ तस्माच्छब्दाभियुक्तानां युक्त्या द्वेधाऽपि साधने । समूलत्वाद् द्वयं ग्राह्यम्; अविरोधश्च वर्णितः ॥११ । न क्वचित् ज्ञापकं विनाऽपि 'विप्रतिषेधे परं कार्यम्" इति साक्षा- २० द्वचनमेव यूक्तिः स्याद् इति तत्र अनित्यत्वाभावाद विरोध इति वाच्यम, साक्षाद्वचनेऽपि विधिनिषेधकोट्योरविरोधस्य प्रागुक्तत्वात । तत्सिद्धमविरुद्धत्वात् सर्वव्याकरणानां समप्रामाण्यम् । तदिदमुक्तम्विरोधस्यासम्भवद्योतकेन 'विरोधेऽपि' इति अपि शब्देन । नन्वस्तु तावदेवं पूर्वव्याकरणानाम् आर्षत्वेन प्रामाण्यम, अर्वाचीनभोजबोपदे- २५ वादिवचनानां तु कथं कथ्यते इति चेत् तत्रापि__ 'न खलुबहुविदामस्ति निर्मूलवाक्यम्' इति ब्रूमः । भाष्यादिकथितसकललक्षणानुकथनादिपरिनिश्चित १. परिभाषावृत्तिषु 'उत्सर्गोऽभिनिविशते' पाठः । पुरुषोत्तमदेव ११५, सीरदेव ३३, नागेश ५८। २. मष्टा० १२४२॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास बहुविद्भावा हि भोजादयः शास्त्रान्तरमहाजनप्रयोगादिमूलमालम्ब्यैव शास्त्राणि प्रणीतवन्त इति पाणिनीयवत् तेषामपि प्रामाण्यमेव । त्रिमुनिव्याकरणे उत्तरोतरं च प्रामाण्यमित्यत्रापि बहुवित्त्वमेव उत्तरोत्तरप्रामाण्ये हेतुः । दृष्टहेतुसम्भवे अदृष्टहेतुकल्पनानुपपत्तेः । तच्च बहुवित्त्वं भोजादीनामपि समानमिति तेषां विशेषादरणीयत्वमेव इति । 'न खलु बहविदाम' इत्यस्य अन्योऽप्यर्थः । निर्मूलं खलू व्याकरणान्तराप्रामाण्यं बहुविदो न वदेयुः । एतदपेक्षया तावद् बहुविदां विद्यारण्यादीनां तदकथनात् । तस्माद् बहग्रन्थवेदित्वाभावादेवायं प्रति१० वादी निल्लज्जमेव निर्मूलवाक्यं प्रलपतीत्युपहसनीयमेवेति । पूर्वव्याकरणादिमूलरहितं युक्त्यैव यत् साध्यते, कैश्चित् तत्र मुनित्रयाप्रतिहते हेयत्वमुद्घोष्यते । अन्येभ्यो गुणवत्तया च बहुभिर्यद् गृह्यते खल्विदं, तस्मात्खल्वयमन्यशास्त्रमखिलं मिथ्येति विभ्राम्यति ॥१२॥ १ इति । एवम् अस्माभिः व्याकरणान्तरप्रामाण्ये साधिते सति यत् पुनः परेण अप्रामाण्यसाधनं कृतं तदर्थात् गर्भस्रावेण गतमपि इदानीं प्रत्येकयुक्त्युपादानेन खण्डयते। तत्र यत् तावदुक्तं शङ्कराचार्यप्रभृतिभिः श्रुतिव्याख्यानादिषु २. पाणिनीयमेव गृहीतमिति तस्यैव प्रामाण्यम्, अन्यव्याकरणानां व्याख्या नागृहीतत्वाद् अप्रामाण्यमिति तदसारम् । शङ्कराचार्यमुरारिप्रभृतिभिरपि स्वप्रयोगमूलत्वेन व्याकरणान्तराणामङ्गीकारात् । व्याख्यानादिषु ग्रहणाग्रहणयोः बहुप्रसिद्धयल्पप्रसिद्धिनिबन्धनत्वेन प्रामाण्याप्रामा ण्यप्रयोजकत्वाभावात् ; विद्यारण्यादिभिश्च 'कथापयत्यादिनिरूपणे, २५ प्रसादकारादिभिश्च तत्तद्वयाख्यानावसरे, नैषधव्याख्यातृविश्वेश्वरा दिभिश्च 'अल्पमेधः' पदादिव्याख्याने, क्षीरस्वामी-सर्वानन्द-सुबोधिनीकारादिभिश्च अमरसिंहनिघण्टुव्याख्याने तत्र तत्र अङ्गीकृतत्वाद्, वेदनिघण्टुव्याख्यात्रा' च 'भोजसूत्रस्य' सर्वत्र अङ्गीकृतत्वात्, व्याख्यानादिषु अपरिगृहीतत्वस्यापि असिद्धेः, पाणिनीयप्राक्काले च ३० तेषामेव प्रामाण्यमङ्गीकार्यम् । १. देवराजयज्वनेति भावः । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपाणिनीय-प्रमाणता न च सिद्धस्य प्रामाण्यस्य नाशे कारण मस्ति, इत्याद्युक्तमेव । यत्तु मुनित्रयवचनस्य एत एव साधशब्दा इति, नियमपरत्वाद् एतद्विरोधाद् अन्यशास्त्राणां त्याज्यत्वमुक्तम्, तदपि नियमस्य शास्त्र:वभावत्वे पाणिनिनियमितत्त्वाद्वातिकाप्रामाण्यं स्यादिति बहुधा परोक्तनियमपरत्वनिरसनाद् अपास्तमेव । विरोधे च एकमेव ग्राह्यमित्ये- ५ तच्च षोडशिग्रहणाग्रहणादौ 'स्मृतिचन्द्रिका'द्युक्तस्मृतिद्वयोक्तविकल्पनीयत्वे च व्यभिचरितमित्युक्तप्रायम् । विरोधश्च नियमाभावात् नास्तीत्युक्तम् । यत्तु व्यासोक्तानां प्रातिशाख्यरूपासाधारणव्याकरणमूलत्वमिति तदपि न, अपाणिनीयत्वसाम्येऽपि असाधारणव्याकरणानामिष्टत्वे साधारणेषु विद्वेषे च निमित्तं नास्ति इत्युक्तत्वात् । छान्दस- १० सूत्रैर् ‘एत एव वेदे साधवः' इति नियमितत्वेन परमते प्रातिशाख्य- ) प्रामाण्यस्यापि दुःसाध्यत्वात् च । यत्तु प्राचार्यसंकीर्तनस्य विकल्पाद्यर्थत्वेन उपपत्तेः, न तत्प्रामाण्यमङ्गीकृतमिति, तदपि न, मन्मतमेवं तन्मतमेवमिति तन्मतस्य प्रामाण्यानङ्गीकरणे विकल्पस्यैव प्रसिद्धेः। स्ववाग्विरुद्धत्वात् । न च संकीर्तनमात्रात् विकल्प उत्तिष्ठति, प्रामाण्या- १५ नङ गीकारे पूजार्थत्वं तु दुरापास्तम् । ___ यत्तु मीमांसादौ अनभिमताचार्यसंकीर्तनवदिदमुपपन्नमिति, तन्न, तत्र दृष्यत्वेनैव तन्मतोपादानात् । इह तु तदभावात् । न च तत् प्रमाणम् –'बादरायणस्यानपेक्षत्वात" इत्यादौ ग्राह्यतया संकीर्तनेऽपि देवताविग्रहवत्वादौ तन्मतस्य परित्यागदर्शनाद् अत्रापि तथा, २० इति वाच्यम् । तत्रापि मतभेदेन सर्ववैदिकपक्षाणां गृह्यमाणत्वदर्शनात् । यतु' कौमुदीकारादिभि: स्वबुद्धिविस्तारबोधनार्थमेवं मतान्तरप्रदर्शनं कृतं न तत्प्रामाण्यादिति तदप्यबद्धम् । अप्रमाणभूतस्य कथने एव बुद्धिमान्द्यस्यैव प्रकाशनप्रसङ गादिति । एवं परोक्तौ अस्मदुक्त- २५ विरुद्धोंऽशः खण्डितः। ततोऽन्यग्रन्थसन्दोहेमदुक्तान्येव साधयन् । . 'वैनतेयो' ममात्यन्तं बन्धुरेवेति शोभनम् ॥१३॥ १. मीमांसा १।११५॥ २. प्रक्रियाकौमुदीकारादिभिरित्यर्थः । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५ अनुबन्धः हे श्रीमच्चोलदेशप्रथितबुधवराः ! शब्दशास्त्रान्तराणाम् कोऽप्यप्रामाण्यमूचे; किमपि निगदितं तत्र चास्माभिरेवम । कौमुद्यां धातुवृत्त्यादिषु कथितया वैदिकाङ गत्वसाम्याद् युष्माकं सम्मतं स्यादिति लिखितमिदं शोधयध्व महान्तः ॥१॥ श्री सोमेश्वरदीक्षिता'भिधमहाविद्वत्कुलाग्रेसरा ! मीमांसाद्वयशब्दतर्ककुशला ! युष्मानधृष्योन्नतीन् ! तत्त्वज्ञान् करुणानिधीन् प्रशमिनः श्रुत्वेदमभ्यर्थये, यत् किञ्चिल्लिखितं मयाऽत्र, तदिदं स्वीकार्यमार्यात्मभिः ।।२।। यस्माभिः खलु कामदेव'विजये व्यालेखि कक्ष्याक्रमम्, तं द्रष्टुभृशमुत्सुका वयमतः सम्प्रेष्यतां साम्प्रतम् । युष्मादृक्षविचक्षणोक्तिपदवीसंप्रेक्षणेन क्षणाद्, अस्माकं खलु बुद्धिशुद्धिरुदियादित्येष तत्राऽशयः ॥३॥ प्रयुक्तहेतौ सति कामदेवे कृतेऽस्य भङ्गः पटुदर्शनेन, सोमेश्वराख्याग्रहणस्य चैतत् सर्वज्ञभावस्य च युक्तरूपम् ॥४॥ युष्मद्वैदुष्यभूतं खलु कटकभुवि त्रायते भोगिराजम्, वाणीवेणीविघूतामपि सुरसरितं कङ्कटीको जटायाम् । इत्येवं 'यज्ञनारायणविबुधमहादीक्षिताः' ! शत्रुवर्गत्राणाद् देवस्य तस्याप्यहरदथ धिया साधु सर्वज्ञगवम् ॥५॥ युष्मास्वेव क्षितीशो विपुलनयनिधिस्तिष्ठते राज्यदृष्टी, तिष्ठध्वे यूयमेव प्रथितबुधजने सन्दिहाने समेते, युष्मभ्यं तिष्ठते कस्त्रिदशगुरुसमानोऽपि युष्मादृगन्यः, प्रज्ञालून यज्ञनारायणविबुधमहादीक्षितान् वीक्षते कः ? ॥६॥ अस्वस्थाः केरलस्थाः स्मयमतिमृदवस्तत्र चाहं विशेषात्, सर्वे दूरप्रचारे खलु शिथिलधियः, किं पुनर्दशभेदे; एवं भावेऽपि दैवात् कुहचन समये कल्यताऽकल्यते चेत्, प्रज्ञाब्धीन् यजनारायणविबुधमहादीक्षितानाक्षिताहे ॥७॥ ॥ समाप्तिः-शुभं भूयात् ॥ २५ १. मुद्रित ग्रन्थ एव पठितोऽयमनुबन्धः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा परिशिष्ट पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या संक्षिप्त निदर्शन व्याकरण के सम्बन्ध में दो सिद्धान्त विद्वानों द्वारा प्रायः स्वीकृत ५ हैं। एक-व्याकरण का प्रयोजन स्वसमय में प्रयुज्यमान लोकभाषा के शिष्ट पुरुषों द्वारा प्रादत स्वरूप का ज्ञान कराना और लोक-सुलभअपभ्रंश की प्रवृत्ति को रोकना अथवा भाषा को अपभ्रष्ट प्रयोगों के सम्मिश्रण से बचाना । दूसरा-व्याकरण लोकव्यवहृत भाषा का निदर्शक मात्र होता है। चाहे कितना ही सूक्ष्म मेधावी वैयाकरण १० क्यों न हो और कितना ही विस्तृत व्याकरण क्यों न रचा जाये, व्याकरण शास्त्र भाषा को पूर्णतया कभी भी व्याप्त नहीं कर सकता। ये सिद्धान्त न्यूनाधिक रूप से सभी भाषा के व्याकरणों पर लागू होते हैं, तथापि अतिप्राचीन काल से चली आई अतिविपुल संस्कृत- १५ भाषा के व्याकरणों के सम्बन्ध में तो यह नितान्त सत्य है । संस्कृतभाषा के व्याकरणों के सम्बन्ध में उक्त सत्य तब अधिक प्रस्फुटित हो जाता है, जब संस्कृतभाषा के प्रसिद्धतम पाणिनीय व्याकरण के परिप्रेक्ष्य में प्राचीन तथा पाणिनीय काल की समीपवर्ती शिष्ट पुरुषों द्वारा व्यवहृत संस्कृत भाषा को देखते हैं। इसके साथ ही संस्कृतभाषा के सम्बन्ध में दो ऐतिहासिक तथ्य और ध्यान देने योग्य हैं। उनमें से एक है-उत्तरोत्तर मानव समाज में मतिमान्द्य आदि कारणों से लोक व्यवहृत संस्कृत भाषा में क्रमशः ह्रास होना और दूसरा अन्य समस्त शास्त्रीय वाङ्मय के समान व्याकरण शास्त्र के प्रवचन में भी उत्तरोत्तर संक्षेप होना।' प्रथम कारण अर्थात् संस्कृतभाषा में क्रमिक ह्रास होने से यास्क १. इन दोनों विषयों का उपपादन हमने इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में किया है । पाठक उसे एक बार पुनः पढने का कष्ट करें। २० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास और पाणिनि के समय संस्कृतभाषा अत्यन्त अव्यवस्थित हो चुकी थी। सहस्रों प्राचीन प्रकृतियां (धातु वा प्रातिपादिक) उस समय तक लुप्त हो चुकी थीं, परन्तु उनसे निष्पन्न शब्द (यास्कीय व्यवहारानुसार 'विकार') पाणिनि के काल में लोक-व्यवहार में प्रचलित थे। इसी प्रकार सहस्रों प्रकृतिरूप मूल शब्द पाणिनि के समय में व्यवहृत थे, परन्तु उनसे निष्पन्न शब्दों का लोकभाषा में उच्छेद हो गया था। इसके साथ ही संस्कृतभाषा के सम्बन्ध में यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि यास्कादि के काल में देशभेद से कहीं प्रकृतियों का ही प्रयोग होता था, तो कहीं उनसे निष्पन्न शब्दों का ही। इस विषय की संक्षिप्त परन्तु विशद मीमांसा हमने इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय में की है। उसका गम्भीरता से अध्ययन करने पर हमारे द्वारा यहां प्रकट किये गये तथ्य भले प्रकार विस्पष्ट हो जायेंगे । वैयाकरणों की कठिनाई जब किसी भाषा में से मूल प्रकृतियों का लोप (==व्यवहाराभाव) १५ हो जावे, परन्तु उससे निष्पन्न शब्दों का प्रयोग प्रचलित हो, तब व्याकरण-प्रवक्ता के सन्मुख कितनी कठिनाई उत्पन्न होगी, यह किसी भी मनस्वी द्वारा गम्भीरता से सोचने पर स्वयं व्यक्त हो सकती है । व्याकरणशास्त्र के प्रवचन में अर्थ-सम्बन्ध का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। शब्दार्थ-सम्बन्ध के ज्ञान का मुख्य आधार २० लोकव्यवहार ही होता है । इस कारण व्याकरण-प्रवक्ता लुप्त प्रकृति से निष्पन्न शब्दों के अन्वाख्यान में लुप्त प्रकृति का निर्देश करे, ता उसे उन लुप्त प्रकृतियों के अर्थ का भी निर्देश करना पड़ेगा। क्योंकि लोक में उनका व्यवहार न रहने से उन शब्दों और उनके अर्थों को लौकिक जन नहीं जानते । यदि व्याकरण-प्रवक्ता लुप्त २५ प्रकृतियों से निष्पन्न शब्दों का अन्वाख्यान करने के लिये लोकप्रचलित किसी शब्द का उपादान करले तो अर्थज्ञान तो हो जायगा, किन्तु प्रकृतिविकारभाव का यथावत् परिज्ञान नहीं होगा । ऐसा असम्बद्ध अन्वाख्यान यास्क के शब्दों में स्वर-संस्कार एवं प्रादेशिक विकार की दष्टि से अन्वन्वित होगा ।' लोप आगम आदेश आदि अप्रादेशिक १. द्र०-अथान्वितेऽर्थे .........। सिरुक्त २१०३:२॥१॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या १७ विकारों की कल्पना करनी पड़ेगी, और वह असम्बद्ध होने से अनादरणीय होगी। जब संस्कृतभाषा के मेधावी साक्षात्कृतधर्मा वैयाकरणों के सन्मुख यह स्थिति उत्पन्न हुई, तो उन्होने अपनी प्रखर मेधा से इस समस्या का ऐसा समाधान ढ ढ निकाला कि उनके प्रवचन में उक्त समस्त ५ दोष न केवल निराकृत ही हो गये, अपितु उन्होंने अपने नियमों के द्वारा संस्कृतभाषा की विलुप्त सहस्रों प्रकृतियों (धातु वा प्रातिपदिकों) और उनसे निष्पन्न होने वाले लक्षों शब्दों को उस काल तक सुरक्षित कर दिया, जब तक उनके द्वारा प्रोक्त व्याकरण-शास्त्र इस भूमि पर वर्तमान रहेंगे। संस्कृत व्याकरण-शास्त्र की इसी महत्ता को भट्ट १० कुमारिल ने निम्न शब्दों में प्रकट किया है___ 'यावांश्च प्रकृतको विनष्ट: शब्दराशिः, तस्य व्याकरणमेवैकम उपलक्षणम्, तदुपलक्षितरूपाणि च । तन्त्र-वार्तिक १।३।१२। पृष्ठ २६६ । __ अर्थात्-[संस्कृतभाषा का] जितना स्वाभाविक शब्दसमूह नष्ट १५ हो गया था, उसके उपलक्षक (=ज्ञान करानेवाले) एक मात्र व्याकरणशास्त्र के नियम वा तनिर्दिष्ट रूप हैं।' व्याकरणशास्त्र के अर्वाचीन व्याख्याता संस्कृत-व्याकरण के प्रवक्ता मनीषियों ने उक्त दृष्टि से शास्त्रप्रवचन में जो चमत्कार प्रस्तुत किया था, वह कालक्रम से विलुप्त हो गया। इस कारण पाणिनोय व्याकरण के अर्वाचोन व्याख्याता विद्वानों ने स्वीय व्याख्यानों में उक्त तथ्य को भुलाकर जो व्याख्याएं लिखीं, उनमें उक्त चमत्कार सर्वथा लुप्त हो गया। और व्याकरण का प्रयोजन येन केन प्रकारेण शब्द-व्युत्पत्ति तक सीमित रह गया। इतना ही नहीं, इन व्याख्याकारों ने प्राचीन ऋषि-मुनि प्राचार्यों के २५ १. द्र०-ग्रयानन्वितेऽर्थे प्रादेशिक विकारे....."तदेतन्नोपपद्यते । निरुक्त १॥१३॥ न संस्कारमाद्रियेत विशयवत्यो हि वृत्तयो भवन्ति । निरुक्त २॥१॥ २. द्र०–सं० व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृष्ठ ४५, टिप्पणी १ (च० सं०)। ३. द्र०-सं० व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृष्ठ ४५, टिप्पणी २ (च० सं०) । 'सूत्रवार्तिकभाष्येष दृश्यते ३० चापशब्दनम् ।' तन्त्रवार्तिक, शाबर भाष्य, भाग, १, पृष्ठ २६०, पूना सं० । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १० उन शिष्ट प्रयोगों को, जिनका साधुत्व इन व्याख्याताओं की व्याख्या से उपपन्न नहीं होता था, उन्हें अपशब्द कह दिया। इसके साथ ही इन वैयाकरणों ने स्वीय शास्त्र के आधारभूत सिद्धान्त के विपरीत एवं ऐतिहासिक तथ्य से विहीन यथोत्तरमुनीनां ५ प्रामाण्यम् सदृश सिद्धान्तों की कल्पना करली । और पूर्व-पूर्व प्राचार्य बोधित शब्दों को अपशब्द मान लिया। ___ व्याकरणशास्त्र का मुख्य आधार-व्याकरणशास्त्र का विशेषपाणिनीय व्याकरण का मुख्य आधार है-शब्दनित्यता । भगवान् पतञ्जलि ने इस तथ्य को महाभाष्य में स्थान-स्थान पर उजागर किया है।' इस तथ्य को स्वीकार करने पर कोई भी शब्द कालभेद से अपशब्द नहीं माना जा सकता । और ना ही उसमें कालभेद से विकार स्वीकार करते हुये यथोत्तर मुनि-प्रामाण्य से साधु शब्द स्वीकार किया जा सकता है। कुछ व्याख्याताओं ने शब्दनित्यत्वरूप स्वशास्त्र-सिद्धान्त-हानि १५ दोष से बचने के लिये कालभेद से प्रयोग में धर्म अथवा अधर्म की कल्पना की है। इसके लिए उन्होंने 'कृते तु मानवो धर्मः...."कलौ पाराशरी स्मत' रूप काल्पनिक वचनों का आश्रय लिया है। इस पक्ष में भी विचारणीय यह है कि उक्त वचन किसी भी शिष्ट ऋषिमुनि-प्रोक्त धर्मशास्त्र का नहीं है । अतः इसे हेतु बनाकर व्याकरणशास्त्र जैसे शिष्ट-प्रोक्त ग्रन्थ पर घटाना चिन्त्य है । इतना ही नहीं, धर्मशास्त्रों में जिन धर्मो=कर्त्तव्यकर्मों का विवेचन किया गया है, वे दो प्रकार के हैं । इन में कुछ धर्म शाश्वत हैं, जो देश-काल की सीमा से बाहर हैं। ये सदा ही एकरस रहते हैं । जैसे सत्यभाषण, चोरी का परित्याग, दीनों की सहायता करना आदि। ये ही शाश्वत धर्म २५ १. महाभाष्य प्र. १, पा. १, प्रा. १; अ. १, पा १, सूत्र १६ तथा अन्यत्र बहुत्र। २. यत्तु कश्चिदाह चाक्रवर्मण व्याकरणे द्वयशब्दस्यापि सर्वनामताभ्युपगमात् तद्रीत्याऽयं प्रयोग इति । तदपि न । मुनित्रयमतेनेदानीं साध्वसाधुविभाग स्तस्यैवेदानीन्तनै: शिष्टर्वेदाङ्गतया परिगृहीतत्वात । दृश्यते हि नियतकाला: ३० स्मतयः । यथा-कलौ पाराशरी स्मृतेति । शब्दकौस्तुभ ११११२७॥ इसका प्रत्याख्यान द्र०-सं० व्या० शास्त्र का इतिहास, भाग १, पृष्ठ ३७, टि० १ । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या १६ 1 संस्कृति के प्रङ्ग होते हैं । कुछ धर्म कर्म सभ्यता के अंशरूप होते हैं । वे देश काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं । देशकालानुसार परिस्थितियां बदलने पर उस उस समय के प्राचार्य समाज की सुरक्षा के लिये सामाजिक नियमों में परिवर्तन करते रहते हैं । अतः ये नियम देशकाल परिस्थिति के अनुरूप होने से सापेक्ष होते हैं । इसलिए यह एकान्त सत्य नहीं होते । अन्यथा एक ही समाज में एक ही काल में देश वा परिस्थिति के भेद से परस्पर विरोधी धर्मों का आचरण उपलब्ध नहीं होता । यथा उत्तर भारत में विवाह रात में ही होते हैं, और सुदूर दक्षिण में दिन में प्रायः प्रातः काल । इतना ही नहीं, पञ्जाबियों में विवाह वारह मास होते रहते हैं, परन्तु अन्य १० लोगों में कुछ नियत मासों में ही विवाह होते हैं । यतः शब्दकारों ने शब्द को नित्य माना है । अतः इसकी तुलना धर्म शास्त्रीय देश - कालातीत नित्य धर्मों से ही की जा सकती है, न कि देश काल परिस्थित्यनुसार बदलने वाले धर्मों के साथ । आश्चर्य का विषय तो यह है कि जिस कलौ पाराशरी स्मृता दृष्टान्त के बल पर आधुनिक वैयाकरण देश काल के भेद से साधु शब्द के प्रयोग अप्रयोग की वा धर्म-अधर्म की कल्पना करते हैं, वह वचन धर्मशास्त्र के निबन्धकारों को ही पूर्णतः मान्य नहीं है । अन्यथा निबन्धकारों का पाराशर स्मृति को छोड़कर मन्वादि स्मृतियों को प्रामाणरूप में उपस्थित करना भी असङ्गत हो जाएगा । यही स्थिति २० व्याकरण - शास्त्र के विषय में जाननी चाहिए। अन्यथा स्वयं पाणिनि का अपने से पूर्व भावी प्रापिशलि आदि आचार्यों के मतों वा उनकी संज्ञाओं का निर्देश कराना व्यर्थ हो जाएगा । १५ २५ व्याकरण-शास्त्र में यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम् सदृश नियमों की कल्पना तो इधर ५-६ शताब्दियों में हुई है । पाणिनीय व्याकरण के प्राचीन व्याख्याता न्यूनातिन्यून इस दोष से प्रायः असम्पृक्त ही रहे हैं । इसीलिये उन्होंने न प्राचीन शिष्ट प्रयोगों को अपशब्द माना, और न ही व्याकरणान्तर बोधित शब्दों के संग्रह में कृपणता ही बरती । प्राचीन मतों के संग्रह में महाभाष्यकार की सम्मति - महाभाष्य- ३० कार के मतानुसार तो पाणिनीय व्याकरण द्वारा अनुक्त प्राचीन Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास आचार्यों द्वारा निर्देशित रूपों का संग्रह पाणिनीय तन्त्र में भी अभीष्ट है । महाभाष्यकार लिखते हैं 'इहान्ये वैयाकरणा मजेरजादौ संक्रमे विभाषा वृद्धिमारभन्तेपरिमृजन्ति' परिमार्जन्ति । तदिहापि साध्यम् ।' महा० १|१|३|| अर्थात्- अन्य वैयाकरण अजादि कित् ङित् प्रत्ययों के परे मृज को विभाषा वृद्धि कहते हैं- परिमृजन्ति, परिमार्जन्ति । यह कार्य यहां (= पाणिनीय तन्त्र) में भी साध्य है । पाणिनीय शास्त्रानुसार 'परि मृज् अन्ति' में अन्ति के ङित् होने से वृद्धि का नित्य निषेध प्राप्त होता है । १० इतनी भूमिका के पश्चात् हम पाणिनीय सूत्रों की उस भाषा - विज्ञानिक व्याख्या का स्वरूप दर्शाने का प्रयत्न करते हैं, जिससे शास्त्र के मूलभूत सिद्धान्त की रक्षा हो, शास्त्र - प्रवक्ताओं के कौशल का परिचय प्राप्त हो, और प्राचीन संस्कृतभाषा में विद्यमान, परन्तु उत्तरकाल में विलुप्त, प्रकृतियों (घातु प्रातिपदिकों) वा उनसे १५ निष्पन्न होने वाले शब्दों का परिज्ञान होवे, और उससे प्राचीन संस्कृतभाषा में विद्यमान विपुल शब्दराशि का बोध अनायास हो सके इतना ही नहीं, हमारे द्वारा प्रस्तुत व्याख्या सरणि का ज्ञान होने पर आधुनिक भाषा - शास्त्रियों के द्वारा संस्कृतभाषा पर जो आक्षेप किये जाते हैं, उनका भी निराकरण करने में सहायता मिलेगी । २० पाणिनीय सूत्रों की भाषाविज्ञानिक व्याख्या वस्तुत व्याख्या-‍ - सरणि पर विचार करने से पूर्व व्याकरणशास्त्र में शब्द-साधुत्व के निदर्शन के लिए जो प्रक्रिया अपनाई गई है, उसे २५ जान लेना आवश्यक है । वैयाकरणों ने शब्द - साधुत्व के निदर्शन के लिए जो प्रक्रिया अपनाई है, उस पर यदि गम्भीरता से विचार किया जाये, तो उसके तीन भेद स्पष्ट उपलब्ध होते हैं । एक प्रक्रिया वह है - जिसमें धातु वा प्रातिपदिक से प्रत्यय होने पर स्वाभाविक विकार होते हैं । यथा ३० इकारान्त उकारान्त ऋकारान्त वा अकारोपध धातु से त्रित् णित् Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या प्रत्यय परे होने पर समानरूप से धातु को वृद्धि होती है । इसी प्रकार तद्वित ञित् णित् कित् प्रत्यय परे आद्यच् को वृद्धि होती है । जो विकार सामान्य रूप से सर्वत्र होते हैं, उन्हें यास्क के शब्दों में प्रादेशिक एवं श्रन्वितसंस्कार कहा जाता है ।' दूसरी प्रक्रिया वह है - जिस में किसी धातु वा प्रातिपदिकविशेष में लोप आगम वर्णविकार वा आदेशादि करके शब्दस्वरूप का अन्वाख्यान किया जाता है । जैसे— हत: घ्नन्ति दीयते पिबति श्रादि । इसे यास्क के शब्दों में अनन्वित संस्कार कहा जाता है । तीसरी प्रक्रिया वह है - जिसमें से एक से अधिक असामान्य कार्यं होते हैं । इसे निपातन प्रक्रिया कहा जाता ५ 1 है । जैसे - निष्टवर्य पाणिन्धमः हैयंगवीनम् । इसे यास्क के शब्दों में १० अनन्वित संस्कार और अप्रादेशिक विकार माना जाता है । २१ हमारी प्रस्तुत सूत्र - व्याख्या का सम्बन्ध विशेषरूप से द्वितीय प्रक्रिया के साथ, और कुछ सीमा तक तृतीय प्रक्रिया के साथ है। इस लिए इस विशिष्ट व्याख्या के निदर्शनार्थ इसी प्रकार के सूत्र उपस्थित किये जायेंगे। हमने जहां तक शास्त्रकारों की विविध प्रक्रिया पर १५ विचार किया है, उसके अनुसार हम कह सकते हैं कि शास्त्रकारों ने द्वितीय तृतीय प्रक्रिया का प्राश्रयण प्रायः वहीं किया है, जहां घातु वा प्रातिपदिक रूप मूल प्रकृति का लोप हो गया था, परन्तु उनसे निष्पन्न शब्द उनके काल में विद्यमान थे । प्रस्तुत व्याख्या का आधार पाणिनीय सूत्रों की जिस व्याख्या को हम प्रस्तुत कर रहे हैं, वह हमारी कल्पना नहीं है, अपितु व्याकरणशास्त्र के प्रामाणिक प्राचार्य महामुनि पतञ्जलि और उत्तरवर्ती कतिपय प्राचीन व्याख्याकारों के प्रत्यक्ष व्याख्यानों पर प्रवृत है । प्रस्तुत व्याख्या के व्यापक विषय को हम स्थूल रूप से निम्न विभागों में बांट सकते हैं १ - प्रकृतिविभाग से संबद्ध लोप श्रागम प्रदेश वर्णविकार आदि के निर्देश द्वारा प्रकृत्यन्तर सद्भाव को द्योतित करना । २ - प्रत्ययभाग से संबद्ध लोप श्रागम प्रादेश वर्णविकार आदि के द्वारा प्रत्ययान्तर सद्भाव को प्रकट करना । १, इसी भाग का पृष्ठ १६, टि० १ । २० २५ ३० Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० २२ संस्कृत व्याकरण का इतिहास ३ - गण कार्य का उपलक्षणत्व व्यक्त करना । ४ - पाणिनीय नियमों से प्रसिद्ध पाणिनीय प्रयोग द्वारा विवित्र नियमान्तरों की कल्पना, अथवा उक्त नियमों का प्रायिकत्व द्योतित करना । यथा - (क) सन्धि - नियम (ख) विभक्ति - नियम (ग) लिङ्ग-नियम (घ) समास- नियम ५ - प्रयोक्ता के अभिप्राय का अन्य प्रकार से ज्ञापन होने पर तद् विशेष वाचक अंश के प्रयोग की प्रविवक्षा-उक्तार्थानामप्रयोगः । प्रकृत्यन्तर कल्पना का नियम महाभाष्यकार ने प्रकृत्यन्तर कल्पना का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण - नियम भी लिखा है । वे लिखते हैं 'कथमुपबर्हणम् ? बृहिः प्रकृत्यन्तरम् । कथं ज्ञायते बृहिः प्रकृत्यन्तरमिति ? श्रचीति हि लोप उच्यते श्रनजादावपि दृश्यतेनिबृह्यते । प्रनिटीति चोच्यते, इडादावपि दृश्यते - निबहता, १५ निर्बाहम् इति । श्रजादावपि न दृश्यते - बृहयति, बृहकः इति । महा० १|१|४|| अर्थात् - [ यदि सूत्र के विषय का परिगणन नहीं करते, तो ] 'उपबर्हण' [ में नुम् का लोप होने पर गुण का प्रभाव ] कैसे उपपन्न होगा ? 'बृह' ( = नुम् रहित ) प्रकृत्यन्तर है । कैसे जाना जाता है २० [ कि बृह प्रकृत्यन्तर है ] ? अजादि प्रत्यय परे रहने पर [ बृहेरच्यनिटि ( ० ६।४।२४ ) वार्तिक से नुम् का ] लोप कहा है, वह हलादि प्रत्यय परे भी देखा जाता है - निबृह्यते । इडादि प्रत्यय परे [ नुम्लोप का ] निषेध कहा है, पर इडादि प्रत्यय परे [ नुम् का लोप ] देखा जाता है - निबर्हता, निर्बाहतुम् । अजादि प्रत्यय परे [ नुम् लोप २५ का विधान होने पर भी लोप ] नहीं देखा जाता है - बृहत बृहकः । 1 १. इसके अन्तर्गत विकरण इट्-अनिट् ग्रात्मनेपद - परस्मैपद आदि विधियों प्रातिपदिकगण संबन्धी समस्त कार्यों का संग्रह समझना चाहिए । २. महाभाष्य १ | १ | ४४ ॥ १।२२५१ || २|१|१|| ३|१|७|| ४|१|३ ॥ ३० ५२६४ ॥ २८३ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या २३ यही बात भर्तृहरि ने इस प्रकार कही हैअर्थान्तरे च यवृत्तं तत्प्रकृत्यन्तरं विदुः । अर्थात्- जो शब्द (=धातु वा प्रातिपदिक] अर्थान्तर (= विषयान्तर) में नियत हैं । उन्हें प्रकृत्यन्तर जानना चाहिये । अब हम क्रमशः एक-एक विषय को प्रकट करने के लिये एक-एक ५ दो-दो सूत्रों वा वचनों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं प्रकृत्यन्तर-सद्भाव का निरूपण १-सूत्र वातिक आदि के द्वारा जहां-जहां धातु वा प्रातिपदिकरूप प्रकृति को आगम आदेश लोप वर्णविकार आदि का विधान किया है, वहां-वहां प्रकृति में उस-उस कार्य को सम्पन्न कर लेने पर प्रकृति का १० जो रूप निष्पन्न होता है, उसे महाभाष्यकार पतञ्जलि तथा अन्य व्याख्याताओं ने स्वतन्त्र प्रकृति मानकर आगम आदि विधान को प्रवक्तव्य माना है। क-आगमसंयुक्त धात्वन्तर-वातिककार कात्यायन ने नयते षुक च (अ० ३।२।१३५) वार्तिक द्वारा तृन् प्रत्यय परे 'नी' को 'षक' १५ (ए) का अागम करके नेष्टा रूप बनाया है। इस पर भाष्यकार कहते हैं 'न वा वक्तव्यम् । किं कारणम् ? धात्वन्तरं नेषतिः । कथं ज्ञायते ? नेषतु नेष्टात् इति हि प्रयोगो दृश्यते । इन्द्रो वस्तेन नेषतु, गावो नेष्टात् ।' २० अर्थात्-'नी' से षुक पागम का विधान नहीं करना चाहिये। क्या कारण है ? 'निष' घात्वन्तर है। कैसे जाना जाता है कि 'निष' धात्वन्तर है ? नेषतु नेष्टात् प्रयोग देखे जाते हैं, अर्थात् जहां षुक के आगम का विधान नहीं किया, वहां भी विशिष्ट का प्रयोग देखा जाता है । अतः निष् स्वतन्त्र धात्वन्तर हैं। उसी से विना षुक् आगम २५ के भी नेष्ट्रा रूप उपपन्न हो जायेगा। ___ काशिकाकार ने (३।१।८५) इन्द्रो वस्तेन नेषतु' सिप' और 'श' दो विकरणों की कल्पना की है। निष धात्वन्त र स्वीकार करने पर दो विकरणों की कल्पना की आवश्यकता ही नहीं रहती। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ख-प्रादेशरूप धात्वन्तर-वैयाकरणों ने अनेक स्थानों पर धातुओं के स्थान में आदेशों का विधान किया है। यथा-पाघ्राध्मास्था आदि के स्थान में शित् प्रत्यय परे पिब जिघ्र धम तिष्ठ आदि आदेश (द्र०-० ७।३।७८) । इनमें आदेशरूप से पठित शब्द स्वतन्त्र धात्वन्नर हैं । उदाहरणार्थ-5मा को धम आदेश । निरुक्त १०.३१ में मधुर्धनतेविपरीतस्य तथा उणादिसूत्र अतिसृवृधम्यम्यशिभ्योऽनि: (उ० २७५) में 'धम' का स्वतन्त्र धातुरूप में प्रयोग किया है । क्षीरस्वामी ने 'ध्मा' धातु (क्षीरत० ११६५६) के व्याख्यान में लिखा है-धमिः प्रकृत्यन्तरमित्येके । यथा-धान्तो धातुः पाव. कस्यैव राशिः । रामायण किष्किन्धाकाण्ड (६७।१२) में स्वतन्त्र धातु के रूप में लुट् लकार में प्रयोग मिलता है-विमिष्यामि जोमूतान् । __इसी प्रकार प्रश्नोते रश च (उ० २७५) में आदेशरूप से निर्दिष्ट रश भी स्वतन्त्र धातु है । महाभाष्यकार कहते हैं-रशिरस्मायाविशेषेणोपदिष्टः । स राशिः रशना इत्येवं विषयः (महा. ७।१।९६)। ग-वर्णविकार से निष्पन्न धात्वन्तर-वैयाकरण जिन धातुओं में वर्णविकार करके शब्द की सिद्धि करते हैं, वहां उपादीयमान धातु में वर्णविकार कर लेने पर जो रूप निष्पन्न होता है, वह धात्वन्तर माना जाता है । यथा १-वैदिक 'गृभ्णाति' प्रयोग के लिये वैयाकरण हुग्रहो भश्छन्दसि हस्य (अ० ८।२।३२) वार्तिक द्वारा 'ग्रह' धातु के हकार को भकार और सम्प्रसारण करके 'गृभ' रूप बनाते हैं । निरुक्तकार यास्क ने गर्भो गभेः (नि० १०।२३) निर्वचन में 'गृभ' धातु को स्वतन्त्र धातु मानकर गृभ से गर्भ का निर्वचन दर्शाया है । इसी प्रकार ग्रह धातु को सम्प्रसारण करने पर जो 'गृह' रूप बनता है, उसे न्यायसंग्रह पृष्ठ २५ १४६ में स्वतन्त्र धातु माना है। २. जिन धातुओं को कित् ङित् प्रत्यय परे रहने पर धातुगत यकार वकार और रेफ के स्थान में क्रमशः इकार उकार ऋकार रूप सम्प्रसारण होता है, वे कृत-संप्रसारणरूप धातुएं स्वतन्त्र प्रकृतियां १५ १. यह हैम ब्याकरण से सम्बद्ध परिभाषामों का हेमहंसगणिविरचित ३० व्याख्या ग्रन्थ है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/४ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या २५ मानी जाती हैं। यथा-यज के इष्टि इज्यते आदि में 'इज' रूप, वच के उक्ति उच्यते आदि में 'उच' रूप और प्रथ के पृथ पृथिवी आदि में 'पृथ' रूप । इस विषय में निरुक्तकार यास्क लिखते हैं तद यत्र स्वरादनन्तरान्तस्यान्तर्धातर्भवति तद द्विप्रकृतियां स्थानमिति प्रदिशन्ति । तत्र सिद्धायामनुपपद्यमानायामितिरयोपपिपादयि- ५ षेत् । निरुक्त २।२॥ ___ अर्थात्-स्वर से [पूर्व वा पर] अव्यवहित अन्तस्य वर्णवाली धातु होती है उसे दो प्रकृतियों से निष्पन्न होने वाले शब्दों का स्थान माना जाता है। अतः यदि सिद्ध-लोक प्रसिद्ध रूप प्रकृति से शब्द की उपपत्ति न होवे तो इतर=कृतसंप्रसारणरूप प्रकृति से निष्पन्न १० करने की इच्छा करे। इसके उदाहरण वहीं निरुक्त में दिये-अब ऊ से ऊति, म्रद = मृद से मृदु, प्रथ=पृथ से पृथु आदि । इस विषय में भर्तृहरि ने वाक्यपदीय २।१७६ में कहा है भिन्नाविजियजी धातू नियतौ विषयान्तरे । कैश्चित् कथंचिदुपदिष्टौ चित्रं हि प्रतिपादनम् । अर्थात् -इज और यज दो धातु हैं, ये विषयान्तरे में नियत है [यथा कित प्रत्ययों में कृतसंप्रसारणरूप इज और अन्यत्र यज] । किन्हीं प्राचार्यों के किसी प्रकार से उपदेश किया है। प्राचार्यों का प्रतिपादन विचित्र है [यथा स भुवि प्रापिशलि ने थातु पढ़ी है और २० प्रस् भुवि पाणिनि ने] । इस कारिका की भर्तृहरि की स्वोपज्ञ व्याख्या भी द्रष्टव्य है। घ-वर्णविपर्ययरूप धात्वन्तर-वैयाकरण तथा नरुक्त सिंह आदि शब्दों का निर्वचन हिंस (हिसि हिंसायाम) धातू में प्राद्यन्त-विषर्यय करके दर्शाते हैं । यथा-कृतेस्तकः, कसेः, सिकताः, हिसेः सिंहः २५ (महा० ३।१।१२३); सिंहः सहनात्, हिसेर्वा स्याद् विपरीतस्य (निरु० ३.१८) । इस प्रकार वर्णविपर्यय करने पर धातु का जो रूप निष्पन्न होता है, वह स्वतन्त्र माना जाता है । अतएव काशकृत्स्न धातूपाठ में "हिंस' से 'सिंह' का अन्वाख्यान न करके षिहि (=सिंह) हिंसागत्योः (धातुसूत्र ११३१६) रूप स्वतन्त्र सिंह धातु से सिंह पद ३० का अम्बाख्यान किया है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ २० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास -' पृणति' 'मृणति' ये रूप पृण मृण घात्वन्तर के हैं- धात्वन्तरं पूणिमृणी | महा० ३|१|७८ ॥ २५ २६ ड. - 15 धातुगत प्रागम श्रादेश वर्णविकार के करने पर जो रूप निष्पन्न होता है, वह स्वतन्त्र घात्वन्तर है । इस विषय में हमने कतिपय प्रमाण दर्शाये हैं । च - हेमन् - हेमन्त के तकार का लोपरूप । द्र० - महा० ४।३।२२।। छ –त्मन्-प्रात्मन् के आकार का लोप 'टा' तृतीयैकवचन में कहा है - मन्त्रेष्वाङयादेरात्मनः ( ० ६ । ४ । १४१ ) | वेद में तृतीयैकवचन से अन्यत्र भी 'त्मन् ' स्वतन्त्र प्रकृति के रूप देखे जाते हैं । यथा- - त्मन् ( ऋ० ४|४|१ इत्यादि), त्मनम् (ऋ० ११६३१८ ), त्मनि ( ऋ० १ | १५८।४ इत्यादि), त्मने ( ऋ० १|११४१६ इत्यादि), त्मन्या ( ऋ० १ | १५ १८८ । १० इत्यादि) । अब हम कतिपय उन प्रातिपदिकरूप प्रकृत्यन्तरों का निर्देश करते हैं, जहां शास्त्रकारों ने लोपागम वर्णविकार प्रदेश आदि कहा है, पर उनसे निष्पन्न रूप प्रकृत्यन्तर माने जाते हैं । ज - सुधातक, व्यासक, वरुडक, निषादक, चण्डालक, बिम्बकसुधातृ आदि में अकङ प्रदेश से निष्पन्न ये रूप प्रकृत्यन्त रहैं । द्र०महा० ४।१।६७॥ 1 झ - पीतक - कन् प्रत्यय सहित के रूप में, बिना कन् प्रत्यय के ० ४।२।२।। महः ० ञ - तैल - विकारार्थं प्रत्ययान्त के रूप में, विना विकारार्थ प्रत्यय के । महा० २२|| ट - शीर्षन् - प्रदेश रूप में निर्दिष्ट विना प्रवेश के । महा० ६ । १।१० ॥ ठ - सपत्न - स्त्रीलिङ्ग में विहित नकारादेश के विना । महा० ६|३|३५|| धातु और प्रातिपदिक विषयक प्रकृत्यन्तर- कल्पना के कुछ निदर्शन उपस्थित करके अब हम अष्टाध्यायी के कतिपय सूत्रों की इसी भाषाविज्ञानिक दृष्टि से व्याख्या उपस्थित करते हैं । जिससे पाणिनीय व्याकरण की भाषाविज्ञानिक व्याख्या का स्वरूप समझने में सुकरता होगी । ३० Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या २७ क-पाणिनि का सूत्र है-मनोर्जातावञ्यतौ षुक् च । ४।१।१६१ ।। वैयाकरण इसका अर्थ करते हैं-षष्ठी समर्थ (=षष्ठ्यन्त) 'मनु' प्रातिपदिक से अपत्य अर्थ में 'अ' और 'यत्' प्रत्यय होते हैं, यदि जाति अर्थ जाना जाये, तथा प्रत्यय के साथ मनु प्रातिपदिक को 'षुक्' (अन्त में षकार) का आगम होता है। यथा-मनु की अपत्य रूप ५ जाति-मानुष और मनुष्य । प्रश्न होता है कि मनु शब्द में षकार नहीं हैं, तब उससे निष्पन्न मानुष और मनुष्य में कहां से और किस प्रकार षकार आया ? साम्प्रतिक वैयाकरणों के पास इसका कोई उत्तर नहीं। इसका यथार्थ उत्तर हमारी वैज्ञानिक व्याख्या ही दे सकती है। १० वैज्ञानिक व्याख्या-संस्कृतभाषा में मानव मानुष और मनुष्य तीन शब्द प्रायः सदृश एकार्थक प्रयुक्त होते हैं । इनकी परस्पर में तुलना करने से विदित होता है कि मानव और मानुष के आदि (प्रकृति) भाग में कुछ भिन्नता है, और अन्त्य (प्रत्यय) माग 'प्र' समान है (स्वर की दृष्टि से अण और अञ् दो प्रत्यय होते हैं, परन्तु १५ 'अ' अंश दोनों में समान है) । मानुष और मनुष्य के आदि (प्रकृति) भाग में समानता (प्रत्यय-निमित्तक वृद्धि काय की उपेक्षा करके) है, और अन्त्य (प्रत्यय) भाग में विषमता है । इस अन्वयव्यतिरेकरूपी तुलना से स्पष्ट होता है कि इन तीनों शब्दों की एक मनु प्रकृति नहीं हैं । मानव की प्रकृति मनु है पोर मानुष तथा मनुष्य की प्रकृति है २० षकारान्त मनुष् । इस अन्वयव्यतिरेक से सिद्ध तत्त्व के प्रकाश में इस सूत्र की वैज्ञानिक व्याख्या होगी षष्ठयन्त मनु प्रातिपदिक से जाति-विशिष्ट अपत्य अर्थ में अञ् और यत प्रत्यय होते हैं, तथा मनु को षक (अन्त में षकार) का आगम होता है । अर्थात-मनु के अन्त में षकार का योग करके मूल २५ प्रकृतिभूत मनुष् रूप प्रातिपदिक बनाकर (=प्रकृत्यन्तर की कल्पना करके) उससे अञ् और यत् प्रत्यय करो। ___ इस व्याख्या के अनुसार प्रत्यय-विधान साक्षात् मनु से न होकर मनुष से होगा। सूत्रकार ने लोकविज्ञात 'मनु' का निर्देश लुप्त 'मनुष' शब्द का अर्थज्ञान कराने के लिये किया है। ३० प्रकृत्यन्तर कल्पना का लाभ-हमारी व्याख्या के अनुसार जो Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास 'मनुष्' प्रकृत्यन्तर की कल्पना की गई है, उसका एक लाभ यह भी है कि उससे निष्पन्न तथा पाणिनि से श्रविहित अनेक शब्दों का साधुत्व उपपन्न हो जाता है । पाणिनि की वर्तमान व्याख्या के अनुसार 'मानुष' शब्द का प्रयोग मानव जाति रूप अर्थ से अन्यत्र नहीं हो ५ सकता । परन्तु हमारी व्याख्यानुसार जब पाणिनि स्वतन्त्र 'मनुष्' प्रकृति के अस्तित्व का ज्ञापन कर देते हैं, तब उस स्वतन्त्र 'मनुष्' प्रकृति से अन्य अर्थों में भी यथाविहित प्रत्यय होकर तस्य इदम् आदि अर्थों में भी मानुष का साधुत्व उत्पन्न हो जाता है । जातिरूप अपत्य अर्थ से अन्यार्थ में भी मानुष शब्द का प्रयोग प्राय: उपलब्ध १० होता है । यथा १५ २० मानुषं हते यज्ञे कुर्वन्ति । शत० १|४|४|१ || भोगांश्चातीव मानुषान् । महा० उद्योग १०।१६।। 1 यहां मनुष्य सम्बधी तस्येदम् ( ४ | ३ | १२० ) अर्थ में मानुष पद प्रयुक्त है । मनुष् प्रकृति का सद्भाव — हमने अष्टाध्यायी की वैज्ञानिक व्याख्या द्वारा जिस 'मनुष्' प्रकृति की कल्पना की हैं, वह शशश्रृङ्गायमाण नहीं है । मनुष् षकारान्त प्रकृति वेद में बहुधा व्यवहृत हैं । इतना ही नहीं, मनुष्य की प्रकृति 'मनुष्' है, ऐसा यास्क ने भी माना है । यास्क का लेख है - 'मनुष्यः कस्मात् .....मनोरपत्यं मनुषो वा ।' निरुक्त ३|२|| मनुष प्रकारान्त - षकारान्त मनुष् प्रकृति का सद्भाव ऊपर दर्शा चुके 1 वेद में मनुष अकारान्त शब्द भी बहुत्र उपलब्ध होता है । अकारान्त मनुष भी प्राद्युदात्त है । सुगागम द्वारा सान्त प्रकृति का निर्देश - संस्कृत भाषा में अनेक २५ ऐसे शब्द हैं, जो सम्प्रति प्रकारान्त इकारान्त उकारान्त ही माने जाते हैं, परन्तु वे प्राचीन भाषा में सकारान्त ( षकारान्त) भी प्रयुक्त होते थे ( मनु और मनुष् का उदाहरण पूर्व व्याख्यात हो चुका है ) । इस तथ्य का व्यापक ज्ञापन क्यच् प्रत्यय परे 'सर्वप्रातिपदिकेभ्यः सुग्वक्तव्यः' ( श्र० ७ १।५१) वार्तिक से होता है ! इसके सर्वसम्मत ३० उदाहरण हैं--वधिस्थति, मधुस्यति आदि । हमारे विचार में दधिस्यति मधुस्थति अपपाठ हैं । सुक् के पूर्वान्त Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या २६ होने से षत्व होकर दधिष्यति मधुष्यति शुद्ध रूप होना चाहिए । तुलना करो - मधुषा संयोति ( तै० सं० २।४१६ ) | सुगागम के द्वारा सान्त ( षान्त ) प्रकृत्यन्तर के सद्भाव के सामान्य ज्ञापक से अनायास ही शतशः शब्दों के दो-दो स्वतन्त्ररूप ज्ञात हो जाते हैं।' इसी तत्त्व का विपरीत प्रक्रिया से ज्ञापन पाणिनि ५ केतु : क्यङ् सलोपश्च ( ० ३|१|११ ) सूत्रस्थ सलोपो वा वार्तिक से भी होता है । तदनुसार पयस्यते पयायते; यशस्यते, यशायते द्वारा पयस् यशस् सान्तों का सकार रहित पय यश प्रकृत्यन्तर का भी सद्भाव ज्ञात हो जाता है । अतएव चरक (सूत्रस्थान ११।१६ ) का नीरजस्तमा: ( तम अकारान्त का ) प्रयोग भी उपपन्न हो जाता है । इसी प्रकार का कात्यायन का वार्तिक है - नयतेः षुक् च ( श्र० ३ |२| १३५ ) । इस वार्तिक के द्वारा नेष्टा शब्द में 'नी' को ( गुण करके ) बुक् श्रागम का विधान किया है। यह षुगागम का विधान निष् प्रकृत्यन्तर का ज्ञापक है । यह हम पूर्व (भाग ३, पृष्ठ २३ विस्तार से दर्शा चुके हैं । १० ख - पाणिनि का सूत्र है - कन्यायाः कनीन च । प्र० ४।१।११६ ।। इसका अर्थ किया जाता है - षष्ठी समर्थ ( षष्ठ्यन्त) 'कन्या' से अपत्य अर्थ में 'ण' प्रत्यय होता है, और कन्या को कनीन प्रदेश हो जाता है । कन्या ( कुंवारी) का पुत्र = कानीन । शब्द १५ यहां पर यह विचारणीय है कि 'कन्या' का 'कानीन' से दूर का २० भी सम्बन्ध नहीं । कन्या से अण् होकर कान्य प्रयोग होना चाहिये अथवा ढक् होकर कान्येय । कानीन की प्रकृति तो 'कनीना' ही हो सकती है । २५ वैज्ञानिक व्याख्या - पाणिनि के उक्त सूत्र सूत्र की वैज्ञानिक व्याख्या होगी - 'कन्या' शब्द से अपत्य अर्थ में 'ण' प्रत्यय होता है, और कन्या के स्थान पर 'कनीन' ( प्रातिपदिकमात्र, स्त्रीत्व - विवक्षा में १. इस नियम के अनुसार 'अग्निस्' भी स्वतन्त्र शब्द है । इसी सान्त ! शब्द के अपभ्रंश इण्डोयोरोपियन भाषानों में 'इग्निस् ' ' उ निस्' आदि विविध रूप मिलते हैं । इन्हें संस्कृत के सुप्रत्ययान्त 'अग्निस्' का अपभ्रंश मानना चिन्त्य है । क्योंकि इण्डोयोरोपियन भाषाओं के सान्त शब्द प्रातिपदिक के रूप 1 में माना जाता है । ३० Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'कनीना') आदेश होता है । अर्यात्-कन्या अर्थवाले कनीना (स्त्रीत्व विशिष्ट) प्रकृति से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है, ऐसा जानना चाहिये । कन्यावाचक कनीना पद वैदिक साहित्य में बहुत्र उपलब्ध होता है। ते० प्रा० २२७।६ में कनीना का दूसरा रूप कनीनी भी प्रयुक्त है।' दोनों मध्योदात्त कनीन प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में टाप् और डीप होकर निष्पन्न होते हैं । 'कानीन' शब्द की निष्पत्ति 'कनीनो' शब्द से भी अपत्यार्थ में अण् प्रत्यय होकर हो सकती है। __कनीना प्रकृति-कल्पना का लाभ-पाणिनि के उक्त सूत्र की १० वैज्ञानिक व्याख्या करने से कन्या अर्थ में जो 'कनीना' प्रकृति का सद्भाव ज्ञापित होता है, उसके प्रकाश में अवेस्ता के 'हनोमयश्त' ६।२३ का पाठ पढ़िए-ह प्रोमा तास् चित् या कइनीना (संस्कृत -सोमः ताश्चित् याः कनीना") इसमें पठित 'कइनीना' 'कनीना' का ही अपभ्रंश है, यह स्पष्ट है। कनीना के अज्ञान में इसका सम्बन्ध १५ 'कन्या' से समझा जायेगा, जो कि सर्वथा अयुक्त है । इससे स्पष्ट है कि वैज्ञानिक व्याख्या द्वारा लुप्त प्रकृतियों का उद्धार करने से भाषाविज्ञानिकों को भाषाओं की पारस्परिक तुलना के लिये एक नई दष्टि और विस्तृत क्षेत्र उपलब्ध हो जाता है । ___ग-इसी प्रकार का पाणिनि का अन्य सूत्र है-तवकममकावेक२० वचने (प्र० ४।३।३) । इससे एकवचनान्त युष्मद् अस्मद् के स्थान में खा प्रत्यय के परे तवक-ममक आदेश होते हैं। तव इदं तावकीनम, मम इमामकीनम् । वस्तुतः ये आदेशरूप से उपदिष्ट तवक ममक प्रकृत्यन्तर हैं। ऋग्वेद १॥३५॥११ में मम कस्य, तया ऋ० ११३४।६ में ममकाय प्रयोग उपलब्ध होते हैं। २५ घ-वातिककार का एक वार्तिक है-हग्रहोर्भश्छन्दसि हस्य । ८ । ३॥३२॥ ___अर्थात्-'ह' और 'ग्रह' (गृह) के हकार को भकार होता है। भरति, गृभ्णाति । यहां प्रयम विचारणीय है-'ह' के 'ह' को 'भ' करने की आवश्यकता ही क्या है ? जब कि स्वतन्त्र 'भू' धातु का धातुपाठ में सर्वसम्मत पाठ उपलब्ध है । यदि कहा जाए कि धातुपाठ १. इस विषय में प्रथम भाग के १२ वें पृष्ठ पर टि० १ भी देखें। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ३१ पठित 'भृ' का हरण अर्थ नहीं है, यह भी कहना तुच्छ है । वैयाकरणों का सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि धातुपाठ में लिखित अर्थ उपलक्षणमात्र हैं, धातु बह्वर्थक होते हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार भृ का हरण अर्थ स्वीकार किया जा सकता। वैज्ञानिक व्याख्या-'ह' के हकार को भकार होकर जो 'भ' रूप ५ होता है, उसका अर्थ वह भी हैं, जो 'हरति' का हैं । इसी प्रकार ग्रह (गृह) के हकार को भकार रूप होकर जो रूप निष्पन्न होता है, वह गृह्णात्यर्थक स्वतन्त्र धातु है।' ___इस प्रकार की व्याख्या करने से 'भ' के हरणरूप अर्थान्तर की प्रतीति होती है और ग्रह (गृह') के वर्ण-परिवर्तन से स्वतन्त्र गृभ १० धातु का परिज्ञान होता है । इस गृभ धातु के प्रयोग वेद में तो उपलब्ध होते ही हैं, यास्क भी गर्भ शब्द का निर्वचन इसी धातु से दर्शाता है 'गर्भो गमे: गणात्यर्थे । निरुक्त १०॥२३॥ अर्थात्-गर्भ 'गृणाति" (शब्द) अर्थ में वर्तमान 'गृभ' धातु से १५ निष्पन्न होता है। ङ-पाणिनि का समासान्त विधायक एक सूत्र है-राजाहसखिभ्यष्टच । अ० २४६१ ॥ इसका अर्थ है-राजन् प्रहन और सखि शब्द जिसके अन्त में हों, ऐसे तत्पुरुष समास से 'टच' प्रत्यय होता है । टच् प्रत्यय होने पर २० पाणिनीय नियम के अनुसार 'अन्' भाग का लोप होता है, और रूप बनता है-मद्रराजः, काशीराजः; यहः, व्यहः । ___ इस व्याख्या के अनुसार नागराज्ञा (महा० आदि० १६।१३); सर्वराज्ञाम् (आदि० २११०२); काशीराज्ञे (भासनाटकचक्र पृष्ठ १८७); महाराजानम् (भास, यज्ञफल, पृष्ठ २८) आदि शतशः २५ १. इसी प्रकार ग्राहक आदि में ग्रह की उपधा को दीर्घत्व द्वारा निर्शित 'ग्राह भी स्वतन्त्र धातु है । देखिए महाभारत वन० १३२।४ का 'निजग्राहतुः' प्रयोग। २. यहां पाठभ्रंश हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। 'गृह्णात्यर्थे' पाठ होना चाहिए। क्योंकि वेद में 'गृभ' धातु का प्रयोग 'ग्रह' धातु के अर्थ में ही मिलता है। स्वयं यास्क ने भी आगे 'यदा १० हि स्त्री गुणान् गृह्णाति .....' वाक्य में गृह्णाति का ही प्रयोग किया है। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रयुक्त शब्दों का साधुत्व उपपन्न नहीं होता। पाणिनि ने भी षपूर्वहन्धृतराज्ञामणि (अ० ६।४।१३५) सूत्र में नकारान्त 'घृतराजन्' शब्द का प्रयोग किया है।' वैज्ञानिक व्याख्या-इस व्याख्या के अनुसार उक्त सूत्र का अर्थ ५ होगा-राजन प्रहन और सखि शब्द जिसके अन्त में हों, ऐसे तत्पुरुष समास से 'टच' प्रत्यय होता है। अर्थात् टच् प्रत्यय करने पर अन् और इ भाग का लोप, अोर प्रत्यय के प्र के मेल से जो प्रकारान्त राज अह सख शब्द निष्पन्न होते हैं, उनसे निष्पन्न मद्रराज काशीराज महाराज द्वयह व्यह प्रादि समस्त शब्द हैं। दूसरे शब्दों में नकारान्त १. सदश अकारान्त जो राज और अह स्वतन्त्र प्रकृतियां हैं, उन्हीं से निष्पन्न मद्रराज और द्वयह आदि शब्द हैं। वैज्ञानिक व्याख्या का लाभ-इस व्याख्या का भारी लाभ यह है कि प्रकारान्त और नकारान्त भेद से दो स्वतन्त्र शब्दों की सता ज्ञात होने पर प्राचीन वाङमय में बहुधा प्रयुक्त नकारान्त समस्त १५ (काशीराजे आदि) शब्दों का साधुत्व तो अनायास प्रकट हो हो जाता है, साथ में विना समास के अकारान्त राज अह शब्दों का प्रयाग भी हो सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में ऐसे कतिपय विरल प्रयोग सुरक्षित भी हैं। यथा अकारान्त राज शब्द - राजाय प्रयतेमहि (महा० आदि पर्व ६४। २० ४४॥ प्रकारान्त प्रह शब्द-तन्त्राख्यायिका २।१३६ में उद्धृत प्राचीन वचन है 'यस्मिन् वयसि यत्काले यदहे चायवा निशि ।' पाणिनि के नियमानुसार द्वयह व्यह प्रयोग तत्पुरुष समास में ही २५ होता है, परन्तु रामायण १।१४।४० के व्यहोऽश्वमेधः वचन में बहु १. संवत् १९३९ श्रावण वदी ४ को शाहपुराधीश को लिखे गये पत्र में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लिखा है-'श्रीयुत महाराजाधिराजभ्यो धीर. वीर .....'। ऋ० द० के पत्र और विज्ञापन, भाग २, पृष्ठ ५८० (त० सं०) । यहां समास होने पर भी नकारान्त राजन् शब्द का प्रयोग ३० किया है । समासान्त का प्रयोग नहीं किया। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/५ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ३३ व्रीहि में भी अकारान्त ग्रह शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है । पाली व्याकरण के अनुसार 'राजन्' शब्द की कतिपय विभक्तियों में नकारान्त और अकारान्त दोनों के रूप प्रयुक्त होते हैं । यथाद्वि० ए० - राजानम्, राजम् । तृ० ए० - राज्ञा, राजेन । स० ब० राजसु राजसु । - प्राचीन प्राचार्यों का एक वचन है- विभाषा समासान्तो भवति (समासान्तविधिरनित्यः - पाठा० ) । इस वचन का वास्तविक भाव यही है कि समासान्त प्रत्यय करने पर लोकप्रसिद्ध उत्तर पद का जो स्वरूप निष्पन्न होता है, उस अप्रसिद्ध शब्द और लोकप्रसिद्ध दोनों प्रकार के शब्दों से निष्पन्न समस्त प्रयोगों का साधुत्व जानना १० चाहिये । यथा सत्यधर्माय दृष्टये । ईशोप ० में अकारान्त धर्मशब्द | सत्यधर्माणमध्वरे । ऋ० १।१२।४ में नकारान्त धर्मन् शब्द । इसी नियम के अनुसार नकारान्तरूप से प्रसिद्ध कर्मन् शब्द अकारान्त (कर्म) भी देखा जाता है । ऋ० १०।१३०।१ में देवकर्मभिः प्रयोग प्रकारान्त कर्म शब्द का ही है । १५ इसी प्रकरण का दूसरा सूत्र है - ऊधसोऽनङ् (प्र० ५ १४ । १३१) । इस से ऊधस्' को समासान्त 'अनङ' आदेश करके जो 'ऊधन्' शब्दरूप बनाया जाता है, उसके ( = ऊधन् के) विना समास के अनेक विभक्तियों के रूप वेद में उपलब्ध होते हैं । इस व्याख्या के अनुसार सारा समासान्त प्रकरण द्विविध प्रकृतियों (विना समासान्त के जो शुद्ध रूप हैं, और समासान्त करने पर शास्त्रीय कार्य होकर जो रूप निभन्न होता है) का बोधक है । इस प्रकार केवल एक समासान्त प्रकरण से ही शतशः शब्दों के मूलभूत दो-दो रूपों का परिज्ञान हो जाता है । २० २५ नञ् समास में अब्राह्मणः प्रनश्वः नपात् आदि तीन प्रकार के प्रयोगों के साधुत्व के लिए नलोपो नञः, तस्मान्नुचि, नम्राण्नपान्नवेद० (अ० ६।३।७२, ७३,७४ ) तीन नियम पाणिनि ने लिखे हैंप्रथम नियम के अनुसार नञ् के नकार का लोप होता हैं । द्वितीय से अजादि उत्तरपद को नलोपीभूत प्रकार से परे नुट् का आगम कहा ३० है, और तृतीय नियम से कुछ शब्दों में न लोप का प्रभाव दर्शाया Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास है । वस्तुतः ये नियम निषेधार्थक प्रअन् न इन तीन अव्ययों की सत्ता का बखान करते हैं। निषेधार्थक प्रनिपात का प्रयोग चादिगण में, और अव्यय का निरूपण कोशों में उपलब्ध होता है। स्वामी दयानन्द ने अव्ययार्थ में लिखा है -अप्रभावे । अराजके तु लोके५ ऽस्मिन् सर्वतो विद्रते भयात् (मनु ॥३) । सामपदकार गार्य ने भी प्र को स्वतन्त्र निषेधार्थक अव्यय मानकर अवग्रह द्वारा प्र की पृथक् सत्ता स्वीकार की है । यथा- रातेः-अरातेः (१।१।१।६), अमित्रम् -अ मित्रम् (१।१।२।१), अमृतम्-अ मृतम् (१।१।४।१)। इसी प्रकार पदकार गार्ग्य ने अजादि उत्तरपद को नुट् का जहां अागम होता है, वहां न् को पूर्वान्वयी मानकर अन् के साथ अवग्रह दर्शाया है। २-प्रत्ययान्तर सद्भाव की कल्पना-जैसे प्रकृति में लोप प्रागम वर्णविकार आदि के निर्देश से प्रकृत्यन्तर का सद्भाव ज्ञापित होता है, उसी प्रकार प्रत्ययों में भी लोप आगम आदेश द्वारा प्रत्ययान्तर का १५ सद्भाव द्योतित होता है। पाणिनि ने समासेऽनपूर्वे क्त्वो ल्यप् (अ० ७१।३७) सूत्र द्वारा समास में 'क्त्वा' के स्थान में 'ल्यप्' का विधान किया है । यह 'ल्यप्' स्वतन्त्र प्रत्ययरूप में भी प्रयुक्त देखा जाता है । यथा संध्यावधूगृह्य करेण भानुः । पाणिनीय जाम्बवती विषय । प्राज्येनाक्षिणी प्रज्य । आश्वलायन श्रौत ५।१६।६।। शुचौ देशे स्थाप्य । पारस्कर परिशिष्ट स्नानसूत्र । अर्घ्य तान देवान् गतः । काशिका ७।३।३८ में उद्धृत । उष्य । रामायण ११२७॥१॥ दृश्य । रामायण ११४८॥११॥ पाणिनि ने ङित् लकारों में तस् थस् थ मिप् के स्थान में ताम् तम त अम (अ० ३।४।१०१) आदेश कहे हैं। महाभाष्यकार इस के विषय में कहते हैं'एकार्थस्यैकार्थः, द्वयर्थस्य द्वयर्थः, बह्वर्थस्य बह्वों यथा स्यात् ।' प्र० ११॥४६॥ ३० अर्थात्-एक अर्थवाले 'मिप्' के स्थान में एक अर्थवाला 'अम्' २० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ३५ दो अर्थवाले 'तस् थस्' के स्थान में दो अर्थवाले 'ताम् तम्', और बहुत अर्थवाले 'थ' के स्थान में बहुत अर्थवाला 'त' हो जायेगा । यहां यह विचारणीय है कि जब तक ये प्रदेश किसी के स्थान में नहीं होते, तब तक पाणिनीय मतानुसार इनमें अर्थवत्ता ही उपपन्न नहीं होती । तब भाष्यकार ने भावी प्रदेशों की प्रर्थवत्ता कह कर ५ अर्थसादृश्य से स्थान्यादेश भाव का नियमन कैसे उदाहृत किया ? इससे जाना जाता है कि भाष्यकार की दृष्टि में अन्य कोई प्राचीन ऐसा व्याकरण था, जिसमें ङित्लकारों में स्वतन्त्र रूप से इन्हें प्रत्यय माना था । तन्निबन्धक अर्थवत्ता को ध्यान में रखकर भाष्यकार ने पाणिनीय मतानुसार प्रदेशरूप प्रत्ययों की अर्थवत्ता का निर्देश किया । इस प्रकार प्रदेशरूप में कहे गये प्रत्ययादेश स्वतन्त्र प्रत्यय हैं, यह जानना चाहिये । इसी प्रक्रिया के अनुसार आर्ष ग्रन्थों के वे प्रयोग.. जहां समास होने पर भी क्त्वा को ल्यप् नहीं होता, और विना समास के भी ल्यप् के रूप देखे जाते हैं, सरलता से उपपन्न हो जाते हैं । ३- गणकार्य का उपलक्षणत्व - पाणिनि ने स्वीय शास्त्र के उपदेश के लिये दो प्रकार के गण पढ़े हैं। एक - धातुगण, और दूसरा प्रातिपदिकगण । धातुगणों का समूह 'धातुपाठ' के नाम से प्रसिद्ध है, प्रातिपदिकगणों का समूह 'गणपाठ' के नाम से । आधुनिक वैयाकरण इन गणों के विभागों को पूर्ण व्यवस्थित मानकर प्रयोग करने का आग्रह करते हुए पाणिनीय गणविशेष में पठित पाठ की भी उपेक्षा करते हैं । यथा ܕ २० धातुपाठ में समस्त धातुएं १० गणों में व्यवस्थित की गई हैं । यह व्यवस्था विकरण प्रत्ययों की दृष्टि से की गई है। उक्त गणव्यवस्था प्रायिक है । इसका निर्देश स्वयं पाणिनि ने धातुपाठ के अन्त में बहुलमेतन्निदर्शनम् ( १० । ३६६ ) सूत्र द्वारा कर दिया है । यदि पाणिनि के अनुसार इनका प्रायिकत्व स्वीकार कर लिया जाये, तो वेद में अनेक स्थानों पर छान्दस विकरण- व्यत्यय मानने की कोई २५ मावश्यकता नहीं रहती | - १५ ३० पाणिनि का सूत्र है - श्रुवः शुच ( प्र० ३ | १|७४ ) । इसका अर्थ है-श्रु धातु से श्नु प्रत्यय होता है, और श्रु को शू प्रादेश हो जाता Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास है यद्यपि व्याख्या ठीक है, परन्तु आधुनिक वैयाकरण श्रु धातु का शणोति प्रयोग ही साधु मानते हैं । इन वैयाकरणों से पूछना चाहिये कि पाणिनि ने श्रु धातु को भ्वादि में पढ़कर श्न विकरण और श आदेश का विधान क्यों किया? यदि 'शृणोति' ही रूप बनाना है, तो ५ 'श्रु' को स्वादिगण में पढ़ा जा सकता था, और इनु प्रत्यय सरलता से प्राप्त हो सकता था । केवल 'श' आदेशमात्र के विधान की आवश्यकता रहती। ___ अब यदि पाणिनीय पाठ को ध्यान में रखा जाये, तो मानना होगा कि श्रु धातु के भ्वादिपाठ-सामर्थ्य से श्रवति श्रवतः श्रवन्ति रूप भी साधु हैं । वेद में तो श्रवति आदि प्रयोग बहुधा उपलब्ध भी होते हैं। इतना ही नहीं, धात्वादेश रूप से पठित शब्द स्वतन्त्र धातु रूप है, यह हम पूर्व दर्शा चुके हैं। तदनुसार श्रवणार्थक 'श' भी स्वतन्त्र धातु है।' ___ लोक में एक से अधिक विकरणों का सहप्रयोग-हमने ऊपर कहा है कि पाणिनि ने गणों का विभाग विकरण-प्रत्ययों की दृष्टि से किया है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर एक विकरण-व्यवस्था बनती है । परन्तु वेद में कहीं दो विकरणों का सहभाव देखा जाता है । काशिकाकार ३।१।८५ की व्याख्या में लिखता है ___ 'क्वचिद् द्विविकरणता क्वचित त्रिविकरणता च । द्विविकरणता२० इन्द्रो वस्तेन नेषतु, नयत्विति प्राप्ते। त्रिविकरणता-इन्द्रेण युजा तरुषेम वृत्रम्, तीर्यास्मेति प्राप्ते ।' १. सायण आदि भाष्यकारों ने शण्विरे शविषे को लिट् का प्रयोग माना है। हमारे विचार में यह प्रयुक्त है। पाणिनि ने विदो लटो वा (अ. ३।३।८३) से विद धातु से लट में भी तिप् प्रादि के स्थान में णल अतुस् उस आदि प्रादेश कहें हैं। यदि इन आदेशों को लट् के भी स्थानापन्न प्रत्यय स्वीकार कर लिया जाये, तो शविरे शविषे में छान्दसत्वात सार्वधातुकत्व मानकर श्नु आदि विधान की आवश्यकता नहीं रहती। साथ ही 'द्विवचनप्रकरणे छन्दसि वेति वक्तव्यम' (अ० ६।१८) वार्तिक की भी आवश्यकता नहीं होती। जागार आदि लौकिक वेद विदतुः विदुः प्रयोगों के ३० समान लट् में उपपन्न हो जायेगा 'जागार' का वर्तमानकालिक 'जागता है' अर्थ ही-यो जागार तमृचः कामयन्ते (ऋ० ५।४४।१४) में सम्बद्ध होता है । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ३७ अर्थात्-'नेषत' में सिप और शप दो विकरण हए हैं, और 'तरुषेम' में उ सिप् और शप् तीन विकरण।। काशकृत्स्न व्याकरण के अनुसार लोक में भी द्विविकरणता देखी जाती है। काशकृत्स्न भ्वादिगण में शुची शूची चुची चूची अभिषवे । (१।२।३०) धातुसूत्र पढ़ता है। इसकी व्याख्या में चन्नवीर कवि ५ दिवादेर्यन् सूत्र उद्धृत करके उससे यन् (तथा भ्वादिपाठ से अन्) विकरण करके शुति शूच्यति चुच्यति चूच्यति प्रयोग दर्शाये हैं । पाणिनि इस द्विविकरणता से बचने के लिए शुच्य चुच्य अभिषवे (१।३४३) धातुसूत्र यकार सहित धातु पढ़ता है। इसी प्रकार काशकृत्स्न उर्ण प्राच्छादने (२।६२) की टीका १० और उस पर हमारी टिप्पणी भी द्रष्टव्य है। ___ यदि देवादिक श्यन् विकरण के 'य' को धातुरूप में सम्मिलित करके द्विविकरणता हटाई जा सकती है, जैसा कि पाणिनि ने शुच्यादि में किया है, तो वेद में भी वैसी ही धात्वन्तर की कल्पना करना युक्त होगा। 'नेषतु' में निष धातु (यह रूप भाष्यकार को इष्ट है, १५ यह हम पूर्व पृष्ठ २३ पर लिख चुके हैं) और 'तरुषेम' में कण्ड्वादिगणस्थ उषस प्रभातभावे (१।१।६) के समान 'तरुष' स्वतन्त्र धातु मानी जा सकती है। उस अवस्था में 'तरुषेम' में त्रिविकरणता की आवश्यकता नहीं होगी, 'श' विकरण से रूप निष्पन्न हो जायेगा। और यदि वेद में द्विविकरणता या त्रिविकरणता इष्ट है, तो लोक में २० भी इसे स्वीकार करके धातुशब्दों को अधिक संक्षिप्त बनाया जा सकता है । जैसे पाणिनि के शूच्य चच्य का रूप काशकृत्स्न ने शूच चुच इतना ही माना है। उस अवस्था में शुच की धात्वन्तर रूप से पढ़ने की आवश्यकता नहीं रहेगी। ___ इसी गण कार्य के अन्तर्गत आत्मनेपद या इट आदि के लिये पढ़े २५ गए अनुबन्धों का निर्देश भी प्रायिक मानना चाहिये । प्रात्मनेपदार्थ अनुदात्तत्व की प्रायिकता स्वयं पाणिनि ने चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि (२७) में इकार और डकार दो अनुबन्धों से दर्शाई है। इट् विधान की अनित्यता का ज्ञापन भी पाणिनि के पतित (अ० २।१।२३) आदि प्रयोगों से स्पष्ट है । इसी व्यवस्था का विचार करके हैम धातु- ३० पाठ के व्याख्याता गुणरत्न सूरि ने स्कन्द धातु पर लिखा है Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास सर्वघातूनां बहुलं वेडित्यन्ये ( पृष्ठ ६६ ) । उदात्त धातुम्रों के अनिट् के, तथा अनुदात्त घातुनों के सेट् के रूप प्राचीन प्रार्षवाङमय में प्राय: उपलब्ध होते हैं । प्रातिपदिक गणों में कुछ ही गण ऐसे हैं, जिन्हें नियत माना ५ जाता है, यथा – सर्वादीनि । अधिकतर गण तो प्रायः श्राकृतिगण ही है । परन्तु नियतगण समझे जानेवाले सर्वादि प्रभृति गणों में भी शब्दों का पाठ प्रायिक है । सर्वादिगण में अन्यतम शब्द का पाठ नहीं हैं । परन्तु प्रापिशल और पाणिनि दोनों ही प्राचार्यों ने शिक्षा ग्रन्थ के आठवें प्रकरण के प्रथम सूत्र में ' स्थानानामन्यतमस्मिन् स्थाने' १० प्रयोग में सर्वनाम संज्ञा मानकर प्रयोग किया है। जब नियत माने जानेवाले गण की ही यह स्थिति है, और वह भी प्रापिशलि और पाणिनि के मत में, तब अन्य गणों का प्रायिकत्व तो सुतरां सिद्ध है । इससे स्पष्ट है कि धातुगण और प्रातिपदिक गणों के पाठों के प्रायिक होने से पाणिनि प्रभृति प्राचायों द्वारा साक्षात् अनुपदिष्ट १५ किन्तु विष्ट प्रयुक्त प्रयोग साधु हैं, यह स्वीकार करना हो होगा। २० ४ - पाणिनीय नियमों से प्रसिद्ध पाणिनीय प्रयोग द्वारा नियमान्तर की कल्पना, अथवा नियमों का प्रायिकत्व द्योतित करना - इस प्रकरण में हम पाणिनि के कतिपय प्रयोगों द्वारा यह दर्शाने का प्रयत्न करेंगे कि पाणिनि ने जिस विषय में जो नियम अष्टाध्यायी में लिखे हैं, उनके विपरीत जिन शब्दों का पाणिनि ने अपने सूत्रों में प्रयोग किया है, ऐसे कुछ प्रयोगों के द्वारा वैयाकरण कुछ नियमों का ज्ञापन करते हैं । यदि उसी प्रक्रिया को अधिक विस्तार दे दिया जाए, तो बहुविध प्रपाणिनीय शब्दों का साधुत्व अनायास अभिव्यक्त हो जाता है । हम इसके कुछ उदाहरण उपस्थित करते २५ हैं - सन्धि नियम - पाणिनि का प्रसिद्ध सूत्र है - इको यणचि (प्र० ६ ॥ १। ७४) । इसके द्वारा अव्यवहित अच् परे इक् को यणादेश होता है । इसी नियम के अनुसार भू श्रादयः = भ्वादयः प्रयोग होना चाहिये । परन्तु पाणिति का वचन है- भूवादयो धातवः (प्र० १३०१ ) | यहां ● 'भू प्रादयः' के मध्य वकार का आगम या व्यवधान हुआ है । इस स्वनियम विरुद्ध पाणिनीय प्रयोग से यदि 'श्रव्यवहित श्रच् परे रहने ३० Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ३६ पर इक से परे यण का व्यवधान भी होता है इस नियमान्तर की कल्पना कर लें, तो संस्कृतभाषा के अनेक शब्दों की व्यवस्था सरलता से उपपन्न जाती है । भाषावत्तिकार ने तो इकां यणभिर्व्यवधानं व्याडिगालवयोः (६।११७७) वचन उद्धृत करके दधियत्र मधुवत्र प्रयोगों का साधुत्व दर्शाया है। इतना ही नहीं, इस नियम को तो हम सूत्रारूढ़ भी बना सकते हैं। इको यच (अ. ६११७४) सूत्र को हलन्त्यम् के समान द्विरावृत्त मानकर यणादेश पक्ष में इकः को षष्ठी मानकर, और यणव्यवधान पक्ष में इकः को पञ्चम्यन्त मानकर व्याख्या कर सकते हैं। इस एक नियम की कल्पना करने पर संस्कृतभाषा पर जो १० व्यापक प्रभाव पड़ता है, उसकी संक्षिप्त मीमांसा हमने इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय (प्रथम भाग, पृष्ठ २८-३२) में की है। पाठक इस प्रकरण को अवश्य देखें। क्योंकि उसका यहां पुनः लिखना पिष्टपेषणमात्र होगा। इसी प्रकार अन्य सन्धि-नियमों के सम्बन्ध में भी विचार किया १५ जा सकता है। विभक्ति नियम-पाणिनि के विभक्ति-नियम के अनुसार 'पर' शब्द के योग में (२।३।२६ से) पञ्चमी विभक्ति होनी चाहिए। परन्तु पाणिनि ने ऋहलोर्ण्यत् (अ० ३।१।१२४) आदि में बहुत्र षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया है। इन प्रयोगों के अनुसार यदि हम २० यह ज्ञापन कर लें कि दिकशब्दों के योग में षष्ठी का प्रयोग भी होता है, तो ऐसे अनेक शिष्ट प्रयोग, जिनमें 'पर' आदि दिक्शब्दों के योग में षष्ठी का निर्देश है, अञ्जसा साध प्रयोग समझे जा सकते हैं। यथा-एकादशिनोः परः। ऋक्सर्वानुक्रमणी उपोद्घात । ॥५॥ हिन्दीभाषा में भी पूर्व पर शब्दों के योग में पञ्चमी और षष्ठी २५ दोनों का प्रयोग होगा है - ग्राम से पूर्व या परे, ग्राम के पूर्व या परे । पाणिनि के कर्तृ कर्मणोः कृति (अ० २।३।६५) के नियम से कृदन्त के प्रयोग में कर्म में षष्ठी होती है । परन्तु पाणिनि का स्व. प्रयोग है-तद् अहम् (अ० ५।१।११६) । यहां पाणिनि ने स्वनियम को उपेक्षा करके 'अहम्' के योग में 'तद्' द्वितीया का प्रयोग किया ३० है। इससे स्पष्ट है कि कृदन्त के योग में कर्म में द्वितीया का प्रयोग Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास . भी हो सकता है । तदनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती का यजुर्वेद १।१२ के भाष्य में प्रोषधि सेविका प्रयोग साधु होगा। वैयाकरणों का मत है कि किसी अर्थ में अथवा किसी उपपद को निमित्त मानकर एक से अधिक विभक्तियों का विधान किया गया हो, तो भी समान वाक्य में उन विभन्न विभक्तियों का प्रयोग साधु नहीं होता। महाभाष्यकार ने कहा 'एकस्याकृतेश्चरित: प्रयोगो द्वितीयस्यास्तृतीयस्याश्च न भवति । तद्यथा गवां स्वामी अश्वेषु च ।' ३३११४०। अर्थात् -एक प्राकृति से प्रारब्ध प्रयोग दूसरी और तीसरी १० प्राकृति से नहीं होता । यथा-गवां स्वामी अश्वेषु च । स्वामी शब्द के योग में स्वामोश्वराधिपतिदायाद० (२।३।३६) से षष्ठी और सप्तमी दोनों का विधान होने पर भी गवां स्वामी प्रवेषु च प्रयोग साधु नहीं होता । गवां स्वामी प्रश्वानां च अथवा गोषु स्वामी प्रश्वेषु च ही प्रयोग साधु है। १५ वस्तुतः महाभाष्यकार का यह मत एकान्त सत्य नहीं है, अपित प्रायिक है। प्राचीन ग्रन्थों में समानवाक्य में उक्त प्रकार के विभन्न विभक्तियों के प्रयोग उपलब्ध होते हैं । यथा--. १-शतपथ ब्राह्मण का पाठ है-अनस एव यजू पि सन्ति । न कौष्ठस्य, न कुम्भ्यै । १११।२।७॥ २-तैत्तिरीय संहिता का वचन है-धेन्वै वा एतद् रेतो यदाज्यम्, अनुडुहस्तण्डुलाः । २।२।६ ।। ३-तैत्तिरीय संहिता का दूसरा वचन है-इदमहममुभ्रातृव्यमाभ्यो दिग्भ्योऽस्यै दिवोऽस्मादन्तरिक्षात्...""। १६६ ॥ इन उदाहरणों में प्रथम दो में षष्ठ्यर्थ चतुर्थी वक्तव्या (२।३। २५ ६२) वार्तिक से विहित चतुर्थी, और पक्ष में यथाप्राप्त षष्ठी दोनों का समान वाक्य में ठीक उसी प्रकार प्रयोग हुआ है (कोष्ठस्य कुम्भ्य, धेन्वे अनुडुहः) जैसे प्रयोग का भाष्यकार ने प्रतिषेध किया है। ततीय वाक्य में और भी अधिक वैशिष्टय है। उसमें अस्यै दिवः विशेषण विशेष्य में भी विभिन्न विभक्तियों का प्रयोग उपलब्ध होता ३० है, जो साम्प्रतिक वैयाकरणों को सर्वया असह्य है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/६ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ४१ इससे यह स्पष्ट है कि पाणिनीय अनुशासन के नियम प्रायिक हैं । लिङ्ग नियम - पाणिनि ने अष्टाध्यायी और लिङ्गानुशासन में लिङ्ग का विधान किया है, परन्तु स्वयं पाणिनि ने अनेक प्रयोग स्वनियमों के विपरीत किये हैं । यथा लिङ्गानुशासन का एक नियम है- इन्द्वैकरम् (नपुंसकाधिकार सूत्र ७ ) । इस नियम के अनुसार समाहारद्वन्द्व में नपुंसकलिङ्ग होना चाहिए, परन्तु पाणिनि का एक सूत्र है - उकालोऽज्भूस्वदीर्घप्लुतः ( ० १ २ २७ ) | यहां समाहारद्वन्द्व में एक वचन तो है, परन्तु नपुंसकलिङ्ग के स्थान में पुल्लिङ्ग का प्रयोग किया है । ऐसा ही एक प्रयोग युवोरनाको ( श्र० ७ १1१ ) में है । यहां समाहारपक्ष में १० नपुंसकलिङ्ग होने पर युवुनः होना चाहिए । यदि इतरेतरयोग मानें तो युव्वोः रूप का निर्देश युक्त होगा । वस्तुतः यहां नपुंसकलिङ्ग के स्थान में पुल्लिङ्ग का प्रयोग जानना चाहिये । समासनियम - समास के सम्बन्ध में पाणिनि ने विविध नियमों का विधान किया है । उनमें किस समास में किसका पूर्व प्रयोग होना १५ चाहिये का भी विधान किया है । यथा - अल्पाच्तरम्, द्वन्द्वे धि अजाद्यदन्तम् (श्र० २।२।३४, ३२, ३३ ) आदि । परन्तु पाणिनीय सूत्रों में इन्हीं नियमों का उल्लङ्घन देखा जाता है, यथा २० ऋतौ कुण्डपाय्यसंचाय्यौ ( अ० ३|१|१३० ) में अल्पाच्तर 'संचाय्य' का पूर्व प्रयोग नहीं किया है। उत्तर सूत्र अग्नौ परिचाथ्योपचाय्य समूह्या: ( ० ३|१|१३|१ ) में अल्पाच्तर होने से 'समूहा' का और अजादि प्रदन्त होने से 'उपचाय्य'' का पूर्व प्रयोग होना चाहिए, परन्तु किया है 'परिचाय्य' का पूर्व प्रयोग । इसी प्रकार इको गुणवृद्धी ( प्र ० १|१|३ ) तथा नाडीमुष्ट्योश्च ( ० ३ |२| ३० ) में घिसंज्ञक 'वृद्धि' और 'नाडि' शब्द का पूर्वनिपात २५ नहीं किया । समास का प्रधान नियम है - समर्थः पदविधिः (अ०, २1१1१ ) इससे समर्थ पदों का ही समास होना चाहिए। परन्तु पाणिनि ने सुडनपुंसकस्य ( ० १|१|४३ ) असमर्थ नञ्समास का प्रयोग किया है । ऐसे असमर्थ नञ्समास लोक में भी देखे जाते हैं । यथा 'असूर्यं पश्या राजदाराः, श्रसूयं पश्यानि मुखानि श्रश्राद्धभोजी ३० Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ब्राह्मणः, अपुनर्गेयाः श्लोकाः । द्र०-महाभाष्य १।१।४२,४३॥ . इनमें नत्र का सम्बन्ध क्रिया के साथ है, उन पदों के साथ नहीं जिनके साथ समास हुआ है। इनके अर्थ हैं -सूर्य को न देखनेवाली : ‘रानियाँ, सूर्य को न देखनेवाले मुख, श्राद्ध न खानेवाला ब्राह्मण, पुनः ५. ने याये जानेवाले श्लोक। , ... अब हम अन्त में एक ऐसे नियम का पाणिनीय शास्त्र से ज्ञापन दर्शाते हैं, जिसको हृदयङ्गम कर लेने पर वैदिक भाषा में अनेक , छान्दस कार्यों के विधान की आवश्यकता ही नहीं रहती। इतना ही . नहीं, यदि इस ज्ञापकसिद्ध नियम को स्वीकार कर लिया जाये, तो १० संस्कृत भाषा अतिशय सरल बन जाती है। वह नियम है-- (५) वक्ता के विशेष अभिप्राय का अन्य शब्द से बोध हो जाने पर अभिप्राय विशेष को प्रकट करनेवाले प्रत्यय आदि का अभाव । भाष्यकार ने तो अनेक स्थानों पर उक्तार्थानामप्रयोगः' कहकर इस नियम को स्वीकार किया है। अब इस विषय में पाणिनीय नियम पर ५ विचार कीजिये। ... पाणिनि का प्रसिद्ध नियम है-विभाषोपपदेन प्रतीयमाने (० ११३७७)। इसका अर्थ है- स्वरित और त्रित् धातुओं से कत्रभिप्रायक्रियाफल (कर्ता अपने लिये क्रिया कर रहा है इस अर्थ) में जो आत्मनेपद (१॥३।७२ से) कहा है वह अर्थ यदि किसी उपपद (= २० समीपोच्चारित पद) से ज्ञात हो जावे, तो आत्मनेपद विकल्प से होता है। यथा-देवदत्तः स्वमोदनं पचति, देवदत्तः स्वमोदनं पचते; स्वं , कटं करोति, स्वं कटं कुरुते । - पाणिनि के इस नियम से स्पष्ट है कि किसी अर्थविशेष का बोध कराने के लिए यदि कोई प्रत्यय कहा है, और वह अर्थ अन्य शब्द से २५, बोधित हो गया है तो उस विशेष प्रत्यय के उच्चारण की आवश्यकता - नहीं रहती। पचते में तीन अंश हैं-एक पच् धातु, यह क्रिया को कहता है। दूसरा (प्रशप), यह विकरण कर्ता का अभिधायक है। था तीसरा 'ते' यह पुरुष वचन तथा क्रियाफल के कर्तृगामित्व को कहता है। प्रोदनं पचते-अपने खाने के लिए चावल पकाता है। पचति में ३० भी ये ही तीन अंश हैं । इसमें तिप् क्रियाफल के परगामित्व का बोध १. द्रष्टव्य पूर्व पृष्ठ २२ टि० २ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ४३ कराता है। प्रोदनं पचति-दूसरे के लिए अर्थात् स्वामी आदि के लिए प्रोदन पकाता है। जब ते. प्रत्यय का एक अंश क्रियाफल का कर्तृगामित्व स्वं पद से बोधित हो गया तो वक्ता की आत्मनेपदांश की विवक्षा नहीं रहती। शेष अर्थ जो ते और ति में समान है, उसे व्यक्त करने के लिए किसी का भी प्रयोग कर सकते हैं। इसी . ५ नियम को भाष्यकार उक्तार्थानामप्रयोगः शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करते ___इसी प्रकार का दसरा उदाहरण लीजिए-परोक्ष भूत अर्थ को व्यक्त करने के लिए परोक्षे लिट् (अ० ३।२।११५) से लिट् का विधान किया है। यदि परोक्षभूत अर्थ स्म पद से कह दिया जाये, तो १० लिट् प्रत्यय की आवश्यकता नहीं रहती । केवल पदपूर्त्यर्थ किसी भी काल विशेष बोधक लकार का प्रयोग कर सकते हैं। प्रथमातिक्रमे मानाभावात् नियम के अनुसार तथा रूप की सरलता की दृष्टि से साधारण जन लट् का प्रयोग करते हैं । इसी बात को पाणिनि ने लट् स्ने (अ० ३।२।११८) सूत्र द्वारा अभिव्यक्त किया है। १५ ____ यदि उक्त सूत्रों द्वारा ज्ञापित उक्तार्थानामप्रयोगः नियम को खुली आखों से देखें तो विदित होगा कि इस एक नियम से सहस्रों वैदिक और प्राचीन आर्ष प्रयोग बड़ी सरलता से समझ में आ जाते हैं। यथा. (१) सोमो गौरी अधि श्रितः (ऋ०६।१२।३) में सप्तम्यर्थ २० के अधि द्वारा उक्त हो जाने से सप्तमी विभक्ति का प्रयोग नहीं होता । इसे ही पाणिनि ने सुपां सुलुक (अ० ७।१।३६) द्वारा दर्शाया ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् (ऋ० १११६४।३६) में परमे विशेषण गत सप्तमी से सप्तम्यर्थ का बोध हो जाने से व्योमन् विशेष्य में ६.५ सप्तमी का अभाव देखा जाता है।' . .. १. अनेन लोपेनानुत्पत्त रेवान्वाख्यानमुक्तम् । महाभाष्यप्रदीपोद्योत ११२। ६४, पृष्ठ ८६ निर्णयसागर सं०।। २. द्रष्टव्य–किंच विशे यविभक्त्या विशेषणीयसंख्यादीनामुक्तावपि विशेषणाद यथा साधुत्वाय विभक्तिः क्रियते। महाभाष्यप्रदीपोद्योत १५२१६४, १० पृष्ठ ८३ निर्णय० सं०। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास D . . चषालं ये अश्वयूपाय तक्षति (ऋ० १११६२।६) में 'ये' पद से कर्ता के बहुत्व का बोध हो जाने से क्रिया द्वारा बहुत्व प्रदर्शन की आवश्यकता न रहने के कारण एक वचन का प्रयोग हुआ है। अधा स वोरर्दशभिवियूयाः (ऋ० ७।१०४।१५) में अन्य पुरुषत्व का बोध सः पद से हो जाने पर किया में अन्य पुरुषत्व के बोधक प्रथम पुरुष के प्रत्यय की आवश्यकता नहीं रहती, अतः शेष अर्थ के बोधनार्थ मध्यम पुरुष के प्रत्यय का प्रयोग हो गया। - अब हम इसी प्रकार के कुछ लौकिक शिष्ट प्रयोग प्रस्तुत करते हैंविराटद्वपदौ........ ययुः। महा० द्रोण. १८६॥३१॥ शालावृका......."विन्दति । महा० शान्ति० १३३।८।। वयं..... प्रतिपेदिरे । महा० शान्ति० ३३६॥३१॥ यूयं'......"अपराध्येयुः । महा० वन० २३६।१०॥ वयं-....."ददृशिरे । महा० शान्ति० ३३६॥३५।। इस संक्षिप्त विवेचना से यह स्पष्ट है कि यदि पाणिनीय शास्त्र की भाषाविज्ञान की दृष्टि से व्याख्या की जाये और पाणिनीय नियमों और प्रयोगों के आधार पर ज्ञापित होने वाले नियमों का सामान्य नियमों के रूप में प्रयोग किया जाये तो लोकभाषा से लप्त सहस्रों मूल धातुओं और प्रातिपदिकों का परिज्ञान हो सकता है। २० संस्कृत भाषा का विपुल शब्द-समूह आंखों के सन्मुख नर्तन करने लगता है । सम्भवतः इसी दृष्टि से भट्टकुमारिल ने कहा था 'यावांश्च अकृतको विनष्टः शब्दराशिः तस्य व्याकरणमेवैकम् उपलक्षणम्, तदुपलक्षितरूपाणि च ।' तन्त्रवार्तिक १।३।१२, पृष्ठ २३६, पूना सं०। २५ जब अष्टाध्यायी की उक्त प्रकार की बैज्ञानिक व्याख्या से संस्कृत भाषा की लुप्त अलुप्त विपुल शब्दराशि का परिज्ञान होगा तभी संसार की बिविध भाषाओं का यथोचितरूप में तुलनात्मक अध्ययन सम्भव है । अन्यथा थोड़े से ज्ञात शब्दों के आधार पर किया गया तुलनात्मक अध्ययन और उनके द्वारा निकाले गये परिणाम सदा भ्रान्त ३० होंगे। इस विषय में योरोप के प्रमाणीभूत प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक बाँप Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ४५ का एक उदाहरण देकर इस विषय को सामाप्त करते हैं । __ वॉप लिखता है-कतिपय शब्दों की तुलना से ज्ञात होता है कि योरोपियन भाषाओं की अपेक्षा बंगला संस्कृत से अधिक दूर है। बंगला के 'बाप' और 'बोहिनी' शब्दों का संस्कृत के 'पितृ' और 'स्वस' शब्दों से कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं है।' वै० वा. इति० भाग १ पृष्ठ ६६,६७ में उद्धृत विचारे बॉप को यह भी पता नहीं था. कि संस्कृत में पिता के लिए 'वाप' और स्वसा के लिए 'भगिनी' शब्द का भी व्यवहार होता है। (बंगला के बाप और बोहिनी शब्दों का संस्कृत के वाप और भगिनी से सीधा सम्बन्ध है । ) अन्यथा वह ऐसा मिथ्या निष्कर्ष न १० निकालता । इत्यलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्येषु । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ (वाराणसी) के भूतपूर्व छात्र श्री ओम्प्रकाश व्याकरणाचार्य एम० ए० १० ने श्रावण वि० सं० २०२३ में इसकी प्रतिलिपि करके हमें दी थी । १५ तीसरा परिशिष्ट - नागोजि भट्ट पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायी पाठ नागोजि भट्ट - पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायी पाठ का एक हस्तलेख वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के सरस्वती-भवनस्थ संग्रहालय में विद्यमान है । मूलकोश सं० १८८५ वि० का लिखा हुआ है । इसकी हस्तलेख संख्या प्रा० ६१५० है । हस्तलेख में दो पत्रे ( = ४ पृष्ठ ) हैं । यह अत्यन्त जीर्णशीर्ण और अशुद्ध तथा अस्पष्ट लिखा हुआ है । इस हस्तलेख की प्रतिलिपि हमारे विद्यालय २० सूत्र के साथ [ ] कोष्ठक में जो सूत्र संख्या दी जा रही है, वह रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित अष्टाध्यायी (संस्क० ७, सं० २०२८ ) के अनुसार है और यह सूत्र संख्या हमने दी है । हस्तलेख का पाठ [ अथ प्रथमोऽध्याय ] [१|१|१७] उञः, ऊँ – योगविभागोऽत्र भाष्यकृतः । [१४] स्थानेऽन्तरतमः, स्थानेऽन्तरतमे पाठान्तरम्' । [१/३/२९] समो गम्यृच्छिभ्याम् - स्वरित्यादि प्रक्षिप्तम्' । [ १।४।१] आकडारात् - प्राक्कडारात् परं कार्यम् इति पाठा न्तरम् । f १. कुतः पुनरियं विचारणा ? उभयथा हि तुल्या संहिता 'स्थानेऽन्तरतम उरण् रपरः' इति । द्र० – अत्रैव सूत्रे महाभाष्यम् । २. वृत्तिकृतेति शेष: ( नागेशमते ) । महाभाष्येऽत्र तदर्थबोधकवार्तिकद्वयदर्शनात् । २५ ३. उभययाह्याचार्येण शिष्याः सूत्रं प्रतिपादिताः । केचिद् आकडारादेका संज्ञा' इति केचित् 'प्राक्कडारात् परं कार्यम्' इति । अत्रैव सूत्रे भाष्यं द्रष्टव्यम् । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागोजिभट्ट-पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायीपाठ ४७ [१।४।४३] दिवः कर्म-इति आकडारसूत्रभाष्यस्वरसः' ., [पाठः], 'च' सहित पाठो वृत्तौ। [१।४।५५[ तत्प्रयोजको हेतु:-अत्र चकारस्य सैव व्यवस्था।' [१।४।५८] प्रादयः, [उपसर्गाः] क्रियायोगे-योगविभागोऽत्र -- भाष्यकृतः। . [१॥४॥५६] गतिः- चकारों दिवः कर्मेतिवत् ।: :: . [२।१।११] विभाषा, अपपरिबहिरञ्चवः पञ्चम्या:-योग विभागोऽत्र भाष्यकृतः। . . . . . [इति प्रथमोऽध्यायः] [अथ द्वितीयोऽध्यायः] [२।१।२२] द्विगु:-चकारो गतिरितिवत् ।' [२।१।४७] पात्रेसमितादयः-सम्मित इत्यपि पाठः।' [२।११६६] युवाखलति-'जरद्भिः अपपाठः । . .... ॥ इति द्वितीयोध्यायः॥. [अथ तृतीयोऽध्यायः १५ [३।११९५] कृत्याः-'प्राङ्वुलः' इति प्रक्षिप्तम् ।..... १. दिवंः कर्म-साधकतमं करणं दिवः कर्म च चकारः कर्तव्यः । द्र० - महा० १।४।१॥ . ... २. अत्र 'स्वतन्त्रः कर्ता तत्प्रयोजको हेतुश्च–चकारः कर्तव्यः' इत्यादि १४११ सूत्रस्थं भाष्यमनुसन्धेयम्। . . ३. अत्र 'उपसर्गाः क्रियायोगे गतिश्चेति चकारः कर्तव्यः' इत्यादि १४१ ,.. सूत्रस्थं भाष्यमनुसन्धेयम् । . __४. यथा गतिः' [१।४।५६] सूत्रे चकाररहितः पाठस्तथैवात्रापीति भावः। अत्र 'तत्पुरुषत्वे द्विगुश्चग्रहणं कर्तव्यम् । तत्पुरुषः, द्विगुश्च इति चकार: कर्तव्यः' इत्याद्याकडार [१।४।१] सूत्रभाष्यमनुसन्धेयम् । ....... २५ ५. काशिकावृत्तौ पाठः। ६. अत्रैव सूत्रभाष्यप्रदीपे कयट:- 'जरद्भि. इत्यपि पाठं शिष्या आचार्येण: बोधिता इति युवज़रन् इत्यपि भवति । अत्रैव प्रदीपोद्योते नागेश:- अंत्र मानं चिन्त्यम् । युवजरन् इति बहुलग्रहणेनापि सुसाधम् ।' . १. अत्रैव सूत्रभाष्ये वार्तिकदर्शनात् । ..... . Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० १५ २५ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास [ ३२७६,७७] - अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते क्विप् च इति स्थाने ] क्विप् च, अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते –— इति ब्रह्मभूण [ ३२८७ ] इति सूत्र भाष्यस्वरसः । [३३०७८ ] अन्तर्घनोदेशे - 'घण:' इत्येके, ' 'अन्तर' इत्यन्ये । [३।३।१२२] अध्यायन्यायोद्यावसंहाराश्च 'भारावाया:' इति प्रक्षिप्तम् । [ ३०४३२] प्रमाणे - स च व्यवहितः पाठो वृत्तौ । ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ] [अथ चतुर्थोऽध्याय ] [४।१।१५] टिड्ढाणञ्क्वरपः - " ख्युनाम्' इति प्रक्षिप्तम् [४५१३७] वृषाकप्य 'कुसिदानामुदात्तः - ' कुसीद' इत्यपपाठः । [४|११८१] देवयज्ञि न्तरम् । [४।१।१३] मातृष्वसुः [४।१।१५५, १६७,१७१] व्यपाठः केषांचित् । एवं साल्वेय इत्यादावपि । [ ४|११६५ इत्यनन्तरम् ] वृद्धस्य च पूजायाम्, यूनश्व कुत्सा२० याम् द्वे वार्तिके प्रक्षिप्ते । " ३० " ४८ ********s काण्ठे विद्धि' काण्डे' इति पाठा चकारपाठोऽत्र वृत्तौ । कौसल्यकार्मा ( २५५ ) ताल ( १६७ ) ६ साल्वावयव ( १७१ ) १. द्रष्टव्यास्था वृत्तिः । २. प्रत्र प्रमाणमनुसन्धेयम् । ३. हलरच [३।३।१२१] सूत्रभाष्ये तादृग्वार्तिकदर्शनात् । ४. वर्षप्रमाणे चोलोपोःस्यान्यरस्याम्' पाठ इति भावः । वृत्तौ सम्प्रति चारोऽन्यत्रोपलभ्यते । ५. अत्रैव सूत्रभाष्ये तादृगुपसंख्यानस्य दर्शनात् । ६. किमत्र प्रमाणमिति । न व्यक्तीकृतं नागोजिभट्टेन । ७. अत्र 'कण्ठविद्ध' इत्यपि पाठान्तरम् । द्र० - शब्दकोस्तुभः ४ | १ | ८१ ॥ ८. किमत्र प्रमाणमिति नोदेखि भट्टेन | उद्योतेऽप्यत्र सूत्र इत्थमेवाह नागेशः । ६. नाम नात्र निर्दिष्टम् । १०. 'जीवति तु वंश्ये युवा' [४|१| १६३ ] सूत्र भाष्ये 'वृद्धस्य च पूजायाम् Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/७ नागोजिभट्ट-पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायो ४६ [४।२।२] लाक्षारोचनाट् ठक्-'शकलकर्दमाभ्याम्' इति प्रक्षिप्तम् । [४।२।४१] ब्राह्मणमाण ..."यन्–'यत' इति त्वपपाठः।' [४।२।४२] ग्रामजनबन्धुभ्यस्तल्-‘गजसहाय' इति प्रक्षिप्तम् ।' [४।२।१२६] कच्छाग्निवक्त्रवर्तोत्तरपदात्-'गर्त' इत्यपपाठः। ५ 'जनपदतदव०' [४।२।१२३] इति सूत्रभाष्ये स्पष्टम्'। [४।३।११७,११८] संज्ञायां कुलालादिभ्यो वुन्-योगविभागोऽत्र भाष्यकृतः। [४।३।१३१ इत्यनन्तरम्] 'कौपिञ्जल' इति 'पाथर्वणिक' इति द्वे वार्तिके प्रक्षिप्ते । [४।३।१४०] शम्याः ष्टलन् । [४।३।१४६] नोत्त्वद्वर्धबिल्वात्-वर्ध' इति द्विः । [४।४।१७] विभाषा विवधात्-'वीवध' इति प्रक्षिप्तम् । [४।४।४२] प्रतिपथमेति [ठंश्च]-'ठञ् च' इति द्विः । । २० इति, 'अपत्यं पौत्रप्रभृति'० [४।१।१६२] सूत्रभाष्ये 'जीवाश्यं च कुत्सितम्' १५ इति वार्तिकदर्शनादिति भावः। १. अत्रैव वार्तिकदर्शनादिति शेषः । २. काशिकावृत्तावप्ययमेव पाठः, केषुचिद् हस्तलेखेषु यत्' पाठो दृश्यते । ३. अत्रैव सूत्रभाष्ये तादृग्वचनस्य दर्शनात् । ४. द्रष्टव्योऽत्र लघुशब्देन्दुशेखरः (भाग २, पृष्ठ २६०) । ५. अत्रैव सूत्रभाष्ये योगविभागः करिष्यते' इति वचनात् । ६. रैवतिकादिभ्यश्छ: [४।३।१३१] सूत्रभाष्ये वार्तिकपाठात् ।। ७. अत्र 'जितश्च तत्प्रत्ययात्' [४।१।१५३] भाष्यप्रदीपोद्योते 'भाष्यप्रामाण्यात् ष्लनः टित्त्वस्यैवाङ्गीकारान्न दोषः' इति नागेशवचनमनुसन्धेयम् । तुलनीयम्-'प्लज' अत्र टित् प्रत्ययः । लघुशब्देन्दुशेखरः (भाग २, पृष्ठ २८०) -८ द्वि:प्रकारकोऽपि पाठः प्रामाणिक इति भावः । अयं पाठ: ४।२।१२४ , सूत्रभाष्येण द्योत्यते। ६. अत्रैव भाष्ये वार्तिकदर्शनात् । १०. अत्र द्विः पदेन किमभिप्रेतमिति न ज्ञायते । अत्र 'वृत्तौ त्वेतद् विहितप्रत्ययो नियुक्तः' इति लघुशब्देन्दुशेखरे (भाग २, पृष्ठ २८७) नागेशः । एतद् व्याख्याने भैरवमिश्र आह- 'तेनादिवृद्धिरहितमुदाहरणं युक्तम्' इति । सम्भवत उभयथाऽपि पाठोऽत्र नागेशाभिप्रेतः स्यात् । - Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास [४।४।५३] किशरादिभ्यः-दन्त्यमध्यपाठान्तरम् । [४।४।६४] बह्वच्पूर्वपदाट ठञ् च-'ठम्' इति वृत्तौ।' ॥ इति चतुर्थोऽध्यायः ॥ [अथ पञ्चमोऽध्यायः]] [॥१॥२५] कंसाठिठन् –'टिठन्' इति वृत्तौ। [५॥१॥३५ इत उत्तरम्] अध्यर्धपूर्वद्विगो......."द्वित्रिपूर्वोदण् च' इति प्रक्षिप्तम् । [५११५७,५८] तदस्य परिमाणं संख्यायाः [संज्ञा] संघसूत्राध्यय नेषु योगविभागोऽत्र भाष्ये ।। [५।१।६२] त्रिंशच्चत्वारिंशतोर्ब्राह्मणे... तोर्बति द्वि०ः । [५।१।६३,६४] तदर्हति. छेदादिभ्योनित्यम्-योगविभागोत्र भाष्ये कृतः । [५।२।१०१] प्रज्ञाश्रद्धार्चाम्यो णः-'वृत्ति' इति प्रक्षिप्तम् ।। [५।३।५] एतदोऽन्–'अश्' इत्यपपाठः ।" १५ १. लघुशब्देन्दुशेखरे तु नागेशः 'किसरादि' दन्त्यमध्यप्रतीकमुपादाय तालव्यमध्यपाठो वृत्तौ' इत्युक्तवान् । भाग २, पृष्ठ २८८ । २. प्रत्ययस्य नित्वे 'बायोदशायन्यिकः' इत्येवमादावादिवृद्धिः स्यात् । किमत्र तत्त्वमिति देवा ज्ञातुमर्हन्ति । ... ३. अत्र ठकारवति पाठे प्रमाणं चिन्त्यम् । स्त्रियां 'कंसिको' इति ङीबपि २० न प्राप्नोति। ४. अत्रास्य पाठस्य प्रयोजनं चिन्त्यम् । ५. शाणाद्वा [५॥१॥३५] सूत्रभाष्ये वातिकदर्शनात् । ६. नात्र भाष्यकृता योगविभागो प्रदर्शितः । कैयटेन तु अब 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते खारशताद्यर्थम्' इति वार्तिकं विवृण्वता 'तदस्य परिमाणम्' इति योग विभागः कर्तव्यः' इत्युक्तम् । नागेशेनात्रोद्योते किमपि न लिखितम् । लघुशब्देन्दु२५ शेखरे तु 'उत्तरेण योगविभागोऽत्र ध्वनित.' इत्युक्तम् । ७. पाठोऽत्र भ्रष्ट इति कृत्वाऽभिप्रायो न ज्ञायते । ८. आदिगोपुच्छपरिमाणाट्ठक् (५३१११९) सूत्रभाष्ये योगविभाग उक्तः । १. अत्रैव भाष्ये वार्तिकदर्शनादिति भावः । १०. 'अश्' पाठः काशिकावृत्त । अत्र शित्त्वादेव सर्वादेशः सुगमः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागोजिभट्ट-पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायोपाठ ५१ [५५३७१,७२] अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः कस्य च द:योगविभागो वृत्तौ ।' [५।३।१०३] शाखादिभ्यो यः-'यत्' इति वृत्तौ, 'उगवा' [५।१।२[ इति सूत्रे भाष्ये च ।' - [५।३।११७] पर्वादियौधेयादिभ्यामणौ-दिभ्योऽणत्री इति ५.. द्विः। __[५।४।५०] कृम्वस्तियोगे सम्पद्य कर्तरि च्वि:-'प्रभूततद्भाचे' प्रक्षिप्तम् । [५।४।१२०] सुप्रात" सारिकुक्ष-'सारकुक्ष' इति द्विः । [५।४।१२१] नत्र सुदुर्यो हलिसक्थ्यो:-'शक्त्योः ' इति पाठा- १० न्तरम् ।। ॥ इति पञ्चमोऽध्यायः॥ [अथ षष्ठोऽध्यायः] ... [६।१।३२] हः सम्प्रसारणमभ्यस्तस्य च-योगविभागोऽत्र भाष्ये। [६।११६१ सूत्रे] अपस्पृधेथा""राशीर्ता:-'अचि शीर्षः' इति पाठान्तरम् । १. कथमिदमेकसूत्रमिति न व्यक्तीकृतं नागोजिभट्टेन । भाष्ये सहनिर्देश्य व्याख्यानादेवैकसूत्रत्वं तेनावगतं स्यात् ।। २. एतेन 'यः' पाठोऽसाधुरित्यभिप्रेतं स्यात् । तथा च उगवादि [१२] २० सूत्रभाष्यप्रदीपोद्योते 'शाखादिभ्यो यः पाठस्त्वसाम्प्रदायिकः' इत्युक्तं नागेशेन । ३. द्वि:प्रकारकोपि पाठः साध्विति भाव, । ४. अत्रैव भाष्ये वार्तिकदर्शनात् । ५. उभावपि पाठौ साधू इति भावः । ____३. नत्र सुदुर्यो.' पाठोऽयं कुत्रत्य इति न व्यक्तीकृतम् । अत्र 'हलिशक्त्यो रिति केचित् पठन्ति' इतिवृत्तिवचनमनुसन्धेयम् । ७. अत्रैव सूत्रभाष्ये योगविभाग उक्तः । ८. अत्र पाठो भ्रष्टः । अत्रैवं पाठः शोधनीयः- राशीताः-राशीतः इति पाठान्तरम् । इतोऽग्रे अचिशीर्षः' इति प्रक्षिप्तम् इति पाठो द्रष्टव्यः । अपस्पृधेया "सूत्रोपदानं किमर्थमिति न ज्ञायते । 'अचि शीर्षः' इति कस्य पाठान्तरमिति न ज्ञायते । वस्तुस्तु 'ये च तद्धिते [६।११६०] सूत्रभाष्ये वार्तिकमिदम् ।' ३० . . २५ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ... [६।१।७३] दीर्घात् पदान्ताद्वा-इति योगविभागः प्रत्याहाराह्निकें भाष्ये।' [६।१।६६ इत्यनन्तरम्] नित्यमार्गेडिते डाचि-इति च ।। [६।१८६] एत्येधत्यूठसु । [६।१।१११] -नान्तःपादम्-'प्रकृत्यान्तःपादम्' इति पाठान्तरम् । [६।१।१२०, १२१] इन्द्रे प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम् । [६।१।१३१. इत्यनन्तरम्] 'अडभ्यासव्यवायेऽपि' इति प्रक्षिप्तम् ।. . १० [६।१।१३२,१३३] सम्परिभ्यां भूषणसमवाययोः करोती अयं पाठोऽतउत् सार्वधातुके [६।४।११०] सूत्रभाष्ये स्पष्ट: । वृत्तौ तु सम्पर्यु पेभ्य: करोती भूषणे समवाये च' इति सूत्रपाठः । सम्पर्यु पेभ्यः-इति त्वपाठः । [६।१।१४२,१४५] विष्किरः शकुनौ वा-'शकुनिर्विकरो वा' १५ इत्यपपाठः । इत उत्तरम् - 'पाश्चर्यमनित्ये' इति पाठ्यम् । १. ऐौच सूत्रभाष्य इति शेषः “यहि योगविभागं करोति । इतरथा हि दीर्घात् पदान्ताद्वा' इत्येव ब्रूयात्' इति भाष्यवचनम् । करोति ब्रूयात्' क्रिययोः सूत्रकार एवं कर्ता । अतोऽनेन भाष्येण सूत्रकारस्यक सूत्रमिति न वक्तुं शक्यते । २. कोऽत्राभिप्राय इति न ज्ञायते । चकारेण कस्य समुच्चय इत्यपि न २०. व्यज्यते । नाम्रोडितस्य [६।११६६] सूत्रभाष्ये वार्तिकदर्शनात् प्रक्षिप्तम् इति वक्तव्यम् । ३. अत्र पाठव्यत्यासो जातः । अयं पूर्व पठनीयः । अस्योपन्यासे किं प्रयोजनमिति न व्यक्तीकृतम् । छ्वोःशुडनुनासिके च [६।४।१६] सूत्रभाष्यानु सारमिह एत्येधत्यूठसु' इत्येव पाठः ।। २५ ४. इकोऽसवर्णे॰ [६।११२३] सूत्रभाष्ये 'प्रकृत्येतदनुकृष्यते' इति वच नात् । ५. भाष्यानुसारम् 'इन्द्र च नित्यम्' इत्यत्रापि नित्यपाठ इति व्यज्यते । उत्तरसूत्रे पुननित्यग्रहणस्य च प्रयोजनान्तरमुक्तम् । ६. अत्रैव भाष्ये वार्तिकदर्शनात् । ७. इह अर्थतोऽनुवादो भाष्यकारेण कृतः, न तु सूत्रपाठ उद्धृतः। ८. अत्रैव वार्तिकदर्शनरत् । . भाष्ये पूर्वापरव्याख्यानदर्शनादिति शेषः । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागोजि भट्ट पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायीपाठ [६।१।१५० इत्यनन्तरम् ] कारस्करो वृक्षः - इति प्रक्षिप्तम् ।' [६।१।१५८, १५९ ] तद्धितस्य कित: - योगविभागोऽत्र भाष्ये ।' [६।२।५२] श्रनिगन्तोऽञ्चतावप्रत्यये - 'तौ व' इति वृत्तौ । " [६।२।९२,ε३] ग्रन्तः सर्वं गुण कात्स्न्यें - योगविभागोऽत्र वृत्तौ । * [६।२।१०७] उदाराश्वेषुषु क्षेपे - योगविभागोऽत्र वृत्तौ [६।२।१०९] निष्ठोपसर्गपूर्वावन्यतरस्याम् – 'पूर्वमन्य' इति - पाठान्तरम् । ५ ५.३. [६।२।१४२, १४३] ग्रन्तः थाथ - इत्यत्र योगविभागों वृत्तौ । [६ | ३|६ ] आत्मनश्च - 'पूरणे' इति वार्तिकम् । आत्मनश्च पूरणे' सर्वमेव वार्तिकमिति हरदत्तः । १० १. पारस्करादिगणे (६।१।१५१ ) 'कारस्करो वृक्ष:' इति गणसूत्रस्य दर्शनात् । २. अत्र 'गोत्रे' कुञ्जादिभ्यश्च्फञ' (४।१।१८) सूत्रस्य भाष्यं प्रमाणम् । ३. नागेशेन 'तावप्रत्यये' इति भाष्यानुगुणः पाठ इति कुतो विज्ञायीति न ज्ञायते । अस्यैव सूत्रस्य भाष्ये 'चोरनिगन्तोऽञ्चतो व प्रत्यये' इति वार्तिके १५ तद्वयाख्याने चोभयविध: पाठ उपलभ्यते । श्रत्र कीलहार्न संस्करणेऽन्ते पाठभेदौ' द्रष्टव्यौ । '४. अनयोरेकसूत्रत्वे प्रमाणं नोपन्यस्तं नागेशेन । अत्रानयोः सहनिर्देशादेकसूत्रमिति भ्रान्तो नागेश इति सम्भाव्यते । ५. अत्रैव सूत्रे 'उदराश्वेषुषु क्षेपे' त्येतस्मान्नम् सुभ्यामित्येतद् इविप्रतिषेधेन इति पाठदर्शनादेकसूत्रत्वमनुमितं स्यान्नामेशेन । अत्रस्थ: प्रदीपोद्योतोऽपि २० द्रष्टव्यः । ६. ' ० पसर्ग पुर्वावन्य०' इति भाप्यानुगुणः पाठ इति कुतो विज्ञायि नागेशेनेति नोक्तम् । ७. भाष्येऽत्र 'अन्तः' इत्येव सूत्रं व्याख्यायते । कदाचिद् "ग्रहवृदृनिश्चिगमश्च' ( ३।३।५८ ) सूत्रभाष्ये उभयोः सहपाठाद् भ्रान्तोऽत्र नागोजिभट्ट: । ८. 'प्राज्ञायिनि च' (६।३।५ ) इति सूत्रभाष्यप्रदीपोद्यते कृत्स्नस्यैव वातिकत्वं ब्रूते नागेशः । तदेवं स्ववचोविरोधादेकतद् चिन्त्यम् । अयं भाष्यसम्मतः सूत्रपाठः कदाचिदुद्योतारं पूर्वं निर्मितं स्यात् । अपि च ' वैयाकरणाख्यायाम्' (६।३।७ ) इत्यत्र 'परस्य च' शब्देन इति चेन रशब्दप्रतिद्वन्द्वितया ग्रात्मशब्दस्यैव ग्रहणम् । तदुभयं चैकसूत्रमित्याहु:' इत्युक्तम् । 1 ९. श्रस्य सूत्रस्यैव वृत्तिव्याख्यायां पदमञ्जर्यामाह हरदत्तः । २५ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ५४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास . [६॥३॥३९] स्वाङ्गाच्चेतः-'प्रमानिनि' इति प्रक्षिप्तम् ।' [६।३।६२,६१] समः समिरञ्चताबप्रत्यये' विष्वग्देवयोश्च टेरद्रिः –'विष्वग्देवयोश्च टेरञ्चतावप्रत्यये, समः समि' इति वृत्ती पाठः । [६।४।१००] घसिभसोर्हलि–'हलि च' इत्यषपाठः ।। [६।४।५६] ल्यपि लघुपूर्वात्-पूर्वस्य इति पाठान्तरम् [६।४।१३२] वाह ऊट् । ॥ इति षष्ठोऽध्यायः ।। [अथ सप्तमोऽध्याय ] [७।२।२३] घुषिरविशब्दने-घु [षे] रिति द्विः ।। १० । १. अत्रैव सूत्रभाष्ये वातिकदर्शनात् । २. 'अञ्चतावप्रत्यये' इति भाष्यानुकूलः पाठ इति कुतो व्यज्ञायि भट्टेनेति न ज्ञायते । एतत्सूत्रभाष्यप्रदीपोद्योते तु नागेशेन 'अञ्चती बप्रत्यय' इत्येव पाठः स्वीकृतः । तदाह-"प्रतएव सूत्रे 'वप्रत्यये' इति चरितार्थम्" इति । अन्यथा १५ अप्रत्यये' इति ब्रूयात् । अत्र ६।२।५२ सूत्रपाठटिप्पण्यपि द्रष्टव्या।। ३. भाष्ये 'समः समि नहि वृत्ति ... बौ' इत्युक्त्वा 'किमर्थमञ्चति ___नह्यादिषु क्विन्ग्रहणं क्रियते' इत्यादिपाठेनायं सूत्रपाठ ऊहितो भटटेन । ४. वृत्तौ 'अञ्चतौ वप्रत्यये' इत्येव पाठः, न तु नागेशभट्टनिर्दिष्टः । ५. अत्र लेखकप्रमादात् पौर्वापरव्यत्यास: पाठस्याजनि । ६. भाष्ये चकाररहित एव पाठः । अत्राह कैयट: प्रदीरे- 'अन्यत्रापीतिवचनाद् वार्तिककारश्चकारं न पपाठेनि लक्ष्यते ।' ७. अत्र नागेशेनोभो पाठो स्वीकृतौ। परन्तु एतत्सूत्रभाष्यात् 'ल्यपिलघुपूर्वस्य' इत्येव मूलसूत्रपाठ इति ज्ञायते । 'ल्यपि लघुपूर्वात्' पाठस्य तु मुक्त कण्ठेने वक्तव्यत्वमुक्तम् । २५ ८. अत्रैव सूत्रभाष्ये 'ऊड् प्रादि कस्मान्न भवति ? आदितष्टिद् भवति इत्यादिः प्राप्नोति इति वचनात् टित्वमेव भाष्यसम्मतमिति स्पष्टम् । 'च्छवोः शूड०' [६४१६] सूत्र भाष्यमप्यत्रैवानुकूलम् ।.. ६. द्विविधोऽपि पाठः प्रामाणिक इति भावः । 'घुविभाषा' इति अत्रैव सूत्रभाष्ये वचनात् तादृशोऽपि पाठः सम्भाव्यते । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागोजिभट्ट-पर्यालोचित भाष्यसम्मत अष्टाध्यायीपाठ ५५ [७।२।३४] ग्रसितस्कभित-इति सूत्रे 'क्षरिति' इत्युत्तरं 'क्षमिति' इति केचित् पठन्ति ।' [७।२।४८] तीषसहलुभ - 'तीषु' इत्यपपाठः ।' [७।२।६० [ तासि च कृपः-'क्लृपः' इति [ अपपाठः] । . [७।२।७०,७१[ ईशस्से ईडजनो ध्वे चा च' इति वृत्तौ ५ पाठः।" [७।२।८० अतो येयः-'अतो या इयः' इति पाठो मुक् [७।२। ८२] सूत्रभाष्ये । [७।३।१०] उत्तरपदस्य-अत्र 'च' सहितः पाठो वृत्तौ । । [७।३।७५] ष्ठिवुक्तमुचमां शिति-'क्लम्याचमां शिति' इत्य- १० [७।३।७७] इषगमियमां छ:-'इषुगमि' इत्यपपाठः । . [७।३।११७,११८,११६] इदुद्भ्यामौदच्च घेः-अत्र सूत्रत्रययोगविभागो भाष्ये। ॥ इति सप्तमोऽध्यायः॥ १. अत्र 'क्षमितिरहितः' रितिवमिति' इत्येव पाठो भाष्यानुगुण इति कथं निरधारि नागोजिनेति न ज्ञायते । २. अत्रतत्सूत्रस्य काशिकावृतिर्भाष्यप्रदीपं चावलोकनीयम् । . ३. 'कृपः' इति पाठो भाष्यकाराभिमत इति कथं विज्ञायि नागेशेनेति नोक्तम् । अपि च 'कलप इति' इत्यस्य को भाव इति न ज्ञायते । अत्र कदा- २० चित् 'अपपाठः' पद नष्टं स्यात् । द्रष्टव्यः- कृपो रो लः (८।२।१८) सूत्रविषयको लेखः। ४. कथमिमी पाठी भाष्यसम्मताविति नोक्तं नागेशेन । भाष्यप्रदीपोद्योते तु अत्र इडजनो: स्ध्वे च' इति पाठो भाष्य इत्युक्तम् ।। ५. पाने मुक् (७।२।८२) इतिसूत्रभाष्ये 'अतो येय इत्यत्र अकारग्रहणं २५ पञ्चमीनिर्दिष्टम्' इत्यस्य स्थाने 'अतो या इय इत्यत्र प्रकार:.......' इत्यपि पाठान्तरमुपलभ्यते । तदाश्रित्योक्तबचनं नागेशस्येति ज्ञेयम् । ६. मुद्रितायां काशिकावृत्तौ चकाररहित एब पाठ उपलभ्यते । ७. भाष्ये नागोजिना निर्दिष्ट एव पाठ उपलभ्यते। एतत्सूत्रभाष्यप्रदीपस्तदुद्योतश्च द्रष्टव्यः। ८. अत्रतत्सूत्रभाष्यप्रदीपस्तदुद्योतश्चावलोकनीयः । ६. अयं भाव:- 'डेराम्नद्याम्नीभ्य इदुद्भ्याम्' इत्येकयोग आसीत् । तस्य Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ [अथाष्टमोऽध्यायः] [८।१।६७] पूजनात् पूजितमनुदात्तम् -अत्र 'काष्ठादिभ्यः' इति प्रक्षिप्तम् ।' [८।११७४] नामन्त्रिते समानाधिकरणे, सामान्यवचनं विभाषितं ५ विशेषवचने -वृत्तौ तु 'सामान्यवचनम्' इत्यविधायः उत्तरसूत्रे 'बहुवचनम्' इति प्रक्षिप्तम् । [८।२।१८] कृपो रो ल:-'क्लप' इत्यपपाठः । [८।३।२७,२८,२९,३०,३१,३२ [नपरे नः], डस्सि घुट, नश्च, शि तुक्, ङ्णोः कुक्टुक् शरि, ङमो ह्रस्वादचि ङमुनित्यम्' [इति १० क्रमः] ।' - [८।३।६८ इत्यनन्तरम्] 'एति संज्ञायामगात्' इति 'नक्षत्राद्वा' इति च गणसूत्रे प्रक्षिप्ते । [८।३।११८] सदेः परस्य लिटि-'स्वञ्ज्योः ' इति प्रक्षिप्तम् । [८।४।१९] अनितेरन्तः-योगविभागो भाष्यकृतः । १५ [८।४।२८] 'उपसर्गाद् बहुलम्' इति भाष्यकृता भङ क्तः ।। भाष्यकृता योगविभागः कृतः । तेन डेराम्नद्यांनीभ्यः, इदुद्भ्याम्, प्रौदच्च घे.' इति सूत्रत्रयं निष्पन्नम् । 'प्रौदच्च घेः' इत्यत्र योगविभागो भाष्कृता निराकृतः । १. इह भाष्ये वार्तिकदर्शनात् । २. अत्र सामान्यवचनमिति पूर्वसूत्रे विधाय' इति युक्तः पाठो द्रष्टव्यः । ३: 'बहुवचनमिति वक्ष्यामि' इति भाष्ये दर्शनात् । ४. केनायमपपाठः स्वीकृत इति न ज्ञायते । ५. अत्र भाष्येऽनेनैव क्रमेण सूत्राणामुपादानात् । ६. सुषामादिगणे (८।३।६८) अनयोः सूत्रयोः पाठदर्शनात् । ७. अत्रैव भाष्ये वार्तिकदर्शनात् । ८. नैवात्र भाष्ये प्रत्यक्षं योगविभागो दर्शितः । ६. भाष्ये तु 'उपसर्गादनोत्परः' इति सूत्रपाठमुपादाय 'अनोत्परः' इत्यंशे तत्पुरुष बहुव्रीहौ चोभयथाऽपि दोषं प्रदर्श्य उक्तम् – 'एवं तहिं उपसर्गाद् .बहुलमिति वक्तव्यम्' इति । ८।४।२८। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/८ नागोजिभट्ट-पर्यालोचित भाष्य-सम्मत प्रष्टाध्यायी - पाठ ५७ [ ८/४/५१५२, ५३, ५४, ५५, ५६,५७,५८,५६,६०,६१,६२,६३ पाठक्रमः ] - [भाष्यपाठः ] [५१] दीर्घादाचार्याणाम् । [ ५२ ] अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः । ५२. झलां जश् झशि । [ ५३ ] वा पदान्तस्य । ५३. अम्यांसे चर्च । [ ५४ ] तोलि । ५४. खरि च [५५] उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य । [ ५६ ] भयो होऽन्यतरस्याम् । [ ५७ ] शरछोटि । [५८] झलां जश् झशि [ ५९ ] अभ्यासे चर्च । [६०] खरि च [६१] वाऽवसाने । [६२] प्रणोऽप्रगृह्यस्यानुनासिकः । [६३] हलो भ्रमां यमि लोपः । [वृत्तिपाठः ] ' ५१. दीर्घादाचार्याणाम् । . ५५. वाऽवसाने । ५६ श्रणोऽप्रगृह्यस्यानुनासिकः । ५७. अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः । 101 दीर्घादाचार्याणामित्यारभ्यान्यथा पाठो वृत्तौ । " ॥ इष्यष्टमोऽध्यायः ॥ ॥ इति नागोजिभट्टपर्यालोचित भाष्यसम्मताष्टाध्यायी पाठः समाप्तः ॥ त्रीणि सूत्रसहस्राणि नव सूत्रशतानि च । चतुःषष्टि च ( ३९६४) सूत्राणि कृतवान् पाणिनिः स्वयम् ॥ इतोऽग्रे हस्तलेखेऽयं पाठ उपलभ्यते— संवत् १८८५ चंत्रासिते अष्टम्यां तिथौ त्रिवि ( ? ) ५८. वा पदान्तस्य । ५६. तोलि । ६०. उदः स्थास्तम्भोःपूर्वस्य १५ ६१. झयो होऽन्यतरस्याम् । ६२. शरछोऽटि ।. ६३. हलो यमां यमि लोपः । १. अत्र वृत्तिपाठस्तु साक्षात् क्रमभेदपरिज्ञानायास्माभिरुद्धृतः । २. भाष्येऽस्मिन् प्रकरणे 'उद: स्थास्तम्भोः पूर्वस्य, शरछोऽटि, अभ्यासे चर्च, झरो झरि सवर्णे' इत्येवं क्रमेण व्याख्यानात् नागोजि भट्टेनायं भाष्यसूत्रक्रम १० ऊहितः । उक्तं च तेनैव प्रदीपोद्यते ( ८ १४/६१ ) ' भाष्येऽभ्यासे चर्च इत्यस्य परत्र पाठेन चर्त्वस्यैव परत्वेन तं प्रत्यस्यासिद्धत्वाभावादित्याहुः । वृत्त्युक्तः पाठस्नु चिन्त्य एव । २० २५ ३० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अष्टाध्यायी सम्बन्धी एक विशेष हस्तलेख • वाराणासेयविश्वविद्यालयस्य सरस्वतीभवने ३५७ संख्यायां निर्दिष्ट एकः सम्पूर्णाष्टाध्याय्या हस्तलेखो वर्तते । अस्मिन् हस्तलेखे ६३ पत्राणि सन्ति, बहुत्र नागोजिभट्टसम्मतः सूत्रपाठो दृश्यते । प्रादौ च प्रत्याहारसूत्राणि 'माहेश्वराणि' इति पाठो न दृश्यते । ग्रन्थान्ते च सूत्रगणनवं लिखिता उपलभ्यते भू१ पत्रि५ क्रिमि३, रष्ट८ दर्शन६ यमै २, क्ष्मा१ वह्नि३ षड्भिः६, शरानेह३ षड्भिः ६ रिपुः ५, स्मरायुध५ शरै५ पत्रि५, त्रि३ गौत्रै रपि दिङ नाथा६, ग्नि३ युगै४ गजा८, ग६ दहनैः३ रामः३, पदश्च क्रमादध्याया नवह नीभ७ नन्दह दहनैः३, सूत्राणि चाजीगणद पुरुषोत्तमगिरिणा स्वपठनार्थं शुभम । अत्र अङ्गानां वामतो गतिरिति न्यायेन प्रत्यध्यायं त्रिभिस्त्रिभिः पदै, सूत्रसंख्या निदर्शिता । तथाहि प्रथमाध्याये ३५१ पञ्चमाध्याये ५५५ द्वितीयाध्याये २६८ षष्ठाध्याये ६७३ तृतीयाध्याये ६३१ सप्तमोध्याये ८४३ चतुर्थाध्याये ५६३ अष्टमाध्याये ३६७ । इयं सूत्रगणना काशिकावृत्त्यनुसारं वर्तते । तत्र १-२-३-५ २० अध्यायानां सूत्रगणना शुद्धा वर्तते । ४-६-७-८ अध्यायानां सूत्रगण नायां संख्यापदानां व्यत्यासात् सूत्रसंख्या अशुद्धा समपद्यत । अत्रैवं शुद्धा संख्या ज्ञेयाअध्याय अशुद्धा संख्या शुद्धा संख्या त्रयोऽप्यङ्का अस्थाने ५६३ ६३५ ६७३ ७३६ ४३८ ३९७ ३७६ द्वितीयतृतीयावस्थाने अन्ते या कात्स्न्येन संख्या निदर्शिता, सा ३६७६ सम्पद्यते । प्रत्यध्यायं या संख्या निदर्शिता तत्राशुद्धी शोधयित्वा योगः ३५१+२६८+ ३० ६३१+६३५+५५५+७३६+४३८+३७६=४०१० संजायते । तदेवं प्रत्यध्यायसंख्यायोगोऽन्ते लिखितश्च सर्वयोग: परस्परं विरुध्यतः। ८४३ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा परिशिष्ट अनन्तराम-पर्यालोचित भाष्यसम्मत सूत्रपाठ इस ग्रन्थ के हस्तलेख की प्रतिलिपि भी श्री ओम्प्रकाशजी द्वारा ही हमें प्राप्त हुई थी। यह ग्रन्थ वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के सरस्वती-भवन में है। इसकी संख्या २०३९।८६ है । यह हस्तलेख ५ एकपत्रात्मक अर्थात् दो पृष्ठों का है । इसमें कहीं-कहीं पर चिह्न देकर लेखक ने टिप्पणियां दी हैं । इस ग्रन्थ का लेखनकाल अज्ञात है। इस लघु संकेतात्मक संग्रह में नागोजिभट्ट पर्यालोचित पाठ से कुछ भिन्नता वा वैशिष्ट्य है। यह दोनों पाठों की तुलना से व्यक्त होता है। अनन्तराम-पर्यालोचित-भाष्यसम्मतः सूत्रपाठः श्रीपाणिनिकात्यायनपतञ्जलिभ्यो नमः । ओम् । उनः ऊं' [१।१।१७] । समो गम्यूच्छिभ्याम् [१।३।२६] । प्रादय उपसर्गा-क्रियायोगे [ १।४।५८] ॥१॥ विभाषापपरि० [२।११११] ॥२॥ कृत्याः [३३१६५] । आसुयुवपिरपित्रपिचमश्च [३।१।१२६] ।' प्रत्यपिभ्यां ग्रहेः [३।१।११८] । अध्यायन्यायोद्यावसंहाराश्च [३॥३॥ १२२] ॥३॥ · टिड्ढाण-क्वरपः [४।१।१५] । ०कुसिदाना० [४।१।३७] । 'वृद्धस्य च पूजायाम्, यूनश्च कुत्सायाम्' इति द्वे वातिके [४।१।१६५ २० सूत्रानन्तरम् । लाक्षारोचनाट्ठक् [४।२।२] । कलेढक् इति वार्तिकम् [४।२।७ सूत्रानन्तरम्] । सास्मिन् पौर्णमासीति [४।२।२०] । ब्राह्मण-वाद्यन् [४।२।४१] । ग्रामजनबन्धुभ्यस्तल् [४।२।४२] । . १. कोष्ठान्तर्गतः पाठोऽस्मदीयः। २. अत्र सूत्रनिर्देशे पौर्वापर्यमभूत् । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास संज्ञायां कुलाला ० [ ४ | ३ | ११७,११८ एकं सूत्रम् ] । कौपिञ्जलहस्तिपदादण् इति कार्तिकम् + [४५३ | १३१ सूत्रानन्तरम् ] + प्राथर्वणिकस्येकलोपश्च । विभाषा विब्रधात् [ ४|४|१७ ] | सगर्भ - द्यन् [ ४| ४|११४ ] | वेशोयश प्रादेभंगाद्यखौ [४।४।१३१,१३२ एकं सूत्रम् ] ५ ॥४॥ दित्रिपूर्वादण् च इति वार्तिकम् [४|१ | ३५ सूत्रानन्तरम् ] । तदस्मिन् वृ-पदा दीयते' [ ५|१|४६ ] । तदस्य परिमाणं संख्यायः संज्ञासंघसू० [५।१।५६, ५७ एकं सूत्रम् ] । तदर्हति छेदादि० [ ५| १।६२,६३ एकं सूत्रम् ] । दण्डादिभ्यः [ ५।१।६४ ] । तस्य' दक्षि० [ ५|१| १० ९४ ] | प्रज्ञाश्रद्धावृत्तिभ्यो णः [ ५|२| १०१] । कृभ्वस्तियोगे संप० [218120] 11211 ह्वः सम्प्रसारणमभ्य० [६।१।३२] | अपस्पृशीर्तः [६।१।३५ ] । प्रचि शीर्षः इति वार्तिकम् [ ६ १ ६० सूत्रानन्तरम् ] । दीर्घात् पदान्ताद्वा [ ६।१।७३ ] | नान्तः पादम् प्रकृत्यान्तः पादम् इति पाठान्तरम् १५ [ ६।१।१११] । इन्द्रे [ ६ | १|१२० ] | प्लुतप्रगृह्या ग्रचि नित्यम् [६।१।१२१ ] | अभ्यासव्यवायेऽपि इति वार्तिकम् [६।१।१३१ सूत्रानन्तरम् ] | संपरिभ्यां करो० [ ६ |१| १३२ ] | विष्किरः शकुनौ 1 ग्रन्थकारकृताष्टिप्पण्यः + इदमपि वार्तिकमित्याहुः । तन्न कैयटविरोधात् । तेन हि २० कौपिञ्जलेत्यस्यापाणिनीयत्वादत्र सूत्रेऽण उपसंख्यानमित्युक्तम् । योगविभागस्तु अन्येभ्योऽपि इति वार्तिकसंग्रहायार्वाचीनः कृतः, न तु भाष्यारूढः । X अत्र योगविभागः 'आर्हादगोपुच्छ' [५।१११९] इति सूत्रभाष्ये स्पष्टः । २५ ३० १. किमत्र प्रतिपाद्यमिष्यत इति न ज्ञायते । २. तस्य च इति काशिकीयः पाठः चकारोऽत्र नेष्यते । ३. अत्रैव वृत्तश्च' इति वार्तिकदर्शनात् पाठोऽयं न भाष्यारूढः । द्र०— नागोजिपर्यालोचितः पाठः । यद्वात्र 'वृत्ति' पदं लेखकप्रमादात् पठितं स्यात् । ४. नागेशादयः । यद्यत्र नागेशस्यैव संकेत: स्यात् तर्ह्ययं ततोऽर्वाक्कालिक इति सुतरां सिद्धः । ५. एतत्सूत्रभाष्ये पटितस्यास्य संग्रहायेति भावः । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तराम-पर्यालोचित भाष्य-सम्मत सूत्र-पाठ वा [६।१।१४५] । पाश्चर्यमनित्ये' [६।१।१४२] । कारस्करो वृक्षः इति पारस्करादिस्थम् ' [६।१११५० सूत्रानन्तरम् ] । तद्धितस्य कितः [६।१।१५८,१५६ एकं सूत्रम्] । उदराश्वेषुषु क्षेपे [६।२।१०७] । प्रात्मनश्च [६।३।६] । स्वाङ्गाच्चेतः [६।३।३६] । प्रकृत्याशिषि [६।३।८२] । ग्रन्थान्तेऽधिके' च [६।३।७६] । घसिभसोर्हलि ५ [६।४।१००] । ल्यपि लघुपूर्वात्, पूर्वस्य इति पाठान्तरम् [६।४ ५६ ॥६।। ष्ठिवुक्लमुचमां शिति [७।३।७५] । इदुद्भ्यामौदच्च घेः [७।३। ११७,११८ एकं सूत्रम् ] ॥७॥ पूजनात् पूजितमनुदात्तम् [८।१।६७] । नामन्त्रिते समानाधि- १० करणे, सामान्यवचनं विभाषितं विशेषवचने [८।१।७३,७४] । कृपो रो लः [८।२।१८] । एति संज्ञायामगात्, नक्षत्राद्वा इति द्वे गणसूत्रे [८।३।६६।१००] । सदे: परस्य लिटि [८।३।११८] । प्रनिरन्त:“कायॆख० [८।४।५] । अनितेरन्तः [८।४।१६] । उपसर्गादनोत्परः [८।४।२७] । दीर्घादा०, अनुस्वा०, वा पदान्तस्य, तोलि, उदस्था०, १५ झयो०, शश्छो०, झलां जश्झ०, अभ्यासे, वावसाने, अणोऽप्रगृह्यस्यानु०, हलो यमा यमि लोप: [८।४।५१-६३ सूत्राणां क्रमभेदः] । अ अ [८।४।६७ [ ॥८॥ ॥ इत्यष्टाध्यायीसूत्राणि भाष्यसम्मतानि प्रतन्तरामपर्यालोचितानि । ग्रन्थकारकृताष्टिप्पण्यः: 'हलि च' इति पाणिनीयः पाठ इत्यत्रैव सूत्रे कैयटः । १. अत्र क्रमभेदनिदर्शने तात्पर्यम् ।- द्र-नागोजि भट्टपर्यालोचितः सूत्रपाठः। २. पारस्करप्रभृतीनि [६।१।१५१] गणान्तर्गते एते सूत्रे । ३. अन्यत्र 'ग्रन्थान्ताधिके च' पाठः। ४. सुषामादि [८।३।६८] गणे पठिते सूत्रे । ५. किमस्य प्रयोजनमिति न ज्ञायते । कदाचित् 'कार्य' पाठं निराकर्तुमयं प्रयत्न: स्यात् । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां परिशिष्ट मूल पाणिनीय-शिक्षा हम इस ग्रन्थ के प्रथम भाग के पृष्ठ २५५-२५६ पर लिख चुके हैं कि पाणिनि ने एक 'सूत्रात्मिका शिक्षा का प्रवचन किया था। यहां ५ उसी के विषय में संक्षेप से वर्णन करके उसका मूलपाठ प्रकाशित करते हैं। __ पाणिनीय शिक्षा के सम्प्रति दो प्रकार के पाठ मिलते हैं-एक सूत्रात्मक, और दूसरा श्लोकात्मक । सूत्रात्मक और श्लोकात्मक पाठ के भी लघु और वृद्ध दो-दो प्रकार के पाठ हैं। आधुनिक पाणिनीय वैयाकरणों में पाणिनीय शिक्षा का श्लोकात्मक पाठ ही प्रसिद्ध है, और वैदिक भी वेदाङ्ग अन्तर्गत श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा का ही पाठ करते हैं। श्लोकात्मक पाणिनीय शिक्षा के लघुपाठ में ३५ श्लोक, और वृद्धपाठ में ६० श्लोक हैं । लघुपाठ याजुष पाठ कहाता है, और वृद्धपाठ ऋक्पाठ ।। १५ सूत्रात्मक शिक्षा के भी लघु और वृद्ध दो पाठ हैं । श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वि० सं० १९३६ के मध्य में प्रयाग से पाणिनीय शिक्षा-सूत्रों का जो हस्तलेख प्राप्त किया था, वह पाठ लघुपाठ है। स्वामी दयानन्द सरस्वती को प्राप्त शिक्षासूत्र का हस्तलेख अन्त में टित था । अतः उसमें अष्टम प्रकरण का प्रथम सूत्र भी अपूर्ण ही २० है। मध्य में कहीं-कहीं पर लेखकप्रमाद से कुछ सूत्र छुटे हुए प्रतीत होते हैं । पाणिनीय शिक्षासूत्रों का जो पूर्ण पाठ हम छाप रहे हैं, वह वृद्धपाठ है । यह बात दोनों पाठों की तुलना से स्पष्ट हो जाती है। मल-पाठ--पाणिनीय शिक्षा के श्लोकात्मक और सूत्रात्मक जो दो प्रकार के पाठ मिलते है, उनमें पाणिनि-प्रोक्त मूलपाठ कौन सा है, २५ इसका अति संक्षिप्त विवेचन किया जाता है श्लोकात्मिका पाणिनीय शिक्षा का प्रथम श्लोक है Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाणिनीय शिक्षा 'अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा ।' इस वचन से स्पष्ट है कि इलोकात्मिका शिक्षा मूलतः पाणिनिप्रोक्त नहीं है । वह तो किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पाणिनीय मत के अनुसार बनाई गई है । श्लोकात्मिका पाणिनीय शिक्षा के प्रकाशनाम्नी टीका के रचयिता के मत में इसका प्रवक्ता पाणिनि का अनुज ५ आचार्य पिङ्गल है।' इस प्रकार ग्रन्थ के अन्तःसाक्ष्य और टीकाकार के साक्ष्य से सर्वथा स्पष्ट है कि श्लोकात्मिका पाणिनीय शिक्षा चाहे, उसका लघु याजुष पाठ हो, चाहे वृद्ध आर्च पाठ, दोनों ही मूलतः पाणिनि-प्रोक्त नहीं हैं । श्लोकात्मिका पाणिनीय शिक्षा का पाणिनि प्रोक्त मूल ग्रन्थ इनसे भिन्न है। हमारा मत है कि पाणिनीय श्लोका- १० त्मिका शिक्षा का आधार पाणिनीय सूत्रात्मिका शिक्षा है। श्लोकात्मिका पाणिनीय शिक्षा के पठन-पाठन में अधिक प्रयुक्त होने के कारण सूत्रात्मक पाठ लुप्त हो गया, हस्तलेख भी अप्राप्य हो गए । श्लोकात्मिका शिक्षा मूलतः पाणिनि-प्रोक्त नहीं है, इस तथ्य की ओर सबसे पूर्व इस युग में श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती का ध्यान २५ गया। उन्होंने मूलभूत पाणिनीय शिक्षा की प्राप्ति के लिए महान् प्रयत्न किया। अन्ततः वि० सं० १९३६ के मध्य में प्रयाग के एक ब्राह्मण के गृह से पाणिनीय शिक्षा-सूत्र का एक हस्तलेख प्राप्त किया। यद्यपि वह हस्तलेख भी अधरा था, अन्त के एक या दो पत्र नष्ट हो चुके थे, पुनरपि स्वामी दयानन्द की यह उपलब्धि शिक्षाशास्त्र के २० क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण थी। उन्होंने उपलब्ध शिक्षासूत्रों का आर्यभाषा व्याख्या सहित वि० सं० १९३६ के अन्त में वर्णोच्चारणशिक्षा के नाम से प्रकाशित किया। २५ १. ज्तेष्ठभ्रातृविहितो व्याकरणेऽनुजस्तत्र भवान् पिङ्गलाचार्यः तन्मत मनुभाव्य शिक्षां वक्तुप्रतिजीनीते-अय शिक्षामिति । २. आपिशल शिक्षा का भी एक श्लोकात्मक पाठ है। उसका प्रारम्भ का वचन है-अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि मतमापिशलेमुनेः। ___इस श्लोकात्मिका शिक्षा के १६ सूत्र उपलब्ध हुये थे। इन्हें भी डा० रघुवीर जी ने आपिशल शिक्षासूत्रों के पश्चात् छापा था। ३. इस विषय में जो अधिक जानना चाहें, वे हमारे ऋषि दयानन्द के ३० ग्रन्थों का इतिहास' ग्रन्थ में देखें। , Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती को प्राप्त हुए शिक्षासूत्रों का दूसरा हस्तलेख चिरकाल तक विद्वानों को उपलब्ध नहीं हुआ। इस कारण श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित शिक्षासूत्रों के पाणिनीयत्व में विद्वानों को शङ्का बनी ही रही । दैवयोग से श्री डा० रघवीरजी को अडियार (मद्रास) के पुस्तकालय से आपिशल शिक्षासूत्रों के दो हस्तलेख उपलब्ध हो गए। उन्होंने उनके साथ स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित शिक्षासूत्रों की तुलना करके स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित शिक्षासूत्रों के पाणिनीयत्व की स्थापना की । इस विषय में उन्होंने कुछ लेख भी लिखे । १० इसके पश्चात् सन् १९३८ में कलकत्ता विश्वविद्यालय से मनो मोहन घोष एम० ए० सम्पादित 'पाणिनीय शिक्षा' नामक एक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ। इसकी बृहद् भूमिका में मनोमोहन घोष ने सारा प्रयत्न इस बात की सिद्धि के लिए लगाया कि पाणिनीय शिक्षा का श्लोकात्मक पाठ ही पाणिनि द्वारा प्रोक्त है, स्वामी दयानन्द १५ सरस्वती द्वारा प्रकाशित सूत्रपाठ पाणिनीय नहीं है । इस प्रसंग में आपने डा० रघुवीर के लेख की आलोचना के साथ-साथ सूत्रात्मक पाठ की दयानन्द द्वारा कल्पित पाठ सिद्ध करने की भरपूर चेष्टा की। मनोमोहन घोष के उक्त भूमिकास्थ लेख की विस्तृत अालोचना हमने मल पाणिनीय शिक्षा इस शीर्षक से पटना की 'साहित्य' नाम्नी २० पत्रिका के सन् १९५६ अङ्क १ में प्रकाशित को। उसमें मनोमोहन घोष के सभी हेत्वाभासों का सप्रमाण निराकरण किया, पार श्लोकात्मिका शिक्षा को पाणिनीय मानने पर अष्टाध्यायी से जो विरोध आते हैं, उनका उल्लेख करके सूत्रात्मक पाठ का पाणिनीयत्व सिद्ध किया। जो पाठक इस विषय में विशेष रुचि रखते हैं, वे हमारा उक्त २५ लेख अवश्य पढ़ें। . प्रापिशल' और पाणिनीय शिक्षा पाणिनीय शिक्षा के सूत्र प्रापिशल शिक्षा के सूत्रों के साथ बहत साम्य रखते हैं। अत: आपिशल शिक्षासूत्रों की उपलब्धि पर यह १. प्रापिशल शिक्षा के लिए देखिए हमारे द्वारा सम्पादित शिक्षा सूत्राणि' २० संग्रह । इसमें चान्द्रशिक्षा का पाठ भी छापा है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/६ मूल पाणिनीय शिक्षा विचार करना अत्यन्त आवश्यक हो गया कि स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित शिक्षासूत्र पाणिनीय हैं, अथवा आपिशल। दोनों के सूत्रपाठों की तुलना से इतना तो स्पष्ट है कि दोनों का पाठ प्रायः समान है । परन्तु जहां परस्पर में वैषम्य है, वह प्रवक्तृ-भेद के कारण है, अथवा पाठान्तरमूलक है । यद्यपि कुछ वैषम्य पाठान्तरमूलक कहे ५ जा सकते हैं, पुनरपि कुछ पाठ ऐसे अवश्य हैं, जो प्रवक्तृभेद के कारण ही हैं । यथाआपिशाल पाठ पाणिनीय पाठ ईषद्विवृतकरणा ऊष्माणः। ईषद्विवृतकरणा ऊष्माणः । विवृतकरणा वा। विवृतकरणाः स्वराः। विवृतकरणाः स्वराः। पाणिनीय पाठ में ऊष्म वर्णों का पक्षान्तर में विवृतकरण प्रयत्न कहा है, वह आपिशल पाठ में नहीं है । पाणिनीय अष्टाध्यायी में एक सूत्र है-नाज्झली (१।१।१०) । इस सूत्र द्वारा पूर्व तुल्यास्यप्रयत्न सवर्णम् (१।११६) सूत्र से प्राप्त अचों और हलों की (अ इ ऋल की १५ क्रमशः ह श ष स के साथ) सवर्ण संज्ञा का निषेध किया है। उक्त हलों और अचों की सवर्ण संज्ञा तभी हो सकती है, यदि स्वरों और ऊष्मों के प्राभ्यन्तर प्रयत्न समान हों। दोनों के प्राभ्यन्तर प्रयत्न की समानता विवतकरणा वा इस पाणिनीय सूत्र से ही सिद्ध है। प्रापिशल शिक्षा में उक्त सूत्र न होने से अज्झलों की सवर्ण संज्ञा ही प्राप्त २० नहीं होती। इसके अतिरिक्त दोनों शिक्षासूत्रों के निम्न पाठ भी द्रष्टव्य हैं आपिशल पाठ . पाणिनीय (लघु) पाठ जमङणनाः स्वस्थाना अणनमाः स्वस्थाननासिकास्थानाः(१।१६)। नासिकास्थानाः (१२१)। । स्पर्शयमवर्णकारो .... (५१)। स्पर्शवणकरो ।। अन्तस्थवर्णकारो..... (५२)। अन्तस्थवर्णकरो.........। ऊष्मस्वरवर्णकारो..... (५३)। ऊष्मस्वरवर्णकरो...। इनमें से प्रथम उद्धरण में 'नमङणनाः' निर्देश उणादि जमन्ताड्डः (११११४) सूत्र में प्रयुक्त ञम् प्रत्याहार के अनुरूप अमङणनम् प्रत्या- ३० हारसूत्रानुसारी है । हमने अपने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास' Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास में सप्रमाण दर्शाया है कि पञ्चपादी उणादि प्रापिशलि-प्रोक्त है, और उसमें प्रयुक्त 'अम्' प्रत्याहार की दृष्टि से प्रत्याहारसूत्र में निर्दिष्ट अमङणन क्रम प्रापिशलि द्वारा उपज्ञात है, और यही क्रम उसके शिक्षासूत्र में भी है । पाणिनीय सूत्र में वर्गक्रम से पाठ है । अगले उद्धरणों में कार और कर का भेद है।' पाणिनीय कर पाठ पाणिनि के कृत्रो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु (३।२।२०) सूत्र के अनुसार है। कार पाठ में औत्सर्गिक अण् की कल्पना करनी पड़तो इन भेदों के अतिरिक्त पाणिनीय शिक्षा में प्रापिशल शिक्षा की १० अपेक्षा निम्न सूत्र अधिक हैं कण्ठ्यान् आस्यमात्रान् इत्येके ॥१७॥ दन्तमूलस्तु तवर्गः ।१।११॥ विवृतकरणा वा ।३।८॥ तीन सूत्रों का प्राधिक्य श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा १५ प्रकाशित, लघुपाठ से दर्शाया है । हम पूर्व कह चुके हैं कि उक्त हस्त. लेख में मध्य-मध्य में लेखकप्रमाद से कुछ सूत्र नष्ट हए हैं। इनके अतिरिक्त सप्तम प्रकरण में चार सूत्र ऐसे हैं, जो आपिशलीय शिक्षा में नहीं हैं (हमारे द्वारा प्रकाशित वृद्ध पाठ में भी नहीं हैं) । वृद्धपाठ में तो उक्त तीन सूत्रों के अतिरिक्त ७-८ सूत्र और ऐसे हैं, जो आपि२० शल शिक्षा में नहीं हैं। इस संक्षिप्त विवेचना से स्पष्ट है कि स्वामी दयानन्द द्वारा प्रकाशित शिक्षासूत्र पाणिनीय ही हैं । अब हम एक ऐसा प्रमाण भी उपस्थित करते हैं, जिससे स्पष्ट हो जाएगा कि ये सूत्र प्राचीन ग्रन्थकारों द्वारा पाणिनि के नाम से स्मत २५ भी हैं। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य की 'त्रिरत्न-भाष्य' नामक व्याख्या का रचयिता सोमयार्य लिखता है 'सन्ध्यक्षराणां ह्रस्वा न सन्ति इति पाणिनीयेऽपि । मैसूर संस्क०, पृष्ठ ४५० । इस प्रमाण की उपस्थिति में पाणिनीय शिक्षा-सूत्रों के सम्बन्ध ३० १. पाणिनि के शिक्षासूत्र के वृद्ध पाठ में 'कार' पाठ मिलता है। २. यही कल्पना पाणिनीय शिक्षा के वृद्ध पाठ 'कार' में भी करनी होगी। २. यहा १ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाणिनीय शिक्षा ६७ में कोई विवाद उठ ही नहीं सकता। अब हम उसके वृद्धपाठ के विषय में लिखते हैं। पाणिनीय शिक्षासूत्र का वृद्धपाठ-पाणिनीय शिक्षासूत्रों का जो वृद्धपाठ हम इस संस्करण में प्रकाशित कर रहे हैं, उसकी उपलब्धि की कथा भी विचित्र है । वह इस प्रकार है सन् १९३६ में 'दि इण्डियन रिसर्च इन्स्टीट्यूट' कलकत्ता से 'आपिशली शिक्षा' नाम से एक शिक्षा प्रकाशित हुई। पुस्तक के मुख पृष्ठ पर 'अध्यापक अमूल्यचरण विद्याभूषण कर्तृक सम्पादित और अनूदित' शब्द छपे हुए हैं । इसमें बंगला अनुवाद तो अवश्य है, परन्तु सम्पादन के नाम पर किया जानेवाला कोई भी प्रयत्न इसमें नहीं है। १० हां, तीन स्थानों पर कोष्ठक में प्रश्नचिह्न (?) अवश्य उपलब्ध होते हैं । अस्तु, हमारे लिए तो यह प्रयत्नाभाव भी वरदान-रूप सिद्ध हया । उक्त ग्रन्थ को देखने से विदित होता है कि मुद्रित ग्रन्थ उपलब्ध हस्तलेख की अक्षरशः प्रतिलिपिमात्र है, और वह लेखकप्रमाद से बहुत भ्रष्ट हो गया है। पाठ स्थान-स्थान पर खण्डित और आगे- १५ पीछे हो रहा है। हमारी दृष्टि में यह ग्रन्थ सन् १९५३ में आया था। इस पर 'प्रापिशली शिक्षा' नाम छपा होने से चिरकाल तक हमने इस पर ध्यान नहीं दिया। एक दिन विचार उत्पन्न हुग्रा क इसको आपिशल शिवा-सूत्र से मिलाया जाय । तब हमने सन् १९४९ में स्वयं मुद्रा- २० पित प्रापिशल शिक्षासूत्रों से मिलान करना प्रारम्भ किया। उस तुलना में अणनमा नासिकास्थानाः पाठ ने हमारा ध्यान विशेषरूप से आकृष्ट किया, क्योंकि यह वर्णानुक्रम पाणिनीय शिक्षा-सूत्र में है। आपिशल शिक्षा में जमङणनाः पाठ है । इसके पश्चात् तृतीय प्रकरण के विवृतकरणा वा सूत्र ने यह बोध कराया कि सम्भव है यह शिक्षा २५ पाणिनीय ही हो, आपिशल शिक्षा न हो। इस दृष्टि से सम्पूर्ण सत्रों की तुलना स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित शिक्षासूत्रों के साथ की, तब यह निश्चय हो गया कि जहां-जहां भी अमूल्यचरण विद्याभूषण द्वारा प्रकाशित शिक्षा का पाठ प्रापिशल शिक्षा से भिन्न है, वहां-वहां वह सर्वत्र स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित ३० शिक्षासूत्रों से मिलता है। इस तुलना से इतना निश्चय हो गया कि यह पाठ पाणिनीय शिक्षा का ही है, आपिशल शिक्षा का नहीं। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास इस पर विचार उत्पन्न हुआ कि श्री अमूल्यचरणजी ने इस ग्रन्थ के ऊपर प्रापिशली शिक्षा शीर्षक किस आधार पर छापा ? इसके लिए हमने उनकी भूमिका पढ़ी । उसमें उन्होंने इस हस्तलेख के सम्बन्ध में कहीं पर भी नहीं लिखा कि कोश के आदि वा अन्त में 'आपिशली शिक्षा' नाम का उल्लेख है । प्रतीत होता है कि श्री मूल्य चरणजी ने अष्टम प्रकरण के ६८ स एवमापिशलेः पञ्चदशभेदाख्या वर्णधर्मा भवन्ति ||८|| सूत्र में आपिशलि नाम देखकर ग्रन्थ के आद्यन्त में 'पिशली 'शिक्षा' का नाम जोड़ दिया । १० 1 अमुल्यचरणजी द्वारा प्रकाशित पाठ अत्यन्त भ्रष्ट है । केवल उसी के आधार पर उस ग्रन्थ का सम्पादन कठिन है । सम्भवत: इसी कारण अमूल्यचरणजी ने हस्तलेख के अनुरूप ही उसे यथातथरूप में छाप दिया । इससे यह भी प्रतीत होता है कि उन्हें डा० रघुवीरजी द्वारा प्रकाशित 'ग्रापिशल शिक्षा,' गौर स्वामी दयानन्द सरस्वती १५ द्वारा प्रकाशित 'पाणिनीय शिक्षा' का ज्ञान नहीं था, अन्यथा वे उनकी सहायता से ग्रन्थ का अच्छा सम्पादन कर सकते थे । में हमने उक्त दोनों शिक्षासूत्रों के आधार पर, तथा विविध ग्रन्थों उद्धृत सूत्रों के साहाय्य से इस अमूल्य निधि का सम्पादन किया हैं। जब हमने इस ग्रन्थ के पाठ का सम्पादन कर लिया, तब इस पाठ २० और स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित पाठ की तुलना से विदित हुआ कि हमारे द्वारा सम्पादित शिक्षा-पाठ वृद्धपाठ है, और स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित लघुपाठ हैं । अनेक प्राचीन ग्रन्थों के वृद्ध और लघु पाठ उपलब्ध होते हैं । पाणिनि के सूत्रपाठ धातुपाठ गणपाठ उणादिपाठ सभी के लघुपाठ और वृद्ध पाठ हैं ।" २५ इसी प्रकार उसकी सूत्रात्मिका शिक्षा के भी वृद्ध और लघु पाठ हों, तो आश्चर्य ही क्या है । प्राचीन परम्परा के अनुसार वृद्ध और लघु दोनों प्रकार के पाठ एक ही प्राचार्य द्वारा विभिन्न प्रकार से प्रवचन ' के कारण उत्पन्न हुए हैं। 1 १. इन पाठों के विषय में हमारे "संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास ३० के तत्तत् प्रकरण देखिए । २. प्राचीन आचार्य शास्त्रीय ग्रन्थ लिखा नहीं करते थे, अपितु पढ़ाया करते थे, अतः वे प्रोक्त कहाते थे । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... मूल पाणिनीय शिक्षा ६६ अब हम पाणिनीय शिक्षा के दोनों पाठों की कुछ तुलना उपस्थित करते हैं लघु-पाठ .. . वृद्ध-पाठ [वर्णास्] त्रिषष्टिः स्थानकरणप्रयत्नेभ्यो वर्णास्त्रि षष्टिः । ४। . चतुःषष्टिरित्येके।५। [इति] संयुक्ता वर्णाः ।१।२४॥ आभ्यन्तरस्तावत् स्वस्थान प्राभ्यन्तरस्तावत्।३।४॥ तेभ्य ए प्रो विवृततरौ। ३९॥ ताभ्यामै प्रौ। ३।१०॥ ११ ताभ्यामाकारः । ३॥११॥ कादयो मावसानाः स्पर्शाः ।४।८।। यादयोऽन्तस्थाः । ४१९ ॥ अवर्णो ह्रस्वदीर्घप्लुतत्वाच्च एवं व्याख्याने वृत्तिकाराः पठन्तित्रैस्वर्योपनयेन चानुनासिक्य- अष्टादश-प्रभेदमवर्णकुलमिति । १५ भेदाच्च संख्यातोऽष्टादशात्मकः । तत्कथमुक्तम्-ह्रस्वदीर्घप्लुत त्वाच्च स्वर्योपनयेन च। आनुनासिक्यभेदाच्च संख्यातोऽष्टादशात्मकः । ६।१२॥ उत्साहः प्रयत्नः । ७६ ॥ २० स्पृष्टतादिवर्णगुणः । ७७ ॥ इन उद्धरणों के विपरीत लघुपाठ में कुछ ऐसे पाठ भी हैं, जो वृद्धपाठ में लघुरूप में हैं, अथवा नहीं हैं। यथालघुपाठ वृद्धपाठ द्वे द्वे वर्णे सन्ध्यक्षराणामारम्भके द्विवर्णानि सन्ध्यक्षराणि २५ भवत इति। सप्तम प्रकरण के निम्न २-५ सूत्र वृद्धपाठ में नहीं हैंतत्रते कौशिकीयाः श्लोकाःसर्वान्तेऽयोगवाहत्वाद् विसर्गादिरिहाष्टकः । प्रकार उच्चारणार्थो व्यञ्जनेष्वनुबध्यते ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कपयोः कपकारौ च तद्वर्गीयाश्रयत्वतः । पलक्क्नी चख्ख्नतुर्जग्मिर्जग्घ्नुरित्यत्र यद् वपुः ॥ नासिक्येनोक्तं कादीनां त इमेऽयमाः । तेषामुकारः संस्थानवर्गीयलक्षकः ॥ ५ लघु पाठ में सर्वत्र आवश्यक नहीं कि उस पाठ में वृद्धपाठ की अपेक्षा लघुत्व ही हो। समूहावलम्बन से लघुत्व और वृद्धत्व देखा जाता है । लघुपाठ के सप्तम प्रकरण के जो सूत्र उद्धृत किए हैं, उन के विषय में यह भी सम्भावना हो सकती है कि लघुपाठ के किसी हस्तलेख में ये श्लोक किसी पाठक ने ग्रन्थान्तर से ग्रन्थ के प्रान्त १० (हाशिये) पर लिखे हों, और उत्तरकाल के प्रतिलिपिकर्ता ने उन्हें छूटा हुआ पाठ मानकर मूल में सन्निविष्ट कर दिया हो। - अतः जब तक लघुपाठ का अन्य हस्तलेख उपलब्ध न हो जाए, कुछ समस्याएं बनी ही रहेंगी। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पाणिनीय शिक्षा वृद्ध-पाठः १. आकाशवायुप्रभवः शरीरात् समुच्चरन् वक्त्रमुपैति नादः । स्थानान्तरेषु प्रविभज्यमानो वर्णत्वमागच्छति यः स शब्दः । २. तमक्षरं ब्रह्म परं पवित्रं गुहाशयं सम्यगुशन्ति विप्राः । स श्रेयसा चाभ्युदयेन चैव सम्यक् प्रयुक्तः पुरुषं युनक्ति ॥ ३. स्थानमिदं करणमिदं प्रयत्न एष द्विधाऽनिलः । स्थानं पीडयति, वृत्तिकारः प्रक्रम एषोऽथ नाभितलात् ॥ ४. स्थानकरणप्रयत्नपरेभ्यो वर्णास्त्रिषष्टिः । ५. चतुःषष्टिरित्येके । ' ६. तत्र वर्णानां केषां किं स्थानं किं करणं प्रयत्नश्च ते, द्विधा विभजते ( ? ) । लघु-पाठः १. आकाशवायुप्रभवः शरीरात् समुच्चरन् वक्त्रमुपैति नादः । स्थानान्तरेषु प्रविभज्यमानो वर्णत्वमागच्छति यः स शब्दः । २. तमक्षरं ब्रह्म परं पवित्रं ' गुहाशयं सम्यगुशन्ति विप्राः । स श्रेयसा चाभ्युदयेन चैव सम्यक् प्रयुक्तः पुरुषं युनक्ति ॥ १० ३. [वर्णास्] त्रिषष्टिः । ४. स्थानमिदं करणमिदं १. तंत्र स्थानं तावत् । २. अकुहविसर्जनीयाः कण्ठ्याः ।' १ - स्थान - प्रकरणम् प्रयत्न एष द्विधाऽनिलः । स्थानं पीडयति, वृत्तिकारः प्रक्रम एषोऽथ नाभितलात् ॥ १५ १. कुहविसर्जनीयाः कण्ठ्याः । वर्णाः शम्भुम स्थिताः १. तुलना कार्या - त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा (मता:) इत्यर्वाचीनायां पाणिनीयशिक्षानाम्ना प्रसिद्धायां शिक्षायाम् । ५ २. उद्धृतं न्यासे | ( प्रत्या० सूत्र ५, पृष्ठ २२; ११११६, पृष्ठ ५८ ), पदमञ्जर्यां (१।१।६, पृष्ठ ५८) च । २५ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वृद्ध-पाठः लघु-पाठः। ३. हविसर्जनीयावुरस्यावेकेषाम्। २. हविसर्जनीयावुरस्यावेकेषाम् । ४. जिह्वामूलीयो जिह्वयः। ३. जिह्वामूलीयो जिह्वयः । ५. कवर्गावर्णानुस्वारजिह्वा- ४. कवर्ग ऋवर्णश्च जिह्वयः । मूलीया जिह्वया एकेषाम् । ६. सर्वमुखस्थानमवर्णमित्येके । ५. सर्वमुखस्थानमवर्गमित्येके । ७. कण्ठ्यानास्यमात्रानित्येके। ६. कण्ठयानास्यमात्रानित्येके । ८. इचुयशास्तालव्याः। ७. इचुयशास्तालव्याः । ६. ऋटुरषा मूर्धन्याः । ८. ऋटुरषा मूर्धन्याः । १० १०. रेफो दन्तमूलीय एकेषाम। १. रेफो दन्तमूलीय एकेषाम् । ११. दन्तमूलस्तु तवर्गः । १०. दन्तमूलस्तु तवर्गः । १२. लुतुलसा दन्त्याः । .११. लुतुलसा दन्त्याः । १३. वकारो दन्त्योष्ठ्यः । १२. वकारो दन्त्योष्ठयः। १४. सृक्किणीस्थानमेकेषाम् । १३. सृक्किणीस्थानमेकेषाम् । १५ १५. उपूपध्मानीया प्रोष्ठ्याः । १४. उपूपध्मानीया प्रोष्ठयाः । १६. अनुस्वारयमा नासिक्याः ।। १५. अनुस्वारयमा नासिक्याः । १७. कण्ठयनासिक्यमनुस्वारमेके। १६. कण्ठयनासिक्यमनुस्वारमेके । १८. यमाश्च नासिक्यजिह्वा- १७. यमाश्च नासिक्यजिह्वामूलीया एकेषाम् । मूलीया एकेषाम् । २० १९. ए ऐ कण्ठतालव्यौ । १८. एदैतौ कण्ठयतालव्यौ । १. तुलना कार्या-सर्वमुखस्थानमवर्णमेके इच्छन्ति । महाभाष्य १।१६।। २. उद्धृतं न्यासे (प्रत्या० सूत्र ५, पृष्ठ २२; १।१६, पृष्ठ ५८); पदमञ्जयाँ (१।१।६ पृष्ठ ५८); न्यायमञ्जयां (पृष्ठ २०५) च।। ३. उद्धृतं न्यासे (प्रत्या० सू० ५ पृष्ठ २०, २२; १।१।६, पृष्ठ ५८) २५ पदमजल् (१।१।६, पृष्ठ ५८) च। ४. उद्धृतं न्यासे (प्रत्या० ५, पृष्ठ २२; ११११६, पृष्ठ १५); पदमज(१३११६, पृष्ठ ५८) च । ५. उद्धृतं त्यासे (प्रत्या० ५, पृष्ठ २२; ११११६, पृष्ठ ५८); पदमञ्जयां (१।१।६, पृष्ठ ५८)। ६. उद्धृतं न्यासे (प्रत्या० ५, पृष्ठ २५; ११११६, पृष्ठ ५६) । ७. उद्धृतं न्यासे (१।२।६, पृष्ठ ५८; ११११४८, पृष्ठ ९२); पदमजाँ (१।११६, पृष्ठ ५८) च । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/१० . मूल पाणिनीय शिक्षा स्थाना:। वृद्धपाठः लघुपाठः २०. ो ौ कण्ठोष्ठयो।' १६. प्रोदौतौ कण्ठ्योष्ठ्यौ । २१. ङत्रणनमाः स्वस्थाननासिका- २०. ङञणनमाः स्वस्थाननासिका स्थानाः। २२. द्विवर्णानि सन्ध्यक्षराणि । २१. द्वे द्वे वर्णे सन्ध्यक्षराणामा- ५ रम्भके भवत इति । २३. सरेफ ऋवर्णः ।। २२. सरेफ ऋवर्णः। .. २४. [इति] संयुक्ताः वर्णाः । २५. एवमेतानि स्थानानि । . २-करण-प्रकरणम् १. करणमपि । २. जिह्वयतालव्यमूर्धन्यदन्त्यानां १. जिह्वयतालव्यमूर्धन्यदन्त्यानां जिह्वा करणम् । जिह्वा करणम् । . ३. जिह्वामूलेन जिह्वयानाम् । २. जिह्वामूलेन ' जिह्वयानाम् ।। ४. जिह्वामध्येन तालव्यानाम्। ३. जिह्वामध्येन तालव्यानाम् । १५ ५. जिह्वोपाग्रेण मूर्धन्यानाम् । ४. जिह्वोपाग्रेण मूर्धन्यानाम् । ६. जिह्वाग्राधः करणं वा। ५. जिह्वाग्राधः करणं वा । ७. जिह्वाग्रेण दन्त्यानाम्। ६. जिह्वाग्रेण दन्त्यानाम् । ८. शेषाः स्वस्थानकरणाः ।। ६. इत्येतत् करणम् । ७. इत्येतदन्तःकरणम् । २० ३- अन्तःमयत्न-प्रकरणम् १. प्रयत्नोऽपि द्विविधः । १. प्रयत्नोऽपि द्विविधः । २. आभ्यन्तरो बाह्यश्च । २. पाभ्यन्तरो बाह्यश्च। . . ३. स्वस्थाने आभ्यन्तरस्तावत् । ३. प्राभ्यन्तरस्तावत् । १. उद्धृतं न्यासे (प्रत्या० ५, पृष्ठ २०; १।१।६, पृष्ठ ५८; १३१४८, .. पृष्ठ ६२); पदमञ्जयाँ (१।११६, पृष्ठ ५८) च ।। २. द्र०-येषां दर्शनमर्धमात्रा कालो रेफ ऋकारेऽस्तीति तन्मतेन......। येषामपि दर्शनं मात्राचतुर्थभागो रेफ ऋकार इति........। महाभाष्यप्रदीपे पा४१ कैयट: । अत्रापिशलशिक्षायामस्मिन् सूत्रे निर्दिष्टा टिप्पण्यपि द्रष्टव्या। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वृद्धपाठः लघुपाठः ४. स्पृष्टकरणाः स्पर्शाः ।' ४. स्पृष्टकरणाः स्पर्शाः। ५. ईषत्स्पृष्टकरणा अन्तस्थाः। ५. ईषत्स्पृष्टकरणा अन्तस्थाः । ६. ईषद्विवतकरणा ऊष्माणः । ६. ईषद्विवृतकरणा ऊष्माणः । ७. विवृतकरणा वा । .. ७. विवृतकरणा वा । .. ८. विवृतकरणाः स्वराः। ८. विवृतकरणाः स्वराः । ६. तेभ्य ए प्रो विवृततरौ । १०. ताभ्यामै प्रौ। ११. ताभ्यामकारः । १० १२. संवृतस्त्वकारः। ६. संवतस्त्वकारः । .. १३. इत्येषोऽन्तःप्रयत्नः। , १०. इत्येषोऽन्तःप्रयत्नः । ४–बाह्यप्रयत्न-प्रकरणम् १. अथ बाह्याः प्रयत्नाः । १. अथ बाह्याः प्रयत्नाः । २. वर्गाणां प्रथमद्वितीयाः शष- २. वर्गाणां प्रथमद्वितीयाः शषस१५ । सविसर्जनीयजिह्वामूलीयोप- विसर्जनीयजिह्वामूलीयो.:. ध्मानीया यमौ च प्रथम- पध्मानीया यमौ च प्रथम द्वितीयौ विवृतकण्ठाः श्वासा- द्वितीयौ विवृतकण्ठाः श्वासानुप्रदाना अघोषाः । नुप्रदानाश्चाघोषाः ।। १. उद्धृतं न्यासे (१।१।६, पृष्ठ ५६); पदमजल् (१।१।६, पृष्ठ ५७) च । २. उद्धृत न्यासे (१।१।६, पृष्ठ ५६) पदमञ्जर्यां; (१।१।६, पृष्ठ ५७) च । ३. उद्धृतं न्यासे (प्रत्या० सूत्र १, पृष्ठ ८) पदमञ्जर्यां (प्रत्या०१, पृष्ठ १८) च। ४. उद्धृतं न्यासे (प्रत्या० १,पृष्ठ ८)पदमञ्जर्यां (प्रत्या० १,पृष्ठ १८)च । ५. उद्धृतं पदमर्याम् (प्रत्या० १, पृष्ठ १८); न्यासे तु 'ताभ्यामपि २५ ऐ औ' इत्येवं पाठः।। ६. ताभ्यामप्याकारः' इत्येवं न्यासे (प्रत्या० १; पृष्ठ ८); पदमजा (प्रत्या० १, पृष्ठ १८) च पाठः। ७. संवृतोऽकारः, इत्येवं न्यासे (प्रत्या० १, पृष्ठ ८); पदमचर्या (प्रत्या० १, पृष्ठ १८) च पाठः । ३०८. उद्धृतं न्यासे (१३१६, पृष्ठ ५७; ११११५०, पृष्ठ ८५); पदमजयी (१।१।६, पृष्ठ ५७) च। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल पाणिनीय शिक्षा, वृद्धपाठः लघुपाठः ३. वर्गयमानां प्रथमा अल्पप्राणा ३. एके अल्पप्राणा इतरे महा- . इतरे सर्वे महाप्राणाः।' प्राणाः । . ४. वर्गाणां तृतीयचतुर्था अन्तस्था ४. वर्गाणां तृतीयचतुर्था अन्त-.. हकारानुस्वारौ यमौ च तृतीय स्था हकारानुस्वारौ यमौ च ५ चतुर्थी नासिक्याश्च संवृत- तृतीयचतुथ नासिक्याश्च .. कण्ठा नादानुप्रदाना घोष- संवृतंकण्ठा नादानुप्रदाना वन्तश्च । घोषवन्तश्च । ..... ५. वर्गयमानां तृतीया अन्तस्था- ५. [एकेऽन्तस्थाश्चाल्पप्राणा श्चाल्पप्राणा इतरे सर्वे महा- . इतरे सर्वे महाप्राणाः]। १० प्राणाः। ६. यथा तृतीयास्तथा पञ्चमाः। ६. यथा तृतीयास्तथा पञ्चमाः। ७. आनुनासिक्यमेषामधिको गुण: ।। ७. प्रानुनासिक्यमेषामधिको ८. कादयो मावसानाः स्पर्शाः ।' गुणः । ६. यादयोऽन्तस्थाः । १०. शादय उष्माणः । .....: शादय उष्माणः ।। १. 'वर्गयमानां प्रथमे प्रथमेऽल्पप्राणा इतरे महाप्राणाः' इत्येवं पदमञ्जर्यां (१।१।६, पृष्ठ ५७); न्यासे (वय॑यमानां' पाठा० १।१।६) पृष्ठ ५७) च पश्यते । २. उद्धृतं न्यासे (प्रत्या० ५, पृष्ठ २५, १।१।६, पृष्ठ ५७; ११११५०, पृष्ठ ८५) पदमञ्जयाँ (१।१।६, पृष्ठ ५७) च । पदमाँ न्यासे (१।१।६, २० पृष्ठ ५७); उद्धरणे नासिकयाश्च' पदं नास्ति)। . ३. उद्धृतं न्यासे (१।३।६, पृष्ठ ५७; १।११५०, पृष्ठ ६५ पूर्वोद्धरणे . 'वर्य' पाठः); पदमञ्जयाँ (१३१०६, पृष्ठ ५८-सर्वे' पर्दै नास्ति) च। ४. उद्धृतं न्यासे (प्रत्या० ५, पृष्ठ २५; १।१।६, पृष्ठः ५७), पदमर्जयाँ (१।१।६, पृष्ठ ५८.) च। ८ .. ..... .. २५ ५. उद्धृतं न्यासे (१।१।६ पृष्ठ ५७); पदमञ्जयाँ (१।१।९, पृष्ठ ५८)च । ६. उद्धृतं न्यासे (१।१।६, पृष्ठ ५७) ; पदमजल् (१।१।६,पृष्ठ ५७) च । ७. न्यासे (१।१।६, पृष्ठ ५७); पदमञ्जर्यां (१।१।६, पृष्ठ ५७) च 'यरलवा अन्तस्थाः' इत्येवं पठ्यते, सोऽर्थतोऽनुवादो द्रष्टव्यः । ८. उद्धृतं न्यासे (१।११५० पृष्ठ ६६); पदमञ्जर्यां (१।१।५०, पृष्ठ ६७) ३० च । यत्तु न्यासे (१।१।६, पृष्ठ ५७); पदमञ्जर्यां (१।१।६, पृष्ठ ५७) च । 'शषसहा ऊष्माणः' इत्येवं पाठ उपलभ्यते; सोऽर्थतोऽनुवादो द्रष्टव्यः । . Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वृद्धपाठः लघुपाठः ११. सस्थानेन द्वितीयाः। ६. [स] स्थानेन द्वितीयाः। १२. हकारेण चतुर्थाः। १०. हकारेण चतुर्थाः । १३. इत्येष बाह्यः प्रयत्नः। ५-स्थानपीडन-प्रकरणम् १: तत्र स्पर्शयमवर्णकारो वायु- १. तत्र स्पर्शयमवर्णकरो वायु रयःपिण्डवत् स्थानमभिपीड- रयःपिण्डवत् स्थानमभियति । पीडयति । २. अन्तस्थवर्णकारो वायुर्दारु- २. अन्तस्थवर्णकरो वायुर्दारु१० पिण्डवत् । पिण्डवत् । ३. ऊष्मस्वरवर्णकारो वायुरूर्णा- ३. ऊष्मस्वरवर्णकरो वायुरूर्णा पिण्डवत् । ४. उक्ताः स्थानकरणप्रयत्नाः । ६-वृत्तिकार-प्रकरणम् १५ १. एवं व्याख्याने . वृत्तिकाराः पठन्ति-अष्टादशप्रभेदमवनकुलमिति । तत्कथमुक्तम ? २. ह्रस्वदीर्घप्लुतत्वाच्च १. अवर्णो ह्रस्वदीर्घप्लतत्वाच्च त्रैस्वोपनयेन च। त्रैस्वर्योपनयेन चानुनासिक्यआनुनासिक्यभेदाच्च संख्यातो. भेदाच्च संख्यातोऽष्टादशाऽष्टादशात्मकः ॥इति। त्मकः। ३. एवमिवर्णादयः। . २. एवमिवर्णादयः । ४. लवर्णस्य दीर्घा न सन्ति । ३. लवर्णस्य दीर्घा न सन्ति । : . ५. तं द्वादशप्रभेदमाचक्षते। ४. तं द्वादशभेदमाचक्षते। पिण्डवत्। २५ १. उद्धृतं न्यासे (१।१।५०, पृष्ठ ६६, ६७); पदमजयाँ (११११५० पृष्ठ ६७) च। २. उद्धृतं न्यासे (१२११५०; पृष्ठ ६६, ६७); पदमञ्जयाँ (१।११५०, पृष्ठ १७) च। ३. उद्धृतं काशिकायाम् (१।११६) । ४. उद्धृतं काशिकायाम् (१।१।६)। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलपाणिनीय शिक्षा वृद्धपाठः लघुपाठः ६. यदृच्छाशब्देऽशक्तिचानुकरणे ५. यदृच्छाशब्देऽशक्तिजानुकरणे वा यदां दीर्घाः स्युस्तदाऽष्टादशभेदं ब्रुवते कलुपक इति । ६. सन्ध्यक्षराणां सन्ति । ७. तान्यपि द्वादशप्रभेदानि । वा यदा दीर्घाः स्युस्तदाऽष्ट'दशप्रभेदं ब्रुवते क्लृपक इति । ७. सन्ध्यक्षराणां सन्ति ।' ह्रस्वा न ७७ ह्रस्वान ८. तान्यपि द्वादशप्रभेदानि ।" ३. छन्दोगानां सात्यमुग्रिराणाय नीया अर्धमेकारमर्धमोकारं [च] पठन्ति । " १०. तेषामष्टादश प्रभेदानि । ११. अन्तस्थाद्विप्रभेदा रेफवर्जिताः ८. अन्तस्था द्विप्रभेदा रेफवर्जिसानुनासिका निरनुनासिका ताः सानुनासिका निरनुनासिकाश्च । श्च । - प्रक्रम-प्रकरणम् १५ १२. रेफोष्मणां सवर्णा न सन्ति । ६. रेफोष्मणां सवर्णा न सन्ति । १३. वर्यो वर्येण सवर्णः ।' १०. वय वर्येण सवर्णः । १० १. एष क्रमो वर्णानाम् । १. एष क्रम वर्णानाम् । २. तत्रैषां स्थानकरण प्रयत्नानां २. तत्रैते कौशिकीयाः श्लोकाः । २० कथं प्रसिद्धिरित्युच्यते । १. उद्धृतं काशिकायाम् (१।१1९ ) । 'पाणिनीयेऽपि' इत्येवं कृत्वोद्धृतः । तैत्तिरीय प्रतिशाख्यस्य त्रिरत्नभाष्ये ( मैसूर सं० पृ० ४५० ) । २. उद्धृतं काशिकायाम् (१।१ ९ ) । ३. तुलना कार्या— ननु च भोश्छन्दोगानां सात्यमुग्रिराणायनीया अर्धमे २५ कारमर्धमोकारं चाधीयते इति । महाभाष्ये प्रत्या० ३; १|१|४७ सूत्रे च | 1 ४. स्वल्पपाठान्तरेणोद्धृतं काशिकायाम् (१।१।६ ) ; पदमञ्जय ( प्रत्या० ६, पृष्ठ ३३) च । . ५. उद्धृतं महाभाष्ये (प्रत्या० ५ ) ; काशिकायां ( १ । १ ६ ) ; पदमञ्जय ( प्रत्या० ५ ) ; न्यासे ( प्रत्या० ५ ) च । ३० ६. उद्धृतं महाभाष्यदीपिकायां (पृष्ठ १८४ हस्त० ) काशिकायां (१।१।९) च Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० संस्कृत व्यकिरण-शास्त्र का इतिहास वद्धपाठः ... लघुपाठः ३. सर्वान्तेऽयोगवाहत्वाद् विसर्गादिरिहाष्टकः । प्रकार उच्चारणार्थो व्यञ्जनेष्वनुबध्यते ॥ ४. क-पयोकपकारौ च तद्वर्गीयाश्रयत्वतः। पलिक्नी चख्नतुर्जग्मिजघ्नुरित्यत्र यद्वपुः ॥ ५. नासिक्येनोक्तं कादीनां त इमेऽयमाः । तेषामुकारः संस्थान वर्गीय लक्षकः । ६. उक्ताः स्थानकरणप्रयलाः । १५ ३. इह यत्र स्थाने वर्णा उप- ७. इह यत्र स्थाने वर्णा उप लभ्यन्ते तत् स्थानम् । लभ्यन्ते तत् स्थानम् । ४. येन निवृत्यन्ते तत् करणम् । ८. येन निर्वत्यन्ते तत् करणम् । ५. प्रयतनं प्रयत्नः ।' ६. प्रयतनं प्रयत्नः । ६. उत्साह प्रयत्नः। २०. ७. स्पृष्टतादि वर्गगुणः । ८-नाभितल-प्रकरणम् १. 'तत्र नाभिप्रदेशात् प्रयत्न- १. तत्र नाभिप्रदेशात् प्रयत्न प्रेरितः प्राणो', नाभिवायु प्रेरितः प्राणो नाम वायु रूद्धमाक्रामन्नुरप्रादीनां स्था- रूद्धमाक्रामन्नुरादीनां २५ : नानामन्यतमस्मिन् स्थाने स्थानानामन्यतमस्मिन् स्थाने १. उद्धृतं महाभाष्ये (१।१।६) । २. न्यासे (१३१६, पृष्ठ ५६, ५७). प्रस्य प्रकरणस्य १-२३ सुत्राण्युद्धृतानि । ३. प्राणो नाम - ऊर्ध्वमाक्रमन्नुर:प्रभृतीनामन्यतस्मिन्-न्यासे । द्रष्टव्य.: मत्रास्यैव प्रकरणस्याष्टमे चतुर्दशे च सूत्रे नाभिपदम्। लघुपाठे तु 'प्राणो नाम' इत्येव पठ्यते । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मूल पाणिनीय शिक्षा : बुद्धपाठः लघुपाठ प्रयत्नेन विधार्यते । विधार्य- प्रयत्नेन विधार्यते । [इति माणः सोऽपि तत्स्थानानि ऽने ग्रन्थपातः] . विहन्ति । तस्मात् स्थानाभिघातार ध्वनिरुत्पद्यत [इति पाणिनीय शिक्षा- ५ .. आकाशे, सा वर्णश्रुतिः । स सूत्राणां लघुपाठः॥]..... वर्णस्यात्मलाभः। २. तत्र वर्णानामुत्पद्यमाने' यदा स्थानकरणप्रयत्नपर्यन्तं परस्परं स्पृशति' सा स्पृष्टता। ३. यदेषत स्पशति सा ईषतस्पष्टता। . . १० ४. यदा दूरेण स्पृशति सा विवृता'॥ ५. यदा सामीप्येन स्पृशति सा संवृता।' ६. एषोऽन्तः प्रयत्नः ।। ७. अथ बाह्यः प्रयत्नः । ८. स एवेदानीं प्राणो नाभिवायुरू ज़माक्रम्य मूनि प्रतिहते" १५ निवृत्तः तदा कोष्ठे संहन्यमाने" गलबिलस्य संवृतत्वात् संवारो नाम वर्णधर्मो जायते, विवृतत्वाद् विवारः । ६. तो संवारविवारौ।४ १. स विधार्यमाणः स्थानमभिहन्ति । ततः- न्यासे। २. वर्णध्वनावुत्पद्यमाने-न्यासे। .... ३. ० प्रयत्नाः परस्परं स्पृशन्ति न्यासे। . . . . . ४. ईषद् यदा स्पृशन्ति-न्यासे । ५. दूरेण यदा स्पृशन्ति-न्यासे । न्यासे तु चतुर्थपञ्चमसूत्रयोः पौर्वापर्यं विद्यते । ६. द्रष्टव्यमत्रास्यैव प्रकरणम् २६ षड्विंशं सूत्रम् । ७. सामीप्येन यदा स्पृशन्ति-न्यासे ।। ८. द्रष्टव्यमत्रास्यैव प्रकरणम् २६ षड्विशं सूत्रम्। ६. नास्ति सूत्रम्-न्यासे। १०. स एव प्राणो नाम वायुरूप्रमाक्रामन् -न्यासे। .. ११. प्रतिहतो०-न्यासे । . .१२. निवृत्तो यदा कोष्ठमभिहन्ति तदा कोष्ठेऽभिहन्यमाने-न्यासे। १३. वर्णधर्म उपजायते- क्यासे। १४. नास्ति सूत्रं-न्यासे। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वृद्धपाठः १०. तत्र यदा कण्ठविलं संवृतत्वं तदा नादो जायते।' ११. विवृते तु कण्ठविले श्वासोऽनुजायते।' १२. तौ श्वासनादावनुप्रदानावित्याचक्षते ।' १३. अन्ये श्वासनादानप्रदानं व्यञ्जने नादवत् । १४. तत्र यदा नाभिस्थलजध्वनौ' नादोऽनुप्रदीयते, तदा नादध्वनि - संसर्गाद्' घोषो जायते ।। १५. यदा श्वासोऽनुप्रदीयते तदा श्वास [ध्वनि] संसर्गाद' अघोषो __जायते। १० १६. सा घोषवदघोषता ।। १७. महति वायौ महाप्राणः । १८. अल्पे वायावल्पप्राणः ।। १६. साल्पप्राणमहाप्राणता।" २०. [यत्र] महाप्राणत्वम् ऊष्माणस्ते ।" १५ २१. तत्र' यदानुसारिप्रयत्नस्तीवो भवति, तदा गात्राणां निग्रहः, कण्ठबिलस्य चाल्पत्व" स्वरस्य च वायोस्तीव्रगतित्वाद् रौक्ष्यं भवति तमुदात्तमाचक्षते। २२. यदा मन्दः प्रयत्नो भवति, तदा गात्राणां प्रसन्नत्वं कण्ठबिलस्य च बहुत्वं स्वरस्य च वायोर्मन्दगतित्वाद् स्निग्धता भवति । तमनुदात्तमाचक्षते। २० २५. १. संवृते गलबिलेऽव्यक्तः शब्दो नादः-न्यासे । न्यासेऽर्थतोऽनुवादः स्यात् । २. विवृते श्वास:-न्यासे । न्यासेऽर्थतोऽनुवादः स्यात् । ३. तो श्वासनादानुप्रदानाविति केचिदाचक्षते -न्यासे । । ४. अन्ये तु ब्रुवते–अनुप्रदानमनुस्वानो घण्टानिदिवत्-त्यासे । ५. यदा स्थानाभिघातजे ध्वनी-न्याते। ६. ० ध्वनिसंगाद् -न्यासे। ७. ०ध्वनिसंगाद् -न्यासे। ८. जायते-नास्ति न्यासे । ६. सूत्रं नास्ति-न्यासे । १७. सूत्रं नास्ति-न्यासे। ११. सूत्रं नास्ति-न्यासे । १२. तत्र-नास्ति । यदा सर्वाङ्गानुसारी-न्यासे । १३. गात्रस्य-न्यासे। १४. कण्ठविवरस्य चाणुत्वं - म्यासे । १५. • गात्रस्य स्रसवं-न्यासे। १६. महत्त्वं-न्यासे।... Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/११ मूल पाणिनीय शिक्षा वृद्धपाठः २३. उदात्तानुदात्त' सन्निकर्षात् स्वरित इति । २४. स एवं प्रयत्नोऽभिनिवृत्तः कृत्स्नः प्रयत्नो भवति । २५. स एवमापिशिलेः पञ्चदशभेदाख्या वर्णधर्मा भवन्ति । २६. तद्यथा— स्पृष्टता ईषत्स्पृष्टता विवृता संविवृता च । संवारविवारौ श्वासनादौ घोषवदघोषता । अल्पप्राणमहाप्राणता उदात्तानुदात्तस्वरिता इति । २७. इदानीं शिक्षाग्रन्थः श्लोकैरुपसंह्रियते - २८. भ्रष्टौ स्थानानि वर्णानामुरः कण्ठः शिरस्तथा । जिह्वामूलं च दन्ताश्च नासिकोष्ठौ च तालु च ॥ २६. स्पृष्टत्वमीषत्स्पृष्टत्वं संवृतत्वं तथैव च । विवृतत्वं च वर्णानामन्तःकरणमुच्यते ॥ ३०. कालो विवारसंवारौ श्वासनादावघोषता । घोषोऽल्पप्राणता चैव महाप्राणः स्वरास्त्रयः ।। ३१. बाह्य ं करणमाहुस्तान् वर्णानां वर्णवेदिनः ।। -: इति पाणिनीय शिक्षासूत्राणां वृद्धपाठः समाप्तः: १. उदात्तानुदात्तस्वरसन्निकर्षात् - न्यासे । ८१ १० १५ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा परिशिष्ट - जाम्बवती-विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश .. 'जाम्बवती.विजय' अपर नाम 'पातालविजय' के सम्बन्ध में इस इतिहास के प्रथम भाग (पृष्ठ २६३ च० सं०) में संक्षेप से, और द्वितीय भाग में 'लक्ष्य-प्रधान काव्यशास्त्रकार वैयाकरण कवि' नामक ३० वें अध्याय (पृष्ठ ४६४-४७३, तृ० सं०) में विस्तार से लिख चुके हैं। महामुनि पाणिनि के इस महान काव्य के उद्धरण अभी तक जिन २६ ग्रन्थों में उपलब्ध हुए हैं, उनके नाम उसी प्रकरण (पृष्ठ ४७१-४७२) में लिख चके हैं। अब यहाँ उन ग्रन्थों में इस १० महाकाव्य के जितने भी श्लोक वा श्लोकांश उपलब्ध हुए हैं. उन्हें - हम नीचे दे रहे हैं। पाठकों को इन उद्धरणों से इस काव्य के शब्द लालित्य एवं भावसौन्दर्य का कुछ परिचय मिलेगा। .... . हम (भाग २, पृष्ठ ४३४ तृ० सं०) लिख चुके हैं कि सब से प्रथम पाणिनीय इस महाकाव्य के उपलब्ध उद्धरणों का संकलन १५ पी० पीटर्सन ने किया था। उसके पश्चात् नये उद्धरणों के साथ पं० चन्द्रधर गुलेरी ने हिन्दी-अनुवाद सहित इनका संग्रह प्रकाशित किया था । तत्पश्चात् दो उद्धरण और उपलब्ध हुए हैं। हम प्रथम पं० चन्द्रधर गुलेरी के संकलनानुसार उद्धरण दे रहे हैं, पश्चात् नये उद्धरण दिये जायेंगे। पं० चन्द्रधर गुलेरी का भाषानुवाद भी स्वल्प २० शोधन के साथ दिया जा रहा है। . ... अस्ति प्रतीच्यां दिशि सागरस्य वेलोमिगूढे 'हिमशैलकुक्षौ। पुरातनी विश्रुतपुण्यशब्दा महापुरी द्वारवती च नाम्ना ॥ .:..१. यहाँ 'हिमशैल' शब्द विचारणीय हैं। द्वारका के प्रासपास के पर्वतों २५ पर बर्फ नहीं जमती। सम्भव है हिम शब्द ठण्डे अर्थ में प्रयुक्त हुआ हो, अथवा शान्त ज्वालामुखी पर्वत की ओर इसका संकेत हो । २. दुर्घट वृत्ति ४।३।२३ । पृष्ठ ८२ (प्र० सं०)- 'तथा च जाम्बवती विजय पाणिनिनोक्तम् ............ इति द्वितीय सर्गे।' Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाम्बवती - विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश ८३ पश्चिम दिशा में सागर की लहरों से बरफीले पहाड़ की कोख में प्राचीन और प्रसिद्ध 'द्वारका' नामक महापुरी थी । (२) अनेन यात्रानुचितं धराधरैः पुरातनं साजलनं ( ? ) महीक्षिताम् । ददर्श सेतु महतो जरन्तया ( ? ) विशीर्णसीमन्त इवोदय ( ? क) श्रिया ॥' पाठ अशुद्ध है । ठीक अर्थ समझ नहीं पड़ता । (३) त्वया सहाजितं यच्च यच्च सख्यं पुरातनम् । चिराय चेतसि पुनस्तरुणीकृतमद्य मे ॥ २ ..जो मित्रता मैंने तेरे साथ सम्पादन की और जो पुरानी है, प्राज १० वह बहुत दिनों पीछे मेरे चित्त में फिर नई सी हो गई । (४) 2 बार्हद्रथं येन विवृत्तचक्षुविहस्य सावज्ञमिदं बभाषे । इसी से प्रवज्ञां के साथ प्रांखे बदल कर हंसते-हंसते यह कहा । (५) सन्ध्याव गृह्य करेण भानुः । सूर्य अपनी सन्ध्यारूपिणी वधू को हाथ से पकड़ कर । (६) स पार्षदैरम्बरमपुपुरे। उस शिव ने अपने गणों के साथ आकाश को भर दिया । १. दुर्घटवृत्ति ४।३।२४ पृष्ठ ८२ ( प्र० सं० ) - २. वही ·· इत्यष्टादशे' । ३. गणरत्नमहोदधि ( इटावा संस्क० ) पृष्ठ ७- - तथाहि जाम्बवत्ती हरणे ।' इति चतुर्थे ।' ४. नमि साधु कृत रुद्रट काव्यालंकार टीका । ५. अमरकोश - पदचन्द्रिका टीका ( रायमुकुट ) – ' इति जाम्बवत्यां पाणिनिः । अमरकोश कां० १, वर्ग १, श्लोक ३१ में शिव के गण के लिये 'परिषत्' शब्द आया है, उसका रूपान्तर 'पार्षद' पाणिनि प्रयोग दिया है । १५ २० २५ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ संस्कत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पयः पृषन्तिभिः स्पृष्टा ला (वा ?) न्ति वाताः शनैः-शनैः ।' पानी के फुहारों से छुई हुई वायु धीरे-धीरे बह रही है। (८) स सृक्किणीप्रान्तमसृक्प्रदिग्ध प्रलेलिहानो हरिणारिरुच्चकैः ।' लोहू लगे हुए होठों के कोनों को पुनः-पुनः चाटता हुआ वह सिंह जोर से। हरिणा सह सख्यं ते बोभूत्विति यदब्रवीः । न जाघटीति युक्तौ तत् सिंहद्विरदयोरिव ॥' जो तूने यह कहा है कि हरि के साथ तेरी मित्रता हो, तो यह युक्ति में संघटित नहीं होता, जैसे कि सिंह और हाथी की मित्रता। (१०) गतेऽर्धरात्रे परिमन्दमन्दं गर्जन्ति यत्प्रावषि कालमेघाः। अपश्यती वत्समिवेन्दुबिम्बं तच्छर्वरी गौरिव हुंकरोति ।' पावस में आधी रात बीत जाने पर मेघ धीरे-धीरे गरजते हैं, मानो रात गौ है, चन्द्रमा उसका बछड़ा है । बछड़े को (वादलों में छिपे हुए चांद को) न देखकर रात्रि रूपी गौ रंभा रही है। १. अमरकोश-पदचन्द्रिका टीका (रायमुकुट)–'इति जाम्बवती विजय२० वाक्यम् ।' अमर १।१०।६ में 'पृषत् शब्द जलबिन्दु के लिये नपुंसक लिङ्ग दिया है । पाणिनि ने स्त्रीलिङ्ग ह्रस्व इकारान्त 'पृषन्ति' का प्रयोग किया है। यहां केवल काव्य का नाम है, कवि का नाम नहीं। २. वही, अमरकोश २१६९१ में होठों के कोनों के लिये 'सृक्वन्' पद नपुंसकलिङ्ग दिया है। पाणिनि ने ईकारान्त स्त्रीलिङ्ग का व्यवहार किया है। २५ अाफेक्ट ने हलायुध की रत्नमाला की सूची में भी इसका उल्लेख किया है। . ३. रामनाथ की कातन्त्र धातुवृत्ति, भाषावृत्ति २।४।७४ – 'इति पाणिने. र्जाम्बवतीविजय काव्यम् ।' भाषावृत्ति में 'संख्य' (=लड़ाई) पाठ है। ४. नमि साधु कृत रुद्रट काव्यालंकार टीका-'तस्यैव कवेः'। 'अपश्यती' के स्थान में 'अपश्यन्ती' होना चाहिये । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाम्बवती - विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश ८५ (११) तन्वङ्गीनां' स्तनौ दृष्ट्वा शिरः कम्पयते 'युवा 1 तयोरन्तरसंलग्नां दृष्टिमुत्पाटयन्निव ।।' कोमलाङ्गी नारियों के स्तनों को देखकर जवान आदमी सिर घुनता है। जैसे कि उनमें निगाह फंस गई है, उसे हिला-हिलाकर ५ उखड़ रहा है। (१२) उपोढरागेन विलोलतारकं तथा गृहीतं शशिना निशाशुखम् । यथा समस्तं तिमिरांशुकं तया पुरोऽतिरागाद् गलितं न वीक्षितम् ॥' चन्द्रमा (नायक) ने रात्रि (नायिका) का मुख (प्रदोषकाल - १० वदन) जिसमें तारे ( आंखों की पुतलियां ) चंचल हो रहे थे, राग (ललाई - प्रीति) बढ़ जाने से यों पकड़ा कि उसे अन्धकाररूपी वस्त्र ( दुपट्टा ) सारे का सारा खिसकता हुआ जान ही न पड़ा । (१३) पाणौ पद्मधिया मधूकमुकुल भ्रान्त्या तथा गन्डयोर् नीलेन्दीवरशङ्कया नयनयोर्बन्धूक बुद्ध्याऽधरे । लीयन्ते कबरीषु बान्धवजनव्यामोहबद्धस्पृहा । दुर्वारा मधुपा: कियन्ति सुतनु स्थानानि रक्षिष्यसि ॥ भला सुन्दरी ? तुम अपने कितने अङ्गों को इन भौरों से बचाप्रोगी? ये तो पीछा छोड़ते दिखाई नहीं देते। हाथों को कमल, कपोलों २० को महुवे की कलियां, आंखों को नीलकमल, अधर को बन्धूक, और केशपाश को अपने भाई-बन्धु समझकर वे बढ़े चले आते हैं । १. कवीन्द्रवचन समुच्चय में पाणिनि के नाम से, दशरूपक और वाग्भट्ट काव्यालंकार में बिना नाम के । १५ २५ २. सदुक्तिकर्णामृत में नाम से, जल्हण की सुवित मुक्तावली में नाम से, वल्लभदेव की सुभाषितावली में नाम से । सुभाषितरत्न कोष, सूवित मुक्तावली - सार संग्रह, ध्वन्यालोक, अलङ्कारस्र्वस्व ( रुय्यक), काव्यानुशासन ( हेमचन्द्र ) और अलङ्कारतिलक में विना नाम के । ३. सदुक्तिकर्णामृत में नाम से, कवीन्द्रवचन समुच्चयं और अलङ्कारशेखर में विना नाम के, शार्ङ्गधरपद्धति और पद्य रचना में 'अचल' के नाम से 1 ३० Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ' असौ गिरेः शीतलकन्दरस्थः पारावतो. मन्मथचाटुदक्षः । .. धर्मालसाङ्गी मधुराणि कूजन संवोजते पक्षपुटेन कान्ताम् ॥' ...... पहाड़ की शीतल गुफा में बैठा हुआ, काम के चोंचलीं में निपुण ५ वह कबूतर मीठी बोली बोलकर गरमी से व्याकुल कबूतरी को अपने ... पंखों (परों) से पंखा कर रहा है। . .... ..... (१५). . . ' उद्ब (? व) हेम्यः सुदूरं घनजनिततमःपूरितेषु द्रुमेषु ...... प्रोद्ग्रीवं पश्य पादद्वयनमितभुवः श्रेणयः फेरवाणाम् । १० .. उल्कालोकः स्फुरद्भिनिजवदनदरीसपिभिर्वीक्षितेभ्यः . श्च्योतत् सान्द्रं वसाम्भः कुथितशववपुमण्डलेभ्यः पिबन्ति ॥' , देखिये, बादलों के छा जाने से दूर तक अंधेरा हो रहा है, पेड़ों से ' लाशें लटक रही हैं, उनमें से मज्जा बह रही है, शगाल के मुह से • '' आग निकला करती है, उसी के प्रकाश में लाशों को देखकर शगालों १५ की पांत की पांत गर्दन ऊंची किये और पृथिवी को पैरों से चांपकर घनी मज्जा को पी रही हैं। - कल्हारस्पर्शगभैः शिशिरपरिचयात् कान्तिमद्भिः कराग्रेश् चन्द्रेणालिङ्गिता यास्तिमिरनिवसने उसमाने रजन्याः । अन्योन्यालोकिनीभिः : परिचयजनितप्रेमनिःस्यन्दिनीभिर दूरारुढे प्रमोदे हसितमिव परिस्पष्टमाशासखीभि: ॥' . शिशर ऋतु आगई है, चन्द्रमा की किरणें शीतल और प्रकाश।... मान हो गई हैं। चन्द्रमा (नायक) ने अपनी किरणों (हाथों) को बढ़ाकर रात्रि (नायिका) का प्रालिङ्गन किया, उसका अन्धकाररूपी २५ वस्त्र खिसकने लगा। इस पर दिशाएं (उसकी सखियां) बहत पान न्दित होने से खिलखिला कर हंस पड़ी, चारों ओर प्रकाश फैल गया। १. सदुक्तिकर्णामृत में नाम से। २. वहीं, नाम से। ३. वहीं, नाम से। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाम्बवती- विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश (१७) चञ्चत्पक्षाभिघातं ज्वलितहुत प्रौढधाम्नश्चितायाः कोडाद व्याकृष्टमूर्तेरहमहमिकया चण्डचञ्चुग्रहेण । सद्यस्तप्तं शवस्य ज्वलंदिव पिशितं भूरि जग्ध्वार्धदग्धम् पश्यान्तः प्लुष्यमाणः प्रविशति सलिलं सत्त्वरं गृद्धवृद्धः ॥ ' चिता धधक रही है । प्रधजले मुर्दे का मांस झपटने के लिए गधों की होड़ाहोड़ी हुई। एक बुड्ढे गीध ने औरों को डैनों की मार से भगा दिया, और चोंच से पकड़कर मांस खींच लिया । वह जल्दी 'बहुत सा जलता हुआ मांस खागया और भीतर जलने लगा, दौड़कर ठण्डक के लिये पानी में घुस रहा है । सें (१८) · - पाणी शोणतले तनूरि सूक्ष्माभा कपोलस्थली विन्यस्ताञ्जन दिग्धलोचनजलैः किं म्लानिमानीयते । मुग्धे चुम्बतु नाम चञ्चलतया भृङ्गः क्वचित् कन्दलीम् उन्मीलन्नवमालतीपरिमलः किं तेन विस्मार्यते ॥ सखी खण्डिता नायिका से कहती है- कृशोदरि ! लाल हथेलियों पर कृश कपोल को रखकर काजलवाले प्रांसुत्रों से उसे क्यों म्लान कर रही हो ? भोली ! भौंरा चञ्चलता से कहीं जाकर कन्दली को भले ही खावे, किन्तु क्या इससे वह नई खिली मालती के सुवास को कभी भूल सकता है ? (१६).. मुखानि चारूणि घनाः पयोधराः नितम्बपृथ्व्यो जघनोत्तमश्रियः । तनू नि मध्यानि च यस्य सोऽभ्यगात् ८७ कथं नृपाणां द्रविडीजनो हृदः ॥ जिनके सुन्दर मुख, घने स्तन, भारी नितम्ब, उत्तम जघन, श्रौर ९. सदुक्तिकर्णामृत में नाम से । २. वहीं, नाम से; कवीन्द्र वचन - समुच्चय में विना नाम के ३. वहीं, नाम से । 7 १० .१५ .२० २५ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कृश मध्यभाग हैं, वे द्रविड़ देश की स्त्रियां राजात्रों के मन से कैसे निकल गई ? (२०) क्षपाः क्ष्मामीकृत्य प्रसभमपहृत्याम्बु सरितां प्रताप्योवीं कृत्स्नां तरुगहनमुच्छोष्य सकलम् । क्व सम्प्रत्युष्णांशुत इति समालोकनपरास् तडिद्दोपालोका दिशिदिशि चरन्तीह जलदाः ॥ ( वर्षा ऋतु का वर्णन है ) जिसने रातों को कृश (छोटी) कर दिया, बलात्कार से नदियों का पानी चुरा लिया ( सुखा दिया ), १० सारी पृथिवी को संतप्त कर दिया, जंगल के सारे वृक्षों को सुखा दिया । ऐसा अपराधी सूर्य अब कहां चला गया ? इसीलिए बिजली के दीपक हाथ में लिए मेव सब दिशाओं में उसे ढूंढते फिर रहे हैं । (२१) ८८ २० श्रथाससादास्तम निन्द्यतेजा जनस्य दूरोज्झितमृत्युभीतेः । उत्पत्तिमद् वस्तु विनाश्यवश्यं यथाहमित्येवमिवोपदेष्टुम् ॥ दीप्तिमान् सूर्य अस्त हो गया । मानो वह उन लोगों को, जिन्होंने मृत्यु का भय बिलकुल छोड़ दिया है, यह उपदेश देने के लिए कि 'जिस वस्तु की उत्पत्ति होती है उसका विनाश श्रवश्यभावी है। जैसे कि मेरा' | (२२) ऐन्द्रं धनुः पाण्डुपयोधरेण शरद् दधानार्द्रनखक्षताभम् । प्रसादयन्ती सकलङ्कमिन्दु तापं रवेरभ्यधिकं चकार ॥3 शरद ऋतु (नायिका) ने सूर्य (नायक) का सन्ताप ( तपन - जलन) बहुत बढ़ा दिया । क्यों न हो, वह उज्ज्वल पयोधरों (मेघों - स्तनों) पर ताजा नखक्षत के समान इन्द्र ( प्रतिनायक ) का धनुष दिखा रही है, और सकलङ्क चन्द्रमा ( प्रतिनायक) को प्रसन्न निर्मलआनन्दित ) कर रही है । २५ १. सूक्तिमुक्तावली, सुभाषितावली, सभ्यालंकरण संयोगशृङ्गार, पद्य - रचना में नाम से । सदुक्तिकर्णामृत में प्रोङ्कण्ठ के नाम से । कवीन्द्रवचन ३० समुच्चय और सुभाषित रत्नकोश में विना नाम के । २. सुभाषितावली में नाम से । ३. सुभाषितावली में नाम से । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/१२ जाम्बवती-विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश ८६ (२३) निरीक्ष्य विद्युन्नयनैः पयोदो मुखं निशायामभिसारिकायाः। धारानिपातैः सह किं नु वान्तश् चन्द्रोदयमित्याततरं ररास ॥ ५ रात्रि में वादल ने बिजली की प्रांख से अभिसारिका का मुख देखा । देखकर उसे संदेह हया कि कहीं मैंने जलधाराओं के साथ चन्द्रमा को तो नहीं गिरा दिया है ? इस पर वह और भी अधिक कड़कने (रोने-पीटने) लगा। (२४) प्रकाश्य लोकान् भगवान् स्वतेजसा प्रभादरिद्रः सविताऽपि जायते । अहो चला. श्रीबलमानदा (?) महो स्पशन्ति सर्वं हि दशाविपर्यये ॥' अपने तेज से सब लोकों को प्रकाशित करके सूर्य भी अन्त में १५ प्रभा से रहित हो जाता है । लक्ष्मी चञ्चल है, सभी को विपरीत काल में बल और मान को घटाने वाली दशा आ जाती है (मूल कुछ अस्पष्ट है)। (२५) विलोक्य सङ्ग मे रागं पश्चिमाया विवस्वतः । कृतं कृष्णमुखं प्राच्या नहि नार्यों विनर्ण्यया ॥ सूर्य के संगम होने पर पश्चिम दिशा का राग (प्रेम-ललाई) देखकर पूर्व दिशा ने अपना मुह काला (अधिया रुवाना) कर लिया। भला कभी स्त्रियां ईारहित हो सकती हैं ? । १. सुभाषितावली में, नाम से । कुवलयानन्द, अलङ्कार-कौस्तुभ, प्रतापरुद्र-यशोभूषण (टीका) में विना नाम के । २. सुभाषितावली में, नाम से। ३. वहीं, नाम से । शाङ्गधर पद्धति में 'कस्यापि'। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (२६) शुद्धस्वभावान्यपि संहतानि निनाय भेदं कुमुदानि चन्द्रः । अवाप्य वृद्धि मलिनान्तरात्मा जडो भवेत् कस्य गुणाय वक्रः ॥' चन्द्रमा ने शुद्ध स्वभावयुक्त और मिलकर रहनेवाले कुमुदों में भेद डाल दिया (खिला दिया) भला जिसका पेट मैला हो जो जड़ (जलमय) और टेढा हो वह बढ़कर किसे निहाल करेगा ? (२७) सरोरुहाणि निमीलयन्त्या रवौ गते साधुकृतं नलिन्या। अक्षणां हि दृष्ट्वापि जगत् समग्न फलं प्रियालोकनमात्रमेव ॥ सूर्य अस्त हो गया । नलिनी ने कमलरूप नेत्र मूद लिए। बहुत अच्छा किया। प्रांखों से चाहे सब कुछ देखते रहें, परन्तु उनका फल तो प्रिय को देखना मात्र ही है न ? (२८) करीन्द्रदर्पच्छिदुरं मृगेन्द्रम् । गजराजों के दर्प के दमनशील मृगराज को। इन २८ उद्धरणों में संख्या १,२,३,४,२८ पं० चन्द्रधर गुलेरी द्वारा गहीत हैं। शेष पी० पिटर्सन द्वारा JRAS १८९१ (पृष्ठ ३१३२० ३१६) में प्रकाशित किये गए थे। अब हम उन उद्धरणों को प्रकाशित करते हैं, जो अभी-अभी प्रकाश में आये हैं। काफिरकोट के पास से पाकिस्तान के अधिकारियों को भामह के काव्यालङ्कार की टीका की एक जीर्ण प्रति उपलब्ध हुई है। यह २५ अभी प्रकाशित हुई है। उसके पृष्ठ ३४ के अन्त और पृष्ठ ३५ के आदि में निम्न पाठ हैं १. वहीं, नाम से। २. वहीं, नाम से। ३. भाषावृत्ति ३।२।१३२ में नाम से । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाम्बवती - विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश १ 'इदमुदाहरणं समासोक्तेः - उपोढ [............. •] परोऽपि मोहाद् गलितं न रक्षित (म्) । अत्र शशिरजनी व्याषाणपरे य प्रxxx सह x त । यह 'उपोढ ...''गलितं न रक्षितम्' पाठ ( जो मध्य में त्रुटि एवं भ्रष्ट है ) पाणिनीय काव्य का है। इसका पूरा पाठ पूर्व संख्या १२ पर देखें । उक्त टीका ग्रन्थ उद्भट का विवरण है, ऐसा विद्वानों का अनुमान है । यह भोजपत्र पर १०वीं शती की शारदा लिपि में लिखा हुआ है । सुभाषित रत्नकोशका सन् १६५७ में हार्वड विश्वविद्यालय से एक सुन्दर संस्करण छपा है । इसके सम्पादक हैं- डी० डी० कोसाम्बी १० और वी० वी० गोखले । इस संस्करण के अन्त में परिशिष्ट में 'नन्दन ' कृत 'प्रसन्न - साहित्य रत्नाकर' में संगृहीत कतिपय कवियों के वचनों का संग्रह किया गया है । इसमें पृष्ठ ३३१ पर पाणिनि के निम्न दो श्लोक उद्धृत हैं (२९-३०) अनहि जितनीडजेन्द्रवेगे कृतनिबिडासनमुच्तिाघ पीडे । स्मरशमनत डित्कडारदृष्टि मडमुडुराडुपशोभिचूडमीडे ॥ हरकोपानलप्लुष्ट विरूढस्मरशाखिनः । यमाभाति तन्वङ ग्याः पाणिः प्रथमपल्लवः || पक्षिराज गरुड से भी शीघ्रगामी, प्रसन्न मन बैल पर अपना अडिग आसन लगाये, अपनी कोप दृष्टि से कामदेव को भस्म करने वाले, चन्द्रचूड़ भगवान् शिवशंकर की मैं स्तुति करता हूं । तन्वङ्गी का यह हाथ हर (महादेव) के कोप रूप अग्नि से दग्ध कामदेव रूपी वृक्ष का झड़ा हुआ नवीन पल्लव रूप प्रतीत होता है । १५ २० राजशाही ( बंगला देश) से सन् १९१८ में प्रकाशित भाषावृत्ति २५ के सम्पादक श्रीशचन्द्र चक्रवती भट्टाचार्य ने 'प्रोत्' (श्रष्टा० १|१| १५) सूत्र के अहो अहम् उदाहरण की टिप्पणी (पृष्ठ ५) में जाम्बवतीविजय का निम्न श्लोक उद्धृत किया है Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अहो अहं नमो मां यदुद्धृत्य सुमध्यया । उल्लास्य नयने दोघे सकाङ्क्षमहमीक्षितः॥' जाम्ववती के दर्शन के अनन्तर श्री कृष्ण ने कहा- मैं धन्य हूं, मुझे नमस्कार है अर्थात् मैं सत्कृत हुअा हूं, जो सुमध्या जाम्बवती ने अपने विशाल नेत्र उठाकर और खोलकर आकाङ्क्षा सहित मुझे देखा है।' जाम्बवतीविजय का यह श्लोक श्रीशचन्द्र चक्रवर्ती ने कहां से प्राप्त करके उद्धृत किया, इसका उन्होंने कोई संकेत नहीं किया। १० श्लोक के अनन्तर टिप्पणी का अंश है इति जाम्बवतीविजयकाव्ये जाम्बवतीदर्शनोत्तरं कृष्णोक्तिः । इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने टिप्पणी सहित यह श्लोक सम्भवतः सृष्टिधर विरचित ‘भाषावृत्त्यर्थ विवृति' से लिया होगा अथवा बंगाल में प्रसिद्ध किसी अन्य व्याकरण ग्रन्थ से लिया होगा। इसी प्रकरण में धर्मपाणिनि के नाम से एक श्लोक उद्धत है। यह धर्मपाणिनि कौन है यह ज्ञातव्य है । श्लोक इस प्रकार है नीलाम्भोरुहकानने न विशति ध्वान्तोत्कराशया स्वक्रोडोच्छलिताश्च वारिकणिकास्ताराभ्रमात् पश्यति । सत्रासं मुहुरीक्षते च चकितो हंसं हिमाशुभ्रमान् न स्वास्थ्यं भजते दिवापि विरहाशङ्की रथाङ्गाह्वयः॥ वियोग की आशंका से चक्रवाक नीलकमलों के समूह को रात्रि का अन्धकार समझकर उनमें प्रवेश नहीं कर रहा है। अपनी जल क्रीड़ानों में उछाले गए जल के कणों को तारे समझ कर उन्हें निहार रहा है, और चकित होकर सूर्य को चन्द्रमा समझकर पुनः पुनः उसे देख रहा है । इस प्रकार वह बेचारा दिन में भी चैन का अनुभव नहीं कर पा रहा है। यह श्लोक सदुक्तिकर्णामृत २।१४।२ में धर्मपाल के नाम से स्मृत है। ॥ इति जाम्बवतीविजय-काव्योद्धरण-संकलनं समाप्तम् ॥ १० १. इस श्लोक की सूचना श्री विजयपाल शास्त्री (शोध-छात्र) दिल्ली ने अपने १८।६।८४ के पत्र में दी है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां परिशिष्ट • समुद्रगुप्त - विरचितम् कृष्णचरितम् .. में [ हमने पाणिनि व्याडि कात्यायन और पतञ्जलि के प्रकरण समुद्रगुप्त विरचित कृष्णचरित के अनेक उद्धरण दिये हैं। इसका स्वल्प सा उप- ५ भाग गोंडल ( काठियावाड़) के राजवैद्य जीवाराम कालिदास ने स्वीय विवरण सहित सन् १९४१ में छपवाया था । यह सम्प्रति दुर्लभ हो गया है । श्रतः जिज्ञासु पाठकों की जिज्ञासा शान्त्यर्थ हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं ] मुनिकवयः *****.... २. शाङ्खायन 1 शाङ्ख्यायनाय कवये नमोऽस्तु कण्ठाभरणकर्त्रे । काव्यं यस्य रसाढ्य ं कण्ठाभरणं सदा विदुषाम् ॥ १३. ३. वररुचिः कात्यायनः 'मिवाकरोत् ' ॥१२॥ -1 यः स्वर्गारोहणं कृत्वा स्वर्गमानीतवान् भुवि । १० १.५ १. इस से पूर्व १२ लोक हस्तलेख के अद्य एक वा दो पत्रों के विनष्ट हो जाने से लुप्त हो गये । प्रकृत मुनिकवि-वर्णन के अन्त में ३३वें श्लोक में 'दशमेऽभिहिताः ' वचन से विदित होता है कि विनष्ट श्लोकों में किसी मुनि कवि. का वर्णन था । यह मुनि कवि दाक्षीसुत पाणिनि था यह १५वें श्लोक में 'modify भूयोऽनु चकार तं वै' के पाठ से विदित होता है । पाणिनि का ती काव्य भारतीय वाङ्मय में बहुत्र उद्धृत है । उसके उपलब्ध पद्यों का संकलन पूर्व छठे परिशिष्ट में किया है । २० Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १५ ६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास काव्येन रुचिरेणैव ख्यातो वररुचिः ' कविः ॥ १४ ॥ न केवलं व्याकरणं पुपोष दाक्षीसुतस्येरिततवत्तिकैर्यः । काव्येऽपि भूयोऽनुचकार तं वै कात्यायनोऽसौ कविकर्मदक्षः ॥ १५ ॥ ४. व्याडि: रसाचार्यः कविर्व्याडिः शब्दब्रह्म कवाङ्मुनिः । दाक्षीपुत्रवचोव्याख्यापटुर्मीमांसकाग्रणीः ।। १६॥ बलचरितं कृत्वा यो जिगाय भारतं व्यासं च । महाकाव्य विनिर्माणे तन्मार्गस्य प्रदीपमिव ॥ १७ ॥ ५. देवलः - सुयशा अभवद् भूमौ बृहस्पतिसमः कविः । यत्काव्यमिन्द्रविजयं भासते देवलोऽन्त्यजः ॥ १८ ॥ ६. पतञ्जलिः - विद्ययद्रिक्तगुणया भूमावमरतां गतः । पतञ्जलिर्मुनिवरो नमस्यो विदुषां सदा ॥ १६ ॥ कृतं येन व्याकरणभाष्यं वचनशोधनम् । धर्मावियुक्ताश्चरके' योगारोगमुषः कृताः ॥२०॥ १. वररुचि कात्यायन के विषय में इसी ग्रन्थ के भाग १, पृष्ठ ३३७२० ३३८ देखें । २. व्याडि सहित प्राचीन २७ रसाचार्यों के विषय में इसी ग्रन्थ के भाग १, पृष्ठ ३०३ - ३०४ देखें । ३. 'चरक' वैशम्पायन मुनि का अपर नाम है । द्र० काशिका ४ | ३ | १०४ ॥ इस नाम के कारण के लिये देखिये हमारा 'दुष्कृताय चरकाचार्यम्' लेख २५ ( वैदिक सिद्धान्त मीमांसा (पृष्ठ १७९ ) श्रायुर्वेद की चरक संहिता इसी चरक = वैशम्पायन द्वारा प्रति संस्कृत है । वैशम्पायन - चरक के शियों द्वारा प्रोक्त कृष्ण यजुर्वेद की सभी शाखाओंों के अध्येता चरक कहाते हैं । पतञ्जलि मुनि का चरक चरणान्तार्गत काठक संहिता के साथ संबन्ध था ( द्र० यही ग्रन्थ भाग १, पृष्ठ ३६१-३६३) । 1 = Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ जाम्बवती-विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश महानन्दमयं काव्यं योगदर्शनमद्भुतम् । योगव्याख्यानभूतं तद् रचितं चित्तदोषहम् ॥२१॥ ७भास: ५ भासमान महाकाव्यः कृतविंशतिनाटकः । अनेकाऋविधाता च मुनि सोऽभवत कविः ॥२२॥ यस्यामन्दरसा वाचः स्यन्दन्त्यानन्दमुच्चकैः । अन्येन केन कविना तुल्यता तस्य वर्तताम् ॥२३॥ अन्यः कः कर्तु मशकत् कविर्धर्मार्थकामवत् । यथा वासवदत्ताख्यं यस्य नाटकमुत्तमम् ॥२४॥ वाल्मीकिवैभवनिदर्शनमादिकाव्यं . रङ्गे निदर्शितभयं सूरसं चकार व्यासस्य भारतमभारतया सूदर्श कृत्वा च तत्र विविधाः स्वकथा युयोज ॥२५॥ रूपकक्रममस्यैव कवयोऽन्ये ययुर्बुधाः । अयं च नान्वयात् पूर्ण दाक्षीपुत्रपदक्रमम्' ॥२६॥ अभिरामाः सुबोधाश्च यस्य वाचो महाकवेः। रसैरग्नि शमं निन्युस्तस्य किं वर्ण्यतां यशः ॥२७॥ ८. वर्धमानः दावमब्द इव क्षिप्तं निस्तापं हृदयं सताम् । करोति वर्धमानस्य कवेर्भीमजयं रसैः ॥२८॥ ६. चीनदेवः १. इस का तात्पर्य यह है कि भास ने अपने नाटकों में पाणिनीय तन्त्र में अप्रसिद्ध बहुत से पदों का प्रयोग किया है। यह अपाणिनीय पदप्रयोग ही भास के प्राचीनत्व में सबसे बड़ा प्रमाण है। पाणिनि के अष्टाध्यायी नामक शब्दानुशासन में स्वीय शब्दानुशासन से प्रसिद्ध लगभग १०० पदों का प्रयोग किया २५ है (पाणिनीय काव्य जाम्बवतीविजय में भी इस प्रकार के बहुत से प्रयोग हैं) इसका कारण पाणिनीय शब्दानुशासन का संक्षिप्त होना है। द्र० यही ग्रन्थ; भाग १, पृष्ठ २४३-२४७ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास rist serie कविः सम्मानमाप्तवान् । अकरोद् बुद्धचरितं मागध्यामृषिवाच्यपि ॥ २३ ॥ पीयूषलिप्तवचनश्चीन देवोव्रती कविः । यशः शरीरेण सदा जीवत्येव महामतिः ॥ ३०॥ ५ १० मिहिरदेव: १० १५ २० २५ ६६ काव्यं चकार रमणीयगुणं यशस्यम् सूर्यस्तवं शिखरिणीशतमानमाप्तम् । स्थितोऽलभत भूरियशो बभूव, भक्तः सहस्रकिरणस्य तमोपहन्तुः ॥ ३१ ॥ जातो महात्मनां मान्यः पशुवंशभवोऽपिसन् । वक्रे मिहिरदेवः स रम्यं चादित्यमन्दिरम् ||३२|| पीयूष सोदर्य रसाः सुखेन धर्मार्थकामान् सकलान् ददत्यः । येषां गिरस्ते कवयो महान्तः पूर्वं दशमेऽभिहिता मयाऽत्र ||३३|| ॥ इति श्रीविक्रमाङ्कमहाराजाधिराजपरमभानचतश्रीसमुद्रगुप्तकृतौ कृष्णचरिते कथाप्रस्तावनायां मुनिकविकीर्तनम् ॥ अथ राजकवयः जयत्ययं पूर्णकलः कविकीत्तिः सुधाकरः । कलङ्को रसाम्भोधिमुद्वर्तयति यः सदा ॥ १ ॥ व्याहारसौष्ठवमुदाररसं महार्थं यन्नाटकं सुरभिगर्भितनाटकं च । तद्वत्सराजचरितं मृदुभावहारि कृत्वा सुबन्धुरभवत् कृतीनां वरेण्यः ॥ २ ॥ बिन्दुसारस्य नृपतेः स बभूव सभाकविः । किंतु सेहे न तद्गवं तिरश्चक्रे च तां सभाम् ॥३॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/१३ सातवां परिशिष्ट १७ उरगाभे नृपे तस्मिन् क्रुद्धे बन्धमितं कविम् । .. सरस्वती मोचयामास तं देशं सोऽत्यजत् तदा ॥४॥ विद्वान् जयी वत्सराजो दृष्ट्वा वैदुष्यमुत्तमम् । पञ्च ग्रामान् ददौ तस्मै निजां भगनिकां तथा ॥५॥ पुरन्दरबलो विप्रः शूद्रकः शास्त्रशस्त्रवित् । धनुर्वेद चौरशास्त्रं रूपके द्वे तथा करोत् ।।६।। स विपक्षविजेताभूच्छास्त्रैः शस्त्रैश्चकीर्तये । बुद्धिवीर्येनास्य वरे सौगताश्च प्रसेहिरे ॥७॥ स तस्तारारिसैन्यस्य देहखण्डै रणे महीम्। ' धर्माय राज्यं कृतवान् तपस्विव्रतमाचरन् ॥८॥ शस्त्रजितमयं राज्यं प्रेम्णाऽकृत निजं गहम् । एवं ततस्तस्य तदा साम्राज्यं धर्मशासितम् ॥६॥ तत्कथां कृतवन्तौ यौ कवी रामिलसोमिली। तस्यैव सदसि स्थित्वा तौ मानं बह्वाप्नुताम् ।।१०।। सतां मतः सोऽश्वमेधं कृतवानुरुविक्रमः । वत्सरं स्वं शकान् जित्वा प्रावर्तयत वैक्रमम् ॥११॥ भूयः स मृच्छकटिक नवाझं नाटकं व्यधात् । व्यधात्तस्मिन् स्वचरितं विद्यानयबलोजितम् ॥१२॥ तदार्यकजयं नाम्ना ख्याति विद्वत्स्वविन्दत । एवं ब्रह्मक्षत्रतेजोराशिरासीत स शूद्रकः ॥१३॥ उपवेश्य निजं पुत्रं देवमित्रं निजासने । वार्धके मुनिवृत्त्यैव नयन् कालं वनं ययौ ॥१४॥ २० २५ १. शूद्रक ने स्वीय मृच्छकटिक के प्रारम्भ में अपना चरित इस प्रकार लिखा है ऋग्वेदं सामवेदं गणितमथ कलां वैशिकी हस्तिशिक्षाम् . ज्ञात्वा शर्वप्रसादाद् व्यपगत तिमिरे चक्षुषी चोपलभ्य । - राजानं वीक्ष्य पुत्रं परमसमुदयेनाश्वमेघेनेष्ट्वा लब्ध्वा चायुः शताब्दं दशदिनसहितं शूद्रकोऽग्नि प्रविष्टः । समरव्यसनी प्रमादशून्यः ककुदं वेदविदां तपोधनं च। परवारणबाहुयुद्धलुब्धः क्षितिपाल किल शुद्रको बभूव ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ २० २५ हैद ३. कालिदासः - संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास तस्याभवन्नरपतेः कविराप्तवर्णः, श्री कालिदास ' इति योऽप्रतिमप्रभावः । दुष्यन्तभूपतिकथां प्रणयप्रतिष्ठां, रम्याभिनेयभरितां सरसां चकार ॥१५॥ शाकुन्तलेन स कविर्नाटकेनाप्तवान् यशः । वस्तुरम्यं दर्शयन्ति त्रीण्यन्यानि लघूनि च ॥ १६ ॥ ४. [ श्रश्व ] घोष: जन्मनाऽर्योऽभवद् विद्वान् सौगतस्तर्कवारिधिः । सौनन्द' बुद्धचरिते महाकाव्ये चकार यः ॥१७॥ तस्य शूरकवेर्घोष इति नामाभवत् ततम् । धर्मव्याख्यानरूपान् स नव ग्रन्थानरी रचत् ॥ १८ ॥ सौगतानां महासंसत् तुरीयाऽभून्महोज्ज्वला । तस्यां सभ्यो बभूवायं विश्वविद्वच्छिरोमणिः ॥ १६ ॥ १. तस्य = शद्रकस्य राज्ञः । २. कालिदास नाम से प्रसिद्ध अनेक कवि हो चुके हैं। इसी प्रकरण के अन्त में हरिषेण को भी कालिदास नाम से स्मरण किया है ( द्र० श्लोक २४) । संस्कृत साहित्य में तीन कालिदासों का वर्णन मिलता है एको न जीयते हन्त कालिदासो न केनचित् । शृङ्गारे ललितोद्गारे कालिदासत्रयी किमु ॥ राजशेखर के नाम से उद्धृत ( द्र० बलदेव उपाध्याय कृत संस्कृत कवि चर्चा, पृष्ठ ३५, प्र० स० ) । सम्प्रति कालिदास के नाम से प्रसिद्ध सभी ग्रन्थों को एक कविविरचित मानने से ही कालिदास के काल के निर्धारण में कठिनाई हो रही है । ३. विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र ये दो नाटक इस कालिदास के सम्प्रति उपलब्ध होते हैं। तीसरा नाटक सम्प्रति अनुपलब्ध है । ४. अश्वघोष के नाम से प्रसिद्ध काव्य का नाम 'सौन्दरानन्द' प्रसिद्ध है । क्या यहां छन्दोवा 'सौनन्द' लघुरूप में प्रयुक्त हुआ है अथवा इस नाम का कोई स्वतन्त्र काव्य था ? Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां परिशिष्ट ५. हरिचन्द्रः निजकीर्तेर्वैजयन्तीं कर्णकीत्ति चकार यः। हरिचन्द्रो विजयते पाञ्चालक्षितपः कविः ॥२०॥ ६. मातृगुप्तः मातृगुप्तो जयति यः कविराजो न केवलम् । कश्मीरराजो'ऽप्यभवत् सरस्वत्याः प्रसादतः ॥२१॥ विधायशूद्रकजयं सर्गान्तानन्दमद्भुतम् । न्यदर्शयद् वीररसं कविरावन्तिकः कृतिः ॥२२॥ ७. हरिषेणः तुङ्ग ह्यमात्यपदमाप्तयशः प्रसिद्धं, भुक्त्वा चिरं पितुरिहास्ति सुहृन्ममायम् । सन्धौ च विग्रहकृतौ च महाधिकारी, विज्ञः कुमारसचिवो नृपनीतिदक्षः ॥२३॥ काव्येन सोऽघ रघुकार' इति प्रसिद्धो, यः कालिदास इति महाहनामा । प्रामाण्यमाप्तवचनस्य च तस्य धर्पा, १. हर्षचरित में हरिचन्द्र के विषय में लिखा है पदबन्धोज्ज्वलो हारी कृतवर्णक्रमस्थितिः । भट्टारहरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपायते ॥ यहां 'भट्टार' शब्द के प्रयोग से हरिचन्द्र का राजा होना स्पष्टरूप से जाना जाता है। २. मातृगुप्त के काश्मीर देश के नृप होने का वर्णन कल्हण विरचित राजतरङ्गिणी में मिलता है। ३. हरिषेण कवि को यहां रघुवंश' के रचयिता होने रघुकार और काव्य निर्माण प्रतिकुशल तथाप्रतिभावान् होने से सम्मानलब्ध कालिदास के नाम से प्रसिद्ध कहा है। कृष्णचरित के सम्पादक श्री पं० जीवराम कालिदास ने । पृष्ठ ५८-६० तक हरिषेण विरचित शिलालेख और रघुवंश के अनेक पाठों की तुलना देकर दोनों के एककर्तृक होने की पुष्टि की है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ १० १०० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ब्रह्मत्वमध्वरविधौ मम सर्वदैव ॥२४॥ चत्वार्यन्यानि काव्यानि व्यदधाच्चलघूनि यः । प्राभावयच्च मां कत्तु कृष्णस्य चरितं शुभम् ॥ २५॥ हरिषेण - कविर्वाग्मी शास्त्रशस्त्रविचक्षणः । यशोलभतकाव्यैः स्वैर्नाना चरितशोभनैः ॥२६॥ येषां न केवलं काव्यं श्रेष्ठं धर्मार्थ कामदम् । राजता वा राजनीतिरूपकर्त्री मनः स्थिता ॥ २७॥ ते राजकवयोऽमात्याः शुद्धकर्मगुणैर्भुवि । वर्णिताष्टगुरवो दिङ्नागप्रतिपक्षिणः ॥ २८ ॥ ॥ इति श्री विक्रमामहाराजाधिराजपरमभागवतश्रीसमुद्रगुप्तकृतौ कृष्णचरित प्रस्तावनायां राजक विकीर्तनम् ॥ ॥ अथ जीविकाकवयः ॥ ............100... ..... १. यहां दिङ्नाग' शब्द से दिङ्नाग' नामा बौद्ध पण्डित अभिप्रेत नहीं १५ है । 'दिङ नाग' शब्द आठों दिशाओं में विद्यमान कवि समय रूप में प्रसिद्ध · हस्ती का ग्रहण जानना चाहिये । हस्ती शब्द से 'आठ' संख्या का ग्रहण कवि समुदाय में प्रसिद्ध है । 'प्रतिपक्ष' शब्द केवल प्रतिद्वन्दी का ही वाचक नहीं उपमार्थ में भी काव्यादर्श में प्रयुक्त है । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां परिशिष्ट - पदप्रकृति: संहिता हमने 'व्या० शा० का इतिहास' के दूसरे भाग में पृष्ठ ३६२ पर प्रातिशाख्य ग्रन्थों का सम्बन्ध चरणों के साथ है अर्थात् एक चरणान्तर्गत जितनी शाखाए है उन सब के साथ उस उस प्रातिशाख्य का ५ सम्बन्ध है, केवल एक एक शाखा के साथ प्रातिशाख्यों का सम्बन्ध नहीं है । यह दर्शाने के लिये हमने निरुक्त १।१७ का वचन उद्धृत किया है पदप्रकृतिः संहिता, पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि । प्रकृत में पदप्रकृतिः संहिता वचन विवेचनीय है। दुर्गाचार्यादि १० व्याख्याकारों ने इस वचन के दो अर्थ किये हैं १- पदानां प्रकृतिः संहिता-पदों की प्रकृति संहिता है। अर्थात् संहिता पाठ पदपाठ की प्रकृति है और पदपाठ विकृति है। ...२-पदानि प्रकृतिर्यस्याः सा संहिता-पद प्रकृति हैं जिस की वह संहिता । इस अर्थ में पदपाठ प्रकृतिरूप है और संहिता विकृतिरूप। १५ इस द्वितीय अर्थ को लेकर अनेक विद्वन्मन्य यह कहते हैं कि पहले मन्त्र पद पाठ के रूप में थे। उनमें परस्पर सन्धि आदि करके संहितारूप दिया गया। इस पर विचार करने के लिये हमें वैदिक परम्परा पर भी विचार करना होगा। वैदिक परम्परा में वेद का मुख्य रूप से तीन प्रकार से पाठ होता २० है-संहिता, पद, क्रम । क्रमपाठ के अनन्तर जटादि घनान्त अष्टविकृति यूक्त भी पाठ होता है। विभिन्न संहिताओं के घनान्त वेदपाठी अभी भी यत्र तत्र उपलब्ध हैं। ऐतरेय आरण्यक ३।११३ में वेद के निर्भुज और प्रतृण्ण पाठों का.. उल्लेख मिलता हैं । वहां कहा है- ... यद्धि सन्धि वर्तयति तन्निभुजस्य रूपम् । अथ अच्छुद्धे प्रक्षरे .. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अभिव्याहरति तत् प्रतृष्णस्य । अम्र उ एवोभयमन्तरेणोभयं व्याप्तं भवति । १०२ अर्थात् — जो सन्धि करता है वह निर्भुज का रूप है । जो दो शुद्ध अक्षरों को बोलता है वह प्रतृष्ण का रूप है और जो सिद्ध पद स्वरूप पश्चात् संहिता प्रवृत होती है वह दोनों के मध्यवर्ती होने से दोनों [ पद और संहिता ] को व्याप्त होता है । अर्थात् उसमें दोनों धर्म होते है । इसे क्रम पाठ अथवा क्रम संहिता कहा जाता है । के इन तीनों को स्पष्ट करते हैं १ - संहिता = निर्भुज - इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता १० प्रार्पयतु । २ - पदपाठ = प्रतृष्ण - इषे । त्वा । ऊर्जे । त्वा । वायवः । स्थ। देव: । वः । सविता । प्र । र्पयतु । ३ - क्रमपाठ = उभयव्याप्त - इषेत्वा । त्वोर्जे । ऊर्जेत्वा । त्वावायवः । वायवस्थ | स्थदेवः । देवो वः । वः सविता । सविताप्र । १५ प्रार्पयतु ।। संहिता पाठ में त्वा + ऊर्जे में प्रोकार सन्धि, वायवः स्थ में विसर्ग का लोप, देवः+वः में ओोकार और प्र + अर्पयतु में दीर्घ सन्धि हुई है। पदपाठ में उक्त पदों की सन्धियों का विच्छेद करके प्रत्येक पद के आद्यन्त अक्षर के शुद्ध रूप में उच्चरित होते हैं । २० क्रमपाठ में प्रथम पद को द्वितीय से मिलाकर, द्वितीय को तृतीय से मिलाकर, तृतीय को चतुर्थ से मिलाकर ( इसी प्रकार यागे भी ) जो पाठ होता है उसमें दो पदों के मध्य सन्धि संभाव्य हो तो वह हो जाती है । इस प्रकार मिले हुए दो पदों के समुदाय के प्राद्यन्त अक्षर शुद्ध बोले जाते हैं और मध्य में सन्धि होती है । इसलिये इसमें पद और संहिता दोनों के धर्मव्याप्त होने से यह पाठ उभयव्याप्त कहता है। २५ यह निदर्शन स्थूल दृष्टि से दर्शाया है । वस्तुतः संहिता का लक्षण है - परः सन्निकर्षः संहिता ( भ्रष्टा० १ । ४ । १०९ ) । इस लक्षण के संहिता पाठ में प्रत्येक पद अक्षर का ३० अत्यन्त सन्निकृष्टता - समीपता = अव्यवधानता से उच्चारण किया Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां परिशिष्ट १०३ जाता है। यहां परः सन्निकर्ष-अत्यन्त समीता से अभिप्राय है दो वर्णों की अभिव्यक्ति के लिये जो दो प्रयत्न होते हैं उन के मध्य में जो अत्यन्त सूक्ष्म काल का व्यवधान करना पड़ता है उतना ही स्वल्पविराम दो पदों के मध्य में भी किया जाता है। इसलिये जैसे एक पद के सभी वर्गों के ऊपर एक शिरोरेखा देते हैं (यथा-अर्पयतु में) ५ उसी प्रकार मन्त्र में जहां तक नियत विराम न आवे, सभी पद एक शरोरेखा के नीचे लिखे जाते हैं। यथा-इषेत्वोर्जेत्वावायवस्थदेवोसविताप्रार्पयतु इत्यादि। संहिता पाठ में केवल वर्गों की ही सन्धि नहीं होती है, अपितु उदात्तादि स्वरों में भी विकार होते हैं। भारतीय समस्त वैदिक सम्प्रदाय इस बात में सहमत हैं कि मन्त्रों का संहितापाठ अपौरुषेय वा प्राचीन है। उसी पाठ का शाकल्यादि ऋषिमुनियों ने पदपाठ का प्रवचन किया अर्थात् पदच्छेद किया। अतः वह आर्षेय वा औत्तरकालिक है । इसी पदच्छेद को आधार । बना कर दो दो पदों का पूर्वनिदर्शन के अनुसार क्रमपाठ अथवा क्रम- १५ संहिता का प्रवचन किया। प्रातिशाख्यों के उपदेश का प्रयोजन पदपाठ और क्रमपाठ है । इसलिये पदप्रकृतिः संहिता लक्षण का मूल अर्थ 'पद है प्रकृति जिसकी वह संहिता' ही है। प्रातिशाख्यों द्वारा सन्धि आदि के नियमों का वर्णन क्रमपाठ वा क्रमसंहिता में दो दो पदों के संयोग में होने वाले २० वर्ण विकार और स्वर विकार के निदर्शनार्थ ही है। पदप्रकृतिः संहिता का उक्त बहुव्रीहि समास वाला अर्थ ही निरुक्त में अभिप्रेत है यह बात यास्क के पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि इस उत्तर वचन से व्यक्त है क्योंकि इस वचन का सर्वसम्मत अर्थ है- पद हैं प्रकृति जिनकी, ऐसे सर्व चरणों के पार्षद प्रातिशाख्य हैं।' अर्थात् प्राति- २५ शाख्यकार पदों को प्रकृति मान कर अपने शास्त्र का प्रवचन करते हैं। संहितापाठ, पदपाठ और क्रमपाठ तीनों का भिन्न भिन्न प्रयोजन है-अध्ययन में और यज्ञों में मन्त्र संहिता रूप में ही प्रयुक्त होते हैं । पदपाठ का प्रयोजन है पदच्छेद, अवग्रह और प्रगृह्यत्व के निर्देश ३० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास द्वारा पदों के स्वरूप का ज्ञान कराना है । यह मन्त्रों के अर्थ ज्ञान में परम सहायक है । अतः पदपाठ का मूल प्रयोजन है-मन्त्रों का अर्थज्ञान कराना । क्रमपाठ का प्रयोजन है पूर्वापर पदों की स्मृति । इसी लिये कहा है-क्रमः स्मृतिप्रयोजनः (शु० यजुः प्राति० ४।१८२) । '५ यह स्मरण मन्त्रपाठ की स्मृति में परम सहायक होता है। जो विदेशी विद्वान वा उनके अनुकर्ता भारतीय विद्वान् हैं उनसे हम पूछना चाहते हैं कि यदि मन्त्रों का पदपाठ पुराना है और संहितापाठ उन पदों में सन्धि आदि कार्य करके निष्पन्न किये गये तो वे बताएं कि कौन सा पदपाठ संहितापाठ से प्राचीन था। उदा१० हरण के लिये हम दो उदाहरण उपस्थित करते हैं १-ऋग्वेद में एक मन्त्र है-अरुणोमासकृद्धृकः (१।१०५।१८)। इस मन्त्र का शाकल्यकृत पदपाठ है-अरुणः। मा। सकृत् । वकः। क्या यही पदपाद संहितापाठ का मूल था ? यदि यही पदपाठ मूल था तो यास्क का निरुक्त ५२१ में अरुणः। मासकृत् । वकः १५ आदि दया पदपाठ कैसे उपपन्न होगा ? २-ऋग्वेद १०।२६।१ का मन्त्र है--वनेनवायोन्यधायिचाकन । इसका शाकल्य कृत पदपाद है-वने । न। वा। यः । नि । अधायि। चाकन । यदि यही पदपाठ मन्त्र की संहितापाठ का मूल है तो यास्क का वा इति य इति च चकार शाकल्यः, उदात्तं २० त्वेवमाख्यातमभविष्यत् (निरुक्त ६।२८) अर्थात् शाकल्य ने वा और यः दो पद माने हैं। ऐसा मानने पर 'यः' के योग में 'अधायि' क्रिया को उदात्त होना चाहिये परन्तु मन्त्र में अनुदात्त है। इसलिये यास्क ने वायः एक पद माना है-वायः-वेः पुत्रः। यहां विचारना होगा कि वनेनवायः मन्त्र में मूल पदपाठ जिससे संहिता पाठ रचा गया २५ कौन सा था ? उक्त उदाहरणों में दोनों पदपाठों को तो संहिता का मूल स्वीकार कर नहीं सकते एक को ही मूल पद स्वीकार करना होगा। ___ भारतीय परम्परा के अनुसार मन्त्र का- मूलपाठ संहिता पाठ मानने पर कोई दोष नहीं पाता पदकार या व्याख्यात स्वरशास्त्र को ३० ध्यान में रखकर विविध पदच्छेद कर सकता है। अतः प्रथम मन्त्र में Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/१४ आठवां परिशिष्ट १०५ स्वरशास्त्र के किसी नियम का विरोध न होने से 'मा । सकृत् ' अथवा 'मासकृत्' दोनों पदच्छेद स्वीकार किये जा सकते हैं । इतना ही नहीं, यदि कोई पदकार सावधानता से स्वरशास्त्र का ध्यान न रखकर प्रयुक्त पदच्छेद कर दे तो उसको अप्रामाणिक भी माना जा सकता है । यह द्वितीय उदाहरण में यास्क के वचन से स्पष्ट है । इस विवेचना से स्पष्ट हैं कि जो विद्वान् पदप्रकृतिः संहिता लक्षण के अनुसार तथा प्रातिशाख्यों में सन्धि के नियमों का उल्लेख होने से यह मानते है कि मन्त्र पहले पदरूप में थे, उनका संहितापाठ पीछे से बनाया गया है । यह मत सर्वथा प्रयुक्त है । पदप्रकृतिः संहिता लक्षण तथा प्रातिशाख्यों में विहित सन्धि के नियम क्रमसंहिता के लिये हैं । १० यह प्रातिशाख्यों के गम्भीर अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां परिशिष्ट सं० व्या० शास्त्र के इतिहास पर श्री जार्ज काण्?ना का अभिमत - [श्री जार्ज कार्डोना का 'पाणिनि ए सर्वे आप रिसर्च' (=पाणिनि, अनुसन्धान का सर्वेक्षण) नामक ग्रन्थ सन् १९७६ में प्रकाशित हुआ है। उसमें देश विदेश के जिन व्यक्यिों ने पाणिनीय व्याकरण पर कार्य किया है, चाहे वह लेख निबन्ध अथवा ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित हुआ है उस सब पर लिखा है । यह ग्रन्थ एक प्रकार से पाणिनीय व्याकरण सम्बन्धी अनुसन्धान कार्य का कोश है । इस दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इस प्रन्थ में मेरे द्वारा लिखित १० संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास और सम्पादित वा प्रकाशित ग्रन्थों की भूमिका और टिप्पणियों तक पर अपना अभिमत प्रकाशित किया है। यद्यपि उनका अभिमत सर्वत्र मुझे स्वीकृत नहीं है, विशेष कर काल सम्बन्धी अभिमत । पुनरपि प्रत्येक ग्रन्थ, लेख वा निबन्ध पर उन्होंने जिस परिश्रम से विचार किया है, वह प्रत्येक भावी पक्ष-विपक्ष के विद्वानों के लिये १५ उपयोगी है । इस कारण मैं अपने कार्य के सम्बन्ध में लिखे गये उनके अभिमत को याथातथ्य रूप में उपस्थित कर रहा हूं। श्री जार्ज कार्डोना ने मेरे 'सं० व्या० शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ के सन् १९७३ ई० के छपे संस्करण का उपयोग किया है। सर्वत्र उसी की पृष्ठ संख्या दी है। प्रस्तुत संस्करण में उक्त पृष्ठ संख्या के परिवर्तित हो जाने से पाठकों २० को सुगमता के लिये नीचे टिप्पणी में प्रस्तुत नये संस्करण (सन् १९८४ ई०) __ की पृष्ठ संख्या भी दे रहा हूं। प्रत्येक सन्दर्भ के प्रारम्भ में ( ) कोष्ठक में दी गई पृष्ठ संख्या 'पाणिनिः ए सर्वे प्राफ रिसर्च' अन्य की है । सन्दर्भ में किसी शब्द के ऊपर दी गई संख्या उनकी टिप्पणी की संख्या है। उस टिप्पणी का पाठ भी उस ५ उस सन्दर्भ के प्रागे ही ग्रन्थ की पृष्ठ संख्या देकर दे दिया है। टिप्पणी वाले संदर्भ के प्रारम्भ में तीन संख्याएं हैं । प्रथम ( ) कोष्ठक में निर्दिष्ट Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां परिशिष्ट १०७. संख्या उस सन्दर्भ के पृष्ठ की है, जिस पर टिप्पणी लिखी है। दूसरी संख्या टिप्पणी की है और तीसरी ( ) कोष्ठक में निर्दिष्ट संख्या उनके ग्रन्थ के उस पृष्ठ की है जिसमें वह टिप्पणी छपी है। इसी प्रकार मेरे अभिमत का निर्देश करके ( ) कोष्ठक में जो संख्याएं दी हैं उनमें प्रयम प्रकाशन काल के निर्देशार्थ है । दूसरी संख्या ग्रन्थ के भाग को निर्शित करती है और तीसरी संख्या उस भाग के पृष्ठ की है । जहां एक, ही संख्या है, वह ग्रन्थ के प्रकाशन काल की है। १. (पृष्ठ १३९-१४०)-अाज तक लिखा गया संस्कृत वैया करणों का सब से अधिक पूर्ण इतिहास युधिष्ठिर मीमांसक का है। (१९७३), जिस में कालक्रम तथा ग्रन्थपाठ सम्बन्धी सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर पूर्ण प्रमाणों के साथ विचार किया गया है। यह उपयोगी एवं सुव्यवस्थित सूचना का आकर है।' हिन्दी में संस्कृत व्याकरण का अन्य इतिहास सत्यकाम वर्मा (१९७१) का है जो उतना प्रमाणपूर्ण नहीं है जितना युधिष्ठिर मीमांसक का ग्रन्थ है । युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा अपने इतिहास के पूर्व संस्करण में प्रतिपादित मान्य तात्रों से वर्मा प्रायः सहमत नहीं है और यु० मी० ने अपने आधुनिकतम संस्करण में इन शङ्काओं का समाधान करने का प्रयत्न किया है। २. (पृ० १३९) टि० १ पृ. ३१५ -युधिष्ठिर मीमांसक ने पाणिनि तथा अन्य प्राचीन ग्रन्थकारों को अत्यन्त प्राचीन तिथियों में २० स्थापित किया है, जो सार्वलौकिक स्वीकृति के योग्य नहीं हैं । उनकी अतिराष्ट्रवादी भाषा में, पाश्चात्य भाषाविदों की प्रत्यालोचना (१९७३ : १ : १४१) और भारतीय मान्यताओं तथा पाश्चात्य एवं तदनुयायियों की मान्यताओं के विरोध प्रतिपादन पर उनका आग्रह सर्वथा उपेक्षितव्य है। ३. (पृ० १४६)-आपिशलि काश्यप, गार्ग्य, गालव, चक्रवर्मन्, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक, स्फोटायन । इन के विषय में सर्वाधिक पूर्ण, जानकारी का सर्वेक्षण यु० मी० (१९७३ : १ १३४० ७७£) में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत सं० में पृष्ठ १५ । प्रस्तुत सं० पृष्ठ १४६-१९२।। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४. (पृ० १४७) टि०३० (पृ० ३१८)-वस्तुतः पतञ्जलि सूत्र को उद्धृत नहीं करता, जिसको उत्तरवर्ती टीकाकारों ने 'धेनोरनञः' के रूप में उद्धत किया है। इस तथा प्रापिशलि के अन्य सूत्रों के लिए, जो टीकानों में उद्धृत हैं, देखो यु० मी० (१९७३ : १ : ५ १३९-४०६)। ५. (पृ० १४७) टि० ३१ (पृ० ३१८)-शाकटायन के तथाकथित अन्य विचारों के लिए देखो यु० मी० ( १९७३ : १ : १६४-६७*)। ६. (पृ० १४७)-कात्यायन और पतञ्जलि भी पूर्व व्याकरणों २० के लिए पूर्वसूत्र शब्द का प्रयोग करते हैं। देखो कीलहान, यु० मी० (१९७३ : १ : २४१%)। ____७. (पृ० १४८)-टि० ३४ (पृ० ३१८)-रघुवीर (१९३४) तथा यु० मी० सम्पादित (१९६७/८) । वान नूतेन (१९७३) द्वारा पुनः प्रकाशित । नतेन का ग्रन्थ, जिसमें यु० मी. उल्लिखित नहीं, १५ यु० मी० संस्करण की अपेक्षा घटिया है। उदाहरणार्थ-प्रारम्भ में सूची है। यु० मो० के ग्रन्थ में (१९६७।८ : १३.) अंशतः पाठ है-'स्थानमिदं करणमिदं प्रयत्न एष द्विधानिलः स्थानं पीडयति ।' नूतेन का पाठ है-"प्रयत्न एष द्विधानिलस्थानं पीडयति' । ८. (पृ० १४८)-यु० मी० (१९६७।८ : भूमिका, पृ० २-४, २० १९७३:११४४-४५१) सिद्ध करते हैं कि यह पाठ [अर्थात् प्रस्तुत सं० पृष्ठ १५१-१५२।। * प्रस्तुत सं० पृष्ठ १७८-१८१। . * प्रस्तुत सं० पृष्ठ २६०-२६१॥ * यह पृष्ठ संख्या 'शिक्षा-सूत्राणि' की है। सन्दर्भ के प्रारम्भ में डा० रघुवीर का नाम निर्दिष्ट होने से विदित होता है कि श्री जार्ज कार्डोना का आपिशलिशिक्षा के पाठ की ओर संकेत है। परन्तु शिक्षासूत्राणि की जो पृष्ठ संख्या १३ दी है, उस पर पाणिनीय शिक्षा का पाठ है। प्रापिशलिशिक्षा में यह पाठ पृष्ठ १ पर है। हमारा विचार है-१३' निर्देश के स्थान पर '१:३' निर्देश होना चाहिये । १ संख्या पृष्ठ की है और ३ संख्या सूत्र की। + यहां पृष्ठ संख्या २-४ 'शिक्षा-सूत्राणि' की भूमिका की है। दूसरी ३० संख्या सं० व्या० शास्त्र के इति० की है। द्र० प्रस्तुत सं० पृष्ठ १५७-१५८ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां परिशिष्ट १०६ आपिशलशिक्षा] पाणिनि-उल्लिखित प्राचीन वैयाकरण आपिशलि की कृति है। जहां तक मैं समझता हूं, ऐसा कोई ठोस साक्ष्य नहीं है जो इसे अन्यथा सिद्ध कर सके। ___E. (पृ० १४८) टि० ३५ (पृ० ३१८)-वान् नूतेन (१९७३: ४०६) भी इस पाठ को प्राचीन समझता है। मैं कहता हूं 'जो इसे ५ अन्यथा सिद्ध कर सके', क्योंकि इस पाठ में ऐसे प्रयोग हैं जिन से मुझे सन्देह होता है कि ग्रन्थ उतना प्राचीन नहीं है जितना घोषित किया गया है। इस प्रकार १.१७-१८ में एत् ऐत प्रोत् प्रौत् (यु० मी० १९६७।८ : २) शब्द प्रयुक्त हैं जो ए ऐ ओ औ के सङ्केत हैं। कात्यायन तथा पतञ्जलि (कीलहान-१८८०-८५ : १:२२.१-२४) १० ने इन स्वरों के तपर-प्रतपर-करण पर विचार किया है। यह सन्देह सम्भव है कि आपिशलि शिक्षा ने महाभाष्य में विचारित विकल्प में से एक को ग्रहण कर लिया हो । परन्तु मैं सम्प्रति इसे सिद्ध नहीं कर सकता। १०. (पृ० १४८)- यु० मी० १९६७/८ : भूमिका पृ० ८६, १५ १९७३ : ३ : १६४-६५) ने सुझाव दिया है उणादि सूत्रों का पञ्चपादी पाठ भी आपिशलि प्रोक्त है। उन के हेतु अग्रोक्त हैं-प्रापि० शि० में अनुनासिकों का क्रम है : (१) अ म ङ ण न । पाणिनीय कात्यायन और पतञ्जलि ने ए ऐ ओ औ' के तपर-प्रतपर-करण पर जो विचार किया है वह कल्पनामात्र नहीं है। अपितु जैसे अतपर-करण २० पाणिनीय प्रत्याहार सूत्र में है वैसे ही तपरकरण भी कहीं निर्दिष्ट होना चाहिये। आपिशलशिक्षा में तपरकरण दृष्ट होने से यह संभावना होती है कि प्रापिशल के प्रत्याहार सूत्र का पाठ 'एत प्रोत ऐत प्रौत् च' रहा होगा। उसी को ध्यान में रखकर कात्यायन और पतञ्जलि ने तपर-अतपर-करण पर विचार किया है। आपिशिलशिक्षा में तपरकरण तत्कालमात्र वर्ण के ग्रहण, (द्र० २५ अष्टा० ११११७०) के लिये नहीं है अपितु मुखसुखार्थ अथवा सन्ध्यभावार्थ है। श्री जार्ज कार्डोना भूमिका पृष्ठ ८' द्वारा मेरे किस ग्रन्थ की भूमिका का निर्देश किया है यह ज्ञात नहीं हो सका। इसी के आगे १९७३, ३, १६४-६५' पृष्ठ संख्या का निर्देश है । यह मं० व्या० शास्त्र का इतिहास' के दूसरे भाग की पृष्ठ संख्या है यहां भाग ३' के स्थान पर २' होना चाहिये। ३० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास - शिव सूत्रों में भी यही क्रम है । परन्तु सूत्रात्मक पाणिनीय शिक्षा में इन का क्रम है— (२) ङ अ ण न म । यह सामान्य स्थानक्रमानुसार है : कण्ठ्य - तालव्य-मूर्धन्य दन्त्य - श्रोष्ठ्य । क्रम ( २ ) को प्रत्याहार 'अम्', बनाने के लिए क्रम ( १ ) में परिवर्तित कर दिया गया होगा । ५ यह प्रत्याहार उणादि सूत्रों (पञ्चपादी १.११३ ) में प्रयुक्त हुआ है । यह मानते हुए कि पाणिनीय शिक्षा का सूत्रपाठ पाणिनि-कृत है, तो यु० मी० निष्कर्ष निकालते हैं कि क्रम (१) जो शिवसूत्रों में उपलब्ध है, मूलतः प्रपिशीय है जिससे पाणिनि ने ग्रहण किया है । अपि च, यतः 'अम्' प्रत्योहार उणादिसूत्रों में प्रयुक्त हुआ है और ( २ ) का १० (१) में परिवर्तन करने का मात्र हेतु यह प्रत्याहार बनाना ही था, अतः प्रकृत उणादि सूत्र प्रापिशलि का ही होना चाहिये । इसके प्रतिरिक्त, उणादिसूत्रों का दशपादी पाठ पञ्चपादी पर प्रधृत है जो प्राचीन है । अतः पञ्चपादी प्रापिशलि का कहा जाना चाहिये । यु० मी० ० (१९७३ : ३ : १६५६ ) स्वीकार करते हैं - 'यह हमारा १५ अनुमान मात्र है । और वास्तव में जिस साक्ष्य पर यह निष्कर्ष प्रावृत है, वह क्षुद्र है। वस्तुतः मैं नहीं समझता कि यह साक्ष्य इस निष्कर्ष को सिद्ध करता है । क्रम (१) शिवसूत्रों में है, परन्तु क्रम (२) उस ग्रन्थ में विद्यमान है जिसका कर्ता विवादास्पद है, इतने मात्र से तत्काल यह स्वीकार करना सन्दिग्ध तथ्य है कि पूर्ववर्ती का ऋणी २० होगा, जब कि वह अनेक सूत्रों में विद्यमान है जो स्पष्टतः पाणिनि के कहे जाते हैं । अपि च, उपर्युक्त हेतु का आधार यह कल्पना है कि (२) का ( १ ) में परिवर्तन के 'म्' प्रत्याहार को बनाने के लिए है । परन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि क्रम (१) को स्वीकार करने का केवल यही कारण है । पाणिनि ने (२) क्रम को इसलिए बदला कि 'प्रत्य - २५ ङ्ङास्ते, कुर्वन्नास्ते' जैसे रूप सिद्ध हो सकें ( ८ ३.३२, ङमो ह्रस्वाद० से) और 'त्वम् प्रासे' जैसे रूपों में उस श्रागम की व्यावृत्ति हो सके जहां ह्रस्व अच् से उत्तर मकार विद्यमान है। ह्रस्व से उत्तर ङ ण-न, उन से परे अच् को प्राद्य आगम के विधान तथा त्र - म से उत्तर उसके प्रतिषेध के लिए पाणिनि को अनुनासिकों के क्रम में परिवर्तन करना 1 ३० £ यहां भी पूर्ववत् भाग निर्देश में भुल है । द्र० पूर्व पृ० ११०, टि० कु का $ उत्तरार्ध । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ नौवां परिशिष्ट पड़ा जिस से 'ङम्' प्रत्याहार से 'ङणन' का ग्रहण किया जा सके। इस प्रकार उल्लिखित मूल कल्पना अनावश्यक प्रतीत होती है, तो उपयुक्त हेतु की शक्ति क्षीण हो जाती है।। ११. (पृ० १५१)- यु० मी० (१९७३ : १ : ८०-८८*) ने इन्द्र के काल", उसके व्याकरण तथा तमिल व्याकरण पर उसके ५ प्रभाव पर विचार किया है। १२. (पृ० १५१)-टि० ३७ (पृ० ३१९)-जिसको उन्होंने १०००० वर्षे ई० पू० स्थापित किया है। १३. (पृ० १५१-१५२) यु० मी० १९६५/६ ए० बीक ने श्री जार्ज कार्डोना ने जिन प्रयोगों की सिद्धि के लिये पाणिनीय प्रत्या- १० हार सूत्र में 'न म ङ ण न' क्रम परिवर्तन को आवश्यक बताया है उन प्रयोगों की सिद्धि तो आपशलि प्राचार्य को भी करनी इष्ट थी। प्रापिशलि के शब्दानुशासन में प्रत्याहारों का निर्देश था, यह हमने आपिशलि के प्रकरण में विस्तार से दर्शाया है (द्र ० भाग १, सं० ३, पृष्ठ २४५; सं० ४, पृष्ठ १५६ में सृष्टिघर द्वारा उदधृत प्रापिशल-वचन) । प्रापिशलशिक्षा में वर्गक्रम का परित्याग १५ करके अमङणनमाः स्वस्थाननासिकास्थनाश्च (प्रा०शि०१।१६) में जो वर्णक्रम पढ़ा है वह इस बात का सुदृढ़ प्रमाण है कि आपिशलि के व्याकरण में 'जमङणनम' प्रत्याहार सूत्र था। शब्दानुशासन के पश्चात शिक्षा का प्रवचन किया होगा, अतः उसमें भी आपातत, वर्गक्रम का वैपरीत्य सम्भव हो गया । अन्यथा आपिशलशिक्षा में वर्गक्रम के वैपरीत्य का कारण वादी को दर्शाना होगा। २० इस दृष्टि से हमारे हेतु की शक्ति क्षीण नहीं होती। पुनरपि पञ्चपादी उणादिपाठ के साक्षात् प्रापिशलि प्रोक्त प्रमाण उपलब्ध न होने से हमने स्पष्ट लिख दिया कि 'यह हमारा अनुमानमात्र है'। हम प्रमाणरहित कल्पना को अनृतभाषणवत् परित्याज्य समझते हैं। यह श्रेय तो अधिकतर उन पाश्चात्यों को ही प्राप्त है, जो वैदिक वाङमय की गरिमा का मूल्याङ्कन न करके उसे ५ 'गडरियों के गीतों' के समान हेय बताने के लिये प्रयत्नशील रहे हैं। * प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ ८७-६६ । * काशकृत्स्न के प्रकरण में 'सन् १९६५/६' के आगे 'बी' और 'ए' संकेत दिये हैं। इनमें से ए' का अभिप्राय हमारे द्वारा काशकृत्स्न धातुपाठ की कन्नड टीका के संस्कृत रूपान्तरित संस्करण से है । और 'बी' का उसकी ३० भूमिका से है। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास काशकृत्स्न के कहे जाने वाले सन्दर्भांशों का सङ्कलन योग्यतापूर्वक किया है और उनकी व्याख्या रची है । ... यु० मी० ( १९६५ / ६ ए) ने टीका का संस्कृत में अनुवाद किया है । इस विद्वान् ( १९६५ / ६ बी : भूमिका पृ० ११, १६७३ : १ : १११-१४१) ने इस काशकृत्स्न को पाणिनि से पूर्ववर्ती समझने के लिए ग्यारह हेतु भी उपस्थित किये हैं । मैं यहां उन में से कुछ पर विचार करता हूं, जिन को मैं प्रबलतम समझता हूं । [ ० १,२,४,५ का सारांश ] ...... मैं नहीं समझता कि ऐसे हेतु इस बात (पूर्ववर्तित्व) को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं। गणपाठ में काशकृत्स्न का पाठ इस से अधिक सिद्ध नहीं १० करता कि पाणिनि काशकृत्स्न के व्याकरण से परिचित था, जैसे उस में यास्क की उपस्थिति सिद्ध करता है कि पाणिनि यास्क के तिरुक्त को जानता था । जहां वेदान्तसूत्र का सम्बन्ध है, अभ्युपगमवाद से यह स्वीकार करते हुए कि वे अपने वर्तमान रूप में पाणिनि से पूर्वकालिक हैं, जिसे सब विद्वान् स्वीकार नहीं करेंगे, इस से यह अनुगत १५ नहीं होता कि उन में उल्लिखित काशकृत्स्नं वही है जिस वैयाकरण प्रकृत ग्रन्थों की रचना की थी । पतञ्जलि के कथन के विषय में, इससे प्रकट होता है कि पतञ्जलि किसी प्राचीन प्राचार्य काशकृत्स्न द्वारा प्रोक्त व्याकरण से परिचित था, परन्तु इससे यह प्रदर्शित नहीं होता कि जो पाठ हमारे पास हैं वे पाणिनि से पूर्वकालिक हैं । २० अन्त में धातु पाठ सम्बन्धी हेतु सामान्य तथा स्पष्ट है। + प्रस्तुत सं० पृष्ठ १२१,१२५ । २५. $ श्री जार्ज कार्डीनो ने यह तो लिख दिया कि पतञ्जलि किसी प्राचीन आचार्य द्वारा प्रोक्त व्याकरण से परिचित था' परन्तु हमने पृष्ठ १०८ ( प्रस्तुत सं० पृष्ठ ११८) पर लिखा है पतञ्जलि ने काशकृस्नि आचार्य प्रोक्त मीमांसा का असकृत उल्लेख किया है । महाकवि भास ने यज्ञफल नाटक में काशकृत्स्न मीमांसा शास्त्र का उल्लेख किया है' (मूल पाठ नीचे टि० में दिये हैं) की ओर ध्यान नहीं दिया । सम्भव है जार्ज कार्डीना को काशकृस्नि और काशकृत्स्न, जो भारतीय इतिहास के अनुसार (पाणिनि और पाणिन के समान ) एक ही व्यक्ति के नाम हैं, स्वीकार्य न होंगे। यदि ऐसा है तो यह उनके गहन अनुशीलता के अभाव का द्योतक है । वस्तुतः वेदान्त दर्शन में स्मृत काशकृत्स्न मीना प्रवक्ता का शकृस्नि अपरनाम काशकृत्स्न ही है । भारतीय इतिहास में ३० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/१५ नौवां परिशिष्ट ११३ १४. (पृ० १५२)-टि०३६ (पृ० ३१९)-यु० मी० (१९६५/ ६ बी) ने उन पाश्चात्य विद्वानों पर कुछ कठोरता से आक्रमण किया है जो काशकृत्स्न धातुपाठ की प्राचीनता को स्वीकार नहीं करते । वे कहते है (१९६५/६ बी : २२)-'पाश्चात्यानां विदुषां " "उक्त्वापत्वपन्ति ।' उन्होंने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि ५ कातन्त्र धातुपाठ काशकृत्स्न धातुपाठ का संक्षेप है; यु० मी० (१६७३ : २ : २६-३२६) भी देखें। १५. (पृ० १५४-टि० ४४ (पृ० ३१९)-यु० मी० (१९७३ : १ : २२०-२२१) का भी मत है कि पाणिनीय व्याकरण के तीन पाठ थे : पूर्व-पाठ जो काशिका वृत्ति का प्राधार था, उत्तर-पाठ जिस पर १० क्षीरस्वामी तथा अन्य कश्मीरियों ने टीका की तथा दक्षिण-पाठ जिस पर कात्यायन ने अपने वात्तिकों की रचना की। वे यह भी मानते हैं कि इन पाठों में से प्रत्येक का वृद्ध एवं लघु पाठ था । १६. (पृ० १५४-१५५)-ये परिवर्तन हैं-योगविभाग, शब्दपरिवर्तन, शब्द-परिवर्धन, सूत्र-परिवर्धन ।' प्रायः विद्वान कीलहान १५ के निष्कर्षों को स्वीकार कर चुके हैं, उदाहरण--स० क० वेल्वाल्कर, रेणु, कपिलदेव । परन्तु यु० मी० (१९७३ : १ : २१६-२०१) यह कहते हुए वैमत्य प्रकट करते हैं कि ये परिवर्तन काशिका के रचयिताओं द्वारा कृत नहीं कहे जा सकते, किन्तु उन बहुत पूर्ववर्ती वैयाकरणों तक जाने चाहियें। उन्होंने चार साक्ष्य (१९७३ : १ : २० जहां समान नामवाले अनेक व्यक्ति होते हैं वहां भेद-परिज्ञान के लिये कोई विशेषण अवश्य लगाया जाता है। यतः वैयाकरण काशकृत्स्न और वेदान्तसूत्रोद्धृत काशकृत्स्न में नाम के साथ कोई भेदक विशेषण नहीं है, अत: दोनों ग्रन्थों में स्मृत एक ही व्यक्ति है । यह निर्विवाद है। . प्रस्तुत सं० पृष्ठ ३०-३३॥ प्रस्तुत सं०, पृष्ठ २३७ २३६ । * यदि किन्हीं विद्वानों ने कीलहान के निकर्षों को विना परीक्षा परप्रत्ययनेय बुद्धि से स्वीकार कर लिया हो, तो अन्यों को भी स्वीकार कर लेना चाहिये, यह कोई हेतु नहीं। प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ २३४-२३७ । २५ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २१६-१८) यह प्रदर्शित करने के लिए दिये हैं कि काशिका के रचनाकारों ने स्वयं महाभाष्य में कथनों के आधार पर ऐसे परिवर्तन नहीं किये । इन में से पहले पर विचार करें। काशिका ३।३।१२२ सूत्र पाठ है-अध्यायन्यायोद्यावसंहाराधारावायाश्च । परन्तु मूल सूत्र रहा होगा-अध्यायन्यायोद्यावसंहाराश्च, आधार एवं आवाय से रहित । ३।३।१२१ सूत्र पर कात्यायन अपने वात्तिक में सुझाव देता है कि घत्र विधायक सूत्र में 'अवहार, आधार, आवाय' का भी उपसंख्यान करना चाहिये । स्पष्ट है, काशिका इस सूत्र में अवहार का संग्रह नहीं करती। इसके बजाय 'च' से अनुक्त का संग्रह किया जाता १० है जिस से अवहार सिद्ध हो जाता हैं । कीलहान ने केवल यह कहा है कि 'अष्टा० ३।३।१२२ में मूलतः आधार तथा आवाय शब्द नहीं थे, जो पिछले सूत्र पर कात्यायन के वात्तिक से प्रविष्ट किये गये। दूसरी ओर यु० मी० (१९७३ : १ : २१६-१७*) का हेतु है कि कात्यायन के ग्रागर पर काशिका प्रक्षेप नहीं कर सकती थी, क्योंकि १५ परिवर्धन ठीक वही नहीं है जिसका सुझाव वात्तिक में दिया गया है। इस हेतु की शक्तिक्षीण हो जाती है, यदि कोई यह स्वीकार करता है कि काशिका चन्द्रगोमी के व्याकरण से प्रभावित है। चन्द्रगोमी के सूत्र १।३।१०१ पर वृत्ति में ठीक वे ही शब्द अध्याय न्याय उद्याव सहार आधार आवाय दिये गये हैं जो काशिका सूत्र में हैं। टि० [मैं २० मानता हूं कि वृत्ति चन्द्रगोमीकृत है, जैसा कि प्रायः विद्वान् स्वीकार करते हैं । इस विषय को मैं यहां विविक्त नहीं कर सकता, इस विषय पर आधुनिकतम अध्ययन बिर्वे (१९६५) का है] य० मी० (१९७३: १:२१८-२०%) का हेतु है कि काशिका चान्द्र व्याकरण से प्रभा वित नहीं है। प्रकृत पाणिनीय सूत्र के सम्बन्ध में वे कहते हैं २५ (१९७३ : १ : २१८ . . ) कि चान्द्र व्याकरण में तत्सम सूत्र नहीं है, यद्यपि ३।३।१२१ पर कात्यायन के वात्तिक के कुछ शब्द वृत्ति में दिये गये हैं। इस हेतु की शक्ति क्षीण हो जाती है यदि कोई स्वीकार £ प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ २३४-२३५ । * प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ २३४-२३५॥ * प्रस्तुत संस्करण, २३५-२३७ । .. प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ २३६ (१) । ३० Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां परिशिष्ट करता है कि चान्द्रव्याकरण पर स्वयं चन्द्र ने वृत्ति की रचना की। यु० मी० (१९७३ : १ : ५७६-७७) स्वयं इस को स्वीकार करते हैं । यद्यपि यु० मी० के सम्पूर्ण हेतुओं के पूर्ण विमर्श की अनुमति स्थान नहीं देता, तथापि मैं यह कहना युक्त समझता हूं कि कीलहान के निष्कर्ष अस्वीकार्य नहीं प्रकट होते ।* इन उदाहरणों में साक्ष्य ५ £ प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ ६५४-६५५ । * हमने इस प्रकरण (पृष्ठ २१६-२२०;=प्रस्तुत सं० पृष्ठ २३४-२३७) में काशिकाकार ने चान्द्र व्याकरण के आधार पर पाणिनीय सूत्रपाठ में प्रक्षेप नहीं किये, इसमें ४ प्रमाण दिये हैं। उनमें से केवल प्रथम प्रमाण अध्यायन्यायोद्याव० पर ही श्री जार्ज कार्डोना ने कीलहान के निष्कर्षों.को प्रमाणित करने के लिये १० छुआ है । क्योंकि उन्हें कुशकाशावलम्ब-न्याय से चान्द्रवृत्ति में ठीक उन्हीं शब्दों का संग्रह मिल गया जिन का पाठ काशिका के उक्त सूत्र (३।३।१२२) में है। दोनों में अवहार का निर्देश नहीं है। परन्तु का?ना महोदय ने प्रमाण सं० २-३-४ को छुपा ही नहीं । पाठकों से हमारा अनुरोध है कि इन पर पुनः विचार करें (क) काशिका ३।१।१२६ का सूत्रपाठ है पासुयुवपिरपिलपित्रपिचमश्च । . चन्द्राचार्य का (१११११३३) का सूत्र है-पासुयुवपिरपिलपित्रपिचमिदभः । चन्द्र के सूत्रपाठ में वात्तिककारोक्त 'लपि' 'दभि' दोनों का पाठ है। काशिका के पाठ में 'दभि' का पाठ नहीं है । यदि चान्द्रसूत्र के आधार पर काशिकाकार ने 'लपि' का प्रक्षेप कर दिया तो 'दभि' को क्यों छोड़ दिया ? वस्तुतः यह चान्द्र सूत्रपाठ यह ज्ञापन करता है कि काशिकाकार द्वारा स्वीकृत सूत्र चान्द्र को प्राप्त था। उसमें वात्तिकोक्त दभि का निर्देश नहीं था, अत: उसने दभि को अन्त में सन्निविष्ट कर दिया। (ख) हमारा ३ संख्या का प्रमाण (पृष्ठ २३४-२३५) पर पुन: पढ़ें और हमारे हेतु पर विचार करें । वस्तुत: यहां भी वस्तुस्थिति पूर्ववत उलटी है। २५ चन्द्राचार्य के सन्मुख काशिकाकार वाला पाठ विद्यमान था, परन्तु उससे शकल कर्दम शब्दों से पक्ष में अण की प्राप्ति नहीं होती थी। इसलिये उसने उसके दो विभाग कर दिये 'लाक्षारोचनाट्ठक्, शकलकर्दमाद्वा' ( ३।१।१-२ )। यदि काशिकाकार को चान्द्र सूत्रों के अनुसार ही प्रक्षेप करना था तो उसे प्रथम सूत्र Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास स्पष्ट है । कात्यायन तथा पतञ्जलि को ज्ञात सूत्रपाठ काशिका में स्वीकृत पाठ से भिन्न है और कोई परिवर्तन के स्रोत को खोज सकता है । दूसरे अल्पप्रमाण सिद्ध प्रक्षेप सुझाये गये हैं। १७. (पृ० १५५)-टि० ५५ (पृ० ३२०)-ध्यान रहे कि ५ रा० शं० भट्टाचार्य-[बिर्वे द्वारा प्रत्याख्यात, स० बहुलिकर भी विर्वे से सहमत] ये ही उपाय यु० मी० (१९७३ : १ : २३०-३५) ने भी उपस्थित किये हैं। १८. (पृ० १६०)--यु० मी० (१९७३ : २ : १९५६) यद्यपि यह स्वीकार करते हैं कि शिवसूत्रों की रचना पाणिनि ने की, तथापि १० उन का सुझाव है कि इन में से एक सूत्र अर्थात् 'अमङणनम्', आपि शलि से लिया गया था। यह मत यु० मी० की इस मान्यता पर आधृत है कि पाणिनीय शिक्षा का सूत्रपाठ पाणिनिकृत है। परन्तु यह सन्दिग्ध हैं, देखें खण्ड ३.१.४ ४ बी (पृ० १७९-८२.)। १६. (पृ० १६१)-[धात्वर्थ-निर्देश] -इस विषय से सम्बद्ध १५ में लाक्षारोचनाशकलकर्दमाट् ठक् और शकलकर्दमादणपीष्यते ऐसा द्रविड़ प्राणायाम करने की क्या आवश्यकता थी ? . (ग) संख्या ४ का प्रमाण तो भेर्याघात के समान स्पष्ट घोषणा करता है कि काशिकाकार चान्द्रसूत्र वा उसकी वृत्ति का अनुसरण नहीं करता, अन्यथा वह काशिका ७।२।४६ में चान्द्रसूत्र में पठित तनि पति दरिद्रा धातुओं को सूत्र में पढ़कर 'केचिदत्र भरज्ञपिसनितनिपतिदरिद्राणाम्' इति पठन्ति लिखकर अपने सूत्र पाठ की शुद्धता की घोषणा न करता। इन सुदृढ़ प्रमाणों के विद्यमान होते हुए और उन पर यथोचित विचार न करके कीलहान की मान्यता की प्रामाणिकता का डिण्डिम घोष करने में जार्ज कार्डीना का क्या प्रयोजन है ? यह वे ही जानते होंगे। वस्तुतः कीलहान आदि सभी विद्वान् हरदत्त भट्टोजिदीक्षित आदि के अधिचारित रमणीय लेखों से प्रभावित थे। उन्होंने इस विषय में गहन अनुसन्धान ही नहीं किया। प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ २०८ । .. यह पृष्ठ संख्या पाणिनिः ए सर्वे आफ रिसर्च' ग्रन्थ की है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ नौवां परिशिष्ट मुख्य साक्ष्य यु० मी० ( १९७३ : २ : ५१-५८४ ) ने सुसंगृहीत किये हैं। (पृष्ठ १६१) टि० ८२ (पृ० ३२२-२३)-यु० मी० के संक्षिप्त संग्रह का संस्कृत रूपान्तर द्वारकादास शास्त्री (१९६४ : भूमिका पृ० ४-८) ने दिया है। २०. (पृ० १६२-१६३)-परन्तु यु० मी० (१९७३ : २ : ५४५८१) ने सिद्ध किया है कि अर्थयुक्त धातुपाठ पाणिनि प्रोक्त होना चाहिये । जिन हेतुओं को उन्होंने दिया है, उन में से अधिकांश मुझे मान्य नहीं। उन में से एक पर विचार करें । यु० मी० ने पतञ्जलि का कथन उद्धृत किया है-'वपिः प्रकिरणे दृष्टश्छेदने चापि वर्तते।' १० यु० मी० (१९७३ : २ : ५४१) टिप्पणी करते हैं कि 'दृष्ट' वर्तते' का पर्याय नहीं है और कहते हैं --'अतः यहां जिन धात्वर्थों को दृष्ट कहा जाता है, वे धातुपाठ में पठित हैं अथवा धातुपाठ में देखे गये हैं और जिन के लिए वर्तते का प्रयोग किया है, वे लोक में व्यवहृत हैं, यही अभिप्राय इस वचन का है। प्रकृत वाक्य से अनिवार्यतया यह १५ निष्कर्ष नहीं निकलता । प्रकरण है- क्या उपसर्गों का अपना स्वतन्त्र अर्थ है या धातुओं के, जो बह्वर्थ होती हैं, अर्थो के द्योतक हैं ? द्वितीय पक्ष को दिखाने के लिए धातुओं की एक सरणि उपस्थित की गई है । उदाहरणार्थ, कृ का अर्थ न केवल करना ही है अपितु निर्मली. करण एवं निक्षेपण भी है। अत: इस प्रकरण में प्रयुक्त 'दृष्ट' शब्द २० को केवल विशिष्ट अर्थों में दिखाई देने वाली धातुओं के संकेत के लिए प्रयुक्त हुआ माना जा सकता है, न कि अनिवार्यरूप से धातुपाठ में अर्थनिर्देशार्थ । परन्तु य० मी० (१९७३ : २ : ५४) द्वारा उद्धृत एक साक्ष्य ऐसा है जिसे सरलता से निरस्त नहीं किया जा सकता। पतञ्जलि ने १।३।७ के भाष्य में कहा है कि प्राचार्य पाणिनि ने कुछ २५ धातुओं को अर्थ-सहित पढ़ा है, जैसे उबुन्दिर निशामने, स्कन्दिर् गति ४ प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ५२-६० । प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ५५-६० । + प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ५६ । £ प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ५५। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शोषणयोः । इस सन्दर्भ पर उद्योत में नागेश की टिप्पणी है कि इस महाभाष्य सन्दर्भ से प्रकट होता है कि प्रोचीन धातुपाठ में कुछ धातुएं वस्तुतः अर्थसहित पढ़ी गई थीं । और पतञ्जलि के उद्धरण धातुपाठ के अर्वाचीन पाठों में धातुओं एवं अर्थों के निर्देश प्रकार के अनुरूप है। लिबिश ने इस पर ध्यान दिया था और हस्तलेख के पाठ के आधार पर सुझाव दिया था कि 'निशामने', 'गतिशोषणयोः' सप्तम्यन्तरूप पश्चात्-कालिक अर्थ हैं जो महाभाष्य के पाठ में प्रविष्ट हो गये हैं। २१. (पृ० १६४)-केवल आधुनिक विद्वान् ही यह सुझाव नहीं १० देते कि धातुपाठ पाणिनि प्रणीत नहीं है। जिनेन्द्रबुद्धि भी ऐसा ही कहता है । यु० मी० (१९७३ : २ : ४३-५१) ने उपर्युक्त सन्दर्भ दिये हैं और प्रतिहेतु उपस्थित किये हैं। २२. (पृ० १६५)-यु० मी० (१९७३ : २ : १४१-४६१) ने गणपाठ के पाणिनि प्रोक्तत्व के पक्ष-विपक्ष में हेतुओं को लिया है १५ और निष्कर्ष निकाला है कि यह पाणिनि प्रोक्त है। मैं इस निष्कर्ष से सहमत हूं। २३. (पृ० १७०)-यु० मी० (१९४३ : भूमिका पृ० २९४; १९७३ : २ : २२६-३१*) ने यह दिखाने के लिए साक्ष्य उपस्थित किया है कि दशपादी पाठ पञ्चपादी से उत्तरवर्ती है और वस्तुतः उसी पर आधृत है । मैं समझता हूं कि यह साक्ष्य स्वीकरणीय है। ___२४. (पृ० १७३) -यु० मी० (१९४३ भूमिका पृ० ११,२६१) ने अपने पूर्व ग्रन्थ में स्वीकार किया है कि वे उणादि सूत्र के प्रवक्ता का निश्चय नहीं कर सके । पश्चात् उन्होंने मत व्यक्त किया (१९७३ : $ हम लिबिश के मत से सहमत नहीं, क्योंकि यह पाणिनीय परम्परा के ५ विरुद्ध है । द्र० प्रस्तुत सं० पृष्ठ ५६-६० । £ प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ ४४-५२। । प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ १५२-१५८ । ४ यह दशपाधुणादिवृत्ति की भूमिका की पृष्ठ संख्या है। * प्रस्तुत संस्करण भाग २, पृष्ठ २४५-२४७ । * यह दशपाधुणादिवृत्ति की भूमिका की पृष्ठ संख्या है। । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां परिशिष्ट ११६ १ : १४४, २ : २०११) कि पञ्चपादी प्रापिशलि प्रोक्त है तथा दशपादी स्वयं पाणिनि प्रोक्त । परन्तु यु० मी० स्वीकार करते हैं कि यह केवल मत है। २५. (पृ० १७६)- परन्तु कपिलदेव शास्त्री और यु० मी० (१९७३ : २ : ३१७६) ने एक साक्ष्य प्रस्तुत किया है जो उन के ५ मतानुसार फिट् सूत्रों को पाणिनि से पूर्ववर्ती स्थापित करता है । वह है-पाणिनि का प्रत्याहार सूत्र 'ऐ ौ च' च अनुबन्धयुक्त है। चन्द्रगोमी के १३ वें प्रत्याहार सूत्र पर वृत्ति कहती है कि पूर्व व्याकरण में इसके स्थान पर 'ऐ औ ष' ष-अनुबन्धयुक्त सूत्र था। उदाहरण हैं-फिट २।४; २।१६ जिन में द्वयष्, बह्वः प्रयुक्त हुए हैं १० जो पाणिनि द्वयच, बह्वच के समान हैं । यह उदाहरण फिट के पाणिनि-पूर्ववर्तित्व विषयक सन्देह को दूर कर देता है। परन्तु न तो क० दे० शास्त्री ने, न ही यु० मी० ने कीलहान प्रदत्त साक्ष्य के साथ इस का समन्वय किया है। [कील०-फिट लुबन्तस्योपमेयनामधेयस्य (२।१६) पाणिनीय लुम्मनुष्ये (५।३।६८) को पूर्व कल्पित करके - १५ प्रवृत्त होता है] अपि च, इससे केवल यह प्रकट होता है कि चन्द्रगोमी ष्-अनुबन्ध को पूर्व व्याकरण में प्रयुक्त हुआ समझता है, इससे उक्त प्रतिज्ञा सिद्ध नहीं होती। कीलहान ने महा० ६।१।१२३ से निष्कर्ष निकाला है कि पतअलि न तो फिष संज्ञा को, न फिषोऽन्त उदात्त को जानता था। २० दूसरी ओर यु० मी० (१९७३ : २ : ३१५-१६%) महाभाष्य के प्रस्तुत संस्करण, भाग १, पृष्ठ १५७; भाग २, पृष्ठ २१५ । $ प्रस्तुत संस्करण, भाग २ पृष्ठ ३५१,३५२ । £ प्रतीत होता है कि कीलहान ने फिट्सूत्रों के चार पादों को ही स्वतन्त्र ग्रन्थ मानकर उक्त निष्कर्ष निकाला है । जब कि हम अपने इतिहास में अनेक २५ प्रमाणों ओर हेतुओं के आधार पर यह प्रामाणित कर चुके हैं कि फिट्सूत्र किसी बृहत्तन्त्र का एक देश है। ऐसी अवस्था में लुबन्तस्योपमेयनामधेयस्य (फिट् २०१६) को पाणिनि के लुम्मनुष्ये (५।३।६८) सूत्र पर आश्रित मानना किसी प्रकार भी उपपन्न नहीं हो सकता । अतः कीलहान का साक्ष्य साध्यसम है । इसके विपरीत हमारे मन्तव्य में किसी प्रकार का दोष नहीं आता। के प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ३५०-३५१ । ३० . Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उद्धरणों से स्थापित किया है कि पतञ्जलि फिटसूत्रों से परिचित था.. - मेरे (कार्डोना) मत में फिटसूत्र पाणिनि के उत्तरवर्ती हैं। पतञ्जलि ऐसे सूत्रों से परिचित था, सम्भव है वे ये ही हों या इनसे बहुत समान हों। २६. (पृ० १७८)-यु० मी० ( १९७३ : २ : २५६-५७* ) का मत है कि [लिङ्गानुशासन] पाठ पाणिनि प्रोक्त है। उन्होंने अपने मत के समर्थन में दो प्रकार के साक्ष्य दिये हैं-प्रथम, व्याख्याकार इस को स्वीकार करते हैं [पदमञ्जरी] । द्वितीय, महाभाष्य से उद्धरण, जिस से प्रतीत होता है कि पाणिनि प्रोक्त कहे जाने वाले १० लिङ्गानुशासन से कात्यायन तथा पतञ्जलि परिचित थे। कात्यायन (७।१।३३) अपने वात्तिक में कहता है-युष्मद् अस्मद् अलिङ्ग हैं, पतञ्जलि कहता है-अलिङ्गे युष्मदस्मदी। यु० मी० कहते हैं कि इस से प्रतीत होता है कि कात्यायन तथा पतञ्जलि लिङ्गानुशासन के सूत्र १८४ 'अव्ययं कति युष्मदस्मदः (अविशिष्टलिङ्गम्) से परिचित थे। मैं इन हेतुओं को स्वीकरणीय नहीं समझता। हरदत्त के कथन से लिङ्गानुशासन का पाणिनीय व्याकरण ग्रन्थ सहायक अङ्गत्व सिद्ध होता है, इसये स्वयं पाणिनि का लिङ्गानुशासन-कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता। महाभाष्य-सन्दर्भ से मात्र इतना द्योतित होता है कि कात्यायन एवं पतञ्जलि युष्मद्-अस्मद् के अलिङ्गत्व से परिचित थे। उनके कथन से किसी भी प्रकार न तो यह सिद्ध होता है कि वे किसी लिङ्गानुशासन से उद्धृत कर रहे हैं, न ही यह कि वे पाणिनीय व्याकरण से सम्बद्ध किसी विशेष लिङ्गानुशासन से परिचित हैं। * प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ २७६ । + हरदत्त का वचन है-अप्सुमनःसमासिकतावर्षाणां बहुत्वं चेति पाणि५ नीयं सूत्रम् । जार्ज कार्डोना ने इस का सीधा अर्थ स्वीकार न करके जो कल्पना की है, उसे कोई भी संस्कृतज्ञ विद्वान स्वीकार नहीं कर सकता । हरदत्त के उद्धरण को प्रामाणिक मानने वा न मानने में तो प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र हो सकता है, परन्तु हरदत्त के वचन की अन्यथा व्याख्या करना अनुचित है। यह कार्य वही कर सकता है जो पक्ष प्रतिपक्ष पर विचार न करके पहले से यह ३० स्वीकार कर ले कि लिङ्गानुशासन पाणिनीय नहीं है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/१६ नौवां परिशिष्ट २७. (पृ० १८०) टि० १३४ पृ० (३२६)-यु० मी० (१६६७। ८ : भूमिका पृ० ६६; १९७३:३:६३६) का सुझाव है कि पद्यात्मक शिक्षा सूत्रात्मक शिक्षा पर प्राधृत है । परन्तु उन्होंने कोई ठोस हेतु नहीं दिये। २८. (पृ० १८१)-यु० मी० (१९६७/८ भूमिका पृ० ७1) ने ५ भी घोष के आक्षेपों का उत्तर दिया है। परन्तु यहां उन्होंने अपने विस्तृत हेतु नहीं दिये । इस के स्थान में, उन्होंने एक लेख का संकेत किया है, जो सूझे सुलभ नहीं हो सका, जिस में उन्होंने घोष के कथन का मिथ्यात्व दर्शाया है। ___२९. (पृ० २४५) टि० ३४४ (पृ० ३४७)-राघवन (१९५०) १० ने रुय्यक के अलङ्कार सर्वस्व में प्रदीप के उद्धरण के आधार पर प्रदर्शित किया कि कैय्यट की उत्तरसीमा १०५० ई० है। यु० मी० (१९७३/१:३६३-६६t) ने कैय्यट के काल विषयक साक्ष्य पर विचार किया है और उसे संवत् १०६० (१०३३।३४ ई०) स्थापित । किया है । रेणु ने ११वीं शताब्दी को कैयट का उचित काल माना है १५ और यही सामान्यतः मान्य काल है। यह सम्भव है कि कैयट इससे कुछ प्राचीन हो। ३०. (पृ० २४५) टि० ३४७(पृ० ३४७)-यु० मी० (१९७३१ १:३५६-४३३४) ने महाभाष्य की टोका उपटीकाओं का विस्तृत विवरण दिया है। . ३१. (पृ० २६२) टि० ३९५ (पृ० ३५२)-यु० मी० (१९७३: १:२३६-४०; ३:८२-६२*) ने द्वितीय सन्दर्भ में पाणिनि कृत कहे + यह हमारे द्वारा सम्पादित 'शिक्षा-सूत्राणि' की भूमिका की पृष्ठ संख्या है। प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ संख्या ६३ ।। यह लेख पटना से प्रकाशित होने वाली 'साहित्य' नाम्मी पत्रिका के र सन १९५६ के अङ्क १ में छपा था। उसका शीर्षक है -मूल पाणिनीय शिक्षा' । शीघ्र प्रकाशित होने वाले 'वेदाङ्ग-मीमांसा' ग्रन्थ में यह लेख छपेगा। प्रस्तुत संस्करण, भाग १, पृष्ठ ४२०-४२४ । के प्रस्तुत संस्करण, भाग १, पृष्ठ ३८५-४७४ । * प्रस्तुत संस्करण, भाग १, पृष्ठ २५८-२५६; भाग ३, पृष्ठ ८२-६२। २० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जाने वाले जाम्बवती विजय काव्य से उपलभ्यमान सन्दर्भो को सुविधा पूर्वक संगृहीत किया है। ____३२. (पृ० २६५) टि० ४०५ (पृ० ३५३)-यु० मी० (१९७३: १:३३७-५०*) ने पतञ्जलि के काल का निर्धारण करने के लिए महाभाष्य तथा अन्य ग्रन्थों में प्राप्त लगभग सभी साक्ष्यों पर विमर्श किया है। वे स्वीकार करते हैं कि पतञ्जलि पुष्यमित्र का समकालीन था । परन्तु उनका मत है कि पुष्यमित्र कोल सामान्यतः स्वीकृत काल की अपेक्षा पर्याप्त प्राचीन है। [निष्कर्षः-इस प्रकार साक्ष्य पूर्णतः प्रमापक नहीं है, परन्तु १० गम्भीर विचार से यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि पतञ्जलि ई० पू० द्वितीय शताब्दी में विद्यमान था।] पृ० २६६।। ( [निष्कर्षः-पाणिनि, कात्यायन तथा पतञ्जलि के काल के लिए साक्ष्य पूर्णतः प्रमापक नहीं है और व्याख्या पर आश्रित है। परन्तु मैं समझता हूं कि एक बात निश्चित है और वह है कि उपलब्ध साक्ष्य १५ पाणिनि के काल को ई० पू० चतुर्थ शताब्दी के प्रारम्भ या मध्य के पश्चात् ले जाने की अनुमति नहीं देता । पृ० २६८१] [पाणिनि यास्क से पूर्ववर्ती है; थीमे आदि का यह मत सिद्ध नहीं। परन्तु पाणिनि-यास्क के पूर्वापरत्व के विषय में अभी निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता । पृ० २७२-७३६] २० ३३. (पृ० २८४)-भागवृत्ति का काल नवीं शताब्दी युक्त प्रतीत होता है, और कैयट कृत प्रदीप में विमलमिति के एक सम्भावित मत के संकेत (यु० मी० : १६६४/६५:१०-११) से इसको समर्थन मिलता है।६६ टि० ४६६ (पृ० ३५६)-यु० मी० (१९७३:१:४७१) ने २५ इससे पूर्वकाल का ग्रहण किया है :सं०७०२-७०५ (६५५-६५६ई०)। * प्रस्तुत संस्करण, भाग १, पृष्ठ ३६५-३७७ । यह पृष्ठ संख्या 'पाणिनि: ए सर्वे आफ रिसर्च' ग्रन्थ की है। + यह जार्ज कार्डेना का मत है। यह पृष्ठ संख्या हमारे द्वारा संकलित का प्रकाशित भागवृत्ति-संकलनम् ३० की है। £ प्रस्तुत संस्करण, भाग १, पृष्ठ ५१४.-५१५ । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां परिशिष्ट १२३ उन्होंने सृष्टिधर के इस कथन के आधार पर ऐसा माना है कि भागवृत्ति राजा श्रीधरसेन के आदेश पर रची गई। यह काल माघ के उद्धरण के साथ सङ्गत नहीं होता. जब तक माघ को सामान्यतः अभिमत की उपेक्षा करके प्रचीनतर न माना जाय । ३४. (पृ० २८६)-वर्धमान तथा हेमचन्द्र ने क्षीरस्वामी का ५ स्मरण किया है। यह स्थापित करता है कि क्षीरस्वामी, जैसा कि लीविश का सुझाव है, बारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ के पश्चात् नहीं रखा जा सकता। यु० मी० (१९७३:२।८६-६३६) ने प्रमाण प्रस्तुत किया है जिससे क्षीरस्वामी सं० ११०० (१०४३।४ ई०) पश्चात् नहीं रखा जा सकता। १० ३५. (पृ० २६६)-'वाक्यपदीय' शब्द का प्रयोग प्रथम दो काण्डों और 'त्रिकाण्डी' का प्रयोग सम्पूर्ण ग्रन्थ के लिए होता था ।५०१ टि० ५०१(पृ० ३६४)-अक्लुजकर ने उनके विपरीत प्रतिपादन किया है जो वाक्यपदीय शब्द को सम्पूर्ण ग्रन्थ के लिए प्रयुक्त मानते हैं और इस शीर्षक के प्रथम दो काण्डों के लिए प्रयोग की व्याख्या की १५ है। यु० मी० (१९७३:२:४००*) इस शीर्षक को केवल द्वितीय काण्ड के लिए मानते हैं, जो उनका पूर्व मत था, अपने इतिहास के इस भाग के प्रथम संस्करण में । अक्लुजकर ने ठोक कहा है कि इस मत को कोई समर्थन प्राप्त नहीं है। $ यहां लेखक का अभिप्राय माघ के 'अनुत्सूत्रपद न्यासा सवृत्ति: सनि- : बन्धना' (२।११२)श्लोक में टीकाकार द्वारा किये गये ‘पद का अर्थ महाभाष्य, न्यास का अर्थ जिनेन्द्रबुद्धि विरचित न्यास और सद्वति का अर्थ काशिका' अर्थों पर आधृत है। माघ कवि के पितामह के आश्रय-दाता महाराज वर्मलात का सं० ६८२ (सन् ६२५) का 'वसन्तगढ़' का शिलालेख प्राप्त हो चुका है (हपने इसका निर्देश भाग १, पृष्ठ ४६४; प्रस्तुत सं० ५०६ किया है)। अतः उसकी २५ विना परीक्षा किये 'सामान्यतः अभिमत काल' की रट लगाना शोध कार्य के अनुरूप नहीं है। पूर्व लेखकों ने जब माघ का काल सन् ८०० (सं० ८५७) स्थिर करने का प्रयल किया था, उस समय महाराज वर्मलात का वसन्तगढ़ का सं० ६८२ का शिलालेख प्राप्त नहीं हुआ था। ... प्रस्तुत संस्क०, भाग२,पृष्ठ ६४। * प्रस्तुत संस्क०भाग २,पृष्ठ४३७ । * इस से विदित होता है कि श्री जार्ज कार्डोना ने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र २० का इतिहास' के सन् १९७३ से पूर्व के संस्करणों का भी अवलोकन किया था। २० ३० Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां परिशिष्ट संशोधन परिवर्तन परिवर्धन २० प्रथम भाग पृ० १७, पं० ५ 'भ और' से आगे बढ़ावें - 'हकार से उत्तरवर्ती वकार का हुकार से पूर्व प्रयोग होने पर वकार को बकार ..... । इस पर टिप्पणी - हकार से उत्तरवर्ती म, यवल वर्णों का मराठी आदि भाषाओं में पूर्व प्रयोग देखा जाता है। हमारे विचार में हकारोत्तरवर्ती म, य, व, ल का हकार से पूर्व उच्चारण पाणिनि के समय में भी होने लग गया था ( लेखन में ये वर्ण हकार से उत्तर ही लिखे जाते १० हैं ) । उसी के आधार पर पाणिनि ने कि ह्यलयति' में हे मपरे वा ( प्रष्टा ० ८|३ | २६ ) सूत्र से 'किम ह्यलयति' में तथा वार्तिककार ने 'यवलपरे यवला वा' (महा० ८।३।२६) वार्तिक से कि ह्यः, कि 'यति, कि ह्लादयति' 'कियँ, ह्यः, किव् ह्वलयति, किल् ह्लादयति' नुनासिक का विधान किया है । म् य् व् ल् का हकार से १५ उत्तर प्रयोग होने पर इस प्रकार की सन्धि उपपन्न ही नहीं हो सकती क्योंकि अनुस्वार और म, य, व, ल के मध्य में हकार विद्यमान है । सभी सन्धियां स्वाभाविक उच्चारण के अनुसार होती हैं । हकार का मध्य में प्रयोग होने पर मकार और सानुनासिक य वल का उच्चारण सम्भव ही नहीं है । पृष्ठ ४३, पं० ३० प्रकाशित हो गया है' से आगे बढ़ावें - 'यह प्रयोग स्वामी ब्रह्ममुनि सम्पादित भारद्वाज विमान शास्त्र के पृष्ठ ७४ पर है ।' पृष्ठ ४७, पं० ४ से आगे नया सन्दर्भ बढ़ायें - ' इसी प्रकार तृतीयैकवचन 'टा' के टायाः टायाम् ( द्र० महाभाष्य प्रदीप ११११३६ ) प्रयोग देखा जाता है । यहां भी 'टा' प्रत्यय के प्रबन्त न होने से 'याद' काम प्राप्त नहीं होता है ।' २५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां परिशिष्ट १२५ पृष्ठ ५४, पं० १६ पृष्ठ ३८' के स्थान में 'पृष्ठ ३४ शोधें । पृष्ठ ६४, पं० १२ ' मिलता है' के आगे बढ़ावें - 'बृहस्पति ने नारद को सामगान का प्रवचन किया था - बृहस्पतिर्नारदाय ( साम ब्रा० ३।६।३) पृष्ठ ७८, पं० १२ १७. सुपद्म' से आगे बढ़ावें - ' १८० विनयसागर भोजव्याकरण (वि० सं० १६५० - १७०० ) ।' पृष्ठ ८७, पं० १७ 'उल्लेख है' के आगे बढ़ावें - 'ऋग्वेद की सर्वानुक्रमणी में ऋ० मं० १०, सू० ४७ तथा आगे के कुछ सूक्तों का ऋषि इन्द्र वैकुष्ठ मिलता है । तदनुसार इन्द्र की माता का एक नाम 'विकुण्ठा' भी विदित होता है ।' १० पृष्ठ ε१, पं० १६ 'सोमेश्वर सूरि' के स्थान में 'सोमदेव सूरि' होना चाहिये । पृष्ठ ९७, पं० ४ ' ( ८५०० वि० पू० ) ' के स्थान में ' (१५०० वि० पू० ) ' होना चाहिये । पृष्ठ ६८, पं० ३० 'शाकटायन की लघुवृत्ति' के स्थान में 'शाकटायन की अमोघा और लघुवृत्ति' इस प्रकार शोधें । पृष्ठ ११३: पं० १६ ‘कृछ्रम् इति' के आगे बढावें - ( द्र० भाग १, पृष्ठ १०१-१०२ ) पृष्ठ ११८, पं० १४ 'पूर्व निर्दिष्ट त्रिक' के स्थान में शोघें- 'पूर्व निर्दिष्ट (पृष्ठ ११६, पं० १२) त्रिकं । १५ २० पृष्ठ १३४, पं० १-६ के सन्दर्भ में सर्वत्र शन्तनु के स्थान में शान्तनव नाम होना चाहिये । फिट् सूत्र- प्रवक्ता के रूप में शन्तनु और शान्तनव दोनों नाम उपलब्ध होते हैं । इसके निर्णय के लिये इसी ग्रन्थ के द्वितीय भाग के पृष्ठ ३४६-३४६ देखें | वहां विस्तार से इस पर विचार किया है । २५ पृष्ठ १३६, पं० २८ 'व्याकरण परिशिष्ट, पृष्ठ ८२' के स्थान में 'व्याकरण लघुवृत्ति परिशिष्ट, ८२, तथा अमोघावृत्ति २०४ २२ गणपाठ ।' इस प्रकार पाठ शोधें । पृष्ठ १७१, पं० १६ - २० 'प्रपाणिनीयप्रामाणिकता' के स्थान में 'पाणिनीयप्रमाणता' नाम शोधें । ३० Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पृष्ठ १९९, पं० १४ (६७) इति परिभाषा । पृष्ठ ७०, के स्थान में शोधे-'(पिङ्गलसूत्र ३३३३) इति परिभाषा (७९)।' द्र० रामलाल कपूर ट्रस्ट संस्क०, पृष्ठ २६ । पृष्ठ २०१, पं० १२-१६ तक का सन्दर्भ (पैराग्राफ) कुछ अस्पष्ट है, उसे इस प्रकार पढ़ें डा. वर्मा का मिथ्या लेख-डा० सत्यकाम वर्मा ने अपने संस्कृत व्याकरण का उद्भव और विकास' ग्रन्थ के पृष्ठं १२६-१२८ पर कौत्स के सम्बन्ध में लिखते हुए मेरे नाम से मिथ्या अभिप्राय उद्धृत करके पालोचना की है। वे लिखते हैं-'मीमांसक एक नये परिणाम १० पर जा पहुंचे हैं। वे लिखते हैं -यास्क निरुक्त (१।१५) में कौत्स का उल्लेख करता है। महाभाष्य (३।२।१०८) के अनुसार कौत्स पाणिनि का शिष्य था-उपसेदिवान् कौत्सः पाणिनिम् ।' पुनः पृष्ठ १२७ पर लिखते हैं—'अतः मीमांसक की रीति से यास्क प्रोक्त कौत्स को पाणिनि का शिष्य सिद्ध करने में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि न होगी। १५ यदि कौत्स नाम अनेक का हो सकता है। तब पाणिनीय कौत्स अन्यों से पृथक ही क्यों न माना जाए ?' ____ पाठक हमारे पूर्व सन्दर्भ को ध्यान से पढ़ें। हमने कहीं पर भी यास्कोद्धृत कौत्स को पाणिनि-शिष्य कौत्स नहीं लिखा । हम तो निरुक्त गोभिल गृह्यसूत्र आदि ग्रन्थों में उद्धृत कौत्सों को पाणिनि१. शिष्य कौत्स से मुक्तकण्ठ से पृथक् मान रहे हैं । हमने स्पष्ट लिखा है. 'रघवंश के अतिरिक्त जिन ग्रन्थों में कौत्स उद्धृत हैं, वे सब पाणिनि से पूर्वभावी हैं इतना स्पष्ट निर्देश करने पर भी श्री डा० वर्मा ने यह कैसे लिख दिया कि 'मीमांसक दोनों को एक मानता है ?' प्रतीत होता है-डा० वर्मा को मेरा खण्डन करना मात्र अभीष्ट था, चाहे यथार्थ १ उद्धरण वा मत देकर करें, चाहे मिथ्या रूप से लिख कर । डा० वर्मा ने अपने ग्रन्थ में बहुत्र मेरे नाम से मिथ्या मत वा उद्धरण देकर खण्डन करके अपना पाण्डित्य प्रदर्शन किया है। पृष्ठ २५६, पं० २२ 'किया है' के आगे बढ़ावें-'पाणिनीयसूत्रात्मक शिक्षा के दोनों पाठों का प्रकाशन इस ग्रन्थ के तृतीय भाग ३० में ५३ परिशिष्ट में पृष्ठ ६२-८१ तक किया है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां परिशिष्ट १२७ पृष्ठ २५८, पं० २३ ‘अवश्य देखें' के आगे बढ़ायें-- 'जाम्बवती विजय के अद्य यावत् उपलब्ध वचनों का संग्रह हमने इसी ग्रन्थ के तृतीय भाग में ६ वें परिशिष्ट में पृष्ठ ८२-१२ तक किया है । पृष्ठ २७३, पं० १२ ‘गृह्य २।५' के स्थान में 'गृह्य २ ३' इस प्रकार शोधें । 1 पृष्ठ ३०३ में समुद्रगुप्त विरचित जिस कृष्णचरित के पद्यों को उदधृत किया है उस कृष्णचरित का उपलब्ध अंश हमने इस ग्रन्थ के तृतीय भाग में ७ वें परिशिष्ट में पृष्ठ १३ १०० तक छाप दिया है । पृष्ठ ३३६, पं० २१ के आगे निम्न सन्दर्भ बढ़ावेंक्या वार्त्तिककार पाणिनीय सूत्रों का खण्डन करता है ? वैयाकरणों का मत है कि बार्तिककार कात्यायन और महाभाष्यकार पतञ्जलि पाणिनि के अनेक सूत्रों वा सूत्रांशों का खण्डन करते हैं अर्थात् उनकी अनावश्यकता वा दुरुक्तता का निर्देश करते हैं । इसी दृष्टि से आधुनिक वैयाकरणों ने यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम् ऐसा वचन भी घढ़ लिया है (द्रष्टव्य महाभाष्यप्रदीपोद्योत १५ ( ३।१।८० ) । यहां यह विचारणीय है कि वार्तिककार को ऐसे दूषित पाणिनीय व्याकरण पर वार्तिक रचने की क्या आवश्यकता थी ? क्यों नहीं उसने स्वतन्त्र निर्दोष व्याकरण का प्रवचन किया ? तथा यदि भाष्यकार भी पाणिनीय सूत्रों का खण्डन करता है या उनमें दोष दर्शाता तो उसके तत्राशक्यं वर्णेनाप्यनर्थकेन भवितुम् (महा० १|१|१) तथा सामर्थ्ययोगान्नहि किञ्चिदस्मिन् पश्यामि शास्त्रे यदनर्थकं स्यात् ( महा० ६।११७७ ) आदि वचनों का क्या अभिप्राय है ? हमारा विचार है कि वार्त्तिककार कात्यायन और भाष्यकार पतञ्जलि ने जिन सूत्रों वा सूत्रैकदेशों का प्रत्याख्यान किया है वहां उनका अभिप्राय उनमें दोष दर्शाकर खण्डन करने वा निरर्थकता दर्शाने का नहीं है, अपितु उनका अभिप्राय उस उस सूत्र अथवा सूत्रैकदेश के विना भी प्रकारान्तर से प्रयोग सिद्धि दर्शाना मात्र है । वार्त्तिककार और भाष्यकार के इस महान् प्रयत्न से उत्तरवर्ती व्याकरण- प्रवक्ता चन्द्राचार्य ने बहुत लाभ उठाया है । यही प्रयोजन महाभाष्य के टीकाकार शिवरामेन्द्र सरस्वती ने महा० १।१।४ सूत्र के व्याख्यान में दर्शाया है । ३० वह लिखता है - २० १० Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अत्रेदमवधेयम्-लोलुवः पोपुवः इत्यादोनि प्रकृतसूत्रोदाहरणानि यानि वृत्तिकारर्दशितानि तानि सूत्रं विनापि साधयितुं शक्यन्ते इत्येतावन्मात्राभिप्रायेण 'अनारम्भो वा' इत्यादिभाष्यं प्रवृत्तम्, न तु सर्वथा सूत्रं मास्त्विति । अर्थात्-यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि वृत्तिकारों ने इस सूत्र के जो लोलुवः पोपुवः उदाहरण दिये हैं, वे सूत्र के विना भी सिद्ध किये जा सकते हैं। इतने ही अभिप्राय से अनारम्भो वा इत्यादि भाष्येप्रवृत्त हुआ है । सर्वथा सूत्र न होवे, इस प्राशय से प्रवृत्त नहीं हुआ है। १० इस विषय में विशेष विचार हमारे द्वारा विरचित महाभाष्य की हिन्दी व्याख्या भाग १, पृष्ठ २१५ तथा २८७ में देखें। पृष्ठ ३३८, पं० १८ 'संकेत किया है' इससे आगे बढ़ावें'कातन्त्र की दुर्गटीका २।२१५५; २।१५; ३।३।३१; ३।४।२३; ३।६।३; ३।८।१३ में पदकार के नाम से महाभाष्य के वचन उद्धत हैं १५ (द्र० कातन्त्रसूत्र विमर्श, पृष्ठ २७२) । __पृष्ठ ३६४, पं० ७-१२-इन श्लोकों के लिये तीसरे भाग के ७वें परिशिष्ट में पृष्ठ ६३-१०० तक छापा गया कृष्णचरित का उपलब्ध अंश देखें। पृष्ठ ३६४, पं० १६ 'सर्वथा काल्पनिक नहीं है' इसके आगे बढ़ावें-'इसके लिये पूर्व पृष्ठ ३६१ पर निर्दिष्ट 'शाखा वा चरण' शीर्षक लेख देखें। पृष्ठ ३८०, पं० १-२ में उद्धृत श्लोक का पाठान्तर इस प्रकार भी मिलता है कौमुदी यदि नायाति वृथा भाष्ये परिश्रमः । २५ कौमुदी यदि चायाति वृयाभाष्ये परिश्रमः। पृष्ठ ४३४, पं० १७ 'मध्य होगा के आगे बढ़ावें-'इस विषय में विशेष इस ग्रन्थ के १७८ अध्याय में 'वोपदेव' के प्रकरण में देखें। एक धनेश्वर ने सारस्वत व्याकरण पर क्षेमेन्द्र द्वारा लिखित 'टिप्पण' १. हमारा हस्तलेख, पृष्ठ २७३,२७४ तथा 'महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि' ३० (पाण्डिचेरी से मुद्रित) भाग १, पृष्ठ ३०६ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/१७ दसवां परिशिष्ट . १२६ पर 'क्षेमेन्द्र टिप्पण खण्डन' नामक ग्रन्थ लिखा है (द्र० 'सारस्वत के टीकाकार' प्रकरण, पृष्ठ ७०८) । पृष्ठ ४४४, पं० ६ 'सूचीपत्र भाग २, पृष्ठ ७४' इस पर टिप्पणी-यह सूचीपत्र इस समय हमारे पास नहीं है। लाहौर में देख कर भाग और पृष्ठ संख्या का निर्देश किया था। अडियार के वर्तमान ५ में उपलब्ध व्याकरण विभागीय सूचीपत्र में ग्रन्थ संख्या १३८, पृष्ठ ३८ पर गोपालकृष्ण शास्त्री विरचित 'शाब्दिक चिन्तामणि' का निर्देश मिलता है। पृष्ठ ४४४, पं० १३ ‘है।' के नीचे बढ़ावें'यह ग्रन्थ अधूरा ही रहा, इसकी पूर्ति गोपालकृष्ण शास्त्री १० के पुत्र ने की । द्र० अडियार व्याकरण विभागीय सूचीपत्र, ग्रन्थ संख्या १३८, पृष्ठ ३८, ३६ ।। ___ पृष्ठ ४४६, पं० 'लिखा है' पर टिप्पणी--'अडियार के व्याकरण विभागीय सूचीपत्र ग्रन्थ संख्या ५५६, पृष्ठ २१२ पर निर्दिष्ट 'विद्वन्मुखभूषण' के नवाह्निक के हस्तलेख के अन्त का पाठ इस प्रकार है- १५ इति प्रयागवेङ्कटाद्रिविरचिते महाभाष्यविद्वन्मुखभूषणे प्रथमाध्याये प्रथमे पादे नवाह्निकम् । पृष्ठ ४५१, पं० ७ 'नाम दत्तात्रेय है' के आगे बढ़ावें-भण्डारकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान पूना के उक्त हस्तलेख के अन्त का पाठ इस प्रकार है इति श्रीभगवद्गणे (श)प्रसादप्राप्तसत्प्रज्ञाभासुरविदुरशिरोमणिदत्रात्रेययूज्यपादशिष्य-व्याकरणार्णवकर्णधारगोलिंगोणि ( ? ) नामककमलाकरदीक्षितच [रण] समाराधनसमधिगतमहाभाष्याशयगूढतत्त्वस्य श्रीमत्सकलविद्यानिपुणान्तर्वाणि (सि ?) शिरोमणिमहागुरुनै लकण्ठिभट्टारकपादपरिचर्याध्वस्तसमस्ताज्ञानस्य भट्टसदाशिवस्य कृतौ गूढार्थ- २५ दीपिन्यामष्टमोऽध्यायः स [मा] प्तिमगात् । पितुरभ्यर्णमभ्यस्य भाष्यं भाष्यविदां मणिम्। . कमलाकरमासाद्य व्यधत्तेदं सदाशिवः ॥ उक्त विवरण के अनुसार सदाशिव भट्ट के पिता का नाम नीलकण्ठ था। इन्होंने अपने बड़े भाई नैलकण्ठि कमलाकर दीक्षित से ३० Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१३० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास महाभाष्य का अध्ययन किया था। कमलाकर के गुरु का नाम दत्तात्रेय था । सदाशिव ने कमलाकर की सहायता से महाभाष्य की व्याख्या लिखी थी।.. ..... . - इसी हस्तलेख के अन्य स्थान पर अन्त्य लेख है५ इति श्रीकमलाकरदीक्षितांतेवासि-शिवपण्डितविरचिते भाष्यव्या ख्याने द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ॥ ___ पृष्ठ ४७३, पं० २४ के आगे नया सन्दर्भ (पैरा) बढ़ावें-कातन्त्र के प्रख्यात भाग के सप्तम अष्टम पाद की दुर्गवत्ति की राम किशोर ने मङ्गला नाम्नी टीका रची थी।' इस मङ्गला टीका ३७६ १० में पदशेषकार स्मृत है।' __पृष्ठ ५६७, पं० १५ के आगे नया सन्दर्भ बढ़ावें--'नन्दन मिश्र कृत तन्त्रप्रदीपोद्योतन के ही दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य द्वारा निदिष्ट हस्तलेख के अन्त में न्यासोद्दीपन नाम से उल्लेख है। उन्हीं के लेखानुसार यह तन्त्रप्रदीप की व्याख्या है। इस अवस्था में यह विचारणीय हो जाता है कि दोनों हस्तलेखों में ग्रन्थकार नन्दनमिश्र के पिता के नामों में अन्तर क्यों है ? क्या यह सम्भव हो सकता है कि दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हो ? एक धनेश्वर जो वोपदेव का गुरु था, ने महाभाष्य पर चिन्तामणि नाम की व्याख्या लिखी थी। इसका उल्लेख पूर्व पृष्ठ ४३४ पर कर चके हैं । क्या धनेश्वर नाम के ही दो व्यक्ति हए अथवा तन्त्रप्रदीपोद्योतन तथा महाभाष्य की चिन्तामणि व्याख्या का लेखक एक ही धनेश्वर है ? भावी इतिहास लेखकों को इन पर गम्भीरता से विचार करना चाहिये।' पृष्ठ ५६८, पं० १५ से पृष्ठ ५६६, पं० ६ तक के विषय में मल्लिनाथ ने कुमारसम्भव की टीका में वोपदेव को उद्धृत किया है। वोपदेव ने हेमाद्रि सचिव के कहने से उसके लिये भागवतपुराण की 'हरिलीलामृत' नाम्नी सूची का निबन्धन किया था, यह हम आगे वोपदेव के प्रकरण में लिखेंगे । इस विषय में इसी ग्रन्थ का आगे पृष्ठ १. कातन्त्र विमर्श, पृष्ठ १५ । २. कातन्त्रविमर्श, पृष्ठ २७२, संख्या ६५ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां परिशिष्ट. १३१ ७१४ देखें । हैमबृहद्वृत्त्यवचूणि का लेखन काल निश्चित है। तदनुसार या तो वोपदेव और मल्लिनाथ का काल कुछ पूर्व मानना होगा अथवा हैमबृहवृत्त्यवचूर्णि में निर्दिष्ट तन्त्रोद्योत मल्लिनाथ विरचित न्यासोद्योत से भिन्न ग्रन्थ होगा। पृष्ठ ६०८, पं०६-१८ तक उद्धृत वैयाकरणों के नामों के ५ विषय में-- ___'इस सूची में संख्या १६ पर 'रामाश्रम सिद्धान्तचन्द्रिकाकार' का नामोल्लेख किया है । इसका आगे (पृष्ठ ७१४) में सारस्वत व्याकरणकार के प्रकरण के अन्तर्गत ही निर्देश करने से यहां इस नाम का निर्देश करना युक्त नहीं है । इस प्रकार यहां एक संख्या की कमी १० करनी होगी। पृष्ठ ७०८, पं० २२ 'मेन्द्र' के स्थान में 'क्षेमेन्द्र' होना चाहिये। पृष्ठ ७०८, पं० २३ 'कृष्ण शर्मा'--बेल्वाल्कर के लेखानुसार क्षेमेन्द्र के गुरु का नाम 'कृष्णाश्रम' होना चाहिये (द्र० सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ ६७)। .. - पृष्ठ ७०८, पं० २४ 'भिन्न है' के आगे बढ़ावें--'डा० बेल्वालकर ने क्षेमेन्द्र के काल के विषय में इतना ही लिखा है--'इससे स्पष्ट होता है कि क्षेमेन्द्र १६.वीं शताब्दी की प्रथम तिमाही के अन्त में जीवित नहीं थे (द्र० सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ ६८)। पृष्ठ ७०६, पं०.२४ 'पूर्व कर चुके हैं' के आगे बढ़ावें-डा० २० बेल्वाल्कर ने धनेश्वर का काल सामान्यतया 'क्षेमेन्द्र के पश्चात् और १५६५ ई० से पूर्व माना है, जब कि धनेश्वर की व्याख्या की एक पाण्डुलिपि की गई।' (द्र० सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर, पृष्ठ ६६)। भाग २ पृष्ठ १०१६ पं० ३ बढ़ावें '' मैत्रेयरक्षित' के स्थान में '११. २५ मैत्रेयरक्षित' शोधे । - इसी प्रकार पृष्ठ १०३, पं० १ में '११' संख्या के स्थान में '१२'; पृष्ठ १.०४, पं० २३ में '१२ संख्या के स्थान में '१३'; पृष्ठ १०६, पं०.१ में '१३' संख्या के स्थान में '१४'; पृष्ठ १०७, पं० १६ में Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ पृष्ठ १०५, पं० २३ 'उत्तरकालीन हैं ।' से श्रागे पाठ बढ़ावें - 'पुरुषकार पृष्ठ १४, पं० १२ में एकपाठ है - यथादेवमेव च मैत्रेयः । इससे प्रतीत होता है कि मैत्रेय देव से उत्तरवर्ती है । परन्तु पुरुषकार के पूर्व उद्धृत तीन पाठों से स्पष्ट है कि देव मैत्रेय का अनुसरण करता है | अतः 'यथादेवमेव च मैत्रेयः' का तात्पर्य दोनों की समानता मात्र १० ० दर्शाने में है, अन्यथा स्ववचन विरोध होगा । १३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास '१४' संख्या के स्थान में '१५ ' ; पृष्ठ १०७, पं० २८ में ' १५' संख्या स्थान में '१६' ; पृष्ठ १०९, पं० १८ में '१४' संख्या के स्थान में '१७' और पृष्ठ ११०, पं० ५ में '१५' संख्या के स्थान में '१८' संख्या होनी चाहिये । १५ पृष्ठ ११३, पं० २६-२७-२८ में क्रम संख्या १६-१७-१८ के स्थान में १९-२० -२१ तथा पृष्ठ ११४, पं० १-२-३ में क्रम संख्या १६-२० - २१ के स्थान में २२-२३-२४ होनी चाहिये । . पृष्ठ १३८, पं० ५ ‘१८ मलयगिरि-' के नीचे बढ़ावें 'मलयगिरि ने अपने धातुपाठ पर स्वयं धातुपारायण नाम्नी व्याख्या लिखी थी । यह सम्प्रति अनुपलब्ध है ( द्र० भाग १, पृष्ठ ७०२, पं० १८)।" पृष्ठ १४८, पं० १६ ‘२. शन्तनु" यहां २. शान्तनव...' पाठ होना चाहिये । आगे भी सर्वत्र 'शन्तनु' के स्थान में 'शान्तनव' पाठ २० होना चाहिये । द्र० पृष्ठ १३४, पं० १-६ के सन्दर्भ में किया गया संशोधन ( पूर्व पृष्ठ १२५ पं० २१-२५) । पृष्ठ १९४, पं० १२ के आगे सन्दर्भ बढ़ावें— १६. मलयगिरि (सं० १९८८ - १२५० वि० ) मलयगिरि आचार्य ने स्वीय शब्दानुशासन से सम्बद्ध 'गणपाठ ' २५ का प्रवचन भी किया था । यह सम्प्रति अनुपलब्ध हैं ( द्र० भाग १, पृष्ठ ७०२, पं० १८ ) । पृष्ठ १६४, पं० १३ ‘१६. क्रमदीश्वर' - मलयगिरि कृत गणपाठ का विवरण जोड़ने से यहां ' १६' संख्या के स्थान में '१७' संख्या होगी । श्रागे भी इसी प्रकार एक संख्या का परिवर्धन होगा । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां परिशिष्ट १३३ ,, पृष्ठ २०७, पं० १ २– शन्तनु यहां २ - शान्तनवः पाठ होना चाहिये। आगे भी इस सन्दर्भ में 'शन्तनु के स्थान में 'शान्तनव' पाठ जानना चाहिये। फिट् सूत्र आचार्य शान्तनव प्रोक्त हैं. इसका निर्णय आगे 'फिटसूत्रों का प्रवक्ता श्रौर व्याख्याता' नामक २७वें अध्याय में पृष्ठ ३४६-३४९ तक किया है । पृष्ठ २७४, पं० ८ ‘१– शन्तनु ' यहां भी '१ - शान्तनव...' पाठ होना चाहिये । द्रष्टव्य पृष्ठ २०७, पं० १ का संशोधन । पृष्ठ ३५६, पं० १२ के आगे नया सन्दर्भ बढ़ावें - ६ - रामचन्द्र शेष (सं० १७०० के लगभग ) शेषकुलोत्पन्न नागोजी के पुत्र रामचन्द्र ने स्वरप्रक्रिया नामक १० एक ग्रन्थ लिखा है । इसमें पाणिनीय अष्टक के स्वरविषयक सूत्रों की व्याख्या के साथ ही फिट् सूत्रों की भी व्याख्या की है । रामचन्द्र ने स्वरप्रक्रिया की स्वयं व्याख्या भी लिखी है । यह ग्रन्थ प्रानन्दाश्रम पूना से सन् १९७४ में छपा है । यह ग्रन्थ जिस हस्तलेख के आधार पर छपा है, उसके अन्त का पाठ इस प्रकार १५ है इति शेषकुलोद्भवनागाह्वयपण्डितसूनु रामचन्द्रपण्डित विरचिता स्वरप्रक्रिया समाप्ता । संवत् १८१४ फाल्गुण बदि ।। २८०० । इदं पुस्तकं जावडेकर शिवरामभट्टानाम् । इति शेषकुलोत्पन्नेननागोजी पण्डितानां पुत्रेण रामचन्द्रपण्डितेन २० विरचिता स्वरप्रक्रिया व्याख्या समाप्ता ॥ सं० १८१५ इदं शिवराम भट्ट जावडेकराणाम् । संख्या २६०० ॥ काल - उपरि निर्दिष्ट संवत् १८१४ तथा १८१५ जावडेकरशिवराम भट्ट की पुस्तक की प्रतिलिपि का है । स्वरप्रक्रिया और उसकी व्याख्या में भट्टोजिदीक्षित से प्रवरकालीन ग्रन्थकार का उल्लेख २५ न होने से यह निश्चय ही विक्रम की १७वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से अर्वाचीन नहीं है । मूल ग्रन्थ के अन्त में लिखित 'संख्या २५००' और व्याख्या के अन्त में निर्दिष्ट संख्या २६०० ' ग्रन्थपरिणाम सूचक है । अर्थात् क्रमश: ये २८०० और २९०० अनुष्टुप् श्लोक परिमित हैं । ३० Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास पृष्ठ ३५९, पं० १३ ' ६ - श्रीनिवास...' यहां अब '७ - श्रीनिवास पाठ होना चाहिये । ...7 पृष्ठ ३५९, पं० २७ के आगे नया सन्दर्भ बढ़ावें - अन्य स्वरशास्त्र व्याख्याता १३४ श्रीनिवास यज्वा विरचित 'स्वरसिद्धान्त मञ्जरी' में स्वरकौमुदी, स्वरमञ्जरी और स्वरमञ्जरी विवरण नामक ग्रन्थों का असकृत् उल्लेख मिलता है । स्वरप्रक्रिया की भूमिका (इण्ट्रोडेक्शन) में काशीनाथ वासुदेव श्रभ्यङ्कर ने नृसिंह पण्डित विरचित स्वरसिद्धान्तमञ्जरी और विट्ठलेश विरचित स्वरप्रक्रिया का उल्लेख किया है । १० इनमें भी फिट्सूत्रों की व्याख्या सम्भव है, परन्तु इन ग्रन्थों के उपलब्ध न होने से हमने इनका साक्षात् उल्लेख नहीं किया हैं । ...3. पृष्ठ ३६३, पं० १९-२० ' अर्थात् - शाकल्य शिष्य निसृत जानो' के स्थान में इस प्रकार शोधें - शाकल्य बाष्कलि प्राश्वलायन आदि के शिष्यों द्वारा प्रोक्त अनुशाखात्रों को प्रतिशाखा से निसृत १५ जानो ।' पृष्ठ ३६४, पं० ३१ के आगे नया सन्दर्भ बढ़ावें - गाय गोपाल यज्वा की भूल - तैत्तिरीय प्रातिशाख्य ४|११ की व्याख्या में गार्ग्य गापाल यज्वा भी ऐसी ही भूल करता है - नन्वेवमनेकशाखाविषयत्वे प्रातिशाख्यमिति ग्रन्थस्याख्या विरुद्ध्यते । नैतदस्ति । द्वित्रिशाखाविषयत्वेऽपि तदसाधारणतया उपपत्तेः । तथा बवृचानां शाकलकबाष्कल कशा खाद्वय विषयं प्रातिशाख्यं २० प्रसिद्धम् । अर्थात् - इस प्रकार प्रातिशाख्य के अनेक शाखा विषयक होने से ग्रन्थ की प्रातिशाख्य संज्ञा विरुद्ध होतीं है । ऐसा नहीं है । दो तीन २५ शाखा विषयक होने पर भी वह श्राख्या असाधारण होने से उपपन्न होती है। ऋग्वेदियों का शाकलक और बाष्कलक दो शाखाओं का प्रातिशाख्य प्रसिद्ध है । १. एतेषां शाखा पञ्चविधा भवन्ति - शाकलाः, बाष्कलाः, आश्वलायनाः, शांखायनाः, माण्डूक्रेयाश्च (वै० वाङमय का इतिहास, भाग १, पृष्ठ १८३, ३०. - द्वि० सं०, सं० २०१३) । तुलना करो - ऋग्वेदीय शौनक चरणव्यूह १।७ - ८ || Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां परिशिष्ट १३५ यहां गार्ग्य गोपाल यज्वा ने दो भूलें की हैं-प्रथम- उसने प्रतिशाखा शब्द का मूल अर्थ न जानकर प्रातिशाख्य नाम के आधार पर उन्हें एक एक शाखा का मानकर दो तीन शाखाओं का एक प्रातिशाख्य होना स्वीकार किया। द्वितीय-ऋग्वेदीय शौनक प्रातिशाख्य को शाकलक और बाष्कलक दो शाखामों का स्वीकार किया । वस्तुतः ५ शाकल और बाष्कल दोनों पृथक् चरण हैं। प्रातिशाख्य एक एक चरण से सम्बद्ध शाखाओं के हैं, यह पूर्व (यही भाग, पृष्ठ ३६२) निरुक्तकार यास्क के वचन से प्रमाणित कर चुके हैं। ऐसी अवस्था में शाकल चरण से सम्बद्ध शौनकीय प्रातिशाख्य बाष्कल चरण से सम्बद्ध नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, इसी भाग में आगे (पृष्ठ १० ३८३) बाष्कल प्रातिशाख्य का पृथक् सद्भाव प्रमाणित किया है। पृष्ठ ३८१, पं० २० 'पाश्वालायन शाखा' के स्थान में 'माश्वलायन चरण' इस प्रकार पाठ शुद्ध करें। पृष्ठ ३८२, पं० ३ 'अन्य काल' के स्थान में 'अन्य ग्रन्थ' इस प्रकार पाठ शोधे । पृष्ठ ३८३, पं० २४ से आगे नया सन्दर्भ बढ़ावें। 'पूर्व पृष्ठ ३६४, पं० ३१ के आगे बढ़ाये नये सन्दर्भ में लिख चुके हैं कि गार्य यज्वा गोपाल का शौनकीय प्रातिशाख्य को शाकल और बाष्कल दोनों शाखाओं का मानना भूल है। क्योंकि बाष्कल चरण शाकल चरण से पृथक् है । शाकल चरण का प्रातिशाख्य प्राप्त है, बाष्कल चरण के प्रातिशाख्य के पृथक् सद्भाव में ऊपर प्रमाण उपस्थित कर चके हैं।' पृष्ठ ४०६, पं० २० के आगे पुष्पसूत्र का नया संस्करण छप रहा है। उसके प्रकाशित होने पर सम्भव है पुष्पसूत्र के विषय में नया प्रकाश पड़े। . २५ पृष्ठ ४४१, पं० ७-८ 'भाषातत्व और वाक्यपदीय नामक ग्रन्थों में' इस के स्थान में 'भाषातत्त्व और वाक्यपदीय नामक ग्रन्थ में' पाठ होना चाहिये। १. द्र० पृष्ठ १३४ की टि० १। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट 'सं० व्याकरण शास्त्र का इतिहास' के लेखन कार्य में विशिष्ट विद्वानों के सहयोगात्मक पत्र प्रस्तुत 'सं० व्या० शा ०३०' के लिखने में तथा प्रथम संस्करण प्रका ५ शित होने के पश्चात् प्रनेक वरिष्ठ मान्य विद्वानों ने समय समय पर सुहृद्भाव से पत्रों द्वारा मुझे अनेक उपयोगी सुझाव दिये, अनेक ग्रन्थकारों 1 विषय में नई सूचनाएं दीं, नये प्रमाण प्रस्तुत किये । यदि ये मान्य विद्वान् सुहृद्भाव से मुझे इस कार्य में सहयोग न देते तो निश्चय ही इस मैं अनेक त्रुटियां वा न्यूनताएं रह जातीं और इसका वर्तमान १० स्वरूप भी न होता । अतः इन सब महानुभावों ने समय-समय पर मुझे जो उपयोगी पत्र लिखे, उनमें से जो पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं, उन्हें अपनी कृतज्ञता - प्रकाशन के लिए इस परिशिष्ट में मुद्रित कर रहा हूं। इसे मैं ऋषि तर्पण मानता हूं । अतः इस कार्य से मैं कुछ सीमा तक ऋषि ऋण से भी उन्मुक्त हो सकूंगा । स्व० श्री पं० भगवद्दत्त जी के पत्र १५ 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' लिखने की प्रेरणा स्व० श्री पूज्य पण्डित भगवद्दत्त जी ने संभवतः सं० १९९४ (सन् १९३७) में दी थी। उनकी प्रेरणा से मैं इस ग्रन्थ के लेखन में प्रवृत्त हुप्रा । प्रारम्भ से संस्कृत वाङ्मय के ग्रन्थों के स्वाध्याय में मेरी रुचि रही है। इस कारण मैं इससे पूर्व ही शतशः ग्रन्थों का पारायण कर चुका था । व्याकरण शास्त्र के इतिहास के लिये मैंने पूर्व पारायण किये ग्रन्थों का पुनः पारायण किया और शतशः मुद्रित वा लिखित ग्रन्थों का तथा विविध पुस्तकालयों में संगृहीत हस्तलेखों के उस समय तक छपे सूचीपत्रों का ४-५ वर्ष में विशेष अवलोकन किया। इस प्रकार सं० २० १६६६ तक लाहौर में रहते हुए इस ग्रन्थ के लिये उपयुक्त सामग्री का संकलन २५ कर चुका था । इस काल में प्रस्तुत इतिहास के लेखन स्व० श्री पण्डित Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/१८ ग्यारवां परिशिष्ट १३७ भगवद्दत्त जी से महती सहायता प्राप्त हुई । सं० १९६९ (सन् १९४२) के मध्य से सं० २००२ के अन्त (सन् १९४६ के अप्रेल) तक अजमेर में रहा । तत्पश्चात् देशविभाजन के काल तक लाहौर में रहने के अनन्तर पुनः अजमेर माया (विशेच द्रष्टव्य प्रथम भाग के प्रारम्भ में प्रथम संस्करण की भूमिका पृष्ठ ९-१० तथा १३-१४) । दोनों बार अजमेर निवास के काल में स्व० श्री पं०भगवद्दत्त जी से बराबर पत्र-व्यावहार होता रहा और वे व्याकरण शास्त्र के इतिहास के लिये उपयोगी सामग्री पत्र द्वारा उपस्थित करते रहे । उनके दोनों बार अजमेर निवास के लगभन ५ वर्ष के काल में पचासों पत्र मुझे प्राप्त हुए, उनमें से उनके कतिपय पत्र ही मैं कथंचित् सुरक्षित रख सका। उन पत्रों में से जिन पत्रों १० में प्रस्तुत इतिहास के लेखन के लिये विशेष प्रमाण वा सुझाव दिये गये हैं। उन्हें पूर्ण अथवा अंशरूप में नीवे दे रहा हूं। (१) *ओ३म्* Vedio Research Institute, 9 c, MODEL TOWN (Lahore) Bhagavad Datta B. A. Editor-in-Chief og of History of India, (Fifteen Vols.) Dated ७-८-४५ प्रियवर पण्डित युधिष्ठिर जी: ___ नमस्ते । आप का पत्र दुकान पर से घूम रहा है । अभी मिला २० नहीं । १५ नए पत्र' मिले हैं। अभिसन्धिर्वञ्चनार्थः इति धातुसंग्रहः। मालतीमाधव पर जगद्धरटीका अंक १ तदुक्तं त्रिलोचनपञिकायाम् निपाताश्चोपसर्गाश्च श्चेति ते त्रयः। १. अर्थात् स्वामी दयानन्द सरस्वती के पूर्व प्राप्त पत्रों के अतिरिक्त १५ नये पत्र मिले हैं। यु० मी० Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ १५ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास श्रनेकार्था भवन्त्येवं पाठस्तेषां निदनर्शम् ।। अनेकार्थाः स्मृताः पृष्ठ १५५ इन दोनों पुस्तकों के नाम इतिहास में सन्निविष्ट कर लें । ५ इतिहास - लेखन - प्रगति पर ना यदि दे सकें, तो भी श्रेष्ठ ... बात होगी । ...जी से इतिहास ....... श्रीकण्ठचरित पर जोनराज टीका पृ० २५० ....... .......... रद्दी अवश्य देखें । यदि ....... .............. 400000 “ फुलस्केप पूरे लिखे जावें, " भेजते रहें । देखें, इससे " १० समय २ पर और भी सूचनाएं भेजता रहूंगा । पूर्ण वृत्त लिखें । सब को नमस्ते । (२) श्रोम् भगवद्दत्त Vedic Research Institute, 9c, model town (lahore)" प्रियवर श्री युधिष्ठिर जी, नमस्ते । श्रपने स्वामी जी के पत्र उस ग्राम से खोजे या नहीं । हमें सारे २० पत्र मिल गए। छप रहे हैं । २० १. इस पत्र को दीमकों ने खा लिया है। अतः जहां पाठ पूर्ति न हो सकी वहां ........ चिह्न दे दिये हैं । २. इस पत्र पर तारीख नहीं दी है । इस पर माडल टाउन लाहौर के पोस्ट आफिस की १६ अगस्त ४५ की तथा अजमेर के पोस्ट आफिस की २६ अगस्त ४५ की मोहर है । २५ ३. मैंने किसी पत्र में अजमेर के समीप में विद्यमान 'भांवता' नामक ग्राम में स्वामी दयानन्द सरस्वती के पत्र विद्यमान होने की संभावना प्रकट की थी । यह संकेत उस की ओर है। वहां से मुझे कोई पत्र नहीं मिला । ४. द्र० ७-८-४५ का पत्र और उसकी पृष्ठ १३७ की टिप्पणी १ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १३६ आचार्य भीमसेन का काल ईसा ६०० से पहले का है । यह लेख New Indian Antiquary vol. 1939 pp. 108-110 पर है। टिप्पण कर रखें। पीछे से देख लेंगे। इतिहास का कितना काम हो गया। वेदभाष्य के टाइटल आदि पर से श्री स्वामी जी के विज्ञापनों की प्रतिलिपियां तिथि सहित ५ भेजें । जो मुद्रित न हों, वही भेजें । पूरा देख कर भेजें। इतिहास के लिए आवश्यक पुस्तकें मैं ले सकता हूं, लिखें। वह पुस्तकालय के लिए पुस्तकें खरीदी गई या नहीं। इसका पूरा वृत्त लिखें । उत्तर शीघ्र। भगवद्दत्त (३) प्रोक्नक Bhagavab Datta B. A. Vedic Research Institute, Editor-in-chief 9c, Model Town (lahore) of History of India, (fifteen vols.) Dated 15.10-45 श्री पं० युधिष्ठिर जी, नमस्ते, कृपा पत्र मिले। मैं १० दिन सिमला और देहली रहा । पाप का पत्र पढ़ कर अत्यधिक प्रसन्नता हुई। ईश्वर करे ग्रन्थ शीघ्र बने । यह अच्छा है कि समग्र ग्रन्थ प्रस्तुत करने से पूर्व यहां २० आवें । कातन्त्र पृ० ५५ पर अधिक खोज करें। ___ वाक्यपदीय प्रथम काण्ड की वृषभदेव की टीका में न्याङ्कवम् प्रयोग पर उदाहत सूत्र देखें। विचार करें कि किस व्याकरण का है। मुझे पता नहीं लगा। उस पर पाणिनीय प्रयोग भी दिया गया है । मुझे लिखें कि, क्या तात्पर्य निकल " "| त्रैमासिक पत्रों में कुछ २५ और लेख निकले हैं। यहां आने पर आप देख सकेंगे। क्या पुस्तकालय में पुस्तके .........। १. इस विषय में व्या०शा० का इति० भाग १, पृष्ठ ३० पर टि०२ देखें । २. उस समय मैं वैदिक पुस्तकालय अजमेर में काम करता था। उस Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ___ मामराज जी..........मुझे चित्रों के सम्बन्ध में कुछ नहीं बताया............."ल यही पता था कि वे स्वयं सब............... रहे हैं । मुझे मिल कर ......""कुछ न.........."। १५ दिन में एक पत्र अवश्य देते रहे।..."--..."स्वास्थ्य लिखें। ५. क्या पत्रों के अन्य फारम आप को मिले या नहीं। . भगवद्दत्त प्रोम्' ९ सी माडल टाऊन लाहौर रात्रि २६-१०-४५ प्रिय युधिष्ठिर जी, नमस्ते-जैन पुस्तक प्रशास्ति संग्रह में कुछ व्याकरण ग्रन्थ १५ भी हैं । कातन्त्र पर भी कुछ लेख हैं । वर्णन लम्बे हैं अतः लिखने का समय नहीं । टिप्पणि सुरक्षित रखें। देख कर उपयोगी भाग ले लें। सब कुशल । सबको नमस्ते। भगवद्दत्त कातन्त्रवृत्तिविवरणपंजिका, कातन्त्रोत्तर अपरनाम विद्यानन्द व्याकरण पुस्तकालय में कुछ आवश्यक पुस्तकें खरीदने के लिये एक सूची बनाई थी। जिस पर पण्डित भगवद्दत्त जी ने हस्ताक्षर किये थे। उसी की ओर यह संकेत है। पृष्ठ १३६, पं० ८ में भी इसी ओर संकेत है। - १. इस पत्र को भूल से मेरा पता लिखे विना ही पोस्ट बाक्स में छोड़ २५ दिया गया। वह डेडलेटर आफिस में घूमता हुआ ३ नवम्बर १९४५ को वापस श्री पं० भगवद्दत्त जी के पास पहुंचा । मेरे पास कब और कैसे पहुंचा; यह स्मरण नहीं। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ग्यारहवां परिशिष्ट १४१ नई देहली: रात्रि १३०२०४८ न्यथैः-कुरङ्गसदृशो विकटबहुविषाणः ये वराह आदि दश महामृग हैं। अष्टाङ्गहृदय सूत्रस्थान अध्याय ६॥५०॥ हेमादि टीका [प्रागे का अंश छोड़ा] भगवद्दत्त ओ३म् Arya Samaj Lachmansar Amritsar १०-३-४८ १५ प्रियवर पण्डित जी नमस्ते। आपका २-३-४८ का पत्र यहां को मिला था। दूसरा ग्रन्थ एप्रिल में दे दें। अन्यत्र भी कोई प्रति बेचने का यल करें। श्री म. लालचन्दजी ने अभी पूरी बात नहीं बताई। अभी वी. पी. न भेजें। आत्रेय में भवभूति माधवीया धातुवृत्ति पृष्ठ २३३ पारायण से सुधाकर उत्तरवर्ती-- पृ० २५४ आपिशलि-- पृ० ३२६ पृ० ३५६ यही स्थान आपने अब देखा है। पृ० ३५६ देखें । क्या काश्यप का व्याख्यान आपिशलि पर था। विचार लें। सुधाकर से भट्टि पहिले - पृ० १२० प्रात्रेय भट्ट का स्मरण करता है पृ० ३०८ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इसी प्रकार सूक्ष्म दृष्टि से धातुवृत्तिः पढ़ कर आप पौर्वापर्य निश्चित करें । अन्य ग्रन्थों में भी प्रापिशलि देखें । विदुरनीति का अनुवाद छपेगा वा नहीं । मैं इतिहास की शुद्धि लिपि कर रहा हूं । और ज्ञातव्य बातों से सूचित करें । म्लेच्छ भाषा के प्रमाण निकाले ५ या नहीं । क्या यहां आने का विचार कर सकेंगे । प्रतीत होता है, हमें यहाँ रहना पड़ेगा । सत्यश्रवा की सगाई वहां हो गई विवाह मई में होगा । १५ प्रोम् २५ (७) भ० दत्त प्रियवर पण्डित जी ; 1 नमस्ते । श्रभी पहले पत्र का उत्तर नहीं आया । ऋक्प्रातिशाख्य में गार्ग्य और शाकटायन दोनों उद्धृत हैं । शाक० तीन वार—सारे उद्धरण दें। बृहद्देवता में उद्धृत शाक० के साथ यह उल्लेख भी करें । काल के लिए आवश्यक है । ऋक् प्राति० ( (डा० २० मंगलदेव वाला) पदकार पृ० ३८४ पर ध्यान से देखें । 'शाकटायन के सारे उद्धरण एकत्र करके उसके व्याकरण के स्वरूप पर लिखें । ग्रन्थ का बहुत परिमार्जन करें । श्रद्वितीय बनाएं। आर्यसमाज लछमनसर अमृतसर १६-३-४८ यहां शान्ति है | सब लोग आपको यहां बुलाना चाहते हैं । निश्चय करलें । और सब कुशल है । भ० दत्त मैं कुछ काल तो यहाँ रहूंगा । आप विचार लें। यहां भय व किसी प्रकार का नहीं है । यहां १. यह पङक्ति पत्र के ऊपर रिक्त स्थान में लिखी है । हमने इसे रखा है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट (6) ओम् १४३ श्रार्यसमाज लछमनसर अमृतसर २२-३-४८ प्रियवर पण्डित जी, नमस्ते ध्वन्यालोक [ पृष्ठ ] ३८६ तीसरा उद्योत की अभिनवगुप्तकृत लोचन टीका में लिखा है तथा च भागुरिरपि - किं रसानामपि स्थायिसंचारितास्तीत्याक्षिप्य १० अभ्युपगमेनैवोत्तरमवोचद् वाढमस्तीति । यह प्रमाण अलंकार शास्त्र से है वहां लिखें । 'कश्मीर के छपे काठकगृह्य प्रांगल भाषा भूमिका पृष्ठ ६ पर लौगाक्षिश्च तथा काण्वस्तथा भागुरिरेव च । एते मे यह पाठ अगस्त्य के श्लोक तर्पण में। भागुरि याजुष प्राचार्यं । १५ यह वचन लिख लें । "दुर्ग निरुक्त १।१३ के अन्त भाष्य में - शाकटायनोऽतिपाण्डित्या - भिमानात् अमृतसर प्रापका प्रबन्ध हो सकता है । सोच कर लिखें । रहना यहीं समाज में होगा । शीघ्र उत्तर देवें । भ० दत्त आपके ग्रन्थ के पृष्ठ ४१ * पर तै० सं० के प्रमाण में 'वायु' वाला पाठ लिखना चाहिये । क्या वही वायु- वायुपुराण में स्मृत है । बहुत सूक्ष्मेक्षिका से देखें | शब्दशास्त्र में वह इन्द्र का सहकारी भ० दत्त १. ये अगली पक्तियां पत्र के ऊपर रिक्त स्थान में लिखी हैं। हमने यहां जोड़ी हैं । २. यह पवित भी पत्र के हाशिये पर लिखी है । ३. यह पृष्ठ संख्या लाहौर में सन् १९४७ में छप रहे 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' के पहले भाग की है । यह पा अश वहीं नष्ट हो गया । २५ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास c/o Shri Satya Shrava M. A. Central Asian Museum Queensway New Delhi २५-७-४८ प्रियवर श्री पण्डित युधिष्ठिर जी; बहुत २ नमस्ते। आपका १७ का कार्ड यथा समय मिला। यहां सत्यश्रवा की धर्मपत्नी और तत्पश्चात् सत्यश्रवा रोगी १० हुए, अतः पूना नहीं जा सका । अब ठीक हो रहे हैं। दो चार दिन तक पूना जाऊंगा। पुनः अमृतसर जाऊंगा। कागज का प्रबन्ध कर सकूँगा। थोड़े दिन में उत्तर दूंगा। श्रेष्ठ छपाई करा लें, तो अच्छा है। ऐपि० इण्डि० १५,१६ Vol. मेंनरेन्द्रसेन वैयाकरण-प्रमाणप्रमेयकलिका का कर्ता नरेन्द्रसेन का गुरु कनकसेन, इसका गुरु अजितसेन । नरेन्द्रसेन ने 'चान्द्र, कातन्त्र, जिनेन्द्र शब्दानुशासन, ऐन्द्र और पाणिनि पर अधिकार किया । वह शक ६७५ में हुआ। भागुरेः लोकायतिकस्य' लोकायति[क] पर मेरा सन्देह था कल पण्डित ईश्वरचन्द्र जो ने काशिका के चार्वो शब्द पर विवरणपञ्जिका में ब्रह्मगार्यप्रणीतं लोकायतशास्त्रम् पाठ बताया । यह शास्त्र राजनीति पर होगा । नास्तिकता पर नहीं । नोट करलें । और बड़ी बातें २५ पढ़ चुका हूं। 'दिव्यं वर्षसहस्र' का अर्थ अवश्य लिखें। उत्तर लौटती डाक दें। मूल ग्रन्थ कितना दोहराया है। पहले से १. इस विषय में सं० व्या० इ०' भाग १, पृष्ठ १०५, टि० १-२ देखें । २. यह पद काशिका १॥३॥३२ तथा ३६ में प्रयुक्त है। ३. यह पाठ विवरणपन्जिका (न्यास) में १।३।३२ तथा ३६ पर नहीं है । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १४५ कितना उत्तम हुआ। १५२ पृष्ठों' में कितनी मौलिक सामग्री बढ़ी। जानने की उत्सुकता है। भ० दत्त (१०) प्रोम् Shri Satya Shrava Central Asian Museum Queensway New Delhi २२८-४८ प्रियवर पं० युधिष्ठिर जी, नमस्ते । मेरी लिखी सब टिप्पणियां उसी समय मूल प्रति पर सुरक्षित कर लिया करें। आपका लिफाफा नहीं मिला था। "देवमीमांसा दैवतकाण्ड माध्वाचार्य के अनुसार शेष और पैल का है। दोनों बादरायण के शिष्य थे। माधव ने दैवतकाण्ड के दो सूत्र उद्धृत किए हैं। ये बादरायण के कारण मूल ग्रन्थ में जोड़े १५ गए । ये दोनों वेदान्तदेशिक ने शतदूषणी में दिए हैं । मुद्रित ग्रन्थ में ये नहीं मिलते। तत्त्वरत्नाकर में बादरायण के शिष्य काशकृत्स्न को दैवतकाण्ड का कर्ता लिखा है।": ग्यारहवीं अखिल भारतीय ओरिएण्टल कानफ्रेंस हैदराबाद, क्या आप छाप लेंगे। अब सायं ४ बजने लगे हैं । सायं को गाड़ी पूना जा रहा हूं। श्री बावा जी का काम है। २० उत्तर दे छोड़े । २६ तक लौट पाऊंगा। भ० दत्त । १९४१. पृ० ८५, ८६, लेखों के संक्षेप लेखक B. A. Krishna Swamy Rao, मैसूर." काशकृत्स्न के काल का कुछ पता यहां से चलेगा। पूरे प्रमाण देख कर प्रा टिप्पण लिख लें। अथवा मूल में समाविष्ट करें। बच्चों १ का स्वास्थ्य लिखें। सरकार से कागज खूब मिलने की आशा है । बड़े अधिकारियों से मिला हूं। १. यह पृष्ठ संख्या लाहौर में मुद्रित सं०व्या० शास्त्र का इतिहास' की है। वहां इतने ही पृष्ठ छपे थे। जो वहां देशविभाजन के समय नष्ट हो गये थे। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अथ c/o Sri Satya Shrava M. A. Central Asian Antiquities Museum Queensway New Delhi ३१-८-४८ श्री प्रियवर पण्डित युधिष्ठिर जी, १० . नमस्ते । परसों रविवार प्रातः मुम्बई से आ गया था। डा० बेलवलकर जी से आप की बात न पूछ सका। उन्होंने भी बात नहीं की। प्रतीत होता है उन्होंने पढ़ा ही नहीं। ये सब लोग एकदेशीय पाण्डित्य रखते हैं। - वहां और अनेक विद्वानों से मिला। वैतान श्रौत का भाष्य १५ लाया हूँ। काशकृत्स्न विषयक जो लिखा था, बस वहां उतना लेख है । उस पुस्तक में लेखों के संक्षेप मात्र हैं पूरा पता The Eleventh all India oriental conference Hyderabad-session 1941, Summaries of Paper (संक्षेप लेखों का) पृ० १५, १६, लेखक "The Daiva Mimansa, Mr. B. A. Krishna Swamy Rao, Mysore. अब अधिक खोज करेंगे। गीतासारमिदं शास्त्रं गीतासारसमुद्भवम् । प्रत्र स्थितं ब्रह्मज्ञानं वेदशास्त्रसमुच्चयम् ॥५॥ अष्टादश पुराणानि नव व्याकरणानि च । निर्मथ्य चतुरो वेदान् मुनिना भारतं कृतम् ॥७॥ ... No. 164 of 1883-84 of B.O. R. I. भण्डारकर प्रो० रि० इ० [पूना] सरस्वती कण्ठाभरण २ जा प्रकरण प्रारंभ-सा च पाणिन्यादि अष्टव्याकरणोदित.......... .. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट' १४७ उद्धृत भारतीय विद्या-वर्ष ३. अक १. पृ० २३२.. दुर्ग की निरुक्त टीका में भी देखें । अष्ट व्याकरणों के होने की बात कब से चली । यदि दुर्ग में भी हैं तो पूज्यपाद और जैन शाकटायन नहीं गिने जाएंगे। मैंने आप को पहले भी एक ताम्रपत्र अथवा शिलालेख से एक ५ बात भेजी है। अब सारा प्रकरण, दोबारा लिखियें। भागवृत्ति के उद्धरण नहीं पाए । उत्तर भी नहीं आया।' आपका भगवद्दत्त (१२) प्रियवर पण्डित जी' . नमस्ते । ऊपर के नए टिप्पणों पर विचार करें। पाणिनि ही बौधायन आदि में वर्णित है । उस का काल विक्रम से २७०० वर्ष पूर्व पड़ने को प्राशा है। शौनक से कुछ पीछे पर उस का समः कालीन । बौधायन श्रौत -प्रवरे ३ भृगणामे वादितो व्याख्यास्यामः... .."पैङ्गलायना.......... वैहीनरयः .........."काशकृत्स्नाः 'पाणिनिर्वाल्मीकि............प्रापिशलयः......"॥३॥ __ ज्यायान कात्यायन:-बौधायन श्रौ० २३।७।। सारा पाठ पढ कर २० तुलना करें, यदि कात्यायन के किसी ग्रन्थ में यह भाव मिले। लौक्यं =बौ० श्रौ० १७१८॥ लौक्यं-वेदमन्त्र में भी है। पाणिनीय प्रयोग लौकिकं है। २५ १. दुर्ग निरुक्तवृत्ति (१।१३) में 'ध्याकरणमष्टप्रभेदम्' पाठ है। प्रा. नन्दाश्रम संस्क० पृष्ठ ७४ । २. इससे आगे का पत्र भाग ग्रन्थ से सम्बद्ध न होने से छोड़ दिया है। ३. इस पत्र पर तिथि निर्देश नहीं है। ४. अगली टिप्पणी देखें। ५. पत्र में इससे आगे छपा अंश पत्र के प्रारम्भ में लिखा हुप्रा है। इस पत्र का प्रकृत ग्रन्थ से संबद्ध अंश ही यहां दिया है, शेष छोड़ दिया है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (१३) अमृतसर १६.६.४८ प्रिय पण्डित युधिष्ठिर जी, नमस्ते । आपका पोस्ट कार्ड मिल गया था। मैं आपको विस्तृत लिफाफा लिख चुका हूं। १. ऋकतन्त्रं सामतंत्रञ्च संज्ञाकरणमेव च । . धातुलक्षणकञ्च स्यादिति व्याकरणानि च । गो० गृह्य. भट्टनारायण भाष्य सहित-टिप्पणी पृ० ६०३,६०४ १० २. एक कौत्स गो० गृह्यसूत्र ३।१०।४ में स्मृत ३. प्रभुञ्जति ब्राह्मणे। कौषीतकगृह्य ३।६।४४॥ इस पर भवत्रात भाष्य में अभञ्जतीति किमेतद्रपमः। ननु शत्रन्तं न भवति । परस्मैपदत्वात् । भुजोऽनवने इति ह्यात्मनेपदविधानम् । नैष दोषः। छान्दसमेत पम् । १५ छन्दोवत्सूत्रम् । अभुक्तवतीति वा पाठः । ऊपर' के प्रमाण यदि काम में पा सकें, तो उन से काम लें। मैं २८ ता० मंगलवार को प्रातः देहली पहुंचंगा। आप किस तिथि तक पाएंगे। इस पत्र का उत्तर देहली भेजें। मनीआर्डर देहली पहुंचा है। मैं जा कर लूगा। इतिहास प्रतिदिन लिख रहा हूं। सत्या२० षाढ़ का प्रमाण कभी पढ़ा था। अब सर्वथा विस्मरण था। कल्पसूत्रों का इतिहास भी लिख रहा हूँ। २० पृष्ठ की रूप रेखा बना ली है। जो प्रमाण मिले एकत्र करें और लिखते रहें। बच्चों को प्यार । भ० दत्त (१४) १६-११-४८ राणायनीयानाम् ऋक्तन्त्रे प्रसिद्धा विसर्जनीयस्य अभिनिष्ठानाख्या इति । गोभिल गृह्य, भट्ट नारायण भाष्य २।८।१४॥ १. यहां छापे गये प्रमाण, पत्र में पत्र प्रारम्भ करने से पूर्व लिखे हुए हैं। २५ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट पूर्वेषां वतुर्णां गृह्णन्तीमुपयच्छेत् । गो० गृ० सू० २|१|७|| गृह्णतीम् इति प्राप्ते गृह्णन्तीमिति छान्दसोऽयं प्रयोगः । भट्ट नारायण भाष्य वेद और ब्राह्मण में ऐसे प्रयोग देखें । पूरा विचार कर टिप्पण लिखें । कातन्त्र देख लें । प्रक्षाल्य वैनेनोद्धृत्य - एनेन - छान्दस प्रयोग - कल कागज पूछने जाऊंगा । रुपया ५०० ) आ चुका है । और ना रहा है । अब ग्रन्थ छपेंगे। ग्रन्थ अति सुन्दर बनाए । पुस्तकें अभी न लें । कुछ काल पश्चात् एकत्र रह कर काम करेंगे । शाकटायन का प्रमाण वर्ता या नहीं । पूरा उत्तर लिखें । श्री पण्डित जी, ( १५ ) अथ भगवद्दत्त नई देहली १७-१०-४८ नमस्ते । पोस्टकार्ड मिला था । धन्यवाद । यत्तक्तविरुद्धार्थं शाकटायनवचनम् - जलाग्निभ्यां विपन्नानां संन्यासे वा गृहे पथि । श्राद्ध कुर्वीत तेषां वै वर्जयित्वा चतुर्दशीमिति । १४ε चतुर्वर्ग चिन्तामणि, श्राद्धकल्प, हेमाद्रिकृत ऐशियाटिक सो० संस्करण, पृ० २१५ । स्मृति चन्द्रिका में भी शाकटायन है । ध्यान करलें 1. भगवद्दत्त १० १५ २० कापी लिखनी प्रारम्भ करें । ग्रन्थ को प्रति श्रेष्ठ बनाएं' । वेमकशाला पुनः भेजूंगा । स्वाध्याय से सूचित करते रहें। यह शाकटायन २५ शाखाकारों का साथी निकलेगा । यहां कुशल है । पत्र लिखते रहा करें। 1 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (१६) अथ नई देहली १०-११-४८ ५ प्रियवर पण्डित जी, ___नमस्ते । ८ का कृपा कार्ड अभी मिला। कागज में अभी ८, १० दिन की देरी है । आते ही ५० रीम भेजू गा । अब कोई त्रुटि न रहने दें। १ इन्द्र, विवस्वान आदि के पिता कश्यप प्रजापति। १० . २. अदिति के पिता-दक्ष ३. इन्द्र के भाई पुराण में देखें । इस समय बहुत शीघ्रता है, फिर लिखूगा। भगवद्दत्त (१७) अथ नई देहली प्रिय--- न० । ऐतरेय ब्राह्मण-आदि से अध्याय नवम-- देवा वै सोमस्य राज्ञोऽग्रपेये न समपादयन् .........."यहां से लेकर सब पाठ देखें । वायु भी वहां है। पूरा ऐतिहासिक स्थान है । . धाता" इन्द्र" अर्यमा" विवस्वान्".. मित्र" पूषा" पर्जन्य" अश" त्वष्टा" भग" विष्णु"- वायु ६६।१३५:::.. १. द्र०-महाभारत आदि० ६६।१५-१६; हरिवंश पर्व १। अ०१॥ श्लो० ४७, ४८; तथा भविष्य पुराण ब्रा०प० अ०७३, श्लोक ५३ । यु० मी. वरुण"'. २५ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट ताण्डा २४१२।४अग्नि, सोम इन्द्र के सगे भाई नहीं, पर वैसे भ्राता हैं। शीघ्रता में यह लिख दिया है। कापी बड़ी सावधानी से लिखें। वायु के निर्वचन अवश्य दें। और बाते लिखें। भ० दत्त इटली के डा० टूची यहां हैं । वार्ता में बड़ा आनन्द रहा है। ..... भ०. दत्त ५ (१८) अथ नई देहली १३-१२-४८ प्रियवर पण्डित जी, नमस्ते । चान्द्र व्याकरण पर एक प्राचीन वृत्ति श्री राहुल जी तिब्बत से लाए थे। वह पटना अद्भुतालय में पड़ी है। उन्होंने उसके छाप लेने की आज्ञा दे दी है। १२ शती के अक्षरों में है। दो, १५ तीन दिन के अभ्यास से पढ़ी जाएगी। मैं आप के पटना जाने का प्रबन्ध कर दूंगा, सोच लें। - आज ५००) रु० का ड्राफ्ट श्री देवेन्द्र जी के लिए बन गया। और रुपया भी पड़ा है। कागज की अब चिन्ता नहीं। शीघ्र आप . के पास पहुंचेगा। कल के पोस्ट कार्ड में लिख चुका हूं। २० आपिशलि का काल-राणायनीय शाखा के पश्चात-उनमें भी सात्यमुग्रीय प्रवचन हो गया था-उन दिनों वृत्तिकार भी थे। अतः यास्क से थोड़ा सा पहले अथवा भारत युद्ध से ७० वर्ष पूर्व ऐसी कोई और बात ढंढ लें। अन्य काल भी बहुत स्पष्ट लिखें । आप यहां कबा सकेंगे। शिक्षा सूत्र संग्रह अत्यन्त श्रेष्ठ है । पाणिनीय में स्वोपज्ञ भाग २५ १. बिहार रिसर्चसोसाइटी पटना में है। मैंने जाकर देखा है। प्राचीन मैथिली लिपि में है । वहां उस समय इसे पढ़ने वाला नहीं मिला। .. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १५२ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास कितना है धौर प्रोक्त भाग कितना है । चान्द्र में भी। इस पर विचार लिखें । चान्द्र ने पाणिनि की छोड़ी हुई बातें, पुरातन वैयाकरणों से कितनी ली हैं । गोपथ ब्राह्मण के समय बहुत वैयाकरण थे । पाश्चात्य भाषा विज्ञान पर चोट करें, स्थान २ पर । पत्र डालते रहें, नई बातें लिखते रहें । कल दीवान बहादुर जी को लिफाफा डाल दिया था । उन से मिल लें । ( १९ ) श्रोम् भगवद्दत्त नई देहली २०-१२-४८ प्रियवर पण्डित जी, नमस्ते । शाकटायन के टि० वाला कार्ड मिल गया था । १५ मेरा विचार है शाकटायन के अनेक सूत्र पुराने हैं। गंभीर विचार करें । इन्द्र ने, छन्दः शास्त्र पढ़ाया इस का उल्लेख मैंने वै० वा० ब्राह्मण भाग में किया है । आपका १७ का कार्ड आज मिला। मनु के दिव्य वर्ष मुझे भी सौर वर्ष दिखाई देते हैं। मैंने पं० ईश्वरचन्द्र जी से यह बात की थी । देवों में सौर वर्ष चलता था । पारसी ग्रन्थों में लिखा है २० कि यम ने सौर वर्ष चलाया । ५०० आपका विचार ठीक है । रूपरेखा दे दें। पर यहां आना पड़ेगा। डा० अग्रवाल जी को सूत्र पाठ दे दिया था। डा० रघुवीर जी यहां नहीं हैं । मैं २८ को कलकत्ता जा रहा हूं। आर्य महा सम्मेलन पर । ०) रु० कागज का भेज चुका हूं। अभी श्री देवेन्द्रजी का पत्र कागज चलने का नहीं आया । प्रब कागज पहुंचते ही शीघ्र काम कराएं । पत्र लिखते रहें। शिक्षासूत्रों में कौशिकोयाः श्लोकाः पर इतिहास में. नोट लिखें । आशिल से पूर्व, वृत्तिकार कौन थे । सब लिखें। अब ग्रन्थ कितना सुन्दर हो गया हैं, अवश्य लिखें । २५ 1 भगवद्दत्त Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२० ग्यारहवां परिशिष्ट १५३ (२०) प्रोम नई देहली १३-१-४६ प्रियवर पण्डित जी, नमस्ते । अापका १० का पोस्टकार्ड मिल गया था। धन्यवाद । कागज को बहुत देर नहीं लगेगी । यहां भी कागज आया है। परन्तु छपाई अजमेर में ही करानी है। व्याकरण इतिहास के ' दोनों भाग शीघ्र छपेंगे । वैदिक वाङ्मय भी वहीं छपेगा। पूछे यदि बाबूजो प्रबन्ध कर सके, तो कागज ले कर भिजवा दूं। रुपया छपाई १० थोड़ा २ पहले भी दे सकेंगे। पं० जियालाल जी ने भी वचन दिया है। उन से अवश्य मिल लें । जो पत्र बाबू हरबिलास जी को लिखा था, उस संबंध में कोई उत्तर नहीं आया। आप वाली योजना पर मत उसी पत्र में था । ... बौधायन धर्मसूत्र-पृ० १७१ पर आश्वलायनं शौनकं तर्पयामि। १५ २।५।१४।। अतः . शौनक-आश्वलायन पाणिनि बौधायन ऐसा क्रम जुड़ेगा। पाणिनि [को] शौनक के प्रथम दीर्घसत्र से ५० २० वर्ष पश्चात् रखें । पूरा काल मेरे इतिहास की सहायता से गिन लें।। ___ सरस्वती वाला लेख एक दो दिन में भेजूगा। उस में चमत्कार नहीं है। प्रत्येक ग्रन्थ का काल निर्धारण करना है। ऐसी ऊहा करें। अन्य प्राचीन ग्रन्थों से उस के प्रमाण खोजने हैं । कलकत्ता में आप के मुद्रित पृष्ठ विद्वानों को सर्वत्र दिखा दिए हैं। २५ बहुत आवश्यकता है । शीघ्र छा। क्षितीशचन्द्र चैटजि एम० ए० ने जाम्बवती विजय पर एक लम्बा लेख लिखा था । वह मैं ले आया हूं। उसके पास भागवृत्ति के लगभग Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ५०० पाठ हैं । बहुत विद्वान् व्यक्ति है । मैत्रेय का हस्तलेख उस के पास है । उसे . १. भागवृत्ति संकलन २. पंचपादी ३. प्रापिशलि आदि शिक्षाएं रजिस्ट्री भेजें । प्रागे से मेल रखें। संस्कृत कालेज तथा रायल ए० सो Kshitish Chandra Chatterji M. A. 81 Shyambazar Street ___Calcutta 4. पुस्तक को बहुत परिमार्जित बनाएं । यह अवश्य लिखें, अब ग्रन्थ का रूप कैसा बन गया है । काल क्रम और तिथियां सुनिश्चित लिखें । व्याडि, शौनक से २० वर्ष पहले । लम्बी आयु, सब बातें विचार लें। योरुपीय भाषा विज्ञान पर कोई प्रबल नया आक्षेप निकालें । सभा' की बैठक कब है ? तब अवश्य मिलूगा । अभी लौटती डाक लिखें। १५ कात्य बौधायन धर्म [भी] भी स्मृत है । देखलें । सब प्रमाण एकत्र ___कर दें। गोपथ ब्राह्मण का अपरपक्षीय कवि पाञ्चाल चण्ड' कौन था। - भ० दत्त आपिशलि आदि चरण-प्रवचन के पश्चात् थे। शतपथ ब्राह्मण अनुशासनानि-अथ शब्दानुशासन आदि हैं। पहले सब शासन था २० पुनः अनुशासन भ० दत्त प्रोम् नई देहली २०-१-४६ प्रियवर पं० जी, नमस्ते । पो० मिला । धन्यवाद छान्दसा अपि लोके प्रयुज्यन्ते१. अर्थात् परोपकारिणी सभा अजमेर की बैठक । २. अथापरपक्षीयाणां कविः पञ्चालचण्ड: परिपृच्छको बभूव । ३० ......... . . गो० ब्रा० १॥१॥२७॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १५५ . इति बाण प्रयोगात । अमर टीका सर्वस्व २।६।५४॥ पृ० १९८ । आवश्यक स्थान है, देख लें । कागज का अभी पता नहीं लगा। आप मुम्बई लिखते रहें। मैं रविवार २३ को अमृतसर जा रहा हूँ। शिवरात्रि पर मैं पहुंचूंगा। भाषाविज्ञान पर सर्वत्र चोट करें। और गहरी खोज निकालें। .. भ.दत्त इति कालापाः अमर० टीका सर्वस्व ३।१॥३४॥ ५ (२२) अथ .. नई देहली १० प्रातः ८ बजे २२-१-४६ प्रिय...... "न सज्जते हेमपा."-अष्टाङ्ग हृदय, सूत्र स्थान ७२८॥ सर्वाङ्ग सुन्दरा टोका-सज्जत इत्यत्रात्मनेपदं चिन्त्यम् । ... हेमादि-सज्जत इति पाठे सङ्गार्थक-षज्जेरात्मनेपदत्वं १५ चिन्त्यम् । ब्राह्मण ग्रन्थों में ऐसा प्रयोग खोज कर तुलना करें। पूरा नोट कर लें। पं० जियालालजी को मिलकर २६ रात्रि और २७ रात्रि को दो व्याख्यान रखा दें। मैं पहुंच रहा हूं। कागज का अभी पता नहीं । मुम्बई का टाईप अवश्य मंगालें। . वै० वाङ्-छपेगा। आप भी उसके लिए सामग्री देखते रहें। ... • भगवद्दत्त (२३) - ओम् नई देहली २५ ४-२-४६ प्रिय...m... नमस्ते । एक का कार्ड ३ को कल मिला। कागज भेजने का Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रबन्ध कर रहा हूं। पवज्जन्ति-गउडवहो-८७१। पृ० २४४. (दूसरा संस्करण)। टीका-वनाद् वनान्तरं प्रव्रजन्ति । व्यतिकरोभावः । पहम्मन्तीति पाठे हम्मतिः कम्बोजेषु प्रसिद्ध इति-पृ० २४५ यथास्थान लिख लें। अब प्राप्त से मिलने को मन करता है । आप के ग्रन्थ का अन्तिम रूप देखना चाहता हूं। .. बारह देव-हरिवंश पर्व १, अध्याय ६ श्लोक ४७,४८ । धाता, अर्यमा, मित्र, वरुण, अंश, भग इन्द्र, विवस्वान्, पूषा, पर्जन्य, त्वष्टा, विष्णु।' मुम्बई पूछते रहें कागज कब चलेगा। आप का ग्रन्थ डा० रेनो पेरिस को दिखाया था। तत्काल चाहते हैं। यदि दीवनबहादुर जी ने मान लिया, तो आपके पास ही रहूंगा। नई खोज करते रहें। १५ [आगे का अन्य से सम्बद्ध कुछ अंश छोड़ दिया है] भगवद्दत्त (२४) प्रोम् प्रोम् नई देहली ५.२-४६ शीताः सपृषतोद्दामाः कर्कशा वान्ति मारुताः । हरिवंश, विष्णुपवं, १०॥३॥ सपृषतः सबिन्दवः । उद्दामाः महान्तः । सपृषतोद्दामा इति सन्धिराषः । नीलकण्ठ टीका २५ प्रयोग कर लें। ४०) रु० स्वीकार हैं । ग्रन्थ लाहौर सदृश छपे। कागज शोघ्र १. द्रष्टव्य, पृष्ठ १५० पर छपा पत्र और उसकी टिप्पणी १ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १५७ भेज दूंगा। पं० जियालाल जी से आप मिले या नहीं। मिल लें और उत्तर दें। शेष मिलने पर। [भ०दत्त] (२५) अथ नई देहली रात्रि ५.२-४६ बहद्देवता २६५॥ तथा ८६० में शाकटायन को आचार्य लिखा है । वह संभवतः ऋषि नहीं था। विचार की कोई बात सूझे, तो शीर्षक दे दें। शौनक को भी प्राचार्य कहा है [बृ० दे०] २।१३६॥ यास्क भी १० आचार्य [बृ० दे०] १११३२। कदचित् दोनों पढ़ाने वाले थे। यद् यत्स्याच्छान्दसं मन्त्रे तत्तत्कुर्यात्तु लौकिकम् ॥ बृहदेवता २।१०१॥ शौनक के काल में छान्दस और लोक का कितना भेद था। विचार कर कुछ लिखें। यह भेद कब से चला था। बृहद्देवता ४१११३॥तस्मै ब्राह्मीं तु सौरों वा नाम्ना वाचं ससर्परीम् । यहां ब्राह्मी और सौरी दो वाक्-इन का भेद । क्या सौरी वही है जिसे नाट्य शास्त्र की टीका में देवों की वेदशब्दबहुला लिखा है। पाणिनो बभ्रवश्चैव ध्यानजप्यास्तथैव च । पार्थिवा देवराताश्च शालङ्कायनसौश्रवाः ॥ हरिवंश ११३२१५७॥ शाकटायन के २३ उपसर्ग, बृहद्देवता २१६४,६५ अवश्य दे दें। भगवद्दत्त (२६) नई देहली रात्रि 8 बजे ६-२-४६ धन्यवाद । कार्ड आज मिला। भाषा सम्बन्धी बातें सब सुरक्षित रखें। २० Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास येन देवस्त्रियम्बकः ॥ शान्तिपर्व ६६।३३।। कुभघोण संस्करण । १०.२-४६-प्रातः ६ बजकर २० मिनट । टिप्पणी में यह प्रमाण लिख लें। शान्तिपर्व अध्याय २२४।६७ से शब्द अर्थ का विषय । क्या ५ श्वेतकेतु ने भी इस विद्या पर लिखा था। अन्वेषगीय है । यह श्वेत केतु प्रौद्दालाकि, न्यायविशारद था-[शान्तिपर्व] २२४।२५॥ . . आप की कापी कितनी शुद्ध हो चुकी हैं। कागज का' मुझे अभी कोई पता नहीं पाया । आप श्री पं० जियालाल जी के पास गये बहुत अच्छा किया। उनका पत्र मिलने पर लिखूगा । भ० दत्त .... (२७) .. ... नई देहली रात्रि १० वजे ४-३-४६ आज के लिफाफे की पहुंच अवश्य लिखें। किसी अन्य के हाथ से डाक में पड़ा है- - १. त्रियम्बकं, बौधायन गृह्य शेष सूत्र ३।१२।। पृ० २६६ २. त्रियहे पर्यवेतेऽथ-बौ० गृ० शेष ५।२।। पृ० ३६२ त्र्यहे के स्थान में. प्रातः ५-३-११ बजे २५ पृष्ठ तक की प्रेस कापी भेज रहा हूं। लौटती डाक पहुंच लिखें। रजि० भेजी है । पूर्ण शुद्ध कर अन्तिम प्रूफ मुझे भेजें। स्वयं भी पढ़ लें। अपने 2 छपे फार्म भेजें। भ०दत्त २५ लौटाया कार्ड मिल गया। प्रेस कापी में एक पृष्ठ अधिक है, जो आप के पास पहले था, उसे ठीक कर लें। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १५६ (२८) नई देहली १६-१२-५० प्रियवर पं० यु० जी नमस्ते कातन्त्र परिशिष्ट श्रीपत्तिदत्तकृत में भागवृत्ति के लगभग १५० पाठ हैं। ढूंढिये । और लिखिए । इस विषय का लेख 'पाल इण्डिया ओरियण्टल कान्फ्रेंस, बनारस, १९४३-४४, मुद्रित ग्रन्थ १६४६, पृष्ठ २७३ से है। क्रमदीश्वर का सूत्र है-कृति षष्ठी वेति भागवृत्तिः। १० सुपद्ममकरन्द विष्णुमिश्र कृत में लगभग २० पाठ हैं । भागवृत्ति नाम का कारण-दो भागों में थी। छन्दोभाग, भाषाभाग। ___ गोयीचन्द्र-अत एव भाषाभागे भागवृत्तिकृत् ..." शे इति सूत्रं छन्दो भागः। इसका दूसरा नाम अष्टकवृत्तिकृत् । भागवृत्ति को काशिका एकवृत्ति की तुलना में भागवृत्ति कहा है। S. P. भट्टाचार्य इस लेख में कातन्त्र के दोनों दुर्ग एक मानता है । । यह लेखक सन्देह करता है कि भागवृत्तिकार इन्दु था। मेरे गत कार्ड का भी उत्तर दें। अब शेष १६ फार्म रहा प्रतीत २० होता है । अन्तिम प्रूफ आर्डर करके मुझे लिखें। भागवृत्ति सम्पूर्ण करके सुन्दर मोटे कागज पर छाप दें। कातन्त्र परिशिष्ट जहां हो मैं मंगवा दूं। सब बातें पूर्ण और स्पष्ट लिखें । व्या० इ० के परिशिष्ट में आवश्यक बातें लगा दें अभी मैं यहीं रहूंगा। भ० दत्त २५ - १. 'भागवृत्तिसंकलनम्' में सूत्र २।३।१२ पर उद्धृत । द्र० पृष्ठ १५ । सं० २०२१ । २. भागवृत्तिसंकलनम्' का अन्तिमरूप से संकलन सं० २०२१ में मैंने मजमेर में छपवाया था। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (२९) २० १२८ पंजाबी बाग पोस्ट शकूरबस्ती R.S. दिल्ली – ६ ७-८-६२ प्रिय पण्डित जी नमस्ते । आपका कार्ड तीन दिन हुए मिला । १. शान्तिपर्व १२२।४७ में सात वेदपारगों का कथन है । २. अगस्त्य के १२ शिष्य थे । उन में एक पर्णपारणार था । उस १० ने तमिल व्याकरण लिखा । उसके ग्रन्थ का आधार ऐन्द्र व्याकरण था । तोलकाप्पियं पर इसी पणंपारणार का भूमिकात्मक वचन है ।' 'यह तोलकाप्पियं ईसा से बहुत पूर्व का ग्रन्थ है । इसमें पाणिनीय शिक्षा के श्लोकों का अनुवाद है ।' १. देखो P. S. सुब्रह्मण्य शास्त्री, M. A. Ph. D. का लेख I. १५O.R. Madras, 1931 p. 183 उद्घाटन अभी नहीं हुआ । ७ अकतूबर को विचार है। पुस्तक शीघ्र छाप लें। यदि हो सकें तो मेरी पुस्तकों के पैसे भेजें । बहुत आवश्यकता है । अपना पूरा पता सदा लिखें । सब का नमस्ते । निरुक्त भाष्य लिख रहा हूं । (३०) ' कोष कल्पतरु में पृष्ठ ६५ पर षष्ठिभावी भर्तृहरिवृत्तिः सूत्रार्थबोधिका भगवद्दत्त D. C. sircar, studies in the Geography of ancient & २५ medieval India. १. यह अंश श्री पं० भगवद्दत्तजी के हाथ का कागज के एक टुकडे पर लिखा हुआ मेरे पास सुरक्षित रहा। उसे ही ऊपर दिया है । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२१ ग्यारहवां परिशिष्ट १६१ (३१) श्री पं० पद्मनाभ राव जी के पत्र श्री परम सुहृद् पण्डित बी० एच० पद्मनाभ राव जी के साथ मेरा पत्रव्यवहार सन् १९५६ में प्रारम्भ हुआ था । उस समय मैं ऋषि दयानन्द की जन्मभूमि 'टंकारा' (सौराष्ट्र) में 'दयानन्द शोध-विभाग के अध्यक्ष पद पर ५ कार्यनिरत था। श्री माननीय पण्डित जी अनेक शास्त्रों के तलस्पर्शी विद्वान् हैं। . . आपके साथ पत्र-व्यवहार प्रायः शास्त्रीय विषयों पर ही होता है । आपके द्वारा प्रेषित पत्रों की संख्या तो बहुत अधिक रही, परन्तु उनमें से १०-१२ विशिष्ट पत्र ही मेरे पास सुरक्षित हैं। उनमें से जिन पत्रों में प्रापने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ के विषय में उपयोगी सुझाव वा सामग्री १० प्रस्तुत की हैं, उन्हें मैं नीचे दे रहा हूं॥श्रीः ॥ Atmakur Kurncol 10-11-63 १५ श्रीमन्तः पण्डिताग्रण्या मीमांसकमहोदयाः ! नमोनमः । भवत्प्रहितं पुस्तकचतुष्टयं समासादितम् । धन्यवादास्तदर्थम् । अपिनाम कुशलमत्र भक्तां कारुण्येन कमलासहायस्य, सं० व्या० इतिहासस्य तृतीयभागस्य प्रचुरणं भवेदिति विज्ञाय तत्र सन्दर्भे किमपीदमुपयोगाय कल्प्यत इति निम्नोद्धृतं प्रहितं २० भवति । ज्ञात्वेदं भवन्त एव मानम् ।। (१) श्रीमदुत्तरादिमठाधीशैः श्रीसत्यप्रियतीर्थस्वामिभिः (क्री० १७३७-१७४४) महाभाष्यस्य विवरणं विरचितम् । (हस्तलेखोऽस्ति) (२) साताराग्रामवास्तव्य राघवेन्द्राचार्यगजेन्द्रगढ़कर् इत्येतेः ( त्रिपथगाकारैः ) महाभाष्यस्य व्याख्या विरचिता । कालश्चैषां २५ निश्चित एव । (३) गोदावरीतारस्यधर्मपुरीनिवासिभिरान्धेषु लब्धजन्मभिः छलारीनरसिंहाचार्यैः शाब्दिककण्ठमणिरिति भाष्यव्याऽकारि । जीवनसमय एषां ससदशशतकस्यपश्चार्द्धभाग इति तु निर्विवादम् । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (४) सं० व्या० इ० पृ (३६६)' आदेन्नप्रादीति नामैकदेशग्रहणादयम् आदिनारायणो वाऽऽदिशेषो वा भवेत् । व्यवहारश्चायमान्ध्रेषु सर्वथा सुलभः। अन्न, अप्प, अय्य, अम्म एवमादिभ्रात्रादिवाचिन श्शब्दा नाम्नामन्ते निवेशनमेवात्र सम्प्रदायः । अतः "?" प्रश्नार्थक५ चिह्नकरणस्यावश्यकतैव नास्तीति निवेदनम् । (५) व्याकरणदर्शनसम्बद्धग्रन्थवणने म०म० सेतुमाधवाचार्याणां श्रीव्यासपाणिनिभावनिर्णयस्य, तत्त्वकौस्तुभकुलिशस्थ च निवेशनमपि भवेदिति। (६) म० म० गिरिधरशर्ममहाभागानां महाभाष्यभूमिकायां १० विमृष्टानां केषाञ्चिदंशानां पुनः सुदृढो विचारो भवेत् । (७) अप्पय्यदीक्षितस्य काल: A. D. 1520-1593 इति केचित, अपरे तु A. D. 1553-1626 इति । अत्र प्रथमः पक्ष एव ज्यायान् इति भाति । अप्पयदीक्षितः तजावरुनायकस्य शेवप्पनायकस्य सभामलञ्चकार श्रीविजयीन्द्रतीर्थताताचार्याभ्यां सह । श्रीविजयीन्द्रतीर्थेभ्यः शेवप्पनायकः A D. 1580 तमेऽब्दे ग्रामदानं चकार (Mysore archaeological report. 1917)। तत्र च श्लोकोऽयमुद्धृतः माग्नय इव स्पष्टं विजयोन्द्रयतोश्वरः। ताताचार्यो वैष्णवाग्रयः सर्वशास्त्रविशारदः ॥ शैवाद्वैतैकसाम्राज्यः श्रीमान् अप्यय्यदीक्षितः । तत्सभायां मतं स्त्रं स्वं स्थापयन्तस् स्थितास्त्रयः ॥ (८) सं०व्या०इ० (पृ० ४७८) अप्पननैनार्यस्य कालोऽज्ञात इति १. यह पृष्ठ संख्या 'सं० व्या० इ०' के प्रथम भाग के द्वितीय संस्करण की है । तृतीय संस्करण में इस पत्र के अनुसार ठीक कर दिया है (द्र० पृष्ठ ४२८ । च० सं० ४७०)। २. इस ग्रन्थकार और उसके ग्रन्थ का निवेश नहीं हो सका। इसका खेद है। ३. हमने सं० व्या. शा० इ०' के प्रथम भाग के द्वि० सं० पृ० ४५०. ४५२ तक अप्पय्य दीक्षित के काल पर विचार किया था। तृ०सं० पृष्ठ ४६२ (च० सं० पृष्ठ ५३८) पर नाम निर्देश पूर्वक आगे प्रतिपादित मत उद्धृत कर दिया है। ३० ४. यह पृष्ठ संख्या 'सं० व्या० शा० इ० के द्वि सं० के प्रथप भाग की Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट लिखितम् । समयोऽस्य सर्वथा निश्चितो भवति । आन्ध्रष वैयाकरणत्वेन विख्यातः नैनार्य्यपदाभिधेय एक एवास्ति । अयं नैनार्यः नायनार्यः अप्पनापरपर्यायः। अप्पन अप्पण-अप्पल अप्पळ । श्री. विजयनगरसाम्राज्याधिपस्य श्रीकृष्णदेवराय सार्वभौमस्य सभापण्डितस्य (.................) ' अष्टदिग्गजेष्वन्यतमस्य तेनालिरामलिङ्ग- ५ महाकवेाकरणविद्यागुरुर्वैष्णवदासाभिधेय इति । तस्यैव रामलिङ्गमहाकवे: “पाण्डुरङ्गविजयमु" इति ख्यातस्य महाकाव्यस्यादौ स्पष्टं लिखित । तस्य वैयाकरणत्वम्- "अपशब्दभयं नास्ति अप्पलाचार्यसन्निधौ” इति श्लोकांशेन सुव्यक्तम् । अतः कृष्णदेवरायसमकालिकोऽयं नैनार्यः नायनार्यः=अप्पलनायनार्यः=अप्पननायनार्यः । सर्वत्र १० अप्प=अन्न =नायन =अय्य=ग्रार्य एवमादीनिपूज्यवाचकभ्रात्रादिवाचकानीत्युक्तं प्राक् । (६) यण्व्यववानपक्षस्य प्रमाणान्तरमिदमवधाय॑ताम्' "यामाहुरनमां केचित् त्रियाद्यवयवात्मिकाम्" श्रीमध्वाचार्याणां विष्णतत्त्वविनिर्णयस्य वचनम । तत्र जयतीर्यटीका -त्रियम्बकं यजा- १५ महे, भूषादयो धातव इत्यादिप्रयोगसिद्धयर्थं यणागमोऽपि कश्चिद् व्याख्यातः । ततस्त्रियादीत्युपपन्नम् ।” उक्तटीकायाः श्रीनिवासतीर्थीयटिप्पने="यणागमोऽपीति न केवलं यणादेश इत्यर्थः । अन्यथा त्रीण्यम्बकानि चषषि यस्यासौ त्र्यम्बकः, भू प्रादयो भ्वादय इत्येव स्यादिति भावः । तथा च इकारात् परं यणागमे त्रियादोति साध्विति- २० द्रष्टव्यम्"। (१०) पाणिनेः श्लोकानामुद्धरणं पत्रंणानेन सह प्रहितम् । है । तृतीय संस्करण में पृष्ठ ४६२-४६३ (च० सं० पृष्ठ ५३८) पर नामोल्लेख पूर्वक आगे का कुछ अश दे दिया है । १. अत्रं कोष्ठे किमथि तेलगुलिप्यां लिखितस्ति । अतस्तत्र चिह्न दत्तम् । २५ २. यह अंश सं० व्या० शा० इ० में सन्निविष्ट करना रह गया। ३. इस पत्र के साथ पाणिनि मुनि के जाम्बवती विजय के १५ श्लोक भी श्री पं० पद्मनाभ राव जी ने भेजे थे। वे सब तृतीय भाग के छठे परिशिष्ट में संगृहीत श्लोकों में आ गये हैं । अत: यहां नहीं दिये हैं । द्र० श्लोक संख्या २१, १४, २२, १०, २७, २३, २६, १२, २४, २०, १८, १५, १६, १७, २५॥ ३० Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सर्वमिदं सम्यक् पर्सालोच्य यद्रोचते तद् ग्राह्मम यन्न रोचते तत् , त्याज्यम् । श्रीमन्तोऽत्रमवन्तस्सर्वथा स्वस्तिमन्तो भवन्तु देवदेवस्य दययेति नित्यमाशासे। ५ अपरञ्च-अष्टोत्तरशतनाममालिकायाम् Page 32 "ॐ तत्व वाची......."पदोदितः । तत्र टिप्पने" पाठ भ्रष्ट है । शुद्धपाठ अन्वेषणीय ।" इति लिखितम । शुद्ध पाठस्तु "प्रोतत्ववाची ह्योंकारों वक्त्यसौ तद्गुणोतताम् । स एव ब्रह्मशब्दार्थो नारायणपदोदितः ।" श्रीमध्वाचार्याणाम् अनुव्याख्याने । तस्य व्याख्यायां न्यायसुधायाम-"प्रोतत्ववाचीतिः हिशब्दो हेत्वर्थे । ॐकारस्तावद् प्रोतत्वस्वगतत्वस्यप्रविष्टत्वस्य वा वाचकः" । प्रथमचरणे ॐ इति न्यासोऽनुचितः । द्वितीये खण्डे वन्द्यसौ इत्यपि नोचितः, "वक्ति+असौ =वक्त्यसौ।" अयं हि शुद्धः पाठः । तत्रैव Page 188" नयज्जा१५ तानी"ति श्लोकः श्रीमध्वाचार्याणामित्युक्तम । तच्च कस्य ग्रन्थस्येति न स्पष्टम् । तत् तु स्पष्टीभवितुमर्हति । तत्रैव Page 74 विष्णुपदनिर्वचने श्रीमध्वाचार्यमतोपन्यासे तेषां ग्रन्थसङ्केतादिकमपि स्पष्टं -वर्णनीयम्, अन्यथा मुधैव स्यात् श्रीशास्त्रिणां रचनाप्रयासः। एवं निवेदयन् विरमति विदां विधेयः पद्मनाभः २० B . H. Padmanabh Rao Atmakur (Kurnul) ॥ श्रीः॥ Atmakur 12-11-63. २५ श्रामत्सुमहाभागेषु प्रणामपुर:सरा विज्ञप्तिः । अप्पननैनार्य के बारे में मैंने लिखा था। इस विषय में और १. यहां से अगला संदर्भ श्री पं० विद्यासागर रचित 'अष्टोत्तरशतनाममालिका' ग्रन्थ, जिसे मैंने छपवाया था, के साथ संबद्ध है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १६५ भी गवेषणीयांश है जो आगे लिखूंगा । तब तक इसे विचारणीय कोटि में ही रखें । इत्यलम् आपको वशंवदः B. H. Padmnabha Rao Atmakur (३३) श्रीः । आत्मकूर (कर्नूल) ३०-१०-७३ अयि पण्डितपञ्चाननः ! सादरं नमोऽस्तु । उभयतः कुशलमेव तनोतु देवः । प्रकृतोदन्तस्तु - १० श्रीमद्भिरत्र भवद्भिर्मण्डन मिश्रविषये सं० व्या० इ० २ भाग, ( ४१० पृष्ठ ) हिन्द्यां यदलेखि तत्सर्वथा समीचीनमिति । श्रीकूडली - १५ मठाधीश्वराः श्रीमत्सच्चिदानन्द भारतीस्वामिनः कदाचिद् वार्ता - प्रसङ्गे मय्येवं समसूचयन् - ' कामशास्त्रपरिज्ञानार्थं श्रीमच्छङ्कराचाय्यैः परकायाप्रवेशोऽकारीति सन्दर्भों मिथ्यैव । केनापि विद्वेषदग्धान्तरङ्गेण प्रायेण माध्वेन काव्यमेतद् व्यधायि तेषां यशः कलङ्कयितुम्” इति । परमत श्रीसच्चिदानन्दशंकरभारतीस्वामिनस्तु श्रीमदाद्यशङ्कराचार्याणां शृङ्गेरी मठस्यैव शाखामठस्याधीश्वरा इति विज्ञेयम् व्याकरणदर्शन ग्रन्थेतिहासे - श्रीमन्मण्डन मिश्रप्रणीतो भावनाविवेकाख्यो ग्रन्थो विचारपदवीं २० २५ १. यह पृष्ठ संख्या द्वितीय भाग के सं० २०३० में छपे संस्करण की है । प्रकृत संस्करण (सं० २०४१ ) में पृष्ठ ४४८ पर श्री माननीय पण्डित जी का नामोल्लेख पूर्वक इस पत्र का उल्लेख करते हुए पत्रस्थ विषय हिन्दी भाषा में दे दिया है । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास नारोपि श्रीमद्भिः । धात्वर्थनिरूपणपरोऽयं ग्रन्थः भावनाविवेको भट्टश्रीउम्बेककृतया व्याख्यया सहितः काश्यां सरस्वतीभवनसीरीजतः Vo. 6 द्वारा प्राकाश्यमनायि म० म० श्रीगङ्गानाथशर्मभिः (१९२२ A. D) प्रकृतोऽशः श्रीमतां विचाराय प्रास्तवितम् । देहो मे सुतरां दुर्बलः स्खलितलेखनीति बहु लेखयितु नैव पारयामि। भवदीयः पद्मनाभः पाठान्तरसूच्यादियुत ऽष्टाध्यायीसूत्रपाठो विक्रयार्थं सज्येत तर्हि प्रेष्यताम् - ____मया कश्चिदाङ्गललेखोऽत्र प्रहीयते। उम्बेक-कुमारिल-मण्डनादि' विषये । श्रीमद्भिरेतल्लेखानुसारं सूक्ष्ममीक्षणीयम् । कुमारिलस्य शिष्य उम्बेकः भवभूति अथवा मण्डनः ? श्रीः। __ आत्मकर ॥ श्रीहरिशरणमस्तु ॥ (कर्नूल जि.) . २-४-७७ अयि बान्धवा मे सुहृदः ! अजस्रं मे सन्तुतमां नमांसि सहस्रम् । कुशलं हि नस्तच्च भवदीय२० मप्याशासेऽनिशम् । प्रकृतन्तु सं० व्या० इतिहास भाग २ पृष्ठ ४०६' इत्यत्र वाक्यपदीयस्य वाक्यप्रदीप इत्यपि व्यवहार प्रासीदिति 'बूहलर'-वचनं प्रमाणतयोपन्यस्तम् । तत्रैव प्रमाणान्तरम्___'भर्तृहरिरप्यमुमेवार्थवाक्यप्रदीपे प्रादर्शयत् साकाङ्क्षावयवं २५ भेदे ....."वाक्यविदो विदुः। इति ( काण्ड २ श्लोक ४) इति. तत्त्वोद्योत टिप्पण्यां नारोपन्तीये समुदटङ्कि। १. यहां पृष्ठ संख्या ४०१ होनी चाहिये । यह पृष्ठ संख्या सं० २०३० में छपे संस्करण की है । प्रस्तुत संस्करण (सं० २०४१) के पृष्ठ ४३८ में इस पत्र के निर्देश पूर्वक पत्रस्थ विषय का उल्लेख कर दिया है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १६७ अयं हि नारोपन्तः (नारायणपण्डितः) षोडशकृष्टीयशतके (16th. Century A. D) पुणतांबा (गोदावरीत्तीरवर्ती ग्रामः) नगरमलंचकारेति ज्ञायते । अतः सत्यमेवाभाणि बूलहरमहाभागेनेत्यवगन्तव्यम् । शेषमन्यत्कुशलम् । क्षेमपत्रं प्रदीयताम् । भवतां वशंवदः पद्मनाभः B. H. Padmanabh Rao Atmakur P 0.518422 Dist:--Kurnool (A. P.) From: ॥श्रीः॥ प्रात्माकर ६-१२-८४ __ =श्रीहरिश्शरणम्मम= अयि पण्डितेन्द्राः ! . सनमम्यं निवेदयामि-सं० ब्या० इ० शाबरभाष्यश्रीतपदार्थ. १५ निर्वचनपुस्तकानि श्रीजीवाराममहाभागाः प्राहैषुर्न पुनस्तेषां मूल्यं . कियद्वा प्रेषणीयमिति समसुसूचन् तदर्थमर्थये । प्रकृतन्तु___ व्याकरणैति ह्यग्रन्थे निम्नोट्टङ्कितानां ग्रन्थानामप्यवश्यमुल्लेखो भवेदिति मे मनीषा । श्रुत्वा श्रीमन्त एव मानम् । १) आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन-एक अध्ययन, डॉ० २० नेमिचन्द्रशास्त्री। २) शब्दार्थरत्नम (दार्शनिक) श्रीतारानाथतर्कवाचस्पतिः । ३) व्याकरणदर्शनभूमिका-श्रीरामाज्ञापाण्डेयः । ४) व्याकरणदर्शनपीठिका- श्रीरामाज्ञापाण्डेयः । ५) व्याकरणदर्शनप्रतिभा-श्रीरामाज्ञापाण्डेयः । ६) व्यासपाणिनिभावनिर्णयः-म० म० सेतुमाधवा चार्याः । ( इदं पुस्तकं भवदर्थ मयैव प्रहितम् भवतां सङ्ग्रहे वर्तते ।) .. १. यह पत्र अभी छपते-छपते मिला है । इस भाग की भूमिका देखें। . २५ : Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ७) शब्देन्दुशेखरव्याख्या-श्री म० म० सुब्बरायाचार्याः । ८) शेखरद्वयव्याख्या मद्विहिता सत्यप्रमोदिन्याख्या । ६) लघुशेखरव्याख्या-एलमेलिविठ्ठलाचार्याः। , भावत्कं मित्रम् पद्मनाभाचार्यः श्री नाथूराम प्रेमी का पत्र मैंने 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' ग्रन्थ की प्रेस कापी लिखते समय प्राचार्य देवेनन्दीकृत जैनेन्द्र व्याकरण के सम्बन्ध में डा० काशीलाथ बापू जी और डा० बेल्वल्कर के वार्षगण्यः पदसंबन्धी लेखों को देखा था। उसी १० समय श्री नाथूराम जी प्रेमी द्वारा लिखित 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थ भी देखा । उसमें श्री प्रेमी जी ने श्री बापू जी एवं डा० बेल्वल्कर द्वारा निर्दिष्ट उद्धरणों एवं उन से निष्कासित परिणामों को स्वीकार किया है। इन सभी के लेखों में ३-४ भयङ्कर भूलें थीं । इन भूलों की ओर श्री प्रेमी जी का ध्यान आकृष्ट करने के लिये मैंने ८ अगस्त १९४८ को एक पत्र लिखा था। . १५ उसके उत्तर में श्री प्रेमीजी ने निरभिमनता एवं सहृदयता पूर्ण २१ अगस्त १९४८ को जो पत्र लिखा था, उसका प्रारम्भिक अंश 'सं० व्या इतिहास' के देवनन्दी के प्रकरण में प्रथम संस्करण (सन् १९५०) में पृष्ठ ३२८° पर छाप दिया था। यहां उनका समग्र पत्र छापा जा रहा है। हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय होराबाग गिरगांव बम्बई २६-८-४८ प्रिय महाशय आपका ता० ७ का कृपापत्र यथासमय मिल गया था। परन्तु २५ अस्थस्थता के कारण अभी तक उत्तर न दे सका इसके लिये क्षमा करेंगे। आपने मेरे जैनेन्द्र व्याकरण सम्बन्धी लेख में जो दो न्यूनतायें १. प्रस्तुत संस्करण में यह अंश पृष्ठ ४६७ पर छपा है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२२ ग्यारहवां परिशिष्ट १६६ बतलाई हैं उन पर मैंने विचार किया। आपने जो प्रमाण दिये वे बिल्कुल ठीक हैं। इनके लिये मैं आपका कृतज्ञ हूं। यदि 'जैन साहित्य और इतिहास" को फिर से छपाने का अवसर आया तो उक्त न्यूनताएं दूर की जायेंगी। ___ आपका संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास कब तक प्रकाशित ५ हो जायगा । मैं उसकी प्रतीक्षा करूंगा। ___ आपने जो न्यूनताएं बतलाई हैं उन्हें एक लेख के रूप में यदि आप 'अनेकान्त' या 'जैन सिद्धान्त भास्कर' में प्रकाशित करा दें, तो. ज्यादा अच्छा हो। जैन सम्प्रदाय के ये दो मुख्य पत्र हैं जिनमें ऐतिहासिक लेख विशेषरूप से प्रकाशित होते हैं। पहला 'सरसाना' (सहा: १० रनपुर) से और दूसरा 'भारा' (बिहार) से निकलता है। ___अमोधावृत्ति जहाँ तक मुझे स्मरण है 'भारतीय ज्ञानपीठ' बनारस से प्रकाशित होने का प्रबन्ध हो रहा था। उनके पास हस्तलिखित प्रति होगी। प्रापका १५ - नाथूराम प्रेमी (३७) श्री पं० श्रीधर अण्णाशास्त्री का पत्र श्री पं० श्रीधर अण्णाशास्त्री जी ने मैत्रायणीय प्रातिशाख्य का उल्लेख .. तथा उसमें उल्लिखित ऋषि-नामों का निर्देश श्री पण्डित दामोदर सातवलेकर २० १. 'जैन साहित्य और इतिहास' ग्रन्थ का परिवधित वा परिष्कृत द्वितीय संस्करण सन् १९५६ में छपा । इस संस्करण में श्री प्रेमीजी ने वार्षगण्य संबन्धी प्रकरण निकाल दिया। (इस संस्करण की एक प्रति श्री प्रेमीजी ने मुझे सप्रेम भेंट रूप में भेजी थी)। वार्षगण्य संबन्धी लेख हटाने की सूचना भी मैंने सं० व्या० शा० इ० के द्वितीय संस्करण सं० २०२० में दे दी है। २. सन् १९५० में प्रकाशित होने पर सं० व्या० शा० इ० की एक प्रति श्री प्रेमी जी को भेज दी थी। ३. कार्य बाहुल्य से लेख रूप में इन पत्रों में किसी को नहीं भेजा। २५ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० - संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास द्वारा प्रकाशित मैत्रायणी शाखा के प्रस्ताव में पृष्ठ १६ पर किया है । उसे देखकर मैत्रायणीय प्रातिशाख्य के विषय में मैंने श्री शास्त्री जी को १२ सितम्बर ४६ को एक पत्र लिखा था। उसका श्री शास्त्री जी ने जो उत्तर दिया वह इस प्रकार है भाद्र. कृ. ५. गुरौ श्रीः' नाशिक शके १८७० . क्षेत्रतः सन्तु भूयांसि नमांसि । भावत्कं १२।६।४८ तनीनं कृपापत्रं समुपालभम् । आशयश्च विदितः । मैत्रायणीसंहिताप्रस्तावे 'आग्निवेश्यः ६।४, शांखायनः २।३।७, एवं क्वचित् द्वे संख्ये क्वचिच्च तिस्रः संख्याः १० निर्दिष्टाः सन्ति । सोऽयं संकेतः मैत्रायणीयप्रातिशाख्यस्य अध्याय कण्डिका-सूत्राणामनुक्रमप्रत्यायक इति ज्ञेयम् । मैत्रयांयणी प्रातिशाख्यं मत्सविधे नास्ति, मयाऽन्यत आनीतमासीत् । मूसमात्रमेव वर्तते । यदि तत्रभवताऽपेक्ष्यते मैत्रायणीयं प्रातिशाख्यं, तर्हि निम्नलिखित स्थलसंकेतेन पत्रव्यवहारं कृत्वा प्रयत्नो विधेयः । ची रा० रा०. भाऊ १५ साहेब तात्या साहेब मुटे पञ्चवटी, नासिक अथवा श्री रा रा० शंकर हरि जोशी अभोणकर जि. नासिक, ता० कूलवण, पो० म० अभोणे। एतस्मिन् स्थानद्वये मैत्रायणीयं प्रातिशाख्यमस्ति । एते महाभागास्तच्छोखीया एव । तत एवानीतं मया, कार्यनिर्वाहोत्तरं प्रत्यर्पितं नेभ्यः। एवमेव कदाचित् स्यर्तव्योऽयं जनः। किमतोऽधिकमिति २० विज्ञप्तिः । भावत्क: श्रीधर अण्णाशास्त्री वारे १. यह पत्र मैंने 'सं० व्या० शा० इ०' के द्वितीय भाग (संवत् २०१६). में पृष्ठ ३१७ (प्रस्तुत संस्क० में पृष्ठ ४०२) पर छापा है। वहां भूल से '५' २५ तिथि का निर्देश छूट गया है। २. भाद्र कृ० ५ गुरौ शके १८७०, 'अमान्त' मासीय दाक्षिणात्य पञ्चाङ्ग के अनुसार है । उत्तर भारतीय पञ्चाङ्ग के अनुसार 'आश्विन कृ० ५ गुरौ, ___सं० २००५' जानना चाहिये । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट (३८) श्री पं० यन्० सी० यस् वेङ्कटावार्य शतावधानी का पत्र सी० यस्० वेंकटाचार्य, ' शतावधानी . ७११२ महाकाली स्ट्रीट, सिकन्दराबाद (प्र० प्र० ) १३-२-१९६३ यन् ० १७१ प्रियमहोदयाः, सादर प्रणामाः । भवद्भिः प्रेषितानि पुस्तकानि लब्धानि । किन्तु कार्यान्तरव्यग्रेण मया एतावत्पर्यन्तं पत्रं न प्रेषितम् । याचे क्षमध्वमिति । " संस्कृतव्याकरणशास्त्र का इतिहास २ भाग ", " गणपाठ की पर १० म्परा", "पुरुषकारवात्तिकोपेतं देवम्” – सर्वोऽपि ग्रन्थः महोपकारक एव । एतादृशानां ग्रन्थानां प्रकाशनेन सर्वानपि भारतीयान् ऋणिनः कुर्वन्ति भवन्तः, यथा कदापि केनाप्युपायेन तेषामानृण्यं न भवेत् । इत्थमेव नैकग्रन्थानां प्रकाशनं कर्तुं श्रीहयग्रीवदेवः भवद्भ्यः चिरायुरारोग्यभाग्यं देयादिति हार्दिकीं प्रार्थनां करोमि । यतः सम्प्रति व्याकरणशास्त्रेतिहासस्थ प्रथमभागस्य पुनर्मुद्रणं क्रियमाणमस्ति, अतः हरदत्तमिश्रस्य विषये यत्किञ्चिद्वक्तव्य मस्ति तद्विज्ञाप्यते । यदि भवते रोचते स्वीकृतं भवतु । १५ हरदत्तमिश्रस्याभिजनमान्ध्रदेश श्रासीत् । पदमञ्जर्यां देशभाषा - शब्दानामप्रामाण्यं वदन् यथा "कूचिमञ्चीत्यादयः "" इत्युक्तवान् । २० " कूचिमञ्चि" इति प्रान्ध्रदेशे कस्यचित् कोणस्थग्रामस्य नाम । श्रद्यापि स ग्रामो विद्यते । पूर्वस्मादपि कालात् स ग्रामः विश्रुतानां १. श्री वेंकटाचार्य का नामोल्लेख पूर्वक इस पत्र के उपयोगी अंश का निर्देश हमने 'सं० व्या० शा० इ०' के प्रथम भाग के तृतीय संस्करण के पृष्ठ ५१५ (प्रस्तुत चतुर्थ सं० पृष्ठ ५७५ ) पर कर दिया है । (दोनों संस्करणों में पत्र की तारीख १।३।६३ अशुद्ध छपी है ) । २५ २. द्र० पदमञ्जरी 'अथशब्दानुशासनम्' के प्रारम्भिक भाग में । उस्मानिया विश्वविद्यालयस्थ संस्कृत परिषद् संस्करण, भाग १, पृष्ठ ४ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० १७२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कविपण्डितानामावासः । यदि हरदत्तः प्रोन्ध्रः, अपि च कचिमञ्चिग्रामवासी नाभविष्यत् तदा यादच्छिकवचने कृचिमञ्चीत्यान्घ्रदेशीयं ग्रामं नास्मरिष्यत् ।' द्रविडदेशीयस्य विषये सुतरामसंभवमेवेत्थं वचनम् । "तातं पद्मकुमाराख्यम्" इति श्लोके पद्मकुमार इति "ब्रह्मय्य" नाम्नः संस्कृतीकरणम; श्रीरिति "लक्ष्मम्म" इति नाम्नः, अग्निकुमार इति “कोमरय्य" इति नाम्नश्च । एषा संस्कृतीकरणरीतिः व्यक्तिनाम्नामान्ध्रदेशे प्राचर्येण वर्तते। पदमञ्जरीरचनाकाल एव केनचित् कारणेनं हरदत्त, द्रविडदेशं गत. स्यादिति प्रतिभाति; "लेट् शब्दस्तु वृत्तिकारदेशे जुगुप्सितः, यथा प्रत्र द्रविणदेशे निविशब्दः' इत्युक्त्या । यदि सः द्रविडदेशीय एवाभविष्यत् तदा "अत्र द्रविडदेशे" इत्यस्य स्थाने "अस्मद्देशे" इति वा "अस्मद्रविडदेशे" इति वा अवदिष्यत् । तस्य ग्रन्थान्तरेषु "तेमल्" इत्यादि द्राविडभाषापदानां समावेशेनैतदनुमातुशक्यते यदेष आन्ध्रदेशे कूचिमच्यग्रहारे जातः, १५ पदमञ्जयुत्तरभागरचनाकाले द्रविडदेशं गतः, शेषजीवितं चोलदेशे कावेरीतीरे प्रवचनादिकं कुर्वन् अयापयदिति । द्राविडपदसमावेशनमपि तथा कृतं यथा अद्रविडेन द्रविडदेशे प्रवचनसमये क्रियेत । "तत्र द्राविडाः कन्यामेषस्थे सवितर्यादित्यपूजामाचरन्ति भूमौ मण्डलमालिख्य, इत्यादीन्युदाहरणानि" (आप० धर्मसूत्रस्य उज्ज्वलावृत्तौ २ अ० ११ पट० १६ सू०) इत्यादिवचनानि द्रष्टव्यानि । अपि च शेषवंशीयानामपि आन्ध्रदेशीयत्वं प्रदर्शनीयमिति मन्ये । शेषवंशीया आन्ध्रभाषाकवयोप्यासन् । अत्र भवतामभिप्रायं ज्ञातुमुत्सहे । अवकाशानुसारेण प्रत्युत्तरेणानुगृह्णन्त्विति प्रार्थये । भवतामाशीर्बलेन वयमत्र कुशलिनः। तत्र भवतां २५ क्षेमलाभादिकं शुश्रूषे । विनीतः वेङ्कटाचार्यः १३-२६३ प्रधोनिर्दिष्टे विषये तत्र भवतामभिप्रायः प्रार्थ्यते ३० १. द्र० पद्रमञ्जरी ६।१।१९२ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट - १७३ "प्रप्रथमान्ध्रमहाकविना नन्नयभट्टारकेण स्वकीयमहाभारतानुवादग्रन्यस्यादौ मङ्गलाचरणश्लोकः इत्थं व्यर च- "श्रीवाणीगिरिजाश्चिराय दघतो वक्षोमुखाङ्गेषु ये लोकानां स्थितिमावहन्त्यविहतां स्त्रीपुसयोगोद्भवाम् । ते वेदत्रयमूर्तयस्त्रिपुरुषाः संपूजिता व: सुरैः ५ भूयासुः पुरुषोत्तमाम्बुजभवश्रीकन्धरा: श्रेयसे ॥ अत्र प्राण्यङ्गानां समाहारे कर्तव्ये “वक्षोमुखाङ्गषु" इति इतरेतरयोगः कृतः । स कविस्तु अष्टभाषावागनुशासन विरुदाङ्कितः प्रामाणिकाग्रगण्यः । एष श्लोकः कृत्यादौ वर्तते । अत एष प्रयोग: प्रामादिक इत्यनुमातुन शक्यते । एतत्प्रयोगसाधने कथं प्रवर्तनीयम् ? १० विनीतः वेंकटाचार्यः श्री पं० चन्द्रकान्त बाली का पत्र ५५१, गली बेलसाहब, काश्मीरी गेट दिल्ली। १५ (वर्तमान : सिरसा, जिला हिसार) २६-जून-१९६३ माननीय विद्वद्वर्या ! प्रणाम । अापका कृपा-भार से भरित पत्र मिला। आपने इस पत्र से मुझे कृतज्ञ बनाया है । मैं प्रतिष्ठान का सदस्य तो बनना २० चाहंगा, पर पहले पुस्तकें खरीद लू बाद में सदस्यता की बारी आएगी। मैं व्या० शा० इतिहास नामक पुस्तक लगभग सारी पढ़ गया हूं। इस विषय [में] मेरे कुछ सुझाव हैं । यथा १- इतिहास के तृतीय भाग में प्रथम भाग के पृष्ठ ५८४ के १. नात्र प्राणिसामान्यभूतानां वक्षोमुखाङ्गा विवक्षिता:, अपितु वाणी- २५ रूपाया गिरिजाया विशिष्टान्यङ्गान्यभिप्रेतानि । एकवचनत्वं तु सामान्ये भवति । २. इस समय आप का पता है-'एन/डी--२३, प्रीतमपुरा, विशाख इन्क्लेव, दिल्ली-३४।' Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अनुसार) आप स्वनिर्धारित पाठ विषय दे रहे हैं । मेरी प्रार्थना मान नौवां अध्याय और सन्निविष्ट करलें । उसका शीर्षक होगा "वैयाकरण पारिभाषिक शब्दकोश" । आपकी रचना में बहुतेरे शब्द ऐसे आए हैं, जिनका व्याकरण क्षेत्र में अर्थ और हैं, और उससे अन्यत्र ५ अर्थ कुछ और है । इस शब्दकोश से पुस्तक का गौरव बढ़ जाएगा । A २ - कालनिर्णय पर आप पुनः विचार करें। श्री भगवद्दत्त जी इस प्रसंग में पूर्णतया भ्रान्तिग्रस्त हैं । नये अनुसन्धान में आपके समक्ष कुछ कठिनाइयां अवश्य आएंगी। इस विषय में मैं आपकी पुनीत सेवा में उपस्थित रहूंगा । यथा १० (क) अपने शिवस्वामी का समय ( १ भाग : पृष्ठ ५५ २ ) ' संवत् ९१४ - ९४० माना है । इसका आधार आपने बताया है - राजतरंगिणी का एक श्लोक | आपको विदित हो राजतरंगिणी का इतिहास शक संवत् १०७० से १६७१ तक है ।' 'शक संवत्' ६१६ ईसा पूर्व - से गण्य होगा । तदनुसार प्रामाणिक इतिहास ४५४ ईसवी से १०५५ - ईसवी तक समाप्त है । अब आप बताइए इसमें अवन्तिवर्मा का काल क्या होगा ? १५ (ख) वामन - समय कूतते हुए आपने पुनः भूल की ( १ भाग : पृष्ठ ५४२) ' । वलभी भंग का निश्चित समय ईसवी सन् ७८७ है। ( वही पृ० ५४४ पंक्ति ८-९ ) श्री जिन विजय जो ने जो अर्थ किया २० है : संव० ५७३, वह ठीक है । कल्हण प्रतिपादित मातृगुप्त का प्रेरक • विक्रमादित्य हर्ष का समय यही है । यथा (१) हर्ष विक्रम संवत् ५७३ (२) विक्रमसंवत ३७५ } ईसवी सन् ७८७ • मातृगुप्त का समय कल्हण के अनुसार ईसवी सन् २९४ है । दोनों में १६८ वर्ष का व्यवधान है । २५ (ग) वररुचि का समय भी आपने अशुद्ध लिखा है । ( २ भाग : पृष्ठ २२९) आप इमे संवत् प्रवर्तक विक्रम का समकालिक ( ५८ ई० पू० मानते हैं, जबकि उसका समय संवत् प्रवर्तक विक्रमादित्य सं०२, वि० सं० २०२० । २. यह काल मुझे मान्य नहीं है । यु०मी० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १७५ ६६ ईसवी के बराबर है । कालिदास भी इसी का सभारत्न है । अमरसिंह भी तो....... इस प्रकार संवत् विषयक कुछ और बातें भी हैं । यह विषय बड़ा लम्बा है । एक पत्र में बात समाप्त न होगी । इस प्रसंग में मेरी दो पुस्तकें छपने वाली हैं - १ भारतीय संवत्, २ पुराणभारतम् । दर्शन ५ होने पर मैं इसका विस्तृत परिचय दूंगा । किमधिकम् । बस जाने में जरा विलंब है। समय निकाल कर पत्र लिखा है । यात्रा में प्रायः शीघ्रतावश पत्र ऐसे ही लिखे जाते हैं । त्रुटियां आप क्षमा करेंगे । पत्रोत्तर दिल्ली में (४०) विनीत चन्द्रकान्त बाली सिरसा Delhi-6 11-7-63 १० १५ मान्यवर ! गुणिगणाग्रगण्य ! सादर चरणवन्दना । मैं सिरसा से बाज आया हूं। आप का ३ जुलाई का पत्र पाकर धन्य हो गया हूं। आपने मेरी नम्र प्रार्थना को स्वीकार कर लिया है - मेरे लिए इससे बढ़कर गौरव की २० बात और क्या होगी । इतिहास में प्रागत कतिपय व्यक्तियों की कालगणना पर आप पुन: विचार करेंगे और मुझे थोड़ी सेवा का सुग्रवसर प्रदान करेंगे - पढ़कर प्रसन्नता हुई । मैं तन मन से प्रापकी सेवा करूंगा । 1 २५ आपके शोध ग्रन्थ से मेरी एक स्थापना की पुष्टि हो गई है । मैं निश्चय किए हुए था कि उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर विक्रमादित्य और शूद्रक को भाई-भाई कहा जा सकता है । विक्रमादित्य का समय 66 A. D है। इसका संवत् विक्रमशाकाब्द कहलाता है । 'शकनृपकालातीत संवत्सर' के समस्त उल्लेख 66 A. D के हैं । शूद्रक का संवत् 78 A. D है, जो इस समय राष्ट्र द्वारा अपना लिया गया है। दोनों भाइयों में १२ वर्ष का सूक्ष्म व्यवधान है । श्रापने भर्तृहरि ३० Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास को जनश्रुति के आधार विक्रमादित्य का भाई लिखा है और प्रबंधचिन्तामणि के आधार शूद्रक का भाई । यदि जनश्रुति निर्मूल नहीं है तो विक्रमादित्य और शूद्रक का बन्धुत्व भर्तृहरि के नाते और पक्का हो जाता है। अतः इसका समय 60 से 70 A. D कहना निराधार ५ नहीं है। ___विक्रमादित्य-शूद्रक भाई-भाई हैंक्योंकि १-दोनों के अपने-अपने संवत् हैं। २-दोनों शक नरेश महेन्द्रादित्य के पुत्र हैं। ३-दोनों भर्तृहरि के भाई हैं । ४-दोनों दो-दो कालिदासों के आश्रयदाता हैं। ५-दोनों स्वयं महा-पण्डित हैं। इनके भातृत्व का पोषक श्लोक है विक्रमादित्यपर्यायः' महेन्द्रादित्यसंभवः' असौ विषमशोलोऽपि साहसाङ्क-शकोत्तरः ॥ निश्चयपूर्वक भर्तृहरि का समय 60-70 A. D है । कृपा भाव बना रहे। चरणसेवी-चन्द्रकान्त बाली ... (४१) स्व० श्री पं० रामसुरेश त्रिपाठी का पत्र २४ मैरिस रोड़ अलीगढ़ ... आदरणीय मीमांसक जी.. अष्टाध्यायी के चौथे और पांचवें अध्याय के गणपाठ पर १ डा० रावर्ट बिरले ने काम किया है। गणरत्नमहोदधि तथा अन्य १. विक्रमादित्यः=विषमादित्यः (लेखक) .. २. कथा ग्रन्यों में विक्रम के पिता का नाम महेन्द्रादित्य लिखा है । (लेखक) ३. साहसा क-कोतरः, तस्य लघुभ्राता विक्रमाङ्कः (लेखक) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२३ एक ग्यारहवां परिशिष्ट .. उपलब्ध व्याकरणों के गणपाठ के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा पाणिनि के शुद्ध गणेपाठ देने का प्रयत्न किया है। भूमिका लगभग २५ पच्चीस पृष्ठं की जर्मन में हैं, किन्तु गणपाठ रोमन में है। आप आसानी से समझ लेंगे। इस पुस्तक को और आप के द्वारा प्रकाशित गंणपाठ को कुछ मास पूर्व मैंने मुशीराम मनोहरलाल के यहां सें. साथ ही खरीदी ५ थी। मैंने डा कपिलदेव को लिख दिया है-... Der Ganatratha Zu Den Adhyaya iv and v Der Gram-. TE matics Paninis.. .... दूसरी- पुस्तक The Character of the Indo-European mood... है। इसमें ग्रीक और संस्कत क्रियारूपों पर विचार है। .. . १० भवदीय रामसुरेश त्रिपाठी श्री पं० कुन्दनलाल जैन का पत्र १५ कुन्दनलाल जैन ____७३४ दरयागंज दिल्ली एम. ए. (संस्कृत, हिन्दी)एल. टी. ४ नवम्बर ६३ - साहित्य शास्त्री माननीय मीमांसकजी ! - सविनय अभिवन्दे । मैं दिल्ली के हस्तलिखित ग्रन्थागारों का सर्वेक्षण कर रहा हूं। लगभग १० हजार पांडुलिपियों में से ऐतिहासिक महत्व की सामग्री संकलित कर चुका हूं । अभी हाल में पुंजराज कृत 'सारस्वत व्या० की टीका' सं० १६४५ की लिखो हुई मिली है, जिसमें २३ श्लोकों की पुजरोज की प्रशस्ति है जिसमें 'पुंजराजो नरेन्द्रः' प्रयुक्त है। २५ इससे प्रतीत होता है कि पुंजराज केवल वैयाकरण ही नि-थे अपित .. १. इस पत्र का उपयोग यथास्थान नहीं हो सका। इसका खेद है। अगले संस्करण में उपयोग किया जायेगा। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० १७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के राजा नहीं तो राजकीय किसी प्रतिष्ठित पद पर अवश्य ही होंगे, क्योंकि इसी प्राशय का उल्लेख सं० १५५२. में भ० श्रुतकीर्ति द्वारा रचित 'परमेष्ठी प्रकाशसार' तथा 'योगसार' की अपभ्रंश प्रशस्ति में मिलता है। आप ने अपने ग्रंथ 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास' ५. में पुंजराज का परिचय केवल ५-७. पंक्तियों में ही दिया है, जब कि उपर्युक्त प्रशस्ति में उनका विस्तृत परिचय उपलब्ध होता है तथा उनके पूर्वजों का भी उल्लेख है। इसके अतिरिक्त आपने सारस्वत की केवल १८ टोकानों का उल्लेख किया है जब कि जैन विद्वानों ने ही अकेले २०-२५ टीकाएं की है। शेष जैनेत्तर विद्वानों की तो पृथक ही है अतः सारस्वत की टीकाओं की संख्या तो ३० के लगभग होना चाहिए । कृपया इस पत्र का प्राशय गलत न समझे। मेरी दृष्टि तो केवल उपलब्ध सामग्री से आपको अवगत कराना ही है। इस टीका की एक प्रति जयपुर के लणकरणजी के मंदिर स्थित भंडार में भी है। डा० कस्तूरचद्र जी कासलीवाले से प्राप्त हो सकती है। शेष शुभ १५ उत्तर देवें और कभी दिल्ली पधारे तो दर्शन देकर अनुगृहीत करें। __ आपके ग्रंथ की प्रशंसा किन शब्दों में करुं सो कुछ लिख नहीं सकता, पर ऐसे ग्रंथ निश्चय ही भारतीय संस्कृति - एवं भाषा की उन्नति के प्रतीक हैं। आपके पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में। . प्रापेका कुन्दनलाल जैन ७३४ दरयागंज दिल्ली (४३) श्री पं० रामशंकर भट्टाचार्य के पत्र -- २०-१.६४. पूज्य, गुरुजी वाक्यपदीय का एक नाम वाक्यप्रदोप था। यह बुलहर ने मनु स्मृति के ] मेधातिथिभाष्य की भूमिका में लिखा है-वाक्यपदीय Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ग्यारहवां परिशिष्ट १७ which Sometimes is Called वाक्यप्रदोप।' आपके ग्रन्थ में इस नाम की कोई चर्चा नहीं है, कृपया देख लें (Sacred Books of the Ea:t Vol. 25 Page 123, Footnote I). ___ मैं संस्कृत विश्वविद्यालय में नियुक्त हो गया हूं। प्रणव रामशंकर भट्टाचार्य Research Assistant Research Institute Sanskrit university. [दूसरे पत्र का एकांश] - देवीपुराण देवीभागवत से पृथक् हैं । इसमें 'करन्ति' प्रयोग है-: - शून्यध्वजं सदा भूता नागगन्धर्वराक्षसाः। । विद्रवन्ति महात्मानो नानाबाधां करन्ति च ॥(३५।३७] ' 'ज्वलन्त' प्रयोगमायाविनोमत्तगजेन्द्ररसा ... देव्या समासाद्य ज्वलन्तकोपाः । (१४।२७) व्या० शा० इति० भाग १ (द्वि० सं०) को यदि मोतीझील भेज दें तो में लेता........ [जिस पत्र में उपर्युक्त पाठ था, उसका इतना ही अंश फाड़कर मैंने सुर-. " क्षित रखा था। अतः तारीख का निर्देश उपलब्ध नहीं है । गायघाट बनारस के २० पोस्ट आफिस की मोहर में 28-9-6 इतना ही पढा जाता है। द्वितीय संस्करण वैशाख सं० २०२०=अप्रेल मई १९६३ में छपा था। अतः यह पत्र २८-६-६३ या ६४ का हो सकता है।] : १. इसका निर्देश 'सं०व्या०शा० का ई. के द्वितीय भाग के द्वितीय संस्करण (सं० २०३०) के पृष्ठ ४०१ में कर दिया था (प्रस्तुत संस्करण में पृष्ठ २५ ४३८ पर देखें) २. इसका निर्देश 'सं० व्या० शा० का इ०' के प्रथम भाग के प्रस्तुत चौथे संस्करण (सं० २०४१) के पृष्ठ ५४, टि० ३ में कर दिया है। .. ३. इस प्रयोग का हमने उपयोग नहीं किया। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १० .. श्री पं० विरजानन्द दैवकरणि का पत्र ओ३म् कन्या गुरुकुल नरेला, दिल्ली-४० २६-६-१९७५ ई० मान्यवर थी मीमांसक जी सादर अभिवादन । आशा है आपका स्वास्थ्य ईशानुग्रह से ठीक होगा। आप द्वारा प्रकाशित अष्टाध्यायी सटिप्पण को देख रहा था कि एक बात स्मरण हो पाई। २८ दिसम्बर १६७४ को मैंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हस्तलेख पुस्तक संग्रह के में एक पुस्तक देखा था। उसका नाम है'गणपाठविवत्तिः' । इसे पाणिनि मुनि रचित नया ग्रन्थ (गणपाठ के अतिरिक्त) मानकर उन्होंने दस सहस्र रुपये में खरीदा है, सम्भवतः १९६८ ई० में। उस पर कोई व्यक्ति शोधकार्य भी कर रहा है। १५ वह ग्रन्थ शारदा लिपि में लिखा है। आद्यन्त में मैंने स्वयं पढ़ा ग्रन्थ ... का नाम तो ठीक है, किन्तु पाणिनि. विरचित ऐसा उल्लेख देखने में नहीं आया। कहीं बी.त्र में हो तो कह नहीं सकता। किन्तु हस्तलेख में प्राद्यन्त में ही नाम मिलते हैं बीच में नहीं। पं० स्थाणुदत्त का कथन है कि यह प्रन्थ पाणिनि रचित है। ___आपको अन्वेषणरुचि को देखते हुए मैं आपसे निवेदन कर रहा कि इसकी वस्तुस्थिति की जानकारी कीजिये । कागज अधिक पुराना १ नहीं है । मूर्खतावश अधिकारियों तथा प्रबन्धकों ने मुखपृष्ठ पर नीली स्याही से ग्रन्थ का नाम मोटे अक्षरों में लिख दिया है। जिससे स्याही फैलकर पृष्ठभाग के हस्तलेख को भी.खराब कर गई है। मैंने उन्हें " ऐसा करने से निषिद्ध कर दिया है। ____पाशा है आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देंगे। अष्टाध्यायी का एक ४; हस्तलेख हमारी दृष्टि में भी है, कभी मिलने पर सूचित करेंगे। भवदीय विरजानन्द देवकरणि [इस पत्र का निर्देश मैंने 'सं० व्या० सा० इ०' के द्वितीय भाग के सं. २०४१ के प्रस्तुत संस्करण में पृष्ठ १६६ कर दिया है] . . Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट ( ४५ ) श्री पं० कपिलदेव शास्त्री का पत्र • १८१ कुरुक्षेत्र ८.७.७५ पूज्य पं० जी, सविनय प्रणाम । कल कृपापत्र मिला । उत्तर में निवेदन है कि गणपाठ विवृति नामके ग्रन्थ यहां शारदा लिपि में है । डा० रामसुरेश त्रिपाठी (अध्यक्ष संस्कृत विभाग, मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़) ने देवनागरी तथा शारदा दोनों लिपियों में इस ग्रन्थ के हस्तलेख प्राप्त कर लिये हैं । वे १० इसका आलोचनात्मक संस्करण निकाल रहे हैं- ऐसी सूचना उन्होंने मुझे दी थी। यहां पं० स्थाणुदत्त जी के सुपुत्र श्री पिनाकपाणि शर्मा नें Ph . D के लिये इस गणपाठ विवृति तथा गुणरत्नमहोदधि के तुलनात्मक अध्ययन का प्रारम्भ मेरे निर्देशन में किया है। यद्यपि यह कार्य डा० त्रिपाठी ने उन्हें पं० स्थाणुदत्त जी के प्राग्रह पर दिया था। मेरी विशेष सहमति नहीं थी । गणपाठविवृति प्रकाशवर्ण का छोटा सा ग्रन्थ है । इसमें प्रायः पाणिनीय गणपाठ का छन्दोबद्ध संग्रह मात्र है । 'विवृति' की अन्वर्थकता के लिये एक दो शब्द ही व्याख्या के रूप में कहीं कहीं मिलते हैं। शेष कृपा । १५ आपका विनीत-कपिलदेव [ इस पत्र का निर्देश मैंने 'सं० व्या० शा० इ०' के द्वितीय भाग के प्रस्तुत सं० २०४१ के संस्करण में पृष्ठ १६६ पर कर दिया है] VS २० Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास श्री कमलेशकुमार द्विवेदी का पत्र वाराणसी ११६७७६ ५ पूज्य गुरुजी सादर प्रणाम - ___आपका कृपा पत्र दिनाङ्क १३७७६ को प्राप्त हुा । इसके लिये हमेशा कृतज्ञ रहूंगा। यह वृत्तिप्रदीप अभी तक दो ही जगहों में मुझे ' देखने को मिला है । एक प्रतिलिपि सरस्वती भवन, संस्कृत विश्वविद्या१० लय वाराणसी में है। तथा दूसरी प्रति गवर्नमेण्ट ओरियण्टल मैन्युस्क्रिप्ट लायब्ररी मद्रास-५ में उपलब्ध है। संस्कृत विश्वविद्यालय की प्रतिः गवर्नमेण्ट कालेज त्रिपुनीथरा अर्णाकुलम से मंगवाई गई है, ऐसा यहां के रजिस्टर में उल्लिखित है लेकिन मुझे त्रिपुनीथुरा से कोई सही उत्तर नहीं प्राप्त हुआ कि यह ग्रन्थ मूल हस्तलेख रूप में वहां प्राप्तः है। होशियारपुर में मलियालम लिपि में द्वितीयाध्याय पर्यन्त यह ग्रन्थ ताडपत्र में सुरक्षित है। महल लायब्ररी तज्जौर के ग्रन्थालय के पत्र से ज्ञात हुया कि यह ग्रन्थ वहां नहीं है। यदि भविष्य में कुछ और पता चलेगा तो मैं आप को सूचना दूंगा। यदि आप को इस विषय पर कुछ और जानकारी प्राप्त हो तो सूचित करने का कष्ट २० करें। . .......... भवदीय... कमलेशकुमार द्विवेदी, अनुसन्धाता शिवकुमार शास्त्री छात्रावास क० नं० ६५ संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी-५ १. इस पत्र का कुछ भाग सं० व्या. शा. इ०' के प्रस्तुत संस्करण (सं० २५ २०४१) के भाग १, पृष्ठ ५८० पर छापा जा चुका है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट (४७) श्रीम० देवे गौड एम० ए० का पत्र M. Deve Gowda; Mi A., __Hindi Dept., Govt. College, Hassan Pin 573201, Karnatak.. .. .. 29.8.76 . ५ . पूज्य युधिष्ठिर जी मीमांसक, श्रद्धा युक्त प्रणाम। ......... । प्रोपको संस्कृत साहित्य का इतिहास--प्रथम भाग पढ़ रहा हूं। १० ग्रंथ बहुत ही प्रौढ़ है। आपका कार्य स्तुत्य है ।। मेरे आनंद की तो सीमा नहीं। । आपने उसमें [पृ० ५६६ III संस्करण] में 'भट्ट अकलंक' (सं० ७००-८००) के किसी व्याकरण के प्रवचन के बारे में लिखा है। फिर "शब्दानुशासन की मंजरीमकरंद टीका के प्रारंभिक भाम का १५ एक हस्तलेख इंडिया प्राफीस, लंदन के पुस्तकालय में सुरक्षित है।" इसके बाद "इति......"प्रथमः पादः ।" आदि है। इसके बाद काल का निर्णय करते, बौद्धों के साथ वाद करनेवाले भट्ट अकलंक (वि० सं० ७००) के बारे में लिखा है। मुझे आपसे यही निवेदन करना है . क 'मंजरीमकरंद 'टीका लिखनेवाला 'भट्टाकलंकदेव' वि० सं० १७ २० वीं सदी का है। इनके गुरु का नाम अकलंकदेव है। . भट्टाकलंकदेव ने 'कर्णाटकशब्दानुशासनम्' नामक कन्नड़ भाषा का व्याकरण संस्कृत सूत्रों में लिखा है । इसमें चार पाद तथा ५६२ सूत्र हैं। एक सूत्र देखिए-"तुदि मौदलः पूर्वस्यादि स्वरात त्तश्च" (३८६) । इसमें 'तुदि', 'मोदल' कन्नड़ शब्द हैं 'त्त'. द्वित्वादेश है । २५ इस व्याकरण पर लेखक ने ही 'भाषामंजरी वत्ति' लिखी है। ऊपर के सूत्र पर वृत्तियों है- "प्राधिक्ये द्विः प्रयुज्यमानस्य 'तुदि' शब्दस्य १. यहां 'संस्कृत व्याकरण' शब्द होना चाहिये। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'मोदल्' शब्दस्य च पूर्वस्य प्रादिस्वरादुत्तरावयवस्य 'त' इति द्वितकारादेशो भवति । प्रयोग:-तुत्त-जुदि, मोत्त-मोदला। ('क्रम से अर्थ है अंत्यंत अंत, पहले-पहल), 'तुदि मोदल' इति कि? 'पोळगोळग'। पूर्वस्येति उत्तरस्य मा भूत् । प्रादिस्वरादिति अंत्यस्वरान्माभूत् ।" ५ इसी व्याकरण पर लेखक ने 'मंजरोमकरंद' नामक विस्तृत टीका भी लिखी है । उसे महाभाष्य के समान मानते हैं। मंजरी-मकरंद छपा है। मेरे पास एक कापि है । भाषा संस्कृत पर लिपि कन्नड़ है। २६८+२+१६ कुल पृष्ठ हैं। प्राकार 70x10” है। पूरा टेक्स्ट तो है। पर कहां छापा कब छया यह ग्रन्थ, इसका पता नहीं। पन्ने टूटने की हालत में हैं। हाल ही में नया रक्षाकवच लगा है।। सो, वि० सं० ७०० वाला भट्ट अकलंक सचमुच ही अन्य व्यक्ति होगा। पत्र लिखने की कृपा करें। . आपका विनीत.. मा० देवे गौ० १५ । [इस पत्र के अनुसार प्रस्तुत चतुर्य संस्करण (सं० २०४१) में संशोधन कर दिया है । अर्थात् - 'भट्ट प्रकलङ्क' का वर्णन पूर्वमुद्रित स्थान से हटा दिया है । पत्र-लेखक के प्रति आभार व्यक्त करने के लिये प्रधमभाग के अन्त में पृष्ठ ७२२ पर उल्लेख कर दिया है। (४८) ३० श्री दत्तात्रेय काशीनाश तारे का पत्र - ॥श्रीः ।' नागपूर दि० १७-६-१९७८. आदरणीय श्री० युधिष्ठिर मीमांसक, बहालगढ़ __ महोदय विद्वद्वर, २५ सादर वन्दे । - मैंने गतमास दिल्ली से आपके संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इति १. इस पत्र का निर्देश सं० व्या० शा० इ०' के प्रस्तुत संस्करण (सं. २०४१) के प्रथम भाग के पृष्ठ ५४२ पर किया है। - - Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२४ ग्यारहवां परिशिष्ट १२५ हास' नाम ग्रंथ के तीन भाग खरीदे। मेरा काम लिखने के पूर्व मेरा परिचय देता हूं। मेरा पूर्ण नाम, दत्तात्रेय काशीनाथ तारे है। मैं नागपुर में अध्यापक हूँ और मराठी भाषा पढ़ाता है। परन्तु अधुना मैं संस्कृत मौक विशेषतः संस्कृत व्याकरण और न्याय का अध्ययन कर रहा हूं हिन्दी अच्छी नहीं । कौमुदी और सिद्धान्त मुक्तविली ५ का अध्ययन कर रहा हूं। मेरा पूरा पता आखरी दिया है। आपका पता प्रकाशक के द्वारा लिखा है और आपको मेरा पत्र मिलेगा ऐसी CTETEE मैंने मराठी में एक प्रो० म० दा० साठे विरचित संस्कृत व्याकरण का इतिहास पढा। उस में ऐसा लिखा है की नागेशभट्ट के शिष्य १० और वैद्यनाथ पायगुडे अहोबल इनके सहपाठी श्री रामचन्द्रभट्ट तारे ।। चन्द्रभट्ट काशी में रहते थे और आज भी उनका भग्नु गृह वहां है। Iानसूत्रवृत्ति लिखा है। ओ अप्रसिद्ध है। श्रीराममेरी ऐसी इच्छा है की वह वत्ति संपादित करके प्रसिद्ध करना। मैंने वहालातलिखित मिलने के लिये भांडारकर प्राच्यविद्या संशोधन मंडल पुणे प्रौर काशी को भी लिखा परन्तु पुणे में वह नही है। काशी से पत्रोत्तर नहीं आया । पुणे के श्री अभ्यंकर के 'Dictionary of Sans- १ Kirt Grammer' में उसका उल्लेख है.। मेरी अापको ऐसी नम्र प्रार्थना है की वह हस्तलिखित कहां, मिलेगा और श्री रामचन्द्रभट्ट तारे के बारे में और कहां और वत्त मिल सकेगा, इस बारे में अाप कृपया २० मार्गदर्शन करें। यहां कोई वनाते नहीं। मेरी निराशा, मत करना । ऐसी विनंती। ___ मैं आप से विस्तृत पत्रोत्तर की अपेक्षा में हूं। आपके ग्रंथ सदश ग्रंथ मराठी या इंगलिश में मैंने नही देखा ! उस ग्रंथ पर से आप समर्थ हैं ऐसा मेरा विश्वास है। क्षमा करना । धन्यवाद । । - १ आपका नन्न विद्यार्थी 'द० का० तारे पता:- . . . . . . दत्तात्रेय काशीनाथ तारे दिवाळे बिल्डिंग, रायपथ, रामदासपेठ । ___३० पो० नागपुर (महाराष्ट्र) २५ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास - .. (४६) श्री पं० दयानन्द मार्गव का पत्र [नवभारत टाइम्स (देहली) के १३ अक्टूबर ७३ के अंक में 'अष्टाध्यायी पर दुर्लभ टीका मिली' शीर्षक से एक सूचना छपी थी । वह इस ५ प्रकार थी _ 'जम्मू १२ अक्टूबर (नभाटा) प्राचीन भारत के महान् व्याकरणाचार्य पाणिनि की अष्टाध्यायी पर यहां एक दुर्लभ टीका प्राप्त हुई है। रघुनाथ संस्कृत पुस्तकालय में इसके अतिरिक्त संस्कृत की ६००० महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियां भी हैं। अष्टाध्यायी की टीका १६०० पृष्ठों की है, जिसमें पाणिनि की कृति के पाठों भागों की व्याख्या की गयी है, यह १८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अल्मोड़ा (उत्तरप्रदेश) के पंडित विश्वेश्वर ने लिखी थी। ___पंडित विश्वेश्वर ने हर्ष के नैषधीय चरित और भानुदत्त की 'रसमञ्जरी' पर भी टीकाएं लिखीं, ये टीकाएं १६३८ (सन् १७१६)२ में लिखी १५ गयीं थी।" इस सूचना के प्रकाशित होने के लगभग कई वर्ष पश्चात् मुझे किसी प्रकार इस ग्रन्थ के सम्पादन करने वाले श्री पं० दयानन्द भार्गव (रणवीर केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ जम्मू के प्राचार्य) का पता ज्ञात हुआ। उन्हें मैंने १९७६ को इस प्रन्थ की जानकारी के लिये पत्र लिखा । उस पत्र का जो २० उत्तर प्राप्त हुआ वह नीचे छाप रहा हूं] १. अगली टिप्पणी देखें। २. यहां सन् १७१६ का निर्देश अशुद्ध है। लेखक ने १६३८ को शक संवत् मानकर सन् १७१६ का निर्देश किया है। वस्तुतः १६३८ विक्रम संवत् है। भट्टोजिदीक्षित के पुत्र भानुजिदीक्षित की रसमञ्जरी पर टीका लिखने तथा भट्टोजिदीक्षित के पौत्र हरिदीक्षित विरचित प्रौढ़ मनोरमा का विश्वेश्वर सूरि विरचित व्याकरणसिद्धान्त-सुधानिधि में उल्लेख न होने से विश्वेश्वर सूरि का काल सं० १६००-१६५० के मध्य ही निश्चित होता है। द्र० सं० व्या. शा० का इ० भाग १ पृष्ठ ५४१ । ।.... Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १८७ 101.. ५ प्राचार्य एवं अध्यक्ष संस्कृत विभाग दयानन्द भार्गव जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर-342001 १६.११.७६ दिनाङ्कः ......... श्रद्धेय श्री मीमांसक जी सादर नमस्कार आपके १५.९.७६ के पत्र का उत्तर इतने विलम्ब से देने के लिये , क्षमाप्रार्थी हूं किन्तु इस विलम्ब का कारण सम्भवतः मेरे ऊपर .१० मुद्रित पते से स्पष्ट हो गया होगा । आपका पत्र जम्मू से स्थान ' स्थानान्तरों में घूमता हुआ मुझे मिला ही विलम्ब से । मैं सन् ७३ के बाद जम्मू से प्रयाग, प्रयाग से दिल्ली तथा दिल्ली से अब यहां जोधपुर पहुंच गया हूं। ___ प्राचार्य विश्वेश्वर सूरि कृत व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि के तीन १५ अध्याय बनारस से छपे थे, वे दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उपलब्ध हैं। शेष पांच अध्याय उस समय उपलब्ध नहीं हो] सकने के कारण नहीं छपे । सन् ७३ में वे शेष पांच अध्याय भी मुझे जम्मू में रघुनाथ मन्दिर के पुस्तकालय में मिल गये। धर्मार्थ ट्रस्ट के ट्रस्टी डा. कर्णसिंह की अनुमति-पूर्वक श्री रणवीर केन्द्रीय संस्कत २० विद्यापीठ, जम्मू में प्राचार्य पद पर रहते हुए मैंने उन पांच अध्यायों की प्रतिलिपि करली जो मेरे पास है । पाण्डलिपि अशुद्धियों से भरी हुई है अतः उसका संशोधन कोई सरल कार्य नहीं क्योंकि उसकी कोई दूसरी पाण्डुलिपि उपलब्ध है नहीं। ऐसी दशा में अभी मैं चतुर्थ अध्याय का ही संशोधन कर पाया हूं । ग्रन्थ पूर्ण है किन्तु उसके अनेक २५ अंश दीमक खा गयी है, उन अंशों की पूति अपनी बुद्धि से ही सम्भावित पाठ दे कर करनी है। अभी तक कोई भाग मैंने नहीं छपवाया है। मैं प्रारम्भ में ४-८ अध्याय ही प्रकाशित करवाने की १. इस पत्र का निर्देश 'सं० व्या० शा० इ०' के प्रस्तुत संस्करण (सं. २०४०) प्र. भाग के पृ० ५४० पर कर दिया है। .. ३० Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 855 संस्कृत व्याकरण-शास्त्रका इतिहास बात सोचता हूं क्योंकि यह अंश सर्वथा अप्रकाशित है । १-३ श्रध्याय बाद में ही लूगा । कार्य में समय तथा श्रम दोनों अपेक्षित हैं । किन्तु व्याकरण सम्बन्धी साहित्य में इस ग्रन्थ का द्वितीय स्थान है- इसमें सन्देह नहीं'। इधर स्वास्थ्य में गड़बड़ी के कारण भी मेरे कार्य में ५. कुछ गतिरोध हुआ है फिर भी प्राशा करता कि यह दीर्घ कार्य पूरा हूं कर पाऊंगा । 3 २ * १० १५ १ योग्य सेवा से सूचित करें। POOR S सेवायाम = ি क जी । पूजनीय गुरु सादर नमस्ते आपका कपाकाङ्क्षी दयानन्द भार्गव 3.३११ संप (५०) श्री विजयपाल शास्त्री का पत्र श्रश्म् १८६८ टिप्पण्यां जाम्बवती विजयस्येति कृत्वा पद्यमेक प्रदर्शितम् IRIFES क लोल सविनय निवेद्यते यत् श्री श्रीशचन्द्र चक्रवति भट्टाचार्येण संस्कर तार्या (सम्पादितायां) भाषावृत्ती प्रांत (१.१.१५) सूत्रस्य पाद : एकूण FEST FE TE 1545 1 अहो अहं नमो मा यदधत्य मध्यया । उल्लास्य नयने दीर्घे साकचिमहमोक्षितः T १. यह पद्य प्रस्तुत संस्करण (सं० २०४१ ) के तृतीय भाग के पर उद्धृत कर दिया है । टिप्पणी में पं० विजयपाल शास्त्री के इस ०६ संकेत कर दिया है ! Y ! लक ल इति जाम्बवतीविजयकाव्ये जाम्बवती दर्शनोत्तरं कृष्णस्योक्तिः । -प्रोत इत्यस्योदाहरणं भाषावृत्ती-प्रह्मे ग्रहम् इति दत्तमस्ति । तदुद्दिश्यैव सम्पादकेनेयं टिप्पर्ण समुट्टङ्किता । भाषावृत्तेदिं सस्करणं भवतः पुस्तकालयेऽस्तिः । तद् भवान् द्रष्टुमर्हति । इदं पद्यं भवत 15 इतिहासे तृतीयभागे पाणिनेः काव्य- सङ्कलने निविष्टं नास्ति । परीक्ष्याग्रे निवेशयितुं शक्यते । २५ प् पृष्ठ ४१ पत्र का ~7128 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां परिशिष्ट १८६ एकमपरं नवीनं व्याकरणम्-"श्रीभिक्षुशब्दानुशासनम् चौथमल्लमुनिप्रणीतम् (सन् १९८ मध्ये प्रकाशितं प्रथम-भागात्मकं, सम्भवतः भवतो दृष्टिगतं स्यात् । अत्र विश्वविद्यालये मया दृष्टम् । प्रथम-भागे अष्टावध्यायाः सन्ति । द्वितीय भागे धातुपाठादिखिलस्य व्याख्यानं प्रकाशयिष्यत इति अस्य भूमिकायां सूचितम् । ५ यदि भवतः सकाशमिदं न स्यात् । द्रष्टुमिच्छा न भवेच्चेदहं दिल्ली वि० वि पुस्तकालयात् स्वनाम्ना कार्ड-द्वारा प्रादाय भवते दास्यामि । लेखनीयम् । तस्य प्रकाशनस्थलम् आदर्श साहित्य संघ, चूरु (राज.) इत्यस्ति । मूल्यम्-१००) १० मद्योग्या काचित् सेवाभवेच्चेदादेष्टव्यम् - विनीतो विनेयः विजयपालः शास्त्री शोधछात्र नार्यसमाज शक्तिनगर दिल्ली 7. Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट सं० व्या० शा० का इतिहास (तीनों भागों) में उद्धृत व्यक्ति- देश - नगर आदि नामों की सूची [ इस सूची में I से प्रथम भाग II से द्वितीय भाग और III से तृतीय भाग का संकेत किया है ।] अंश (अंशुमान् = श्रादित्य विशेष - I. ८७, २० । अकबर II. १३६, १३ । १४०, ११३६६,२२ । कलङ्क भट्ट (बौद्धो के साथ शास्त्रार्थ कर्त्ता ) I. ७२२,१५ । III. १८३,१७। अकलङ्कभट्ट (कन्नड भाषा का व्याकरणकार ) I. ७२२, ११ । ७२३,३ । III. १८३,१३,१८ । प्रकृतव्रण ( काश्यप ) I. १६१,१ । अक्लुजकर III. १२३,१३ । अखिल भारतीय (आल इण्डिया) ओरियण्टल कान्फ्रेंस (हैदराबाद ) I. १२०,२४ । अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् ( नागपुर ) I. ५०५,१३ । अखिल भारतीय संस्कृत परिषद् ( लखनऊ ) I. ६२७, २० ॥ अगस्त्य I. ६२,२० । १००, २ । II. ४५७, २५ । अगस्त्य-कुल II. २७७,२२ । अगरचन्द नाहटा II. १३८,२१ । अग्गलदेव I. ६६७,४ । अग्निकुमार I. ५७५,१२ । अग्निवेश I. २८८८ अग्निवेश्य I. ७४, १३ । ११२७ । २८८८ । ३०४,२२ । II. ४०३.३ । १. माल इण्डिया ओरियण्टल कान्फ्रेस' शब्द भी देखें । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १६१ अग्निवेश्यायन I. ७४.१४ । II. ४०३,७। अग्निशर्मा I. ४९६,४। अग्रहार I. ४६२,६ । II. २२७,१६ । २३४,२३ । अङ्कोरवत I. २२३,१३।। अङ्ग (देश) I. २१४,२३। अङ्गबङ्गदाक्षय: I. ३०१,३२ । अङ्गिरा I. ६४,३ । ३००,२१ । अच्चान दीक्षित I. ५३७,३। अच्युत I. ६०६,६ । अजातशत्रु (उपाध्याय) I. ६७१,१५॥ II. ४०५,१६ ॥४०७,१३ अजितसेन I.७०७,१२ । अजितसेन प्राचार्य (जैन) I. ६८१,२२ । अञ्चलगच्छाधिराज I. ७२१,२५।। अञ्जनी (हनुमान की माता) I. ९७,१७ । अटक I. २०२,२१। अडियार (मद्रास) I. १५७,१४।२८०,२५।४३४,१११४६५१०। ५४७,१५।५७८,१३।। II. १००,२२२२१,२६।२३३३२२॥ २६८१७॥ III. ६४,५५१२६,५। ... अडियार (हस्तलेख) पुस्तकालय I. २५४,२७।४४४,६।४४६,६। ४५०,२४।४७०,१४।४६३,२२॥ II. ६६,१४।१४३,१५॥ २३४,२७।२६७,२०१२६६,१। अडियार (हस्तलेख) संग्रह II. १६७,५।२६७,१०।२२५,२२॥ ३२६,६।३३१,४ ३५४,१२।३५७,२१४०१,११॥ अण्णा शास्त्री (वारे) I. ३२४,२३।। अत्रि I. ८६ . 'अत्रिदेव विद्यालङ्कार I. ३१४,६। .. अदिति (इन्द्र की माता) I. ८७.१२। मद्वय सरस्वती I. ७०६,११० अद्वैत विद्याचार्य I. ४६७,८॥ अद्वैतानन्द सरस्वती II. ३२२,१४॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परी संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास शहर श्रधिसीम कृष्ण I. १८५,२।२१६,२।२२०, ७। IT. ७२,१३ । अनन्त ( शेषवंशीय ) ' I. ४३६,१४।४३६,८। अनन्तदीक्षित (शेषवंशीय) 1. ४३५, ८ अनन्त=अनन्तभट्ट=अनन्तयाज्ञिक=प्रतन्तदेव (याज्ञिक) I. ६, १६।१७५,१॥ II. ३६३, १७/३६४, २२३,८१,२२३८६० २२।३८७,११।३८८,२।३८६,५३६२, १९३९४,२२४१६० २।४१७,१।४१६,२७० LOR अनन्तराम III ५६, २। अनन्तशयन ( पुस्तकालय ) I. ५७५, २१ । ... अनन्ताचार्य ( शेषवंशीय) I. ४३६,११...... अनन्ताचार्य ( तै० प्रा० सम्पादक) (II. २६८, १४. अनुपदकार I. ४७१,२,६ ॥ अनुभूति स्वरूपाचार्य I. ७८, १०/७०६,७१७०७,३०७०६५॥ II. १६४,२६।२६८,३। अनूप संस्कृत पुस्तकालय (बीकानेर) I. ४४२,२५० अन्नपूर्णा I. ६०१,२.५। अन्नम्भट्ट I. ४२५, ९४४४, १ - ४६६ पृ० तक बहुत्र । ५३०, १ अन्यतरेय I. ७४, १५ परपाणिनीयाः I. १२०,१३।२२७,२५ । अपराजित I. ५७४,१३ । अप्पन नैनार्य ( अप्पलाचार्य) I. ५२६, १५६५, १६। III. १६२, २१।१६४,२६। प्पय दीक्षित I. ४३७,२३४४२,३१५३१,६।५३५,१०१५३६, १५॥ II. ३२३,५।४७१,२१ । III. १६२,११ अप्पल सोमेश्वर शर्मा II. ६५,१६ अप्पलाचार्य (अप्पननैनार्य) III. १६३, ८ अप्पा दीक्षित II. ३२२,२१।३२३,४! १. शेषवंश में इस नाम के कई व्यक्ति हैं । द्र० पृष्ठ ४३६, वंश चिह्न । २. द्र० – पृष्ठ ४३६ वंशचित्र में श्राद्यनाम | Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट अप्पा सुधी II. ३२३,१८।३२६,७ ॥ अभयचन्द्राचार्य I. ६८२,७॥ II. १३२,५ ॥ अभयनन्दी I. २८, २३।२६,३०२४६७,२५।६५८,२२/६५६,२१। ६६३,१। II. १८१,२४११८२,२८।१६२.२५।२६२,१०० ३३६,१२ । अभिनन्द I. ५२०, १ । अभिनवगुप्त I. ६५, १ १००, १६ । ३१३,३८ । II. ४४६,३।४७५,४। अभिमन्यु ( कश्मीरनरेश ) I. ३६१,१२ / ३६८, २०१३६६,४१ ३७६,१०१३७६,५१६४७, ८.६४८, १० । अमरचन्द्र ( सूरि ) I. ४४, २४ ४१६, २१ ५६८, २१/५६६,११ ७१७६ । अमरनाथ वैद्य I. १६०,७ । अमर भारती I. ७०७,५ । अमर सिंह I. ७०,२६०६,१० । II. २८२, १४ । III. १२,२७ । अमरेश I. ४७,२५ । II. ३६४,४ । अमरेश्वर भारती I. ४५८, ४ । ३/२५ अमल सरस्वती I. ७०६,६ अमूल्यचरण विद्याभूषण III. ६७,८/६८,१ । १६३ अमृत भारती I. ७०६,७ अमोघदेव' I. ६७८, ५ । अमोघवर्ष' I. ४६२२११६६८, २२२६७७, २३/६७८.४ । अम्बालाल प्रेमचन्द शाह I. ६५०, ७।६५४,२३ । ६१४,१०/६६६, १७ । II. १३६,२१ । अयाचित एस०एम० ( द्र० एस० एम० प्रयाचित' शब्द ) अयोध्या I. ३२७,७ । अरुण, अरुणदत्त ं, अरुणदेव ' अरुणाचार्य II. १६२,२६ । १९८० १६३१६३,२२१६८८।२६५, १-२ । अरुण गिरिनाथ ( कुमार संभव - टीकाकार) I. ३१,२७ । - १. पाल्यकीति आचार्य के श्राश्रयदाता महाराजा के ही ये दोनों नाम हैं । २. हमें ये चारों नाम एक ही आचार्य के प्रतीत होते हैं । अतः सब का निर्देश यहीं किया है । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास अर्चट I. ५६२,२६।५६३,३। ... अर्जरिका (ग्राम) I. ६६९,२१। अर्णाकुलम I. ५८०,१४ । अयंमा (आदित्यों में अन्यतम) I. ८७.२० । अलपशाही (?) I. ७११,२८ । अलवर राजकीय (पुस्तकालय) हस्तलेख संग्रह II. २३८,२५॥ २३६,११२७०,२६।४१४,७ । अलीगढ़ III. १७६,२२ । अल्वेरूनी I. ६१,१८।२१०,७।३००,४।६३०,१४।६३५,१६ । अवन्ति (उज्जैन) I. ३९२,२५ । अवन्ति वर्मा I. ६८३,८ । III. १७४,१५। अविनीत (राजा) I. ४६१,१०। : अश्वघोष I. ३१४,११॥ III. ६८,८'। . अश्विनीकुमार I. ८८२। असम (देश) II. ११८११ । । अहमदाबाद I. ६३०,६।६३६,२।६९६,४। II. १३५,१८ । अहित II. १४१११२।। अहिपति (पतञ्जलि) I. ३५६,१७॥३८४,३ । आई० एस० पावते II. १५३,१६ । आमस्त्य I. ७४,१६ । आङ्गिरस (गोत्र) I. ३२३,११॥३६४,२० । आङ्गिरस (पतञ्जलि) I. ३६४,२० । आङ्गिरस (बहस्पति) I. ६४,३८६,९८,२० । माङ्गिरसायन (वैदिक शाखाओं के एक भेद का नाम) I. ३२४, प्राचार्य दीक्षित (अप्पय दीक्षित के पिता) I. ५३७,२३ । आत्मकूर (कर्नूल-मान्ध्र) I. ४७०,६१५३८,८।५७६,५ । II. :४३८,२॥ III. १६१-१६८ पृष्ठ तक। 'आत्मानन्द . ३५८.१७ । १. मूल पाठ में 'घोषः' है। ........ . .; २. पावते आई० एस' शब्द भी द्रष्टव्य है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट श्रात्रेय (ऋषि) I. ७४,१० । II. ४०३,१ । आत्रेय ( धातुवृत्तिकार ) II. ७०, ५ १०७, २८ । १०८, १११०६,४ III. १४१,२१। १६५ आत्रेय (ऋक्प्राति० टीकाकार) II. ३७७,२७ ३७८, ३ । प्रात्रेय ( तै० प्राति० टीकाकार) II. ३६६,१२ ३६७, ११४००, २७ । श्रात्रेय (पुनर्वसु ) I. ८, ३।१०२,१८ । आदम ( बाईबल में निर्दिष्ट - प्रादम हव्वा ) I. ३,२३ आदित्य (इन्द्र का शिष्य) I. ८६, १२ श्रादित्यायन ( वैदिक शाखाओं के एक भेद का नाम ) I. ३२३० २२ । आदिनारायण - प्रदिशेष III - १६२,२ । ( द्र० आदेन्न - III. १६२,१ । आदिलाबाद I. ७१६२८ । आदेन्न I. ४२५८।४७०,१ III. १६२,१ श्रानन्द (बिल्हण कवि का भ्राता) I. ४२६, ६ । . आनन्द (कवि ) II. ३००, १ । श्रानन्दपुर II. ३८०,३ । आनन्दराय बहुवा II. ११८,१० । आनन्दराय (सार्वभौम) आनन्दराय मखी I. ६०२,२४ II. २३३, ८।२३५,३ । आनन्दवर्धनाचार्य I. ४१६,४। II. ४७१,२५ । आनन्दाश्रम (ग्रन्थावली -पुना ) I. ६, १६६८,२८६६,२४४१६०, १८।२८४,३१। II. ७,५।६,२५।३४६, ५ । III. १३३,१४ । आन्ध्र प्रदेश I. ४५१,१६५२६,१७।५७६, १/६१६,३।७१२,१४ II. ४३८,८। III. १७१,१६ । आन्यतरेय I. ७४३० । प्रांत (गुजरात) I. ३६०,२५ । नर्तीय ( वरदत्तसुत) II. ३८३,१४ । नर्तीय ब्रह्मदत्त' I. २७६,२६ । आपदेव II. ४५५,१३ । १. यह वरदत्त सुत मानतीय ही है । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास आपस्तम्ब I. १६४१२८ । अापाजि (भट्ट) II. ३२४,१७६३२५,१ । आपिशलि I. ३०,३।४६,२२१६८,२३।६६,१६७४,४।११०.१८। ११७.१।१२६,६।१२५,९।१४०,२११४३,४।१४६,७.१४७, ७११६६,४।१९४,१०॥२४२,३।२५१,२०१२८१,४।२६१,१॥ ४१६,२८।४६७,२३।६९६,८1 II. ५,१६६,१६:४०,१५॥ . ४२,२१४५,२४/७५,१०।१४६,६।१५०,४।१६६,१६।२०७, ११।२०८,३।२१५,६।३५३,१११३५४,४।४०४,२५१४०५, ११४२८,१११ III. २,१२।३८,११११०७,२६।१०८,३। १०६,११११०,११११११,१२।। प्राषिशल्या (आपिशलि की भगिनी) I. १४८,१॥ आफेट (द्र० 'थोडेर आफेस्ट' शब्द) I. ३३६,२७।४३५,११॥ ४३६,११४३७.२६।४४८,२११४५६,३।४५८,८१४६३,३१॥ ४६७,१३।४६८,१८०४८५,२०१५६८.१०॥५७१,३१५७६, २११५८१,७५९७,६१६०२.११॥ II. १९४,४।२०७२। २३४,६।२३८,२२२५०,१४।२५११८।२७१,२५।२८४, १६॥ III. ८४,२५॥ आभरणकार II. १४१,११॥ प्रायाजि (द्र० आपाजि) II. ३२४,२१॥ आर० एस० सुब्रह्मण्य शास्त्री I. २५८.२८। प्रार० नरसिंहाचार्य II. ३७,१३। प्रार० विरवे I. ६७८,३०।। आर्य (आर्यवंशीय) I. २७.५॥ II. १४१,९। आर्यभट्ट II. २२७७१४१ आर्य वज्रस्वामी I ६०६,३।६१०,२। आर्य श्रुतकीर्ति I. ६३२,१४।६६६,६६६७,२॥ II. १२६,४। आर्य सार्वदेशिक प्रतिनिधि सभा (देहली) I. १०३,३०॥ आर्या (नारायण की माता) I. ४६२,११॥ आर्यावर्त I. २७,३। आल इण्डिया ओरियण्टल कान्फ्रेंस' I. ५०५,२०१५१४,२८। १. 5. 'प्रोरियण्टल कान्फ्रेंस' तथा 'अ० भा० प्राच्यविद्या परिषद्' शब्द । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट ६००,२६।६३४,२२।। II २७८,२६ । श्राशानन्द I. ६६४, ही १९७ आश्वलायन I. २०७ १६१२७२,२१२७९,११२६४,७।। II. ३७१,१०।३८१,१६।३८२, ३।३८३,३|| III.१३४,१३। माहिक ( = पाणिनि ) I. १६३,२०१६७,१०। इंस्टिटट फ्रेंचिस द इण्डोलोजि ( पाण्डुचेरी) I. ४५ ३,१३। इटावा III. ८३ २३| इण्टर नेशनल सेमिनार प्रोन पा पनि (पूना) I. २४८,३ । इण्डियन प्रेस (प्रयाग) I. ६३,२६ । इण्डियन रिसर्च इंस्टीट्यूट (कलकत्ता) III. ६७.६। इण्डिया आफिस ( लन्दन ) पुस्तकालय ( लायब्ररी) ' I. २५६,२८। ४३८,१२।४४०,६।४५४,२६/४६८ २०।५३२,१४।५३७, १५।५९६,२४।७०५८१४।७२०,३०।७१६.१४ ।। II. १२१, २१।१६४,१।२६७,१।२७०,३३०८, ६।३२५, ११।३३३० १३।३३७.६।३४२,२५१३८८, ७ ४८०, ४। इतरा ( = कात्यायनी 2 ) I. २७२/१७ इतिहास संशोधन मण्डल (पुना ) ३८५०४। इत्सिंग I. २४०, ४१३५८, ८ ३८६ १३३८७,४।३६० ३३।३६४, १७।४००,१८।४०१,२४०२,१११४४४, १४।४५० ३।५०१, १०/५०३,१४ ५८७, ३० । इन्दु (अष्टाङ्गसंग्रह का टीकाकार ) I. १०२, २०१३६१, ४/५१४, १६।५७०,१३ । १. ग्रन्थ में इसका निर्देश 'इण्डिया आफिस लायब्रेरी लन्दन' तथा 'इण्डिया ग्राफिस पुस्तकालय' नामों से भी हुआ है । हमने ऊपर सभी नामों की पृष्ठ संख्या दे दी है । २. याज्ञवल्क्य की पत्नी कान्यायनीय का नाम 'इतरा' था और उसका पुत्र ऐतरेय था । यह षड्गुरु शिष्य ने ऐतरेय ब्राह्मण की व्याख्या के प्रारम्भ में लिखा है ! ऐतरेय ब्राह्मण का प्रवचन कृष्णद्वैपायन व्यास और उसके शिष्यों प्रशिष्यों द्वारा किये गये शाखा प्रवचन से पूर्ववर्ती है । प्रत: यह लेख चिन्त्य है । द्र० भाग १, पृष्ठ २७२ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास इन्दु ग्राम II. २२७,१६।२२८,२ । इन्दु मित्र I. ४३४,२।४७३,७४५३३,२०।५७०,११ । इन्दुराज भट्ट II. १००,२५,२८।४४६,३ । इन्दौर I. ६४८.१३। II. ३५७,४ । इन्द्र I. २०,२।६४,२४।६६,७७१,२२।७४,१८१८२,२२।८६,२। ८७,५६६,१११११०,१८।१७२,१०।२८३,२०१६१०,१। ६५८,३।६६६,८ | II. २७,१ । III. २,१२ । इन्द्रगोमी I. ६०६,५। इन्द्रदत्तोपाध्याय I. ६०३,८ । II. २३०१२३ । . . इन्द्रप्रमति I. ४८३,१७ । इलाहाबाद II. ३६१,२७।३६२,२६ । 'इष्टराम (बिल्हण का भ्राता) I. ४२६,६ । । ई० बी० शर्मा I. ६०६,५ । ईरानी (ईरानीवासी) I. ३४.५। ईश्वरकृष्ण I. ४६५,५ । ईश्वरचन्द्र I. १०५,२७ । . ईश्वर सेन I. ५६३,३ । ईश्वरस्वामी भट्ट II. ६२,१८ । ईश्वरानन्द सरस्वती I. ४५३,७१४४५,१६।४५६,१६।४५८,१॥ ४५६,३। ४ ईसामसीह I. ३७४,२। उख I. २६२,१२। उख्य I. ७५,११ II. ४०३,१३ । उग्रभूति I. ३९८,७।३६४,३३६४३,२० । उज्जन II. ६७,६। उज्ज्वलदत्त I. १४७,३।१५४,१५१५०६,८१५१६,८५२५,६। ५७०,१५१५७२,७।६५३,२५६५७२ । II. ८,१६६५, १६.१६८,१२।१६६,१३।२१२,१२।२१६,२७१२१८०३। २२१ से २२६।२४३,२८।२५०,२०२५१,६२६१,४।. २७०,२३।२८६२८।२८७,३।२८०,११ । ....... . उत्कलदत्त II. २७०,१८। । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . * बारहवां परिशिष्ट ... १६९ उत्तम भट्ट II. ३२४,१६ । उत्तमोत्तरीय I. ७५,२ । उत्तरमेरु II. २२७।१७ । उत्पल (ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनीकार) I. ३८६,२६ । उत्पल उपाध्याय (=कयट' ?) I. ६९६,१३ । उत्पल भट्ट II. २७६,२७ । उत्प्रभातीय (=हरिवल्लभ) II. ४५६,२२ । उदयङ्कर भट्ट I. ५४८,१६।६०१,१२ । उदयचन्द्र II. २६६,३। उदयन (वयाकरण) I. ५४८,५।५९७,१० । II. ३२७,३ । उदयन' (राजा) I. ३३३,३।३३४,७ । उदयन (गोवर्धन शिष्य) II. २१८,१६ । उदयन पुत्र (=वहीनर) I. ३३३,३।३३४,७ । उदयपुर (नगर) २४०,१०। उदयपुर राजकीय पुस्तकालय I. ५६६,६ । उदयप्रकाश (स्वा० विरजानन्द स० का शिष्य) I ५५६,१७ । उदयवीर शास्त्री (गाजियाबाद) I. ४६५,२८।६०२,८५ । II. २३२६ । । उदयशङ्कर पाठक II. ३२७'१५ । उदयशङ्कर भट्ट II. ३२६,१६।३२७.१६ । उदयसागर I. ६६९,२४ । उदयसौभाग्य I. ७००,४। उदयी' (उदायी) 1 २०७,४१२११,१।३६५,२१।३६५.२१॥ ३७०,२०।३७१,१८।३७२, ६ । उदुम्बर (ऋषि) II. ४०३,१३। . उद्भट I. ४२०,४। III. ६१,७। उद्योतकर (नैयायिक) I. ३१७,१५॥ उद्योतकरं (कैयट-शिष्य) I. ४१६,१३,१८,२३ । १. भाग १,पृष्ठ ६६६ की टि० १ । हमें यह मत ठीक प्रतीत नहीं होता। २. द्र० 'उदयी' शब्द। . ३. द्र० 'उदयन' शब्द। .... .... Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास उपमन्यु I. ६५,४ II. २७,६। । उपवर्ष I. २००,६।। II. ४५३,२६।४५४,४। उपाध्याय II १४१,१३। उपाध्याय भट्ट II. ४०७,१८१४२७,१४। उपाध्याय अजातशत्र (द्र० 'अजातशत्रु उपाध्याय' शब्द) उपेन्द्रपाद यति ३२६,२ । उपेन्द्रशरण शास्त्री I. ६४३,२।६४४,१ । उमापति I. ६४२,६ । उमास्वाति II. ६४,१ । उम्बेक भट्ट I. ४१८,१९।४१६,३ । III. १६६.२ । उव्वट I. ६,१६।४८,८।१०२,२५१६३,२६।१८४,६।१८८,३॥ ३५८,१५६४०१,२६।४१६,२ । II. ६३,२०६७,५॥३७०, १७३७३,१६।३७५,३।३७६,२२।३८१,१३।३८६,१०। ३८७,१३।। उशना कवि I. ६८,१। उशिक I. १८६,२७ । उस्मानिया विश्वविद्यालय (हैदराबाद) I. ५११,२॥५७५,२७ । II. ७१.२६ । उस्मानिया वि० वि० संस्कृत परिषद् I. ५७७,२७ । ऊर्ध्वरेताः (शिव) ८२,५ । । ऊर्ध्वलिङ्ग (शिव) ८२,५। ऊर्ध्वशायी उत्तानसायी (शिव) ८२,५ । ऋजिष्वा I. ६६.१ । ए० एन० नरसिहिया I. १२७,३ । II. २०६,२८ । एकान्तबिहारी डा. I. ३८६,१३ । एटा (उ० प्र०) I. ५५३,२३ । एन्० सी० एस् वेङ्कटाचार्य शतावधानी I. ५७५,११ III. .......... १७३,३। एनमिल विठ्ठलाचार्य III. १६८,३ । एफ० कीलहान ३५३,१।। एम० ए० स्टाईन I. ४५६,८ । एम०५० Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२६ .... बारहवां परिशिष्ट । एम्. एस्. नरसिंहाचार्य I. ४४५,५४४५६,१७।४३०,११, एम्० रामचन्द्र दीक्षित II. ४२६,२। एल० फिनोस I. ६२८,१६। ए. वेङ्कट सुभिया I. ५०५,१२। एशियाटिक सोसाइटी (कलकत्ता) I. १३६,४।१७८,३०।१०८, एस० एम० अयाचित II. १७०,१८/२०१६। एस० के० दे ६४६,२३१६५०,१॥ एस० पी० चतुर्वेदी I. ५३२,८। एस० पी० भट्टाचार्य I. ५०६,२७।५१४,१८।६३४,२१॥ एस० सी० चक्रवर्ती I. ३१७,५॥ ऐतरेय महीदास I. १८४,११॥ ऐतिकायन II. ४२५,५। ऐन्द्र सम्प्रदाय II. २७१,११३६६.१८॥ ६४.. ऐल पुरुरवा I. ९८,१२स.. :: एंग्लो संस्कृत मन्त्रालय (लाहौर) I. ५५३,६। मोङ्कण्ठ III.८,२६ . प्रोटो फ्रेंक II. ३००,२४। प्रोपर्ट I. ६७५,२२।... प्रोम्प्रकाश (व्याकरणाचार्य) III. ४६,६५६.३। ओरम्भट्ट I. ५४३,१७। । ओरियण्टल कान्फ्रेंस' I. ५०६,२६३५१६,२०१५३६,२२॥ ओरियण्टल मैनुस्कृप्टस् लायब्ररी (उज्जन) I. ७४,१६॥ औज्जिहायनक II. ३६३, १६।। औत्थासानिक गोयीचन्द्र I. १००,७। प्रौदवजि I. ७३,७।७४,३७५,३११६५,५।१८२,५॥ II. ४२०, . १६....१०।४२२,१५।४२३,२।४२४,१०॥४२७,२। औदुम्बरायण I. १८६,२॥ II. ४३१,२०१४३२,१४।४५३,२५॥ औपशवि I. ७५,॥ .....आल इण्डिया मोरियण्टल कान्मस' शब्द तया अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद्' शब्द। २. द्र० गोयीचन्द्र औत्थासानिक' शब्द र (:. Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रौशनस (उशनाप्रोक्त शास्त्राध्येता) I. ६५,१८ । कक्षीवान् I. १८६,२६॥ कणाद I.४४,२३।१६६२५॥ कण्ठहार कवि (द्र० 'कवि कण्ठहार' शब्द) कण्व (शाखाप्रवक्ता) II. ३६३,७ । क. दा. साठे III. १८५,६ (भूल से 'म०३० साठे' छपा हैं) . कनकप्रभ (सूरि) I. ४४,२३॥६६६२५॥ II. २६५,२७,२६६,३१॥ कनकसेन I. ७०७,१२। कनिंघम II. २१६, कन्दर्प शर्मा II. ४८३,२१४०६,२११४६०.१५॥ कन्या गुरुकुल नरेला (दिल्ली) II. १६६,१७ । कन्हैयालाल पोद्दार I. ५०४,२८। II. ८०,२९,४८६,१३। कन्हैयालाल शर्मा I ६१३,२६॥ कपिलदेव (शास्त्री) II. ४,२६।१४६:२१११५०,२३।१६०,२७॥ १६२,२४११६३,२४।१६६,१६।१७०.७।१६६,३।२०१,५॥ ३५२,२५ । III. ११३,७।११६४।१७७.६।१८१.२। कपिल मुनि I. १०६,१०॥ कमलाकर दीक्षित I. ४५१,७॥ III. १२६,३०।१३०,१॥ कमलेशकुमार (द्विवेदी) I. ५८०,६। III. १८२,२।। कम्पण (राजा) II. ११०,२०॥ कम्बोज I. ११,१४॥ करण्डमाणिक्य I. ५७६,६। करविन्दाधिप I. १६४,२६। कर्णदेव (महाराजा) I. ६३८,१७। कर्णपूर कवि (द्र० 'कवि कर्णपूर' शब्द) कर्णसिंह डा० (भू० पू० महाराजा जम्मू कश्मीर)III. १८७२१॥ कर्नाटक I. २४८,२२।४६०।१३। कर्मधर I. ६५५,६। १. इनका शास्त्री, साहित्याचार्य, पीएच०डी० मादि भिन्न-भिन्न विशेषणों से निर्देश है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट कर्मन्द I. २८६,२१ । कर्शन जी तिवाड़ी I. ५४४,६ कलकत्ता II. १८८, १७१६६, २४ २१४,२६।२२२, २३।४५२,३०० कलकत्ता राजकीय पुस्तकालय I. ५६६, १० ५६७,७। कलकत्ता विश्वविद्यालय I. ५,२७।४६१, २५।। II. ४२१,२६॥ III. ६४,१०। कलकत्ता संस्कृत कालेज I १०,२३ | कल्याण (पत्रपुञ्ज का राजा ) I. ५६१२१ । कल्याणसागर सूरि I. ७२१,२५। कल्याण स्वामी I. ५२०,१७।५२१,३१ कल्याणी (दक्षिणदेशस्थ ) I. ४२६,१६। २०३ कल्हण I. ३६८,१३।३६६,३।३७३,१२।३७६,८१३६६,५।६४७, ७।६८३,७।। II. ε३, ७/४४६, ८ ।। III. १७४, २० । कवि कर्णपूर II. ४७१,१५ कवि कण्ठहार ( चर्करीतरहस्य का लेखक ) II. ३२५,१०। कवि कामधेनुकार (पुरुषकार में उद्धृत ) II. १४१,१४। कविराज, कविराज सुषेण, सुषेण विद्याभूषण' I. ९४.२६।१५१, १८।१५३,२०।६२७,६,६२६,१८। कवि सारङ्ग ll ८१,१३८ कवीन्द्राचार्य (सरस्वती ) I. १,२२६२, २१ ( द्र० ग्रन्थनाम सूची में कवीन्द्राचार्य पुस्तकालय सूचीपत्र' शब्द ) । कशिपा ( भारद्वाज - दुहिता ) I. ६६, ४ कश्मीर I. १०८,१।११५.४।३४६,१०।३६०, १० । इत्यादि । II. ६३,१।६७,१।२१७, १ । इत्यादि । III. ६६,२१ । कश्मीरी ब्राह्मण ( उवट ) II. 8६, २१ । कश्यप, कश्यप प्रजापति, प्रजापति कश्यप ( काश्यप गोत्र का १. कलापचन्द्रकार का उक्त तीनों नामों से इस ग्रन्थ में उल्लेख हुआ है । अतः सब का निर्देश यहीं कर दिया है । २. कहीं कहीं 'काश्मीर' शब्द का प्रयोग भी हुआ है । ३. तीनों नामों से एक ही व्यक्ति का उल्लेख है । brdas Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास मूल पुरुष) I. ८०,२०८७,१२।१५८,२५॥१६६,७। कश्यप भिक्षु I. ६५५,१५॥ कस्तूरचन्द कासलीवाल III. १७८,१४। कस्तूरि रङ्गाचार्य II. ३६८।२८।३६५,६।३९६,७।३९८१४। . ३९६,१३। . . काकल (कक्कल कायस्थ) I. ६६९,२६। काकोजी (व्यम्बक यज्वा का पुत्र) II. २३५,२। काञ्ची, काञ्चीपुर I. ४४६,१७।६६१,३ । II. २३६,७। काठियावाड़ I. ४४,१४।२६०,४।५४४,६। काण्डमायन I. ७५,६। II. ४०३,१॥ काण्व I. ७५,६।१७८,१५॥ काण्व-वंश I. १७५,११ काण्व-वंश्य I. १७५,११॥ कात्य (कोषकार) I. ४८६,५। कात्य (कोत्यायन वात्तिककार) I. ११८,१६:१६५,१७१३१६, ११।३३२,१॥ कात्यायन' (वार्तिककार) I. २६,१२१३२,२११३५,२२।४६.१०। ४८,१६।११२,२१११५६,३।१६०,२।१८१,१४।२३४से२३९। १६५,११२७२,११२७५,२४।२८३,४।३१७,७१३२२ से १३६। ३४१,५।६८३,२१७१८.५। II. १०.२५।१४।८।१५,२७॥ १६,५।४६,१५६२,२।६५१२।१८८,१०।१९३,१३।१६५, ५।२७६,१०।३११,७।३१२,१८।३४५,२११३४६,२१३५१॥ १०।४०८ से ४१०।४७०,५४४७५,३। III. ३,१७।५.८। ... १०,५।२०,१४।२३,१४।२६,१४।६३,४।१०८६।१०६,१०। ११३,१२।११६,१११२०,१३।१२२,१२।१२७.११ । । 1. कात्यायन (वररुचि; कातन्त्रोत्तरार्घकार) I. ४८६,६६२३,८ । _II. ३३२,४।३८६,१ । १. वररुचि कात्यायन शब्द भी देखें। २. पृष्ठ ४७० और ४७५ पर उद्धृत स्वर्गारोहण काव्य का रचयिता कात्यायन वात्तिककार कात्यावन ही है। ... ..... .., Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट कात्यासन (वररुचि; कातन्त्र-उणादिकार) II. २५८,१८ । कात्यायन' (लिङ्गानुशासनकार) II. २६६,,२४।३००,८ । कात्यायन (ऋक्सर्वानुक्रमणीकार) II. २०८,४ । कात्यायन (-शु० यजुःशाखाप्रवक्ता) II. ३२४,५ । कात्यायन (शु० यजुः प्रातिशाख्यकार) I ६,११७५,८।१०२,६। १८३,५।२८४,३।३२६,५। II. ३८४,१२३६४,१६ । कात्यायन' (श्रौतसूत्रकार) I. ११८,६।३२०,२० । कात्यायन (पाणिनिशिष्य ?) I. २०१,२१ । कात्यायन (कर्मप्रदीपकार) I. ३२१.६ । कात्यायन (चरक संहिता में स्मृत) I ३२३,१३ । कात्यायन (कोशकार) I. ४८६,६। कात्यायन (पूर्वपाणिनीय-सूत्रकार) I. २६०,२३-२४ । कात्यायनी (याज्ञवल्क्य-पत्नी) I. २७२,१७ ।। काफिरकोट (पाकिस्तान) I. २५८,२४ । II. ४७३,३ । कामा (रामभट्ट की माता) I. ७१२,१२ । काम्बोज I. २७,५। . कायस्थ खेतल (द्र० 'खेतल कायस्थ' शब्द)। कार्तवीर्य अर्जुन I. ४७६,८।४८०,१५। कार्तिकेय सिद्धान्तमित्र I. ७२०,५ । काल यवन I. ३७३,६।। । कालिदास I. ३१,६।२६४,११३१४,१११३६५.७।३६७,११४८७, . .. १५५१४,१२।५२७,३१६५६,११ । II. ४८४,१३ । III. १८.१९६१।१७५,१११७६,११। कालीचरण शास्त्री I. ५६७,२२ । “१. यह लिङ्गानुशासनकार वररुचि ही होगा जिसका लिङ्गानुशासन सं० व्या० इ० के भाग २, पृष्ठ २८० पर निर्देश है। २. शु० यजुः शाखा प्रातिशाख्य और श्रौतगृह्य धर्मसूत्र प्रवक्ता एक ही याज्ञवल्क्य पुत्र कात्यायन है (द्र० भा० १, पृष्ठ ३२३-३२६) । * ३. इस पर 'इतरा' शब्द की पृष्ठ १६७ की टि० २ देखें। "11: ४. संस्कृत वाङमय में अनेक कालिदास विश्रत हैं। यहां सामान्य निर्देश किया है .......... .. .. . Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कालूराम गणी जन्मशताब्दी समारोह समिति (छापर) I. ५४१, २८। काले (ग्राम) I. ४६०,१४ । काशकृत्स्न I. ३८,६।६६,१५७१,४।८४,१४।११०,१७११४,२। ११५,२०११४२,६।१६६,१५।२४३,६।२४६,१६।२६१,१। २६७,८।३००,१५॥३०५,१० । II. ११,१७।२१,२४।२४, २६।२८,१५।३५,२५।४३,११७५,१११७७,३।११६,२७।। ११७,१६।१४८,२४।२०५,२७।३०७,४।४०४,४। III. २, १२ २५,२८।३७,३।१११,२८।११२,११११३,३ । काशकृत्स्नक (नगर वा देश) I. १४२,६ । काशकृत्स्नि I. १४२,६।१६४,६।३००,१५। II. ४०४,५। काशी (वाराणसी) I १०६,२६।१०७,२०।१३९,१३ इत्यादि। _II. ११७,११।२३९,८।२५१,१ इत्यादि । काशीनाथ (रघुनाथ शास्त्री काशो के पिता) I. ५५६,१८ । काशीनाथ (प्रक्रियाकौमुदीव्याख्याता) I. ५६७,१४ । काशीनाथ (धातुवत्तिकार) II. १४३,४ । काशीनाथ बापूगी पाठक I. ४६४,२२।४६७,१ । काशीनाथ भट्ट I. ७१२,२४ । काशीनाथ [वासदेव ] अभ्यङ्कर I. ९४,२५।११२.२२।४१०,८ । . II. ३०८,१६।३०६,४।३११,२७।३१५,८।३१६,८।३२५, ११३२६,५१३३१,१५।३३३ ६।३३४,१।३३५,१७,३३७, १।३३८,६१४४०.२८ । III. १३४,८।। काशीनाथ शास्त्री (बालशास्त्री के गुरु) I. ५४३,२२ । काशीनाथ (रावणार्जुनीय-सम्पादक) II. ४७७.१८१४७६,२१ । काशीराज (कातन्त्र-व्याख्याता) I. ६४०,२० । काशी राजकीय संस्कृत महाविद्यालय' I. ५४३,२२ । काशीश्वर (मुग्धबोध-व्याख्याता)I. ७१८,१६ से ७२१,१६ तक। काशीश्वर (सुपद्म-व्याख्योता) I. ७२१,१६ । II. १६६,२०। १. गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज बनारस' तथा 'संस्कृत विश्वविद्यालय काशी' शब्द भी देखें। वर्तमान में संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २०७ काशीश्वर (ज्ञानामृत-व्याकरणकार) I. ७२३, ६। काश्यप (गोत्र) II. ३२३,१६।३२४,१६ । काश्यप (शु० यजु० प्रातिशाख्य में उद्धत) J. ७५,१० । काश्यप (आयुर्वेदीय काश्यपसंहिता-प्रवक्ता) I. १६०,१२। २८८,३। काश्यप (कल्पकार) I. १६०,३।२८८,३ । काश्यप (छन्दःशास्त्र:प्रवक्ता) I. १६०,५। काश्यप (प्राचीन वैयाकरण) I. ६८,१६७१,१६।१५८,१८। २८२,२७ । काश्यप (अर्वाचीन, धातुवृत्तिकार) II. ७०,११।७४,२३ १०७. १६।१४१,१५। काश्यप प्रजापति (द्र०- 'प्रजापति काश्यप' शब्द) काश्यप भिक्ष II. १०७.३४ । कासगंज (एटा) I. ५५१,१७ । काहन (सारस्वत-व्याख्याता माधव का पिता) I. ७१०.६ । कोथ I. २०५,२४,२०६,२२।२१३,५१५३२,६।६२३,२७.६२४, ३।६३४,२०.६५५,२८ । II. २१६,११२७५,२४।६५२,२०। ३५३,३।४८६,८।४८७,५४४६३,६ । कीर्तिमन्दिर विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन I ६४३:२५ । कीलहान I. ११५,१॥२३५,२१।२३७,६।२६०,२६।२६१, २२३१७,६३२६,२८॥३४७,३।३८२,१०।४०४,६।४०५, २४ ४८४,२४।६०६.२६ ६५८,३।६७५,२४ । II. २०७, ३।२१६,१०१२२३,१११४०४,१ । III. १०८,१०।१०६, १०।११३,१५।११४,१०।११५,४।११६,२४.११६.१३ । कुञ्जनी राजा I. ३३४,१२ । कुणरवाडव I. ३३४,४।३४३,२०१३४५,१६।३४८,१६ । कुणि (अष्टा० वृत्तिकार) I २६७,११४८२,२६ । कुण्टिकापुर (सह्याद्रि मण्डल) II. ३७,११ । कुन्द भट्ट (स्फोटवाद-लेखक) II. ४५५,१४ । कुन्दनलाल जैन III. १७७,१५।१७८,२१ । कुप्पु स्वामी I. ४६५,२४ । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास कुमार (कार्तिकेय) I. ६१२,१३६१४, २४ ६२२,५ । कुमार (विष्णुमित्र ऋप्राति० व्याख्याता ) II. ३७६,५ । कुमारगुप्त ( महाराजा) I. ४ε३,६।४६४,११ । कुमार तातय ( महाभाष्य - व्याख्याता ) I. ४४६, १५ । कुमारपाल (राजा) I.. ६१५,१२/६६६,२७/७०२,२ । II. १६७, ४।१६८,१ । कुमारिल भट्ट I. ४,१८ २८,१०२४५, १६।२७८१८ ३.१६,२६। ३१७,१६।३२०,१६ । ३८६, २५/३६०, २।५१८,२१।५२१, ६ । II. ३६१,२६।३६२,१०१४४८,५४४६,१५।४५०,५ । II. १६६,६ । कुम्भघोण I. ३१,२४।२१०,२५ । कुरुक्षेत्र I. २१६,३ । III. १८ १८१,३ । कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय II. ४,२७।१४६,२६।१६३,२५।१६६ * १. १४।२०१,११ । III. १८०.१० । C कुलचन्द्र I. ६४६,५ । II. १४१,१६ । १०. कुलमण्डन II. १३६,५ । कुलशेखर वर्मा I. २३० २ । कुल्लूक भट्ट (मनुस्मृति - टीकाकार) I. ३,१६ । कुशल I. ६३७,२४ । कुसुमपुर २०७,५।३६५,२१।३७०,२५/३७१,१८ । कूचिमञ्चि (ग्राम) I. ५७५,७ । III. १७१,२८।१७२,१ । कूचिमञ्चि प्रग्रहार I. ५७६,१ । कुण्डलीमठाधीश्वर सच्चिदानन्द भारती III. १६५, १५ । कूर्माचल II. ४५६.२४ । कृष्णाश्व I. २८७,६ । कृष्ण III. १८८,२१ । ( ' श्रीकृष्ण' शब्द भी देखें) कृष्ण' ( शेषवंशीय) I. ४३५, २६/४३६, १६।४३८, ११।४३६९६३। ५३६,१० १ कृष्ण (पण्डित - शेषवंशीय) II. ३१८७ । १. ‘शेष कृष्ण' शब्द भी देखें 1 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२७ बारहवां परिशिष्ट कृष्ण (श्री निवास यज्वा का पिता ) II. ३५६, २१॥ कृष्णकान्त विद्यावागीश II. ४६०,११ । कृष्णगोपाल I. ४६४,२६। कृष्ण दीक्षित I. ५८७,७ कृष्णदेव राय ( सार्वभौम) I. ५३७,२४ । III. १६३,४। कृष्ण द्वैपायन' (व्यास) I. १,१२।२४,२२/६३, १३ । १०५,१२। V २०६ ११४,५।१२०,४।१२२,२।२१४,१२।२१५,२६।२६०,४ २७०,१६।२७२,६।२७३, २ ३०१,१५। II. ४६५,२६ । ४६६,४।४८०,२५॥ कृष्ण भारद्वाज I. १७२, १६। कृष्णमाचार्य (कृष्णमाचारियर ) I. ६२, ४१४२५, २५।४३५, २४। ४६८,२६।६ε०,२१। II. ६१, २६/४७२,२४ कृष्णमाचार्य ( परिभाषाभास्कर का प्रकाशक ) II. ३२६,३। कृष्णमित्र' (रामसेवक पुत्र) I. ४६३,२५५३४,१४१६०३,६। II. २३०,२४।४५८, १० । कृष्ण लीलाशुक मुनि I १२०, २३।४०४,३।४०५, १५/५१७,६। ५८६,१७।६८१,३।६६०, १८/६६१, १ II. ७६, १७८०१ | ६, २५।१०३ - १०६ (पृष्ठ) । २०१, १२२६।६।४७२, ८ कृष्ण राजा (राष्ट्रकूटीय) II. ४६१, ४ कृष्णराम ( शिवराम का पिता ) II. २३६, ३ | कृष्ण शर्मा I. ७०८, २३। III १३१,१३। कृष्ण सूरि ( शेषवंशीय) I. ४३५,१२,२३।४३६,२०। कृष्णाचार्यं (= कृष्णमित्र रामसेवक पुत्र ) I. ५३४,१८ । कृष्णाचार्य ( शेषवंशीय) I. ४३६, १३ ४३६, ११५८६,१३५६४, १५। के० उपाध्याय 1. २५६,१७/ के० एस० महादेव शास्त्री I. ६८६,२८|६६०, ७। केकड़ी ( राजस्थान) I. १३८, १२१८८, १५ १. 'व्यास' शब्द भी देखें । २. 'कृष्णाचार्य' शब्द भी देखें । ३. 'लीला शुकमुनि' शब्द भी देखें । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के० टी० पाण्डुरङ्ग I. ५०५,१४।। के. माधवकृष्ण शर्मा 1. ३८७४। केरल कालिदास ( = केरल वर्मदेव) I. ६०७६। केरल वर्मदेव I ६०५,२३१६०७.१०॥ केशव (ऋग्वेदकल्पद्रुमकार) I. ७९,२६। II. ३६५,१०। केशव कवि (स्फोट तत्त्वकार) II. ४५५,१०। केशव (कौशिक सूत्र टीकाकार) I. २००:२६। केशव (कोषकार) I. १७८,४१८१,२३।१८६२४।१६०,१। २६८,१७।२६६,१०॥ II. २८७.१०। केशव कवि (स्फोट तत्त्वकार) I. ५२२,१४१५२६,२८ । केशव (वृत्तिकार) I. ५२२,१४१५२६,२८ । केशव (केशवी व्याकरणकार) I. ६०६,१८) केशव (वोपदेव का पिता) I. ७१६,५॥ केशव दीक्षित (हरिभट्ट का पिता) II. ४५७,३। केशवराम (शिवराम का भ्राता) II. २३६,४। केसर विजय II. २६६,१२। कैयट (महाभाष्य प्रदीपकार) I. ८७,११११४,६।१४०।२८।१४६, १०॥ इत्यादि । II. ५३,८४६३,१११६७,२३।१०१,२६ इत्यादि । III. ४७,२७७३,२६।१२२,२१११३१,१२। को० अ० सुब्रह्मण्य अय्यर II. ४४०,१५. . कोकण I. ६३१,१८॥ कोणमुख (कश्मीरस्थ ग्राम) I. ४२६,१२। कोमरय्य I. ५७५,१२। कोलब्र क I. २२३,२६।४६८,२४, II २१६,६।४५७,१८। कोल्हापुर I. ६६९,२६।। कोहल I. २८२,३। कौटिल्य (चाणक्य) I. ८७,१३।६६,१३।३४७,२३। ... कौण्ड भट्ट I. १८१,२१। II. ४५५,१६।४५६,११।। . कौण्डिन्य I. ७५,११। II. ४०३,। कौत्स ७३,६।२०१,५-६।२१७,५१२१८.१६।२२००६। II. ४१५,४ .१. ग्रन्थ में भूल से 'के९ माधव शर्मा छपा है। २. सामान्य रूप से निर्देश है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MIR . .. बारहवां परिशिष्ट २११ कौत्स (पाणिनिय शिष्य) I. २०१,३१ कौमुदीकार (प्रक्रिया कौमुदीकार) III. ३.३। कौशाम्बी I. २०८,३।३३०,२०।३६१,१०॥ कौशिक (इन्दु) I. ६०,१।। कौशिक (कात्यायन) I. ३२३।११।। कौशिक (धातुवृत्तिकार) II ६१,२०।१४१,१०। कौशिक अन्वय (गोत्र) I. १६६,१६।१६७,३। कौशिक गोत्र I. ४२६,६।। कौशिक विश्वामित्र I.८८२। कौषीतकि I. ३५३,१३॥ कोहलीपुत्र I. ७५,१३। II. ४०३,१२। क्रमदीश्वर I ७८,९।५२७,४।६०८,१२। [I. ११६.७।१३८,६। ___ १६४,१३।२६६,१६। कोष्टा. ३१६,१२।३४३,३।। क्रौष्टुकि I. २८५,२४। क्षत्र (दिवोदास-पौत्र) I. १००,१२।.. क्षपणक I• ७७.२५॥६०८,१११६५६,११ II. ११६,५।१८१,५। . २५१,६॥ क्षितीशचन्द्र चटर्जी (चट्टोपाध्याय).I. २८,२७।१२१,१५॥ III. १५४,७। क्षीर (उपाध्याय) I. ३७६,६।३८०,३। II. ६३,७। ८. क्षीर क्षीरस्वामी I. २०६,२३।३००,१६।३५३।७।३५८०६।३५६, ३।३२४,७।६८८,२०१६६६,१११ II. ३८,७।५२,५।६५,६। ..६८,२४७०,११।७४,२३।७६.११८०-१०१ पृष्ठ । १०५, ११११.०६.१३।१११.२८।११६,१५ इत्यादि । III. १२, २६।२४,६।११३,११।१२३,५। .. क्षेमकर (लोकेशकर का पिता) I. ७१४,२०। II. २६८,१६ क्षेमकीर्ति (बृहत् कल्पवृत्ति का पूरक). I. ७०३,४। । क्षेमकर I. ६१२,२१॥ क्षेमेन्द्र I. ७०४,२७०८,२१ II. ४६१,४१४६६,१०४७६,११॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ४७६,२। III. १२८,२८।१३१,१२१ खण्डदेव (भाट्टदीपिकाकार) I. ५३५,१९॥ खरतर गच्छ II. २६६,२३॥ खिल्लूर (ग्राम) I. ७०१,२०॥ खेतल कायस्थ I. ६४१,१४।गङ्गदास II. ४४७,१५। गङ्गादत्त शर्मा I. ५५६,५। . गङ्गाधर (गणरत्नमहोदधि-व्याख्याता) II. १६३,२०॥ गङ्गाधर (मुग्धबोधीय गणपाठकार) I ७१७,२७) गङ्गाधर (उणादिवृत्तिकार) II. २७१,२३॥ गङ्गाधर तर्कवागीश I. ७२०,१५॥ गङ्गानाथ झा शर्मा I. १८५,२६। III. १६६,३। गङ्गशोपाध्याय III. ६,२८।। गणपति शर्मा, शास्त्री I. १०५,२७। II. १०५.६।१०७१२ . २६६,७१४५३,४।४५४,२७। गणेशदत्त (अष्टा० वृत्तिकार) I. ५५२,२५॥ गदसिंह (तत्त्वचन्द्रिकाकार) I. ५१६,१७॥ गन्नय (राजरुद्र का पिता) I. ३५५,१६। गयासुद्दीन खिलजी I. ७०६,१८। गर्ग (भरद्वाज पुत्र) I. ६६,१११६१,१७। गर्दभीविपीत भारद्वाज I. १७२,१२। । गलव-गलु (गालव का पिता) I. १६६,१॥ गवर्नमेण्ट ओरियण्टल मैन्युस्क्रिप्टस् लायब्ररी (मद्रास) I. ५८०, १२। III. १८२,१०॥ गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज बनारस' I. १७६२०१४२५,१७। गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज त्रिपुरीथुरा अर्णाकुलम् I. ५८०.१४॥ III. १८२,१२। गायकवाड़ ओरियण्टल सीरिज बड़ोदा II. २६२,१४) गायकवाड ग्रन्थमाला बड़ोदा I. १८६।२६।३८४,१६।६११,४। १. द्र० काशीराज संस्कृत विश्वविद्यालय' शब्द। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २१३ . गार्ग्य I. ४७,२४।६८,२४७१,१९७४,३।७५,१४।११०.१८। । १४४,७।१६५,१०।१७७,४।१८२,१०।२८२,२७।२८५,१॥ ६६६८ | II. १२,२११२०२:१२६४२७,७ । III. ३४,५। १०७.४। गार्ग्य गोत्र II. २२७,१५।। गार्ग्य गोपाल यज्वा I. २४१,१३ । II. ३६८,२६।३९६,११४००, I III. १३४,१७:१३५,१। . गाय॑मत I. ४७.२६ । II. ३९४,१७ । गार्यनारायण I. ५०,२५। गालव I. २८,२१४६८,२११७१,२०१११०,१८११४३,२४।१६२, २१११६३,२।१६५,१२।२८१,१।२८५,११२८६,३ । II. ३६३,७ । III. १०७.२६ । गिरिधर शर्मा (म० महोपाध्याय) III. १६२.६ । गिरीश (शिव) I. ८१,२० । गिरीशचन्द्र विद्यारल I. ७१८,१० । II. २९७,१०। गुजरात I. १४८,१३।६६६,२७ । II. ४८५,५ । गुणनन्दी I. ४९६,१२१६६४,२।६६७,२० । II. १८२,१६ । गुणरत्न (दार्शनिक) I. ५२१,१४। गुणरत्न सूरि (वैयाकरण) I. ३२१,५। II ८१,१४।१३५,४। १३६,१। गुप्त (क्षीरतरङ्गिणी में स्मृत) II. १४७,२५ । गुरुकुल कांगड़ी (हरद्वार) I. ५५६,६ । गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर I. ५५६,२१ । गुरुनाथ विद्यावाचस्पति II. १४७०२५ । गुरुपद हालदार I. ६३,२४।१०८,२५।१०६।२६।१३५,२०।१४५, २०११३६,१९।१६६,६।१६२,१११२४०२५।२४१,११।। ३४१,१४।३४४,१७।३३८.१०॥३८३,१३१४३४,१५१५१४, ६।५१५,७/५१६,१२१५२३,११६०८२४६०६,२४६२२, . ११।६२६,२।६३२,६।६३४,१५।६३५,१९।६३८,१९६८३, ११६६४,१७ । II. ८२.१२।२६०,२।२८८,२२२३००, Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास गुरुप्रसाद शास्त्री II. ४५६,६ । गध्रपिच्छ I. ६६६,३। गृहपति शौनक I. २९७,१ । ('शौनक गहपति' शब्द भी द्रष्टव्य) गैरोला II. २६४,४ ('वाचस्पति गैरोला' शब्द भी द्रष्टव्य) गोडा I. ३४६,८।३६०,२२। गोंडल (काठियाबाड़) I. ३१२,१७ । III. ६३.६ । गोकुल चन्द्र I. ५४३,१ ।। गोडशे (बालकृष्ण शर्मा का उपनाम) II. ३६३,४। गोणिका पुत्र I. २४५,१८॥३४७,१८।३५६,१६।३५७,३। गोदावरी I. ५१३,२२ । III. १६१,२७ । । गोनद I. ३४६,६।३६१,२। गोनर्दीय I. ३४५,१८॥३५६,१७ । गोपर्वत I. २०२,२७ । गोपाल (गोकुलचन्द्र का भ्राता) I. ५४३,६ । गोपालकृष्ण शास्त्री-I. ४४४,५।५४२,६। II. ३२३,१० । III. १२६.७ . ...... .. गोपाल चक्रवर्ती I. ५०७,२७ गोपालदत्त I. ५५२,२५। गोपालनारायण बहुरा II. १९८,६७ । गोपाल भट्ट I. ७१२,३० । गोपाल यज्वा I. २४१,१३ । गोपाल सूरि II. ४००,१८ । गोपालाचार्य (शेषवंशीय) I. ४३६,१२।४३६,११४४०,१ । गोपालाचार्य (कातन्त्रविभ्रमावर्णिकार) I. ६४२,२३ । गोपीनाथ (कातन्त्र परिशिष्ट टीकाकार) II. १४७,२५ । गोपीनाथ एम० ए० पुरोहित I४७०,२४ । . ...मोपीनाथ भट्ट I. १७५८ । । . गोयीचन्द्र (प्रौस्थासानिक) I. २७१,२५४७२,१३।६६३,१। 2:.७०५,११ । १. १६४,२१।। १६ गोल्डस्टकर I. २०५,२३।२११,५।३१३,५॥३३१,१३।६३८,१८ । II. २३,२१। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २१५ गोल्हण I. ६२७,२११६२८,११६३०,१३ । . गोवर्धन (गणरत्न महोदधि-व्याख्याता) II. १९४,३ । गोवर्धन (उणादिवत्तिकार) II. २१८,२२१२१६,१२:२२०,१ । गोवर्धन (जयकृष्ण का पितामह) II ३५८,२८ । गोविन्द (शेषवंशीय) I. ४३८,२० । गोविन्दजित् II. ४७२,११ । । गोविन्ददास I. ६३६,६।। गोविन्दपुर II. २३७,१८। गोविन्द भट्ट II. १४१,२१ । (भट्ट गोविन्द शब्द भी द्रष्टव्य) . गोविन्दराम (शिवराम का भ्राता) II. २३६,४। । गोविन्द विद्याशिरोमणि I. ७२०,१०। गोविन्दशर्मा I. ७२०,३।। गोविन्दाचार्य II. ३३०, ५। गोसाल I. २०६,१६।२११,१८। गौतम I. ७२,१७५,१६।१४३,११२८३,११ । II. ४०३,१० । गौरधर I. ६४२,८ । गौरमूलक (ग्राम) I. ५२१,४। गौरी (परमेश्वर की माता) II. ४५०,१६ । ... ग्रियर्सन I. ६४१,१० । ग्वालियर I ६०,२६॥३८८,२२।४८६,२६ । II ४१४,२१ । घनश्याम (धातुकोशकार) II. ८१,२३ । घोष (Fo-'अश्वघोष' शब्द)। चक्रदत्त (चिकित्सासंग्रहकार) I. २०३,२५। चक्रपाणि (चरक टीकाकार) I. ३५७,१०३६३,१६:३६४,१७। ३८२,२६।३८४,२ । चक्रपाणि' (शेषवंशीय) I ४३८,२३ । II. ३१८,१७।। चक्रपाणिदत्त I. ४३६,५।५६५,५१६०४,११ । चक्रवर्ती मरुत्त (द्र० 'मरुत्त चक्रवर्ती शब्द) चक्रवर्मा (चक्रवर्मन्) J. १६६.६। III. १०७.२६ । । चंगदेव (द्र० 'चांगदेव' शब्द चंगलपट (तमिलनाडू) II. २२८,१। १. 'शेष चक्रपाणि' शब्द भी द्रष्टव्य । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास चण्डीश्वर I. ७१२, ३। चतुर्भज II. १४१,२२। चन्द्र, चन्द्राचार्य' I. ६९,१५।११०,१८।२३६,१२।३६८.१२। ३६६,२११३७३,१३।३७६,१२।३७८,२६।४८५,५।४६७, २३।५२०,६।६१६,१६।६१७४।६४६,२४।६६१,५१६६६, ६। II. ३४,१६१०१,१२।१३७,४।१८६,२४।१७७,६। १८७,१६।१८८,१२।१६३,१६।२०६,१६।२६०,१०२६१, ४।२८०,११२८३,१६ । III. २,१२१११५,१।१२७.२८ । चन्द्रकान्त तर्कालंकार I. ६३५,१८ । चन्द्रकान्त बाली III. १७३,१४।१७५,११।१७६,१८ । । चन्द्रकीर्ति (समन्तभद्रव्याकरणकार ?) I. ६०६८ चन्द्रकीति (हर्षकीर्ति का गुरु) I. ७१५,११ । चन्द्रकीर्ति सूरि I. ७१०,११ । II. १३८,२५ । चन्द्रगुप्त (मौर्य) I. २०६,१२३६५,२८।३६६,३।३७१,२।३७५, १७। चन्द्रगुप्त (द्वितीय-गुप्तवंशीय) I. ३८७,२३॥३६१,२५॥३६२, २१५०५,२३ । चन्द्रगोमी' I. ४०,१०७७,२४।१२७.२७।१६६.४।१७१,११॥ २२५,२६।२३६,२४।२४२,१५।२५५,१५।२७६,१६।२६१, ११३७०,६।३७६,८।३७७,११४८५,६।६०८,१०१६४६,१६। II. ३४.१६।३६.१९।११६.४।१२२,१५।१७७.६।१७६, १११६२,२७११६५,२१।२०६,२०१२३४,५।२६०,१४।२७६, १८२८०,३३३३५,१७४३३६,५॥३५२,२।३५५,१० । III. ११४,१७ । चन्द्रधर गुलेरी II. ४७२,१८। III. ८२,१६ । चन्द्रदेव सूरि (=देवचन्द्रसूरि) I. ६६६.५ । चन्द्रय्य कवि I. ४६०।१०। चन्द्रशेखर विद्यालंकार I. ७०५,२४ । १. 'चन्द्रगोमी' शब्द भी द्रष्टव्य । २. चन्द्र, चन्द्राचार्य' शब्द भी द्रष्टव्य । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२८ बारहवां परिशिष्ट २१७ चन्द्रसागर सूरि I. ४१६,१६।६९२,२८।६६७,३० । II. ६५,४॥ चन्द्रादित्य I. ४१९,७। चन्द्रावतीराज-विनय I. ७०२,१ । चन्नवीर कवि I. ११०,१७।१२६,१५३१३३,५११५०,३० । II. ५,१६।२६,११३६,२११३७,१०११४६,१२२०६,११३०७४। III. ३ऊ५। चम्पा (नगरो) II. ३७६,८ । चरक (=वैशम्पायन) I. २६२,७ । चाक्रवर्मण I. ३७,२।६८,२५७१,२०११६८,२४।२८२,२८ । चांगदेव (चंगदेव) I. ६९६,१ । चाचिग (चाच) I. ६६५,२१ । चाणक्य I. २३८,२२।३६५,२८।३७३,२६ । II. २४६३१३। चाणोद कन्याली (ग्राम) I. ५४५,६ । चारायण I.७२,११११३,८। II. ४०४,४ । चारायणि I. ११३,१२। II. ४०३.१६ । चारित्रसिंह I. ६४२,१। चारित्ररत्नगणि II. ३३९,२५ चारुदेव शास्त्री II. ४३६,२८।४३७२८।४४०,६।४४२.४४७ पृष्ठ । चार्ल्स पिल्किसन II. १४३,६ । चित्तौड़ गढ़ I. ३६७,२७७०१,२९ । चित्रशाला प्रेस पूना I. १६५,२३ । चिद्रूपाश्रम I. ७२३:१९ । चिन्तामणि (म. प्रदीपटीकाकार) I. ४२५५४५३,१७ चिन्तामणि (शेषवंशीय) I. ४३६,१६१४५४३। चिन्तामणि डा० (मद्रास) II. २५६,१९ । . चिन्ताहरण शर्मा II. ३८१,१२ । चिन्नतिम्न (नायक) I. ५३८,३,२२ । चिन्न स्वामी शास्त्री (मीमांसक) I. ५५९,१४॥५७५,२५ । चिमणा जी II. १७१,१॥ . . Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास चिम्मनलाल डी० दलाल II. २८६,२० ॥ चीनदेव III. ६५,२१ । चुनारगढ़ 1. ३६४,१ । I. चुरु (चूरू) I. ५५४,१८ । III. १८६,१० । चुल्लि भट्ट I. ४६८, १८ ।. चूर्णिकार I. ३५६, १८/३५७, १८ । चैतन्य महाप्रभु II ४६०, ३ । चोक्कनाथ मखी' II. २३४,१७ । चोक्का दीक्षित' I. ४६४,२३ ॥ चोल (देश) I. ५७४,२४।५७८,११।५७६,६।६०१,२७ । II. २३३,७ ॥ चौखम्बा (संस्कृत सीरिज ( ग्रन्थमाला) काशी I. २४८, २७ २५४,२६।३९३११५३०,३१५३५,२४/६०४, २८/६०५, २२ II. २६६,५०४४०,५ । चौधरी प्रतापसिंह I. २४४, ११ । चौथमल मुनि III. १८६,१ । छलारी नरसिंहाचार्य III. १६१.२८ जगतुङ्ग (राजा) I. ४ε१,५ । जगत्तुङ्ग सभा II. २८६, १६ । जगदीश तर्कालंकार I. १०४, २४ १०६, ७ । १५४, १० । II. २८, २५/१४७,२६/४५,६,२५ । जगदीश भट्टाचार्य I. ५००, ३ जगद्धर भट्ट I. ६४३,३ । II. ८१,१८ III. १३७,२३ ॥ जगनलाल गुप्त II. २१६४ । जगन्नाथ (पण्डितराज) I. ४३६, ५/४४२, १२/५३१,१० । ५३५, १।५७४,६।५९-३,२५।६०३,२८/६०४,२६ जनन्नाथ (गोकुलचन्द्र का गुरु ) I. ५४३८ । और १. दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं । यह रामभद्र दीक्षित का, , गुरु श्वसुर था। २. कई स्थानों पर संक्षिप्त रूप से भी उद्धृत है । थे Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट ३१६ जगन्नाथ (सारस्वत टीकाकार) I. ७१३,१४। । जगन्नाथ (शेषवंशीय विष्णु का भ्राता) II. ३१८,८।।.. जगन्नाथाश्रम (बिट्ठल समकालिक) I. ४३७,१०॥५३६६ । . II. ३१८,११। जज्झट (चरक-टीकाकार) I. १४१,७ । जटीश्वर (जयदेव, जयमङ्गल') II. ४८२,१११४८७,१४।४८८, १२। जनमेजय (तृतीय-परीक्षित्-पुत्र) I. २१.२१ । जनार्दन (रामभट्ट-पुत्र) I. ७१२.१५ । । जम्मू I. ५४०,२७ । II. १२२.४ । III. १८७,११ । जम्मू रघुनाथ मन्दिर पुस्तकालय I. ४५६,१४१५४०,२७।५४८, ७६१४,१४ । II. १२२,४।१४३,१३२७.३ । । (जम्बूद्वीप I. ३६६। जयकृष्ण (सि० को० टीकाकार) II. ३५८,२३ । जयकृष्णदास (राजा) II. १८०,२३ । जयचन्द्र सूरि II. ३३६२४ । .. जयदेव (कवीन्दु) II. ३३४,१५ । जयदेव II. ४८२,१११४८७,१४ । .. जयदेवसिंह I. ६६५,७४६६६,३। । जयन्त (प्र० को व्याख्याता) f. ५६६,२० । जयन्त भट्ट (न्यायमञ्जरीकार) I. ६५,१७।१७२११।२४०.५। जयन्तीकार I. ६६६.१३ ।। ... जयपुर I. ५५६,२८ । III. १७६,१३ । जयमङ्गल' II. ४८२,१११४८७,१४ । जयमङ्गल (? जटीश्वरादिनामा से भिन्न) II. ४८८.३। जयवीर गणि II. १३६,२३ । जयसिंह (धाराधीश भोजदेव का पिता) I. ६८४,२७१६८५,२ । जयसिंह (कश्मीर नृप) II: ६५,१३ । . ८: जयसिंह (=सिद्धराज) I. ६६७.७।.. १. तीनों एक ही व्यक्ति के नाम । २. 'जटीश्वर' शब्द । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जयसिंह (लिङ्गवार्तिककार) II. ३०१,१ । जयादित्य (काशिकाकार) 1 १११,१११४०,१३,१४४,२०। १७२,२०१२२२.१५।२३०.६।२३५,३।२३७,२२।२३६.६। २७०,२३।२८३,१२।४८०,३।५०१,११६३६,२७.६६६,६। II. ११५,१६ । जयानन्द सूरि' (अमरचन्द्र सूरि का गुरु) I. १६६,२७ । .. जयानन्द सूरि' (हैमलिङ्गानुशासनवृत्तिकार) II. २६६.६ । जयानन्द सूरि' (लिङ्गानुशासन वृत्त्युद्धारकार) II. ३००,११ । जयापीड (कश्मोरराज), I. ३६१,१३॥३७६.६ । II. ६३,१६३ . २८६,१७ । जत' (जातिविशेष) I. ३६९,२२।३७०.१।४६३,२ ॥ जर्मन जर्मनी (देश) 1. २२३,२३॥३९२,४०४०५,२३१६२८,२९। ६४६.१७। II. ७२०३।११७,४।२८४,७३४७,१८१३५४, १६.३५५.६ । • जल्हण I. २६२,२४।३३७,२६।।. ४७२,१२ । जवाहरलाल (नेहरू) I. २२४,२२। . जहांगीर I.७१४,८। . ... जाजलि (=उज्ज्वलदत्त) II २२३.३। जातूकण्यं I. ७५,१७ । ...... जानकक (जालकाक पाठा०) II. ४२५४७-८ । जानकीनन्दन I. ४३६,१५। जानकी प्रसाद द्विवेद I. ६११,२७।६१३,२६।६१८,२४।६२५, ११॥६२६,१७।६३६-६३६ पृष्ठ । II १०८२६।११७. २४।११९,२३।१२०,११॥२५६,३ । जानकीलाल माथुर I. ५५६,२६ ।' । १. ये तीनों एक स्थानों में निर्दिष्ट एक व्यक्ति है, या भिन्न भिन्न । इस में कोई साधक बाधक प्रमाण ज्ञात नहीं है । २. 'जर्त' शब्द को रमेशचन्द्र मज़मूदार ने गुप्त बना दिया। विशेष ० 'सं० व्या० इ०' के भाग १, पृष्ठ ६६६, पं० २१ से पृष्ठ ६७०,१२ पं०क Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट .२२१ जामदग्न्य राम, परशुराम I. १०१.५।२१५,१६ । ..... जाम्बवती (श्रीकृष्ण पत्नी)-I: २५८,१८ । II. ४६४,१५ । __III. ६२,३।१८८,२१। जायसवाल I. ४६३,२६ । : ... जार्ज कार्डोना III. १०६,३।१०३,२४०१११,१०।१२०,२५॥ १२२,२८।१२३,३। जालकाक (जानकक, पाठा०) II: ४२५,७-८ । . जालानन (?) H. ४२५,११। । जालन्धर I. ५५६,१११५५९,७। जिज्ञासुस्मारक पाणिनि कन्या महाविद्यालय (वाराणसी) I. ५१२,६ । जिनप्रबोध सूरि I. ६४५,२३ । जिनप्रभसूरि' (कातन्त्रविभ्रमकार) I. ६४१,१३॥ जिनप्रभसूरि' कातन्त्रपञ्जिका व्याख्याकार I. ६३७,२५ । जिनमण्डन गणि I. ७०१,१८ । जिनरत्न (द्र०-जिनेन्द्र) जिनविजय (मुनि) I. ६७२,१ । III. १७४,१६ । जिनसागर I. ७००,५। जिनसिंह II. २६६,२३। जिनेन्द्र (जिनरल) I. ७१५.५। जिनेन्द्र, जिनेन्द्र बुद्धि (न्यासकार) I. ११६,१६।१४६,१०।१८०, १६।२२८,९।३००,२१३३०७८ इत्यादि। II. ३,२२६ १॥ ४०,२१।१५२०१७।१५३,२५ इत्यादि । III. १२३,२२ । जिनेश्वर सूरि* I. ६४०,१३।६४५,२५२६६२,१७। जियालाल III. १५३,१११५५,१६४१५७,१ । जीवक (प्रायु० काश्यप संहिता का परिष्कर्ता) I. ३७३,१७ । - जीवगोस्वामी ७२३,२१ । १. सम्भव है ये दोनों नामों से एक ही व्यक्ति का निर्देश होवे। २. आगे उद्धृत तीनों स्थलों पर निर्दिष्ट एक व्यक्ति है या भिन्नभिन्न । यह विवेचनीय है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास जीवनाथ II. ४७१,१७ जीवराम कालिदास ( राजवैद्य) I. २६०, ६ । III. ६३,६ ६६,२६ जीवानन्द ( विद्यासागर ) I. २०३२५ । II. ३८६ १६ । जीवाराम शर्मा I. ५५५,१६ । जुमरनन्दी I. ७०४,२६ ७०५,७ । II. १९४,१६।२६६,२२ ॥ जे० वैण्ड्रिएस I. २,२७ ॥ जेष्ठाराम मुकुन्द जी (बम्बई ) II. ३८५,७ । जैन प्रभाकर यन्त्रालय (काशी) II. ६१.११ । जैमिनि I. ५; ३।२२,२२/२३, १२७४६, १२१२००, ६।२२०,१६। ३०१,१५।३०५,८।३२६,२३ । II. ४०५,९ । जैमिनि ( कोशकार ) II. २६६,२३ । जैयट उपाध्याय I. ४१८,२४ ! जैसलमेर I. ६४०,१५ । जोगराज I. ६२३,१८ । जोधपुर I. ६४६,१८ । II. २९६,२२ । III. १८७, ४ । जोधपुर दुर्ग पुस्तकालय I. ५४६,१४ । जोधपुर विश्वविद्यालय I. ५४०,२४ । III. १८७,३ । जोहन किर्स्ट II. २०४,२५।२६५,१७ । जौनराज (श्रीकण्ठचरित टीकाकार) III. १३८, २ ज्ञानतोर्थ (सारस्वत-व्याख्याकार) I. ७१५,१६ । ज्ञाननिधि ( भवभूति का गुरु ) I. ५१६, ६ । ज्ञान विमल' उपाध्याय मिश्र II. २६६, १६ - ज्ञान विमल' गणि (शब्द भेदप्रकाश - टीकाकार) I. ε३,२७ । 'ज्ञान विमल' शिष्य - वल्लभ I. · ७००,७ । ज्ञान सागर II, १३६,५ । ज्ञानेन्द्र भिक्षु (पेरंभट्ट का गुरु) I. ४४२,१२।५३५,१८ । ज्ञानेन्द्र सरस्वती I. ४४२, ३ । ५६८,२८५६६२| II. २३०,१७ २४६,७ ॥ १. क्या तीनों नाम एक व्यक्ति के हैं, अथवा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के यह विचारणीय है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २२३. ज्येष्ठ कलश I. ४२५,१५॥४२६,७। .. ज्वालादत्त शर्मा I ५५४,२७। . . ज्वालामुखी (कांगड़ा) I. ४३,६ । टक्कुसु (चीनी विद्वान्) I. ४६५,६ । टङ्क (वेदान्तसूत्र-व्याख्याकार) I. ४००,११ । टंकारा (नगर). I. ५४४,७। :...:. ....... टालेमी I. १६,२५ । । । । टी० आर० चिन्तामणि II. २२७,२३ । टी० शेरवात्सकी I. २२४,५। ... टुक (टोंक) II. १३६,६ । ट्रिवेण्ड्रम' I. ६,३०।४६५,१०।४८८,२७५७३,५५५८१,२१६०७, २११६८७,२७ । II. १०३,५२२६४,१६।३०८,१०।३१६, १४।३८१,७।४५२०२२।४५३,१०।४५४,२७ । डल्हण (सुश्रुत टीकाकार) I. १६०,२०। ।.. डा० वर्मा (द्र० सत्यकामवर्मा) . डी० ए० वी० कालेज लाहौर' II. ३०७,२३ । डी० डी० कोसाम्बी III. ६१,१० । । डेक्कन कालेज', पूना II. १४६,२९।२५०,१५।४४०,१६ । । तजावूरु नायक (तजावरुनायक) I. ५३८.११ । III. १६२,१३ । । ............... .. तजौर I. ४६५,३।५७८,१३ । II. २३३,७ । .. ... ... तौर पुस्तकालय, तजौर राजकीय पुस्तकालय, तजौर शाही महल पुस्तकालय, तजौर हस्तलेख संग्रह I. ५४७.१५॥ ५७६,१२१५८०,४।५६५,२४।६००,१३।६०२,२४।६०३, १। II. १०४,१५२२३४,६।२३५,१६।२४४,१७।२५०। २०२५१,६।३२२,११॥३२४,२७ । तथागत बुद्ध I. ६६,२१२०८,१४।२१११६।३७२,७ । १. 'त्रिवेन्द्रम् शब्द भी द्रष्टव्य । . २. दयानन्द ऐङ ग्लो वैदिक कालेज 'लाहौर शब्द भी द्रष्टव्यं । ३. द्र० 'दक्खन कालेज (पूना) शब्द भी द्रष्टव्य । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास तर्क तिलक भट्टाचार्य I. ७१३,२५ । ताण्डी (छन्दःशास्त्रप्रवक्ता) I. २८५,२४ । ताताचार्य I. ५३८,१० । III. १६२,२४ । तारक पञ्चानन I. ७०५,२० । तारानाथ तर्कवाचस्पति II. २७९.१० । III. १६७.२२। . तालात्तीर डा. I. ५३२,४।। तित्तिरि (शाखा प्रवक्ता) I. २६२,१२ । II. ४८०,२४। . तिरुपति II. ६६२० । तिरुमल द्वादशाहयाजी (वेङ्कट-पुत्र) I. ६०२,१७ । II. २३०, २६ । 'तिरुमल भट्ट (रामकृष्ण भट्ट का पिता, वेङ्कटाद्रि भट्ट का पुत्र) .. ६००,१२ । तिरुमल यज्वा (मल्लय यज्वा का पुत्र) I. ४४३,१५४५४,२४। ४६१,१। तिरुमलाचार्य (अन्नम्भट्ट का पिता) ४६०,१६ । तिरुमल्लई (राजा) I. ५३८.२२ । तिलक (निपाताव्ययोपसर्गवृत्तिकार) II. १००,४।१६७४ । तुक्कोजी (राजा) II. २३३,६ । तृणंजय (पुराण प्रवक्ता) I. ६६,१५ । तेनालि रामलिङ्ग I. ५२६,२१ । III. १६३,५ । तैत्तिरीयक I. ७५,१८ । तोनोरि (तोपुरी, तोरूरि पाठा०) विष्णु II. २९८,११-१३ । तोप्पल.दीक्षित. I. ६०२,२६ । II. २३०,१६ । त्रिगर्त (देश.) 1. ४३,४ । त्रिपुनीथरा (अर्णाकुलम) III. १८२,१२ । त्रिभवन तिलक (जैन मन्दिर). I. ६७०.१ । त्रिलोचन, त्रिलोचनदास I. ४०,२।१३६,६।३४४,१०१६३६,१६ । ... II. १२०,८।१३१,३। त्रिविक्रम (पञ्जिकोद्योतकार) I. ६३७,५। . त्रिवेन्द्रम् I. ६८६,२४ । III. १.२० (द्र 'ट्रिचेण्ड्रम' शब्द भी) त्रिशूली (पण्डितराज जगन्नाथ) I. ५३५,१७ । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/२६ बारहवां परिशिष्ट २२५ त्र्यम्बक (शिव) 1. ८१, २० त्र्यम्बक यज्वा (रामभद्र दीक्षित द्वारा स्मृत) II. २३५,२ । त्वष्टा (आदित्य - विशेष ) I. ८७.२१ । थोडेर आफ्रेस्ट II. २२२,२० ( द्र० 'प्राफेस्ट' शब्द ) दक्खन कालेज' (पूना) II. २८,२४ ३७७, २०१३७६१५।३८७, ४१३८६, २०१३६०, १२ । दक्ष (पाणिनि की माता दाक्षी का पिता ) I. ३००,२० । दक्ष प्रजापति I. ८७, १३ दण्डनाथ, दण्डनाथ नारायण भट्ट ( सरस्वती कण्ठाभरण टीकाकार ) I. ६८८, २२/६८४१५/६६०, १ । II. २,१७ ६१, १४।१३३,१८११८६,२/२६४,१८ । दण्डी (काव्यादर्शकर्त्ता) I. २०,७ । II. ४८५,२५ । दण्डी (लिङ्गानुशासनकार) II. ३००,२ । दत्तात्रेय ( कमलाकर दीक्षित का गुरु ) I. ४५.१७ HI. १३०, १ दत्तात्रेय अनन्त कुलकर्णी I. ३०४,२८ । दत्तात्रेय काशीनाथ तार I. ५४२, १४ । HI. १८४,२११८५,२८ दत्तात्रेय गङ्गाधर कोपरकर II. २८६, १८ । दयानन्द ऐंग्लो वैदिक कालेज लाहौर I. ११५, ६।२२७,२६। ४७०,२२ । II. ३८२,७ । दयानन्द भार्गव I. ५४०, २४ । III. १८६, १ १८७, ३ १८८, ६ । दयानन्द सरस्वती ( द्र० - स्वामी दयानन्द सरस्वती' शब्द । दयालपाल मुनि I. ६८३,१४ । II. १३२,६ । दर्पण कवि I. ५४,१३ । दशबल (धातुरूपभेद कर्त्ता ) ITI . ८१,१७ | दाक्षक (देश) I. ३०२,२ दाक्षायण (व्या) I. १४४, ११।१६८, १.५।२१७१५।२१८,१। २९४,१४/२६६,२२२६८३ । II. ४३३, २६ । १. 'डेक्कन कालेज (पूना) ' शब्द भी द्रष्टव्य । २. 'डी० ए० वी० कालेज लाहोर शब्द भी- द्रष्टव्य । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास दाक्षायण भक्त (देश) I. ३०२,३ । दाक्षि (व्याडि) I. १४४,१२ । दाक्षि-दाक्षायण I. ११८,१७ । दाक्षिकट, दाक्षिकन्था, दाक्षिकूट, दाक्षिग्राम, दाक्षिघोष, दाक्षि नगर, दाक्षिपलद, दाक्षिपल्वल, दाक्षिपिङ्गल, दाक्षिपिशङ्गः दाक्षिपुस, दाक्षिबदरी, देक्षिरक्ष, दाक्षिशाला, दाक्षिशाल्मली, दाक्षिशिल्पी, दाक्षिह्रद, दाक्ष्यश्वत्थ I. पृष्ठ ३०२, पं० ४-१५ । दाक्षी (पाणिनि की माता) I. १९६५। . " दाक्षीपुत्र (पाणिनि) I. १४४,१२।१६३,१६ । II. ४६६,१३। ४७०,१३ । III. ६४,८ । दाक्षीसुत (पाणिनि) II. ४७०,६ । III. ६४,३ । दानापुर I. ५५१,१८ । दामोदर (नारायण भट्ट का गुरु) I. ६०६,९ । १ : दामोदर (उणादिवृत्तिकार) II. २२०,५।२२६,२४ । दामोदरदत्त (पद्मनाभ को पिता) I. ७२१,१ । - दामोदर विज्ञ (विश्वकर्मा शास्त्री का पिता) I. ५९६,४ । दामोदर सातवलेकर II. ४०२,१ । III. १६९,२० । दामोदर सेन (शा ब्दकसिंह) II. २२१,३ । दामोदर सेन (आयुर्वेदज्ञ) II. २२१,११ ।। दाराशिकोह I. ५३५,२११५६६,२७।६००,२। दाल्भ्य I.७५.२०। दाशरथ (राम) I. ११७,१७ । दाशरथि (राम) I ११७,११११७.१६॥२१५,१६ । । दि इण्डियन रिसर्च इन्स्टीटयू ट (कलकत्ता) III. ६७,६ । दिग्वस्त्र' (देवनन्दी) I. ४६०,२५।.. दिद्याशील (उणादिवृत्तिकार) II. २२६,२३ । दिनेशचन्द्र भट्टाचार्य I. ४३०,११५६७,१०।५.६६-५७१ तक । ६४४,१६ । II. २२१,२२।२२४,२२।३१६,२७ । III. १३०,१२ . ...... .. .. १. 'पूज्यपाद' और 'देवनन्दी' शब्द भी देखें। ...... 1 . Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... बारहवां परिशिष्ट २२७ दिल्ली-III. १७३,१५१८९,१५।। दिल्ली विश्वविद्यालय पुस्तकालय III. १८७,१६।१८६,७ । दिवोदास (राजा, प्रतर्दन का पिता) I. १००,१०। . दुर्ग, दुर्गाचार्य, दुर्गसिंह, भगवदुर्ग (निरुक्त-वृत्तिकार) I ६८, २८।६९,१३।९४,१३।१६३,२२११७६,१८।२३८,१८१२८४, १५।६३३,३,११,२४ । III. १०१,१०। दुर्ग, दुर्गसिंह्म दुर्गसिंह्म, भगवान् वृत्तिकार (कातन्त्र-वृत्तिकार)I. ३८,११११५३,२२।४८६,८१५०५,१२।६२१,६।५२३,२५॥ ५२८,२२१६३.०,१७४६३३,२६ । II. १५,२२।१६,१०। ११७,२२।११८,१।११६,११।१२०,६।१४६,२२।२२१,१ । दुर्गसिंह (कातन्त्रवृत्ति-टीकाकार) I. २४६,२१ । .... · दुर्गसिंह (उणादि-वृत्तिकार) I. ३६६,२५ । II. २५६,१० । दुर्गसिंह (परिभाषा-वृत्तिकार) II. १६,१०।३३१,१६।३३२, ....... १३३३३३,८ ।. . दुर्गसिंह, दुर्गात्मा, दुर्ग, दुर्गप (लिङ्गानुशासनवृत्तिकार) I. ६३१ १। II. २८७,२५।२८८,११।३३४४।..... दुर्गादास, दुर्गादास विद्यावागीश (कविकल्पद्रुम-टीकाकार) II. ८८,१।११८,२६।१२१,११।१४०,१८ । दुर्गादास (मुग्धबोध-टीकाकार) I. ७१६,१० । II. १९६,१३ । दुर्गा प्रिटिंग प्रेस (अजमेर) I. ३४७,२०। दुर्बलाचार्य II. ४५६,२। । दुविनीत (राजा) I. ४६७,२७।४६८,४।४६१,६।४६२,३१५०३, १८६६३१,१८ । दुर्वेक मिश्र (हेतुबिन्दुटीकालोककार) ५१६,९८५६२,२९।१६३, दृढबल (चरक संहिता का पूरक) I. ३७३,१६।३७६,२८। दप्तबालाकि गाये I. १६२, १०। देव (पुरुषोत्तमदेव) I ४२८,१०।४३१,५ । ('पुरुषोत्तम देव' ... - शब्द भी देखें) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास देव ('दैवम्' ग्रन्थ का रचयिता) II. १०४:२३.१०५,१। देवाण शर्मा (अष्टा० वृत्तिकार) I. ५५२०२६ । देवगिरि (वर्तमान-दौलताबाद) I. ७१६,२६ । देवचन्द्रसूरि (= चन्द्रदेव सूरि) I. ६९६,५॥ देवदत्त शास्त्री (अष्टा० वृत्तिकार) L ५५२,१५ । देवनन्दी' (जनेन्द्र व्याकरणकार) I. ६९,१६७७,२६६६६,४। ४८४,१४।५६३,१७/६०८.१२१६०९,३०।६३५,६।६५६, १६६६०.६।६६२,१८१६६७. १७०८,७ । II. ६०,१५॥ ११६,६।१८१०२०।२६१,१६।२६२,१२२८२,२२।२८३,६। देवनारायण (भूपति) I ६०५,२१।। देवनारायण त्रिवेदी (तिवारी जो के नाम से प्रसिद्ध काशी के सर्वो न वैयाकरण) I. ४२०,२६ । देवपाल (लौगाक्षि-गृह्य व्याख्याता) I. ११३,११ II. ४०३:१८ देवबोधः (महाभारत टीकाकार) I. ४६,१३६१,१६।६३,२२२४५, ७।२४६,५। देवमित्र (विष्णुमित्र का पिता) II. ३७०,२११३७६.६ । देव याज्ञिक II. ४१७.१०। (द्र० 'अनन्त', 'अनन्त देव याज्ञिक' शब्द) देवराज, देवराज यज्वा, यज्वा (निघण्टु-टीकाकार) I. ४५८,१४। ५०१,२६१६८६,२०६६१,५। II. ७६.१६६०,१२११८, ६।२१३,४।२२६,१२२५२०२६।२५३,१७ । III. १२.३१। देवल. (मुनि, काव्यकार) I. ३७३,२२ । III. ९४.११) देव शर्मा (नारायण का पिता) I:४६२०१० देवसहाय (पा० सूत्रवृत्ति टिप्पणीकार) I. ५५०.५। देवसुन्दर (मुणरत सूरि का गुरु) देवसूरि I.७११,५। देवीबत (रामसेवक का पिता) I.४६३५३९। १. पूज्यपाद' तथा 'दिग्वस्त्र' शब्द भी देखें। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २६ देवीदास चक्रवर्ती I. ७१९,८ । देवेन्द्र (इन्द्र-आदि व्या० प्रवक्ता) I. २२०,२४। । देवेन्द्र (गुणनन्दी का प्रशिष्य) I. ६६६८। . देवेन्द्र (हेमचन्द्र का शिष्य) I. ६९६,२५ । देवेन्द्र (कनकप्रभ सूरि का गुरु) II. २६६.३ । देवेन्द्र शर्मा सूरि I७०१,१६ । दौलताबाद (द्र० देवगिरि शब्द) I. ७१७.१ । द्रमिड (द्रमिल') I. ६९६,१२ । II. १४१, २३।१६२०२५ । द्रमिड (द्रविड) वैयाकरण II. १६८,१६ । द्रविड (देश) I. ५७५,८।५७६,३ । द्रुपद (पाञ्चालराज) I. १०१,१४ । द्रोण भारद्वाज (द्रोणाचार्य) I. १७२,१६।१७३,६ । द्रोणाचार्य I. १७२,१७।१७३७ । द्वारका (द्वारकापुरी) III. ८३,२ । द्वारकादास शास्त्री III. ११७४। द्वारिका-द्वारिकादास (तर्कतिलक भट्टाचार्य का पिता) I. ७१३, २७ । धनचन्द्र (हैम अवचूरि का लेखक) I. ७००,३ । धनञ्जय (दशरूपक-कार) II. ४७१,२३ । धनपाल' (दैव-पुरुषकार में उद्धृत) I. १२१,५ । II. १४१, २५। धनपाल' (जैन शाकटायन धातुपाठ व्याख्याता) II. १३२.१॥ १४२,२२। धनप्रभ सूरि (कातन्त्र--ढुण्डिका-कार) L. ६४५,१४। घदराज (हरिभट्ट का भ्राता) II ४५७.४ । धनेन्द्र (सारस्वत टीकाकार) I. ७१३,१५ । १. संस्कृत में 'ळ' अक्षर के किन्ही लौकिक भाषाओं में कहीं और कहीं 'ल' का प्रयोग होता है । इसी के आधार पर साहित्य शास्त्री 'डलयोरें. कत्वम्' मानते हैं। २. सम्भवतः ये दोनों स्थानों पर उद्धृत एक व्यक्ति होवे । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास धनेश धनेश्वर (वोपदेव का गुरु) . ४३४,७.१०।५८६,१७०६, २५७१६,७ । III. १२८,२८ । धनेश्वर मिश्र (नन्दन मिश्र का पिता) I. ५६७,१३। धन्वन्तरि I. ८६,६९६,१२।१६४,२१११६६,८।१६७,१ । धर्मकीर्ति (न्यायबिन्दु-कार) ५८६, २ । धर्मकीर्ति (रूपावतार-कार)I. ४२१,३।४२३,१६।४२४,२१५७६, . १५५५८५,२६।५८६,१४ । II. १०४,१८।११३,२६। २८३,२४ । धर्मघोष (हैमलघुन्यास-कार) I. ६६६,२२। धर्मदत्त (भीमसेन शर्मा का भ्राता) I. ५५४,४। .. धर्मदास (चान्द्र-व्याख्याता) I. ५५६,१२ । • धर्मपाणिनि III. ६२,१५ । धर्मपाल ('पेइ-न' =वाक्यपदीयप्रकीर्ण [?] काण्ड का व्याख्याता) ___I. ३६०,२६ । II. ४४४,१३ । धर्मपुरी (गोदावरी तीरस्थ ग्राम) III. १६१,२७ । ..... धममीत (यवनराज) I. ३६७,१० । धर्मराज यज्वा I. ४५३,६२६६४,१५।५७७,३।५७६,१ । धर्मराज वेङ्कटेश्वर (अप्पा दीक्षित का पिता) II. ३२३,८ । धर्मवीर (ब्रह्मचारी) I. ५३२,१० । धर्मसूरी (पद्मनाभ पुत्र) II. ३२५,२०। । धर्मोत्तर (बौद्ध विद्वान्) I. ६७१,१८ । धाता (आदित्य विशेष) I. ८७,२०।।. धातुवृत्तिकार (अज्ञातनामा) II. १४१,१ ।। १. 'बाणेश्वर मिश्र' पाठान्तर I. ५६७,६ । २. विशेष शोधनीय-III. पृष्ठ ६२, पं० १५ से पं० २८ तक का मुद्रित पाठ पूर्व पृष्ठ ६१, पं० २४ के आगे होना चाहिये । 'इसी करण' में' का संबन्ध सुभाषित रत्नकोश में उद्धृत पाणिनीय श्लोक वाले प्रकरण के साथ है.। ... ____३. यहां मुद्रण प्रमाद से 'धर्मयज्वा' छप गया है । 'धर्मराज यज्वा' होना .. चाहिये। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट । धारा नगरी (मालवा-म० प्र०) I. ६६५,८ ! धूर्त स्वामी (आप० श्रौत व्याख्याता) I. ४७१,२२ । . घोयी (लक्ष्मणसेन का सभापण्डित) I. ४८७,११ । ध्रुवसेन द्वितीय (वलभीनरेश) I. १९७७ । नकुलमुख I. ७७,१५। . नगर तहसील (शिमोगा जिला) I. ४८६,१८ । नन्द (मगध नरेश) I. २००,१६।२०८,४२११,६।२१५,१७। .. २१६.३ ।। .......... ... .. . नन्दकिशोर भट्ट I. ७१८,१६७१६,४। । नन्दन (प्रसन्न साहित्य रत्नाकर-कार) I. ४७२,१ । नन्दनमिश्र (न्यायवागीश) I. ५६७,४।५६८,२३ । III १३०, नन्दिकेश्वर I. ६५,३ । II. २७,८ । नन्दिनीसुत (व्याडि) I..२६८,१५।२६६,५ । नन्दिस्वामी (नन्दीस्वामी-पाठा० ) II. ६०,१६.२२ ।" नन्दी (लिङ्गानुशासनकार ? ) II. ३००,१६ । नन्दी (=देवनन्दी) II. २८३,६। नन्दी पण्डित (देशल का पिता) I. ६३७,१ । नन्नय भट्टारक III. १७३,१ । । । नमि साधु (काव्यालंकार टीकाकृत्) II. ४७२४। नयनानन्द चक्रवर्ती II. ४८६,१२ । नयपाल (नेपाल) दरबार पुस्तकालय I. ४५०,१५ । नर (भरद्वाजपुत्र) I. ६६,१ | नरपति महामिश्र I. ५६६,६। नरवर (उत्तर प्रदेशस्थ नगर) I. ५५४,२३ । ... नरसिंह (रामभट्ट का पिता) I. ७१२,१२ । नरसिंहाचार्य (प्रदीपच्याख्यानानि के सम्पा०) I. ४६६,२५ । नरहरि (बालबोध व्या० कर्ता) I. ७२३,२१ । नरेन्द्रसेन I. ७०७,११ । नरेन्द्राचार्य (प्र० कौ० प्रसाद में उद्धृत) I. ५९५,३। .. नरेन्द्राचार्य (सारस्वतकार) I. ७०७,५ । II. १६४,२६ । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास नरेला (दिल्ली) III. १८०४।। नल्ला दीक्षित I. ४६४,७१४६५,२१५७८,२३। . नवकिशोर शास्त्री II. २६६४ . नवद्वीप (बंगाल) I. ४३१.२७ । II. ४६०,१४ । नवभारत टाइम्स (न. भा० टा०, दिल्ली) III. १८६,३। नववृत्तिकार (जयन्त) I. ५२०,२१ । नागचन्द्र (भुजङ्ग-सुधाकर) I. ६६९,२१ । नागदेव (अनन्तभट्ट का पिता) II. ३८७.२०१३९२,२८।४१६, २६०४१७,४।४.१६,२८ । नागदेव उज्ज्वलदत्त II. २२३,८ । नामदेवी (ज्येष्ठकलश की पत्नी) I. ४२६,८ । नागनाथ (पतञ्जलि) I. ३५६,१७४३५७८ । नागनाथ (शेषवंशीय) I. ४३६ पर वंशचित्र । II. ३१८,१६ । नागपुर I. ५४२,१४।७१०.१५ । III. १८३,२२ । नागपुरीय तपागच्छ II. १३८,२५। नागर नीलकण्ठ 1. ६४२,२५ । नागरी प्रचारिणी सभा काशी I. ४३८,२०॥ नागार्जुन (रसशास्त्रज्ञ) I. ३०४,१७ । नागेश, नागेश भट्ट' . १२,२२।३६,५७३,२२।६५,८११७६,५॥ १८.१.२०१८२,१३।२०१,२०१२४००६।२४.७,१२३.०६.१५॥ ३१७, ३ इत्यादि । II. ४६,२७१५४,२.६.५७,१११६२. २६।६८,२।१६०,१४।२०६,१८।२३१,१।३.१२,१८. इत्यादि III. ११-३०।४७,२८।११८.१।१८५,१० इत्यादि । नागोजि' (नागनाथ-शेषवंशीय) I. ४३७,१८ । नागोजि, नागोजिपण्डित (शेष रामचन्द्र का पिता) I४३६२। ___ ४३७.१५५४६,३ । III. १९३,१० । नागोजि भट्ट (नागेश भट्ट) I. ४६.७,५३६२७०७ । III. ४६.२। .५७,२११५८,९। १. 'नामोजि भट्ट' शब्द भी द्रष्टव्य। २. यह नागोजि, नागोजी दोनों प्रकार ही प्रयुक्त होता है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ . ३/३० पारहवां परिशिष्ट २३३ नामोजी (वृत्तिकार रामचन्द्र प्रेरक) I. ५४६,२ । नागोर (राजस्थान) I. ६६६,१८। नाडेल ग्राम I. ७०२,३०॥ नाथूराम प्रेमी I. ४६२.११४६७,२१६१०,३१६६२०६।६७१,२२। ६८०,६। III. १६८,६।१६६,१६ । नामपारायणकार II. १६५,१८ । नारद (मनुस्मृति का प्रवक्ता) I. ४२:२। नारद (बृहस्पति शिष्य) III. १२५,३ । नारायण (शेषवंशीय) [द्र०---शेषनारायण' शब्द नारायण (महाभाष्य विवरणकार) I. ४५०।१३।। नारायण, नारायण शास्त्री (प्रदीप व्याख्याकार, धर्मसज यज्वा का शिष्य) I.४२५,१०४५३,१०।४७७.३।४६३,३०। नारायण (प्रदीप विवरणकार) II. ४६१२०।४६२,६१४६३,१॥ ४६६,१६। नारायण (वाररुच-संग्रह का टीकाकार) I. ५१६,२१ । नारायण कण्ठी I. ६६६,१२। नारायण दीक्षित (रङ्गनाथ यज्वा का पिता) ५७८,२४ । नारायण भट्ट (प्रक्रिया सर्वस्वकार) I. ४६,१०।१५१३.९४५८७, १६।६०५.१८। II. ६५.१८।११४,३।२०६.२८।२१९,६। २२८।८।२२६,२५२२३१।६।२३८.५।२७७,४ । III. २,३ । नारायण भट्ट (गोभिलगृह्य टीकाकार) I. ७३,२०१३२१.७ । II. ४२३,२० । III. १४८.६ । नारायण भट्ट (दण्डनाथ) I. ६°६,६६९०४। नारायण, नारायण सुधी (वृत्तिकार) I. ५४७,१२ । II. २३७, २३६,११२८१.१ । नारायण सुस्मन्द (कारिकावलीकार) I. ७२३,२० नारायण (कुमारसंभव टीकाकार) I..३१२८। नारायण (ब्रह्मदत्त सूनु) II. ४६२,३। ' Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास नारायण कवि, नारायण भट्ट (धातु. काव्यकार) II. ४८१,१६। ४६४,४। नारायण भारती I.७१२,२।। ; नारायण न्याय प्रञ्चानन II. १७०,१६। ... नारायण शास्त्री ग्रिस्ते II. २५७,४ । नारायण सिंह प्रतापसिंह धर्मार्थ ट्रस्ट II. २४४,१२ । नारायणाचार्य (अप्पय दीक्षित का पिता) I. ५३६,२१॥ (द्र० 'प्राचार्य दीक्षित शब्द) नारेरी वासुदेव II. ४६३,२४। नारोपन्त (नारायण पण्डित) II. ४३८.११ । III. १६७,१ । नासिक II. ४०२,२। III. १७०,५। । नासिरुद्दीन (गयासुद्दीन खिलजी का पुत्र) I.७०६,२१। नित्यनाथ सिद्ध (रसरत्नकार) I. ३०३,१४ । • निपाणी (बेलगांव, कर्नाटक) I. २४८,२२। निमि (उपनिषत् में श्रुत विदेह जनक) I. ३३१,३० । निरुक्तकार' (यास्क) III. २४,२१।२५,३। निर्णय सागर (यन्त्रालय प्रेस वा संस्करण)तीनों भागों में बहुत्र। निर्भयराम सेठ (फर्रुखाबाद) 1. ५५४,६ । निज़र (अष्टा० वृत्तिकार) I. ४६८,२४। निश्चुलकर (चिकित्सा संग्रह-टीकाकार) I. २०३,२६ । । नीलकण्ठ (महाभारत टीकाकार) I. १,२०।७,२६१८१.२७। ६४७.२। II. २,२६।३१६,१३ । नीलकण्ठ वाजपेयी (वरदेश्वर पुत्र) I. ४४१,१२।५४०,११॥ ५६६,३। नीलकण्ठ यज्वा दीक्षित (पूर्वोक्त वाजपेयी) I. ४४१,१७ | II. ....३०८,१०॥ नीलकण्ठ (सदाशिव का पिता) I. ४५१,६ | IL१२६,२६ । नीलकण्ठ दीक्षित (अप्पय दीक्षित का भ्रातुष्पौत्र) I. ५३७.४। ५३८,१५४०,१। .. १. 'यास्क' शब्द भी द्रष्टव्य। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट । २३५ नीलकण्ठ गार्य (निरुक्तश्लोक वात्तिककार) II. ४५२,१६ । नीलाम्बर (गोवर्धन का पिता) II. २१८,१८। ... नृसिंह (शेषवंशीय अनन्ताचार्य पुत्र) I.-४३६,१२। ... नृसिंह (शेषवंशीय कृष्णाचार्य का पुत्र) I. ४३६.१५॥५३१,११। II. ५६१,२२॥ : नृसिंह (शेषवंशीय समचन्द्र का पुत्र और विठ्ठल का पिता) I. ४३६,१७।५८६२३१५६२,१। II. २५८,३।। नृसिंह (शेषवंशीय कृष्ण का शिष्य) I४३६,४। ... नृसिंह (अज्ञातकुल-प्रक्रियाकौमुदी व्याख्याता) I. ५९६,७ । नसिंह पण्डित (स्वरसिद्धान्त मञ्जरीकार) III. १३४,८ । नसिंहाश्रम I. ४३७,२०१५३६,१.. नेकराम शर्मा (भीमसेन शर्मा का पिता) I..५५४.२ । नेपाल (देश) I. १६०,१४.। नेमदास (हेमसिंह का 'प्रपितामह) II. १३९.६ । . नेमिचन्द्र शास्त्री III. १६७.२१ । नैगि (प्राचार्य) II. ४२५,५। ..........: नेगी (नैगिन् ) II. ४२५,२४। [यही भूल से 'नैगि' छपा है । आगे - उद्धृत सूत्रानुसार नैगो (नगिन्) होना चाहिये । ' नैनार्य = नयनार्य I. ५२६,१८॥ नैमिषारण्य I. १८५,३।२१८,२१।२१६,३॥ II. ३७१,१ । । नैलकण्ठि कमलाकर दीक्षित (सदाशिव भट्ट का ज्येष्ठ भ्राता) III. १२६३० । नैषधकार (श्रीहर्ष) IIT, २७ । नोह-नूह I. ३,२३॥ न्यायपञ्चानन 1.७०५,१८।१९४,१८ । पञ्चशिख (सांख्याचार्य) I. २८६,२६ । । पञ्चाल (क्षत्रिय) 1:२१४,२३।२१६,१ । पञ्चाल (देश) I. २१५,४।२१६.१ । १. दोनों स्थानों पर उद्धृत नृसिंहाश्रम एक व्यक्ति है वा भिन्न-भिन्न, यह अज्ञात है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पञ्चाल चण्ड' I. ७६,२८1 III. १५४,२६ । पञ्जाब I. ७०,५१४८,१३ II. २६६,३ । पञ्जाब यूनिवर्सिटी' (विश्वविद्यालय') लाहौर I. ७०,६।४०६) २००४०६,२७।४४२,१८ पञ्जिकाकार (नाम ?) II. १४२०२। पटना 11. २६,२७ III. ६४,१६।१२१,२५॥ पट्टन (गुजरात) 1. ६२४.१६।६२७,६ । पणिपुत्र (=पाणिनि) I. १९३,२२। पंण्डितराज जगन्नाथ (द्र जगन्नाथ पण्डितराज' शब्द) पतञ्जलि (योग सूत्र प्रवक्ता) I. ३६३,६-७॥३६४,१ । पतञ्जलि (योग व्यास भाष्य आदि में उधृत सांख्याचार्य) I. पतञ्जलि (चरक संहिता का संस्कर्ता) I. ३६३,१५,१६। तथा ३६४,१.२ । पतञ्जलि (आङ्गिरसगोत्रीय) I. ३६४,२० । पतञ्जलि (निदान सूत्र प्रवक्ता.) I. ३६३,६७ । पतञ्जलि (महाभाष्यकार) I. १०,६।२२,२६।३३,२५३३६,२। इत्यादि बहुत्र । II. १०,२५॥१४,१८११६६।३०,४।इत्यादि -- बहुत्र । II. ५,११११८६/२३,११॥ इत्यादि बहुत्र । पदकार (महाभाष्यकार) I. ३५६,१८॥३६०,३। पदशेषकार I. ४७३,१३॥ पदम (वाहद का भाई) I. ७११,२७ ।। पदमञ्जरीकार (कृत्) (हरदत्त) II. ३,१ III.६,२ । पद्म (नीलकण्ठ गार्य संन्यासाश्रम का नाम) II. ४५२.१६ । (नीलकण्ठ गार्म्य शब्द भी देखें)। पद्मकुमार (हरदत्त के पिता) ४७४.१२। - ... भाग १, पृष्ठ ७६,२८ मैं अल से पाञ्चालचण्ड' छपा है, उसे २. विभिन्न स्थानों में दोनों ही नाम प्रयुक्त हुए है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २३७ पद्मनाभ ( तैत्तिरीय प्रातिशाख्य टीकाकार) II. ४० ११० १ पद्मनाभ, पद्यनाभदत्त (सर्वत्र एक ही व्यक्ति ' ) I. ७८,१२।५२७, ५। ७२०,२६। II. ११६१०/१३८, ६ १९६,१८/२६६,२१॥ ३०१,३।३४३,१।४०१.१०।४२४,१६। पद्मनाभ मिश्र (श्रीमान् शर्मा का शिष्य) I. ५७१, २३ । IL ३१६,२५ । पद्मनाभ राव I. ४७०, ६५२६, १५ ५७६, ५ । II. ४३६८ । ४४८,२० । III. पृष्ठ १६१-१६८ तक 1 पद्मसुन्दर गणि II. १३६,१३ । पब्लिकेशन बोर्ड आफ असम (कलकत्ता) II. ११७२६ पम्प ( देवेन्द्र का शिष्य) I. ६६९ । परमेश्वर (स्फोट सिद्धि व्याख्याता) II. ४५०, ८ ।४५१,१ । पराशर ( वसिष्ठ - पौत्र = कृष्णद्वैपायन का पिता ) I. १३५,४ । पराशर भट्ट (तत्त्वरत्नाकर का लेखक) I. ११८, १५११२०, ३ । १२२,४११३३,१८ परोपकारिणीसभा (अजमेर) I. २२७, २५४५४६, ७/५५४,१४ ॥ II. १८०,२४।२४३,८१ पर्जन्य ( श्रादित्य विशेष) I. ८७,२१ । पशुपतिनाथ शास्त्री II ३८१११ पश्चिमी बंगाल I. ७०६३ पाकिस्तान I. २५८, २५/४०६, २१ । II ४४२, १९१ पाटली (ग्राम) I. ३७१,१६ । पाञ्चाल चंण्ड 1. ७६,२६ १. II. १५४,२६ पाञ्चाल बाभ्रव्य - गालव I. १६६, २०१६ | ( गालव' शब्द भी देखें) पाटलिपुत्र I. २०७२/२१११३६१०९/३६५,१६/३७००२१। ३७१,२३७२/२/३७५ १६ । १. व्याकरण, परिभाषा, उणादि लिङ्गानुशासन, कोष प्रादिका ( द्र० II. ३४२,१५-२४ | २. पाञ्जाल देशज विशेषण, बाम्रव्य गोत्र गालव नाम ● Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ' पाणिन (पाणिनि) I. १९३,१९।१९४,१।।.. पाणिनि I. १७,१७।२०,१२।२२,१९।३०।१२ इत्यादि बहुत्र । II. ५,११।६,२।६,६।१४,६।२२,७ इत्यादि बहुत्र । III. १,१६।२,१०।३,१७१५,८६,२२ इत्यादि बहुत्र । पाणिनीय संस्कृत पाठशाला (निपाणी-वेलगांव) I. २४८,२२ । पाणिनेय (पाणिनि) I. १६५,१८ । पाण्डीचेरी I. ६१,२३।४४१,७।४४५,३।४५३,१३।४५६,११ ४५८,१८८४६०,५। पाण्डुपुत्र II. ६४,२०। . .: पायुः (भरद्वाज पुत्र) I. ६६,१। पारायणिक I. १४२,३।१९७.२७।१९८,२३ । पाजिटर I. ४३,१०। पार्थसारथिमिश्र I. ८८.४१८६,१११६६,१७ । पार्वती (महादेव पत्नी) I. ८३.३० । .. पार्वतीपुत्र नित्यनाथ (द्र० 'नित्यनाथसिद्ध' शब्द) ...... पार्श्वनाथप्रसाद (पार्श्वनाथ मन्दिर) II. १३९६ । . पाल्यकोत्ति (जैन शाकटायन ब्या० प्रवक्ता) I. २६,१।४०,१४। ७८,१।१४१,४।१४६,१८।१५०,४।४६२,२२१५२२,६६०८, १४।७६४,१६।६७५,१३१७२२.१४ । II. ६६,१११११६, ८।१३०,१६।१३१,१११८३,२७।१८४,१११६१,५।१९३, १६।२६३,८।२६२,२०।३३७,६ । .. पावते आई० एस० (द्र०-'आई० एस० पावते' शब्द) पिङ्गले I. १९६,६२०४,५।२१७,३३२२०,५।२५८,१।२८५,२३। ___II. ४६६,२८ । III. ६३,६ । पिनाकी (शिव) I..८१९१९ .......... पिनाक पाणि शर्मा II. १६८,२८।१७०, III. १८१,१२। 2 पिपुटकर I. ५३९,१८ । ...: पिशल I. २५९,१५। पी० एल० सुब्रह्मण्य शास्त्री I. ६२,३०। । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : बारहवां परिशिष्ट .. २३६ पीताम्बर विद्याभूषण I. ६३८,१३।। पी० पीटर्सन II. ४६४,१८।४७२,१७ । III. ८२,१५ । पी० वी० काणे I. ५३२,६ । पुञ्जराज I. ७०६,१६ । III. १७७,२३।१७८,५। पुणतांवा (नगर) II. ४३८,१० । III. १६७१२ । पुण्डरीक विद्यासागर I. ५१६,१५१५६६०२०।६४४,१६ । II. ४६०३। पुण्यराज I. २६८,२४।३०६,१११३०८,२७।३६४,११३८२,२७। ३८६,२। II. ४३५,१११४३६,६।४४२,८।४४४,२०१४४५,१ पुनर्वसु आत्रेय (द्र० 'आत्रेय पुनर्वसु' शब्द)। पुनर्वसु (वररुचि) I. ३२२,१७ । पुनर्वसु माणवक I. ३२२,१८ । • पुरगा (पाटलिपुत्रभक्षिका राक्षसी) I. ३७१,२७ । पुरुषोत्तम क्षेत्र I. ७०६,१५। पूरुषोत्तमदेव I: २८,१६१८०२६।१०९,३३१४३,३४।१६५,१५॥ १६३,१५।२३०,५२६८,१४।३०१,१७।३५६,१४।३६८, ५।४०३,४।४०५,११४२३,१११४२८,४।४७३,१५१४८४,२। ४६६,१५।५०४,४।५१२,२०१५१६,६१५२२,१६।५२५,२३॥ ५२८,१२१५६६,२८१५६६,२२।६३८,७।६४७,१४॥६५२, २१ । II. १४७,१६।१४८,५११७०,१०।२१६,१७३२२१, ६।२२४,२२।२२६,१६।३०४,२४।३०६,४।३१०,२३।३१२, ६।३१४,२।३१८,२७/४७०,२०१४७२।३ । III. १६३,२६। पुरुषोत्तम गिरि (हस्तलेख-लेखक) III. ५८.१३ । पुरोहित गोपीनाथ एम० ए० I. ४००,२४ । .. पुष्कर (क्षेत्र) I. १११,१५। । पुष्कर सत् (पौष्करसादि का पिता) I. १११,११२८३,६ । पुष्करसादि' I. १११,२४।११२०२। .... पुष्यमित्र I. ३६८,१३७०.१३॥३७२:१८।३७५.१७।३७६,२१ । II. ४३५,३० । III. १२२,६। .. १. 'पोष्करसादि' शब्द भी द्रष्टव्य।.. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास पूज्यपाद' (देवनन्दी) I. २४१, ११४८६, १५३४९०, ७/४६२,२ ४ε४,२।४६६,२।४६८, २५६३,१७१६०६, ३०/६१०,१३। ६५७,२४।६६०,१।६६२, ७/६६८,२० । II. १८१,२१ । १८२,१६ । २४० पूना ( पुणे ) I. २, २६/४/२०१२८, १४१३५,२५१५३,२०१६१,२४ ६६,३१ । इत्यादि II. ३,२६/१६, २१ २८, २४११०२०१७। १४३,७।३१६,१४ इत्यादि । पूना विश्वविद्यालय I. २४६,१ । II ४४० ३० । पूर्णचन्द्र (धातुपारायणकार ) II. ८६,१६ | पूर्णसह वर्मा I ५५३,२६ । पूर्णानन्द सरस्वती ( द्रष्टव्य 'स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती' शब्द ) पूर्व पाणिनीया I. १२० १२ २०२,२।२३७,२५ । पृथिवी की ( महाराज दुर्विनीत का पिता ) I. ४९७,२८ । पृथिवीश्वर (हर्ष० लिङ्गा ० वृत्तिकार ) II. २८०, २६।२८४, ११ । पृथ्वीवर ( कातन्त्र विस्तर व्याख्याता) I. ६३८, २३ । पृषन् ( महाराजा) I. e६,१६ 1 पेत्ताशास्त्री (हृषीकेश) II. ३७२,२३ । पेरम्भट्ट I.४४२,१२।५३५, १८ । पेरुसूरि I. २५६, १७ ५४१,२२ । II. २३२,२२४२३६,१ । पैरिस (फ्रांस) I. २५, १७ । पैङ्गलायन I. २०५३ । पौष्कर ( = पौष्कर सादि ) 1. ११०,१९ । पौष्करसादि I. ७१,२२१७५,२४ ११०,१३२-३६. ४०३,४ । पौष्करसादायन I. २८३,१० । प्रकाशवर्षे (गणपाठ त्रिवृत्तिकार) II. १७०१ । 1. १५१.१६। प्रजापति (छन्दः शास्त्रकार ) I. ८८, १-1 प्रजापति काश्यप ( द्र० 'कश्यप प्रजापति' शब्द ) १. 'देवनन्दी' तथा 'दिग्वस्त्र' शब्द भी द्रष्टव्य । २. 'पुष्करसादि' शब्द भी द्रष्टव्य 1 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/३१ बारहवां परिशिष्ट २४१ . प्रज्ञाकुमारी (प्राचार्या) I. ५१२०६।५६०,६ । प्रतर्दन (दिवोदास-पुत्र) I. १००,११११०१,१ । प्रताप जी शूर जी (बम्बई) II. ३६५,१६ । प्रतापरुद्र नगर II. ३३४,१८ । प्रतापादिव्य (कश्मीरनरेश) I. ३६६,४ । प्रतापरुद्र (नरेश) ७१२,१५ । प्रतापसिंह चौधरी (द्र०–'चौ० प्रतापसिंह' शब्द) प्रद्युम्न सूरि (दुर्गवृत्ति व्याख्याता) I. ६३६,८ . प्रबोधमूत्ति गणि (जिनेश्वर सूरि शिष्य) I. ६४५,२५ प्रभाकर (कुमारिल-शिष्य) I. ३८६.२४।३६०,१ । II. ४४६, २० । प्रभाकरवर्धन I. २८४,१५ । प्रभोचन्द्र (वैयाकरण) I. ६०६,६६१०,६।६६२,७ । प्रभाचन्द्र (अमोघावृत्ति-टीकाकार) I. ६८०,१५ । प्रभाचनाचार्य (शब्दाम्भोजभास्कर न्यासकार) I. ६६३,१६। . ६६५,३ । प्रयाग I. ६३,२६।२०८,३।४३५,३०।४६८,१२१५१३,२४ । प्रयागवेङ्कटाद्रि (महाभाष्य टीकाकार) I. ४४६,५ । प्रवरपुर (कश्मीर देशस्थ) I. ४२६,१२ । प्रवरसेन (महाराज) II. ४७८,१८।। प्रवर्तकोपाध्याय I. ४२५,७।४६५,८१४६६,१। प्रसादकार (प्रक्रियाकौमुदी प्रसादकार) III. १२,२५।। प्रह्लादकूमार ('ऋग्वेदेऽलंकारः' का कर्ता) II. ४६६,२२ । प्राचीन ग्रन्थ संग्रहालय दिल्ली I. ६४४,२७ । प्राचीन हस्तलेख पुस्तकालय उज्जैन II. ४१४,२४ । । प्राचीनौदवजि (प्राचीन औदवजि) I. ७५,२६ । II. ४१२, १९-२६ । प्राच्य पञ्चाल I. ७५,२६।। प्राच्यभारती प्रकाशन दिल्ली ५७७,२५ । प्रिसिप,I. ३६९,१४ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास प्रियङ्गु ( व्यक्ति विशेष ) I. २६१, १५ । प्रियरत्न आर्ष (स्वामी ब्रह्ममुनि) I. १०३, १० । ( 'ब्रह्ममुनि स्वामी' शब्द भी द्रष्टव्य) प्रेमाबाई (स्वा० द० सरस्वती की बहिन ) I. ५४४,१४ । प्रोलनाचार्य (हरियोगी का पिता ? ) II. १०३,१२ । प्लाक्षायण I. ७५,२७ । II. ४०३,४ । प्लाक्षि I. ७६, १ । II. ४०३,६ । फणिपति ( पतञ्जलि ) I. ३८३,२१।३८४,४ । फणिभृत् ( पतञ्जति) I. ३५६,१७।३५७,१२ । फर्रुखाबाद I. ५५१,१७।५५४, ६ । ५५५,१० । फिरिन्दाप भट्ट (= फिरिन्दप राजराजा) I. ४३४,२३ । फिरिन्दा राजरोजा I. ४३५, १५।४४०, १२ । फुल्लराज ( वाक्यपदीय टीकाकार ) II ४४७,६ ॥ फूलमण्डी ( जि० भटिण्डा ) I. १६०,७ । प्राङ्के (डा० ) II. २८४,७ ॥ फ्रांसिस इण्डोलोजि इंस्टीट्य ट ( पाण्डिचेरी ). I. ४४५,३ । फ्रेंच भारतीय कला विमर्शालय ( हिन्दी रूपान्तर ) I. ४५६, १३ बङ्ग, बङ्गदेश, बङ्गप्रदेश बङ्गप्रान्त बंगाल I. २१४, २३ । ४२७, १७।५२६,२२।५६६,२६/६०८, २२१६२८, ७ ७०५,४/७०६, १।७१६,५ । II: १२१, २६२१८,२०२२३,१८ २५६, ५ बङ्ग (क्षत्रिय) I. २१४,२३ । बंगा (जि० जालन्धर) I. ५५६, ८ । बङ्गाल गवर्नमेण्ट I. ५६६,१२ । बट कृष्ण घोष I. २२६,१५ । बड़ोदा I. १०७,२६।१८६,२५।२३६,१।३४३,२६०५१३,१३। ५६२,२६ । II. १००,२० ॥ बड़ोदा प्राच्य विद्यामन्दिर I. १०४, ६ । बड़ोदा राजकीय पुस्तकालय I. ५६०,१० । बनारस I. २३८, २३। (काशी' और 'वाराणसी' शब्द भी देखें) बम्बई I. १८४,२६ । II. ३६५, १८३८५, ७/ बर्नेल I. ६७५,२४ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवा परिशिष्ट २४३ बलदेव (कलाप-प्रक्रियाकार) I. ६४६,७ । बलदेव आर्य संस्कृत पाठशाला (मुरादाबाद) I. ५५५,१७ । बलदेव उपाध्याय I. २६६,७।२६७,१४१७२२,६ । II. ११०, २७ । III. ६८,२१। बलभद्र (गोवर्धन का भ्राता) II. २१८,१६ । बहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा) I. ६२,१०।४१०,३०१४५२,३१॥ बाण भट्ट I. ३.१३,१८५७०६,३। बाणेश्वर मिश्र I. ५६७,६ । बादरायण I. १२०,४११२२,५ । III. १४५,१४ । बॉप (भाषावैज्ञानिक) I. १२,२६ । बाभ्रव्य I. ७६,३।१६७,३ । बाभ्रव्य पाञ्चाल I. २८६,५। बाल (बालक प्रद्योत) I. ११४,२५॥ बालकृष्ण (राम अग्निहोत्री का पितामह II. ३६०,२३ । बालकृष्ण [शर्मा गोडशे] (सदाशिवपुत्र) II. ३९०,११३६२, २५॥३६१,१३९३,६३४१७,७ । बालकृष्ण शास्त्री II. १६४,६। बालम्भट्ट (वैद्यनाथ पायगुण्ड ?) II. ४५६.६ । बालराम पञ्चानन I. ७२३,१५ । बालवागीश्वर II. २८६,६ । • बालशर्मा (वैद्यनाथ-पुत्र, नागेश शिष्य) I. ४६७,१६।४६८,२२॥ II. ४५७.१७१४५६,१३ । बालशास्त्री (काशी के पण्डित) I ५०२,६।५४३,२२ । बालशास्त्री गदरे (ग्वालियर) II. ७३,२६ । II. ४१४,२१॥ बालि द्वीप I. ४८८,२१ । बाष्कल (चरण) III. १३५,६ ।। बाष्कलि (बाष्कलशाखा प्रवक्ता) III. १३४,१३ । बाहीक (देश) I.८१,२३३२०२,२४।३०२,५। बाहुदन्तीपुत्र I. ९६,१३। : बिर्व III. ११४,२२२११६.५ । विल्फर्ड I. ३६९,१४ । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास बिल्हण I. ४२५,२०।४२६,६ । बीकानेर I. ६३६,११ । बीकानेर अनूपसंस्कृत पुस्तकालय I. ४५३,२० । ('अनूप संस्कृत पुस्तकालय' शब्द भी देखें)। बुकानन II. २१६,६। बुक्क [प्रथम] (विजयनगराधिप) II. ११०,२१ । बुद्ध (तथागत) 1.३००,३।३६८,२२१३७१,१६१४२८,२२। . ५२७,२२ । बुद्धमित्र (वसुवन्धु का गुरु) I. २६६,२ । बुद्धिसागर सूरि (व्याकरणकार) I. ७८,४।६०८,१७।६६२,१०॥ ___II. १,१४।११६,११।१३३,२७।१४४,२४।२६५,६।२९४६ बुधसिंह (गोकुलचन्द्र का पिता) I. ५४३,७ । बुरहानपुर (मध्य-प्रदेश) I. ७१२,२६ । बूंदी (राजस्थान) I. ६४६.७ । बूंल्हर, बूहलर I. ४०८,२७।६७५,२४ । II. ४३८,७ । III. १६६,२२।१६७.२ । बृवुतक्षु (राजा) I. १००,१७ । बृहद्गच्छ (तपागच्छ) I. ७१०,१५ । बृहद्गर्ग I. १०५,७। बृहद्रथ (मौर्यवंशज) I. ३६७,४। बृहस्पति (सुरगुरु) I. ६४,११६६,८७६,४।८३,२८।१८:१६५, २७।१०३,५।२८३,२० । III. १२५,२ । वेचरदास जीवराम दोशी I. २५,२२१७००,२६ । बेलगांव (कर्नाटक) I. २४८,२२ । बेलौन (बुलन्दशहर) I. ५५६,१४ । बेल्वाल्कर, बेल्वेल्कर I. ६२,१४१६५,१२।२३५,२६।४१६९। ४३४,१२।४६७.१।५३२,२१६२१,२६।६२३,१८१६३८,११ ६४३,२३।६५०,११६५२,२६१६५४५॥६६४,१२७००,११॥ ७०६,१.७०८,२८७१०,५७११,१६७१५,६७१८,१। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट ७१६,११।७२०,२२ । II. १६०,६ । १६६,१९।२५८,२८। २५६,२।३४३.३ । III. १३१,१३ । २४५ बैजि (प्राचीन आचार्य) I. ३७८.२४ । बोलिक, बोथलंग, भोटलिंग I. २२७, २७३६६,१४ । II. _७२,३ । वोपदेव - द्र० 'वोपदेव' शब्द | ब्रजबिहारी चौबे II ३९३,३ । ब्रह्मदत्त (वेदान्त-व्याख्याता) I. ४००,११ । ब्रह्मदत्त (नर्तीय, वरदराज सुत) I. २७६, २९ । ( द्र० 'आन तय वरदराजसुत) ' शब्द | ब्रह्मदत्त (नारायण कवि का पिता ) II. ४२,४ ॥ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु I, ४०६, २३।५४६,१२।५५५,५।५५७, १६ । II. १७६,२० । ब्रह्मदेव (ब्रह्मा) I. ६३,१।२२०,२४ । ब्रह्मदेव (वैयाकरणसिद्धान्त का लेखक ) II. ४५६,१५ । ब्रह्ममुनि स्वामी II. ४३२,२८ । ( प्रियरत्न प्रार्ष' शब्द भी द्रष्टव्य) ब्रह्मय्य (=पद्मकुमार ) I ५७५,१० । ब्रह्मविलास मठ पैरूरकाडा, ट्रित्रेण्ड्रम्) I, १७१,३० । ब्रह्मसागर मुनि I. ७०६, १२ । ब्रह्मा (आदि शास्त्र - प्रवक्ता ) I. ३, ३६, ११५८, ३।६२,१७/६३, २।७६,४।८३,४।८८,२३३६७,२१ । ( 'ब्रह्मदेव' शब्द भी द्रष्टव्य) ब्रह्मानन्द सरस्वती (परिभाषेन्दुशेखर व्याख्याता ) II. ३२८, १८ ब्रूना, ब्रूनो लिविश I. ६५४,२७ । II. १२२,२२ । भगवत्प्रसाद मिश्र (वेदाचार्य) II. ३८६२७ ३६०,१६ ॥ भगवद्दत्त (प्राचीन इतिहास - प्रनुसंधाता ) I. २,२३६,१६२१, . १६।४३,५।४४,१६।५७, ३१।१०८,२३।११५,१२।१२०, २६।१६१,२५।१६४, ११।१६७, १६ । २०५, २६,२०६,२७॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास २७०,४।२७६,२१।२८५.५।२६२,२७।३३६, १३७०,२६। ३६१,२७।३६४,६।४८६,१६४६३, २०१५००,२६/६१६, २३ । II. ε६,२४।२१८, २२।३७८,२३३८३,४ ३८८, १ ३६६,७।४५२,११ । III. पृष्ठ १४४-१६० तक । भगीरथ प्रसाद त्रिपाठी I. ६१८,२२ । भगुर (भागुरि का पिता ) I. १०४, ३ । भट्ट प्रकलङ्क (तत्त्वार्थवार्तिककार एवं बीद्धों के साथ वादकर्त्ता ) द्र ० - ' प्रकलङ्क भट्ट ' शब्द । २४६ भट्ट कलङ्क ( कर्नाटक भाषा व्याकरणकार) द्र० - 'अकलङ्क भट्ट' शब्द । भट्ट इन्दुराज - द्र० – इन्दुराज भट्ट ' शब्द | 1 भट्ट ईश्वर स्वामी - द्र० 'ईश्वर स्वामी भट्ट' शब्द । भट्ट उत्पल - - द्र० 'उत्पल भट्ट' शब्द । ५ भट्ट उपाध्याय - द्र० ‘उपाध्याय भट्ट' शब्द । भट्ट उम्बेक - द्र० 'उम्बेक भट्ट' शब्द । भट्ट कुमारिल III. १७,१०१४४,२१ ( द्र० 'कुमारिल भट्ट' शब्द ) भट्ट केदार ( वृत्तरत्नाकरकार) II. ३६६,२६ । भट्ट गोपाल - द्र० 'गोपालभट्ट' शब्द । भट्ट गोपीनाथ - द्र० 'गोपीनाथ भट्ट ' शब्द । भट्ट जगद्धर – द्र० 'जगद्धर भट्ट ' शब्द । 1 भट्ट जयन्त - द्र० 'जयन्त भट्ट' शब्द । भट्ट नारायण - द्र० ' नारायण भट्ट शब्द । III. १,२४ ॥ भट्ट पराशर - द्र० 'पराशर भट्ट' शब्द । भट्ट बाण - द्र० 'बाण भट्ट' शब्द | भट्ट भरद्वाज - द्र० 'भरद्वाज भट्ट ' शब्द भट्ट भास्कर ( तै० सं० भाष्यकार ) - द्र० 'भास्कर भट्ट शब्द । भट्ट भूम - द्र० 'भूम भट्ट' शब्द । भट्ट मल्ल - द्र० 'मल्ल', 'मल्ल भट्ट ' शब्द । भट्ट यज्ञश्वर - द्र० 'यज्ञेश्वर भट्ट' शब्द । भट्ट शशाङ्कधर – द्र० ‘शशाङ्कधर भट्ट' शब्द । भट्ट हलायुध - द्र० ' हलायुध भट्ट' शब्द । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २४७ । भट्टारक हरिश्चन्द्र -द्र० 'हरिश्चन्द्र भट्टारक' शब्द । भट्टि, भट्टि स्वामी I. ३६६ २३ । II. ४८१,११४८४,२६।४८६,४ भट्टोजि दीक्षित I. ३७ ११४५,२८।५४,१६।११७,२४।१३५.८ इत्यादि बहुत्र । II. ८,२२।५४,२६ ६३,१५७१,१७११४, २।११५,१७ इत्यादि बहुत्र । III. ११६,२५।१३३,२५ । भण्डारकर डाक्टर II. ४६४,१८ । भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्य ट', पूना I. ७०,१४। १०३,२२।४१०६ । II. ३०८०२८१४४७,१७ । भण्डारकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान', पूना I. ४५१,३।४५६,१४। ४६२,११४६३,१७।५३१,२।५८७,२४१५८६,७।५९०,६। ५६२,६।५६७,१६:५६८,२०१६००,१७।६०४,१६।६४४,३॥ ७१२,७ । II. ९७,२०१६८,११।१४३,६।२२३,४।२५१, २०१२७८,२२।२८१,२२।२८५,१६।३१६,१४।३२०,१०॥ ३२४,१११३२५,१३।३८५,५ । III. १२६,१६१८५,१५। भ० दा० साठे I. ५४२,१६ ।। भद्रबाहु सूरि उपाङ्गी I. ६६४,१७ । भद्रेश्वर सूरि I.७८,५।६०८,१८०६०६,१३।६६३,१८ । II. .. ११६,३।१३४,१०।१८६,७।१६२,२८ । । भरत (चक्रवर्ती महाराजा) I. ६६,६।१०१,६ । भरतमित्र I. १९०,२० । II. ४३२.१५॥४३३,१४।५५२.२१॥ ५५४,११५५५,४॥ भरतमुनि I. १६,१३।२४,२६ । भरतसेन (द्रत बोध व्या० कर्ता) I. ७२३,१५ । भरतसेन (भट्टिकाव्य-टीकाकार) II. ४६०,२५ । '. भरद्वाज (बृहस्पति-पुत्र) ७१,२२।७६,५२८६.१।६०,१२।६६,६। १. कहीं-कहीं 'भण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट' के नाम से है। उनका भी निर्देश ऊपर ही कर दिया है। २. कहीं-कहीं 'भण्डारकर शोध संस्थान' के नाम से उल्लेख है। उनका भी निर्देश ऊपर ही कर दिया है । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ६८,१५।१६१,१७।१६०, ४२६३, २० । II. ४३२,३ । भरद्वाज भट्ट (पृथिवीश्वर का पिता ) II. २८५, ११ भर्तृ प्रपञ्च (वेदान्त व्याख्याता) I. ४००,११ । भर्तृ मित्र ( मीमांसक, वेदान्त व्याख्याता) I. ३६३, २/४००,११ भर्तृहरि' ( वाक्यपदीय - महा० दीपिका का रचयिता ) I. १६,१६ । ३०,२४।३६,१४।५६,२६ ६५,७८७, १ इत्यादि बहुत्र । II. ३,१८।२०,२८।२५,१०१८३,२७,१५०, १ इत्यादि बहुत्र । III. २३,१।२५,१४।१६६,२४।१७६,३ भर्तृहरि (भागवृत्तिकार ) I. ३६७,१३।५१४,१-३ । भर्तृहरि ( भट्टिकाव्य रचयिता ) I. ३६६,२४-२६ ४८२,२३ ४८४-७ । २४८ भश्वर ( वृत्तिकार ) I. ५१८,५ । :: भवन्तः ( ? ) I. ३४५;१९।३४८,२० । भवदास ( ऋषि पुत्र परमेश्वर का चाचा) II. ४५०,१६ । 'भवदेव (परि० विवृत्तिकार का पिता ) II. ३३०, २० । भवदेव मिश्र (भैरवमिश्र का पिता । II. २७७,२१।४५७,२४ । भवभूति I. ५१८, १६ । II. ४६६,१२ । III. १४१,२१ १६६, १२ । भवानन्द सिद्धान्तवागीश II. ४६०, ५ । भागवत पुराण III. १३०,२५ । भागीरथी (अनन्त की माता ) II. ३८७, १६ । भागुरि I. ७१,२२ १०४, १० । II. २७, २६ २८, १०/४२,२६। _७५,११।१४७,४ । III. ६,१ । भाग्याचार्य I. ४३२,६,६ । भानुजि दीक्षित I. १५४, १६।१५८:८।५३१,४।७१४,१४ । II. २१३,१५।२६६,११ भानुदत्त ( रसमञ्जरीकार ) I. ४६८,१८ । III. १८६,२४ । १. 'हरि' शब्द भी द्रष्टव्य | Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/३२ बारहवां परिशिष्ट भामह I. १९७,७।२५८,२५।३५६,११४१५,२३१४८६,१३१५६३, २३६५६४,६ । II. ४७३,११४८५,२३।४८६,११४८७.१ । भारतीय इतिहास संशोधन मण्डल पूना-द्र० 'इतिहास संशोधन .. _ मण्डल' शब्द । भारतीय ज्ञान-पोठ, (काशी) I. ४६२,५१४६३,२६।६६४.२५॥ । . ६७५,२०।६६०६ । II. ६५,२३ । .. भारतीय विद्याभवन (बम्बई) I. ५३४,३। । भारतीय संस्कृत परिषद् (लखनऊ) I. ६३६,१६ । .. भारद्वाज (व्याकरण प्रवक्ता) I. ६८,२५।७१,२०४७६,६।१७२, . १२२८२,२८ । III. १०७,२०। । भारद्वाज (वात्तिककार) I. ३१६,११३३४०,१३३५४,१५३ । भारद्वाज (शिक्षाकार) I. २८२,१३ भारमल्ल (भुजनरेश) I. ७२२,२ । भारवि 1. ५०३,२०।५२७,३।६३१,१६ । II. ४६६.१२ । भावमिश्र (परिभाषा वृत्तिकार) I. ६२५,६ । H. ३३१०२० ३३४,२५। । भावसेन विद्यदेव I. ६८२,१२ । II. १३२,६ भाष्यकार (पतञ्जलि) III. ५,८६, ११ । भास (नाटककार) I. ४१६४३,२०१५०,१८१११७१३३, १६.३१२१८३७३३२२॥३७४२ । II. ३४४।४७०,११। IH. ३१.२५॥६५.३।११२,२५ । भास वर्मा (सातवाहन का चाचा) I. ६२२,१६१० भास्कर (वेदान्त व्याख्याता)-I. ४००।११।. .. भास्कर दीक्षित I. ५३४,१५ । भास्कर, भास्कर अग्निहोत्री (-हरिभास्कर) II ३०पारी ३२३३१५३ भास्कर भट्ट (=भट्ट भास्कर-२० सं भाष्यकार) I. ६२,२८। । " ११६,२।१३३,१९।२७५.२३।२७६,१५ । IR. २४१२८ । भास्कर, भास्कर भट्ट, भास्कर अग्निहोत्री ( हरिभास्कर) प्र. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ३०८,२,६।३२३,१५॥३२४,२। । भास्कराचार्य I ६९,११ । भीम भट्ट' (रावणार्जुनीय काव्यकार) I. २५४,१८ । II. ४७७. २४,२६ । भीम (परिभाषा वृत्तिकार) II. ३२०.५। भीमसेन (काव्यप्रकाश-टीकाकार) I. ४१८,२५१४१९,१। ' भीमसेन (विश्वकर्मा का पितामह) I. ५९६,४। . भीमसेन (धात्वर्थ निर्दशक अथवा धातुवृत्तिकार) II. ५३,१६। ... ५५,५४५७,११।६३,८।६४,५।८६,१५६०,१५ । III. १३६१। भीमसेन शर्मा I. ५५३,१५।। भीमसेन शास्त्री (न्यास पर्यालोचनकार) I ५१२,२११५६४,१८ भीमसेन शास्त्री (विरजानन्द-प्रकाशकार) I. ५५१,२५१५५६, २६॥ भुजनगर (भुज) I. ६८५,५१७२२.१। ' भुमन्यु (भुवमन्यु) I. ६६,७ । भुवनगिरि (स्थान विशेष) II. १३६,२६ । भवनेश्वर II. ३३४,१७ । भूतबलिI. ६०६,४१६१०,५४६६२.७ । भूतिराज (हेलाराज को पिता) I.४४५,२७।४४६,१। भूम भट्ट, भूमक भट्ट II. ४७७.२३ २४।४७८,६४७९,१२। ४८०,८०४८१,१.३।४६३,५१४९४,२३ । भगु, भगुवंश I. ८९,११६,१६।१४८,६३३३३,६ । भैरवमिश्र II. २७७,२०१३२८,२१॥३४८,१२।३५६,७१४५७.२१ भैरवार्य (भैरव आर्य) II. ४०१,१। । भोगनाथ (सायण का कनिष्ठ भ्राता) II, ११०,१४॥ भोगीन्द्र (कोशकार) I. ३८३,२१॥३८४,४। ...... १. 'भूमभट्ट', 'भूमक भट्ट' शब्द भी द्रष्टव्यः । २. 'भीम भट्ट' शब्द भी द्रष्टव्य । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २५१ भाज, भोज देव, भोजराज, भोजराट् । (धाराधीश) I. ६६६। ७८०३।१२१,२६।१२८,२।२८०,११२८७,१५३५७.१२। ३६४,११३७६,१९।३६५,७।६०८,१६१६६६,११६८४ से ६६०।६६६,२ । II. ५,६।६३,१८६७,३।११६:१०।१३३, ११४५,२०११८७,१११८८,३।१६३,११२१०,५२६३,२२। २६४,१।२६४,१।३३७,२३।३३८.४।३८०,५। III. १०,७ भोज (भारमल्ल-पुत्र) I. ७२३,२ । (भोजदेव (द्वितीय, शिलाहारवंशज) I. ६६९,२१ । . भोजवर्मा I. २६८,२३।३६३,२७ । भोटलिंग' II. ७२,३ । भोलानाथ (मुग्धबोध टीकाकार) I. ७१६,६ । . भोलाशंकर व्यास II. ४८५,१६ । मोसलावंश (चोल देशीय) II. २३३,७।२३४,२१ । भौमक II. ४७७,१५४७८,२० । मगध I. ११४,२५२१४,२४ । मङ्कि ऋषि I. २०६,१३। . मङ्किल I. २०६.१४ । मंख I. २०६,१५। मंखलि, गोसाल I. २०६,१४१२०८,२६।२०६,१५।२११,१८ । . मंखलि पुत्त I. २०६,१६ । मङ्गलदेव शास्त्री (डाक्टर) I. २१३,२८ । II. ३७३.१७।३७४, १०.३७६,६३८०,१।। मंगल जी लीलाराव जी I. ५४४,१५ । मंगारस (चिन्तामणि प्रतिपदकार) I. ६८२,१ । मणलर-वीरराघवाचार्य I. ५५०।१७।६०५, १०। ... मणिकण्ठ I. ४२८.६।४३२,३१६३८,८। मणिकण्ठ भट्टाचार्य (त्रिलोचन-चन्द्रिकाकार) I. ६३८.५।। मण्डन (सारस्वत-टीकाकार) I. ७११,२५ । मण्डन मिश्र (स्फोट सिद्धिकार) II. ४४८,११४४६,११४५३, : ११ । III. १६५,१४। १.बोटलिक' शब्द भी द्रष्टव्य। .. . Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास मण्डी राज्य' I. ५२,१३ । मथुरा I. ३६१,१०।४८४, ७१४६३, १५१५४५,११।५५१,११। ५५६,१६ । मथुरा ( = मदुरा = मदुरई ) I. ४६१२२ ।४६४, ५ मदन ( दुर्गवृत्ति- टीकाकार) II. ३३४,७ ॥ मदनमोहन व्यास (केकड़ी राज० ) I. १३८, १४११८८, १५ ॥ मद्गलगलेकर ( भीम - पिता माधवाचार्य का उपनाम ) II. ३२०० १६। मद्रास I. ३०,२६०७३,१११०२,२५ १५६, २६।५४७,१५२५७८, १२।५८०,४/५६७,२७ । II. १४, ३० । १०३,३१०४,८ १०७,५।२३७,६ इत्यादि । मद्रास गवर्नमेण्ट ओरियण्टल सीरिज I. ५.५०,१६।६०५, १२ मद्रास राजकीय हस्तलेख पुस्तकालय ( संग्रह ) I. १०८, २ ३५५,१७।४४१,१४/४४४८/४५२,२।४५५, ५/४६४,६ ४७०,४।४८५,२।४८८, ११४८६, ६५७३,३१५७६,२५१ ५८८,७ ५६६,११।६०२,५ । II. २३५, १७/२४४,२५०० ३२४,२४।४५३,७।४५६, १६।४७७,२७८४८०, ११४.६१, ८६२ ४८३,२५१४८८,१६।४६२, ६।४६४,१० मद्रास ला जर्नल प्रेस I. ७०,२४ । मद्रास विश्वविद्यालय ( ग्रन्थमाला) I. ६६३,१२ । II. २२७, १२।२३४,११।२५६,१२।२६१, २६१२८४, १०३८६,२१| ३८७,१२।३६८, ४/४५०, १० । मधुकर त्रिपाठी ( रामानन्द का पिता ) ५१६, २६ मधुसूदन ( प्र० कौ० टी० जयन्त का पिता ) ५६६ २२ । मधुसूदन ( मुग्धबोध - टीकाकार) I. ७२०,६ । मध्यन्दिन (माध्यन्दिनि का पिता ) I १३६, १६ । ! मध्वाचार्य III. १६३,१४।१६४,१० । मतुः (स्वायम्भुव मनु मनुस्मृति का प्रवक्ता ) I. ३, १११२५, १८ २३८२२ । १. राज्यों के विलय से पूर्व । सम्प्रति हिमाचल प्रदेश का एक भाग । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २५३ मन (नो) मोहन घोष I. ५।२६।१९३,२६।२५६,२३।२५७,३ । II. ४३१,२५ । III. ६४,११ । मन्नुदेव (वैद्यनाथ का शिष्य) I. ४६७,१७।४६९.२२ II. ४५७,१४।४५६,१४ । मम्मट (काव्यप्रकाशकार) I. ४१८,२५१४१६,३।४२०,४।६३६, १२ । मयूर (सूर्यशतक-कार) I. ६३१,१६ । मरुत्त, चक्रवर्ती I. ६६,२३ । मर्करा (कुर्ग) I. ४६१,११॥ मलयगिरि I. ७८,८।६०८,१११७००,२६। II. ११६,६।१३८,५॥ .. . २६६,११।२६७,१। III. २३२१५॥ मलावार II. २२८,२१ मल्ल (क्षीरतरङ्गिणी में उद्घत) II. ८०,२४।१४२,६३ (सम्भ वतः मल्ल भट्ट मल्ल कवि (प्रातिशाख्यप्रदीप शिक्षा में उद्धृत) II. ३६३,२३। मल्लभट्ट (प्राख्यातचन्द्रिका कार)II. ८१,१२१८१.१२११३०,१५ मल्लय यज्वा I. ४२५,६।४४३,१६।४५४,२११४५५,७।४६१०३ । मल्लवादी' (द्वादशारनय चक्र का कर्ता) I. १०७.२६।३४२०१८। मल्लवाद्री. मल्लवादी सूरि' विश्रान्त विद्याधर-न्यासकार) I ५६३,१५॥६७२,३।६७३,१६।६७४,११६७५,६।६६६१०। II १२६२२।१३०,८। मल्लिकार्जुन I. ७.०१.२६ । मल्लिनाथ I. ३९६,२४।५०५,१४१५६८,८५६३,७७१७५ ॥ II. १९१३६१६८,२०११७०,१०।२२४,१८१२२५,२१४५३, १३।४८७,२२।४८.१ I: १.३०।२४।१३१.२ । मल्लूपोता (ग्राम) : १५६,८ ॥ मस्तराम शर्मा (मट्टारक हरिश्चन्द्र कृतः 'चरक न्यास' का सम्पा दक) I. ६३,२६। ।... .. १. इन दोनों के एक व्यक्ति होने की सम्भावना है। AUR Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास महल लायब्रेरी तौर III. १८२,१६ । . महाकाल मन्दिर (उज्जैन) I. ६४३,२२ । महाचन्द्र (जैनेन्द्र व्या० व्याख्याकार) I. ६६६,१६ । । महादेव (शिव) I. ८१,२०१८२,११६१२,१३ । महादेव (वोपदेव का पितामह) I. ७१६.६ । महादेव (यादव, देवगिरि का राजा) I. ७१७,१।। महादेव (जयकृष्ण के पिता का भाई) II. ३५९,१। महादेव (धर्मशास्त्र संग्रह का लेखक) II. ४५७,१७ । महादेव वाजपेयी (वासुदेव वाजपेयी का पिता) I. ६०१,२५ । महादेव वेदान्ती II. २०४,१।२३१,२२।२३३,११२३४,४-'महा . देव-वेदान्तिन्। महादेव शास्त्री (धातुवृत्ति-सम्पादक) I. १५८,१४। II. ४०५,१॥ महादेव सूरि (शेषविष्णु का पिता) I. ४३६,१८।४३७.१।४४३, महानन्द (पद्म) I. ३६७,२०। (द्र० 'महापद्म' शब्द) महापद्म (नन्दवंशीय) I. २०६,७।२०७,१४।२०८,७। (द्र० 'महा नन्दपद्म' शब्द) महाबोधि I. ४२६,१,१६॥ महाभाष्यकार (पतञ्जलि) II. २३,८। III. २०,२।२३,१३ महाराष्ट्र I. १४८,१३।३२४,७।३२५,१।३३१,१। II. ३२०.१६। महावीर स्वामी I. ६६,१।। महावीर संवत् I. ६७३,१६॥ महाशंकर (यज्ञेश्वर भट्ट का गुरु) II. १७११॥ महाशाल (शौनक) I. २१७,२३।' महास्वामी (भाषिक सूत्रभाष्यकार) II. ४१९२२।। महिदास ऐतरेय I. १८५,६।२७२,१३। महिंदोस (चरणव्यूह-व्याख्याता) I. १८८,४। महीधर I.७१२,२२॥ II. ३८८,१८१३८६,१॥ महेन्द्र (इन्द्र) I. ६०,२॥ महेन्द्र, महेन्द्र कुमार (=कुमारगुप्त) I. ४६३,८।४६४,६,६, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट महेन्द्र, महेन्द्रसेन I. ४९३,१७,१८ । महेन्द्र = मेनेन्द्र = मिनण्डर I. ४६३, २२४६४, २०१ २५५ महेन्द्र (पेरंभट्ट का गुरु ) I. ५३५, १६ । महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य I. ६७६, ३०। महेन्द्रवर्मा (=महेन्द्र कुमार = कुमार गुप्त ) I. ४६३,१३। महेन्द्रसिंह ( =महेन्द्र कुमार = कुमार गुप्त ) I. ४६३,१३। महेन्द्रसेन ( द्र० महेन्द्र, महेन्द्रसेन' शब्द ) महेन्द्रादित्य ( विक्रमादित्य का पिता ) I. ३६४,२६,३०। महेशदत्त शर्मा I. ५१२, २०१५६०,२२/५६१, ४ महेश्वर ( = शिव ) I. ७१,२२८१,२०/२२६,३० महेश्वर (पाणिनि का गुरु ) I. २००, ११ ॥ महेश्वर ( निरुक्त टीकाकार स्कन्द का सहयोगी) I. ३६०,११ | ४५८,१२/५०१,१५।७०८, ३१ 6 महेश्वर (कैयट का गुरु) I• ४१६६। महैतरेय I. २७३,१३। माक्षव्य I ७६,८। माघ (कवि ) I. ३७, ५/५०६, १२५०७७ ५२७, ३ । ५६३,६। II. १०,२२।२१०,हा माचाकीय I. ७६, ६ देव (पादादि वृत्तिकार ) I. ४७८, ११६१२/२१ ॥ II. २११,२४।२५०,६।२५१, ४ २५२, ६ । २५७०१८।२८६, १८। माण्डू (नगर, म०प्र०) I. ७०६,२८ । माण्डव्य (छन्दः शास्त्रकार) I. २८५, २६ । २८६, १ । माण्डुकेय I. ७६,१०। मातरिश्वा ( = वायु) I. ७,२८,८ मातृगुप्त (कश्मीर का राजा ) I. ३६६,७ III. ६६,४१७४, २० मातृदत्त ( हिरण्यकेशीय - गृह्य टीकाकार ) 1. ५३,२२० मातृदत्त (= नारायण भट्ट का पिता ) I. ६०६, ८ माथुर (अष्टा० वृत्तिकार ) I. ४८४, १ । मा० देवे गौड एम० ए० I. ७२२, १८१७२३.८ III. १८३,२० Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ . संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १८४,१४। माधव (सारस्वत-टीकाकार) I. ७१०,७) माधव (सायण का ज्येष्ठ भ्राता) II. ११०,७१४६४,२१॥ माधव कृष्ण शर्मा I. ४००,१५॥ माधव गणेश जोशी I. २४८,२३। माधव तर्कसिद्धान्त (मुग्धबोध-प्रदीपकार) I. ७२०,१५॥ माधवदास कविचन्द्रभिषक् II. ३३५५६। माधव भट्ट (देवनन्दी का पिता) I. ४६०,१२१ माधवाचार्य (नारायण भट्ट का गुरु) I. ६०६,८। .. माधवाचार्य (भीम का पिता) II. ३२०१६। । माध्यन्दिन I. ७६,१११ II. ३६३,७। माध्यन्दिनि I. ७२,१११३६,१।। माध्यमिका' (नगरी) I. ३७५.१६। माध्व (सारस्वत वैयाकरण) I. ७१५:२१॥ · मामराज (स्वा० द० स० के पत्रों के अन्वेषक) III. १४०,१॥ 'मायण (सायण का पिता) II. ११०,१३॥ मारवाड़ देश, प्रदेश (राजस्थान अन्तर्गत) I. ६१३,८६१४.१७) ६२८,६६६६,१८॥ मालव संवत् I. ३८६,२३॥ मालवा (मध्यप्रदेश अन्तर्गत) I. ६६५,८७०६,१८७११.२७॥ माहिषय (ते० प्रा० व्याख्याकार) I. २२,२९। 11. ३६७,४। ३६८,२।४००,२७। माहिष्मती (महेश्वर नगरी) II. ४४६,४। माहेश्वर सम्प्रदाय (व्याकरण) I. ६७६।२२३.६। मिथिला I. ३३०२६। . मिर्जापुर I. ५५१,१७:::.. मिशन प्रेस इलाहाबाद I. ३७१.३९ "मिहिरदेव 111. ६६,५-....., १. यहां 'माध्यन्दिनी', अशुद्ध(छपा है, माश्यन्दिन होना चाहिये। २. चित्तोड़ से लगभग १० किलोमीटर दूर स्थित नगसे नामक ग्राम । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/३३ बारहवां परिशिष्ट - २५७ मीमांसक (ते० प्रा० में उद्धृत) I. ७६,१३।। मीमांसक (युधिष्ठिर मीमांसक) I. ३२७,७।३३८,२६। मुंशीराम मनोहर लाल (पब्लिशर्स दिल्ली) III. १७७,५१ मुकन्दराम (शिवराम का ज्येष्ठ भ्राता) II. २३६,४। . मुक्तापीड I. ५२०,१६।५२१,६। II. ४४५,२५॥ मुक्तिकलश (ज्येष्ठकलश का पितामह) I. ४२६,७। मुक्तीश्वराचार्य (कालनिर्णय शिक्षाकार) II. ३९८,२४१ मुञ्ज वाक्पतिराज-द्र० 'वाक्पतिराजमुञ्ज' शब्द । मुनि दक्षविजय-द्र० 'दक्षविजय मुनि' शब्द । मुनिशेखर (है. लघु-वृत्तिढुण्डिकाकार) I.७००,२॥ मुनि सुन्दरसूरि (हेमहंसगणि का गुरु) II. ३३६,२४। . 'मुफीद प्राम' प्रेस (लाहौर) I. ५५७.३। ' मुरा (नाम्नी तथाकथित चन्द्रगुप्त की माता) I. ३६६.२१॥ मुरादाबाद I. ५५५,१७।। मुरारि (कवि) I. ५२७,स मुरारि मिश्र (वैदिक) III. २,२६३ ।। मुरारिलाल शास्त्री नागर I. ४२५,१८॥ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अलीगढ़ II. १६९,२४। III. १८१,६।१३७ मूलजी, मूलशंकर (दयानन्द सरस्वती का जन्म नाम) I. ५४४, मृत्यु (=यम) I. ८८,२॥ मेघचन्द्र (मूलसंघीय) I. ६६९,२१ । मेघरत्न (सारस्वत ढुण्डिकाकार) I. ७११,२१ ।' मेघविजय (हैमकौमुदीकार) I. ७००,१५ । II १३८२।। मेडिकले हाल यन्त्रालय (बनारस) I. ५७७,२४। .. मेदिनीकार II. २२४,१०।२२५,१६ । मेंधाजित् (कात्यायन) I. ३२२,२० । मेधातिथि (मनुस्मृति भाष्यकार) I. ३,१८५८,२२२२२८,१॥ २३०,५।" मेधावी.(व्याडि), I. २९८,१५।२६६,७ । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास : मेनेन्द्र मिनण्डर-द्र० 'महेन्द्र=मेनेन्द्र=मिनण्डर' शब्द ।' मेरुतुङ्ग सूरि I. ६६६,१६।। मेल्यूत्तूर (ग्राम) I. ६०६,७।। मेहरचन्द लक्ष्मणदास (लाहौर) I. १५८,१ । मैकडानल्ड I. ६६,२६ । मैक्समूलर I. ५८,२१।२२३,२३॥३३१,१३३३६४,२ । II. ३६१, .. २६६३६२,२५॥३६३,२५३६६,३० । मैगस्थनीज I. २०६,२४ । मैत्रेय, मैत्रेय रक्षित I. ५१,७।१४५,८।१४६,१११२२४,२७४३५६३ ६।४०४,१६ इत्यादि बहुत्र । II. ४१,२८।६३,२३।६६,५। ६८ से ७०। ७५,२८ इत्यादि बहुत्र । III. १३१,२५॥ १३२.७ । मैसूर, मैसूर-संस्करण I. ११६.५।१५८,१३।१६५,२२।२४१,२७। ४६५,१० । II. ३६५,९३३९८,१३।३६६,६।४०५,६।४०४, २५ । मैसूर राजकीय पुस्तकालय I. ५४६,३०।४५०,६। मोनियर विलियम्स I. २२३।२०। मोहन मधुसूदन I. ७१३,२८॥ मोहनलाल दलीचन्द देसाई I. ६७१,२८॥ मौरेय I. ३६७,२ । मौर्य I. ३६७.१॥ यक्षवर्मा (शाकटायन लघुवृत्तिकार) I. ११४,७।६७८,१३।६८०, ११६८१,१३। II. १८६,२९।२६३,२०१३००२५॥ यज्ञनारायण (धातुवृत्ति का रचयिता) II. १११,२०॥ यज्ञराम दोक्षित I. ४६४,२३१५७९,४. II. २३४,१४। यज्ञेश्वर भट्ट I. ५१,१७।१११,१२।१९७.१४॥ II. ४,२९।१६४, ७१७०,२२।१६३,२७। यन्० सी० यस्० वेङ्कटाचार्य-द्र० 'एन्० सी एस० वेङ्कटाचार्य' ययाति (महाराजा) II. २१०,५।२६१,१४॥ १. सम्मति १. अन्सारीरोड़, दरियागंज, देहली' । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २५६ यल्लाजी (गार्ग्य गोपाल यज्वा द्वारा उद्धृत ) II. ४००, ८ यवक्रीत I. २६,१५० यवन ( जाति = यूनानी) I: २०६, २१ २१०, ३।३६७,८ ३७३,५। यवन ( देश = यूनान) I. २१०, १२, arrat ( यवनों की लिपि ) I. २१०, ११ यशोधर (जगद्धर का पुत्र) I. ६४३, ५० यशोभद्र ( जैन व्याकरणकार) ६०६,२ ६ १०,६ । यशोवर्मा ( महाराजा) I. ५१६, १५ । याकोबी I. ४२३, २६।५६२,२२।५७६,१८। याज्ञवल्क्य I. १४६, २१।१७२, १५।१८४, ८ २७०, २४२८२, ४ ३२३,१६।३२४,८।३२८, १६। II. ३८४, १६/३६३, १७/ ३६४,१५।४०४,२३। याज्ञिक अनन्तदेव II ४१७,१५ । ( द्र० 'अनन्त, अनन्तदेव याज्ञिक ' शब्द) 1 यादवचन्द्र विद्यावागीश II. ४६०, २१ यादव प्रकाश I. ८३,२७८८, १९८६, १० ६६,२०१३५६,१६। यामुनाचार्य (सिद्धित्रय - ग्रन्थकार ) I. ४००, ६ । यास्क (निरुक्तकार ) I. ५,१७/६ ३ १०, १४।१७,१७/२०,१११ इत्यादि बहुत्र II. ७, ६।१३, १११६,१६/३६, १२१४०, १ इत्यादि बहुत्र । III. १६, २८ २१, ३/२४, १२५, ३ । इत्यादि बहुत्र । युगल किशोर II. ३८६, १७ युवान चांग (ह्य नसांग ) I. ६२,२४० यूनान (देश) I. २१०,१२। रक्षित ( = मैत्रेय रक्षित ? ) II. २२६, ३ । द्र० 'मैत्रेय रक्षित' शब्द | रघुकार ( द्वितीय कालिदास हरिषेण कवि ) II. ४६६,१२ III. &&,१४। रघुनन्दन शर्मा (वैदिक सम्पत्तिकार ) I. २,२११ रघुनाथ (सारस्वत- लघुभाष्यकार ) I. ७११,१३० रघुनाथ ( जयकृष्ण का पिता ) II. ३५८, २८ । रघुनाथदास (वर्धमानप्रकाश कार ) I. ६३९, ५४ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास रघुनाथ मन्दिर पुस्तकालय (जम्मू) I. ४५६,६।५३४,२३।५६९, ।५८७,५। II. १४२,५।२८५,१७।३०८,१३॥३२०,७। ३२३,२४। III. १८७,१९॥ रघुवीर (एम० ए० डी० लिट) I. १५८,२।२२७,२२॥४८८, २२।४५६,१०॥ III. ६३,२९।६४,४१६८,१३।१०८,१२। रघुवीर वेदालङ्कार I. ५१२,७। रङ्गनाथ यज्वा I. ४६४,८५७८,१०।६०१,१४१ II. २३०.२२। रङ्गराज अध्वरी (अप्पय दीक्षित का पिता) I. ५३६,२०॥ रङ्गोजि भट्ट I. ५३०,२६।५३१,२। II. ४५६,३३ रजनीकान्त गुप्त I. ३१७,५॥ रणवीर केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ जम्मू III. १८७.२०॥ रत्तिकान्त तर्कवागीश (मुग्धबोध-व्याख्याता) I. ७२०,१७, रत्नगिरि (रामभद्र मखी का बहनोई) I. ४६५,२६। रत्नमति (गणपाठ-व्याख्याता) II. १६३।२।१६६.५॥ रत्नमति (न्यास-व्याख्याता) I. ५६७,२४॥ रत्नशेखर (सूरि) I. ७००,७II. ३३६,२५॥ रत्नाकर (रामभट्ट द्वारा उद्धृत) I. ७१२,२१॥ रत्नागिरि दीक्षित (वैद्यनाथ शास्त्री का पिता) II. ३२१,१॥ रत्नेश्वर चक्रवर्ती (का० लिङ्गा०) II. २८८,२३॥ रथीतर (बृहद्देवता में उद्धृत) I. १६२,१॥ रमाकान्त ( सौपद्म गण० व्याख्याता) II. १६६,२०॥ रमानाथ' (कातन्त्र धातुवृत्तिकार) II. ६१,११।११.२।१२१, ३३१२२,३।२६०,११ रमानाथ चक्रवर्ती (उपाध्याय सर्वस्वकार) II. २६०,१,४॥ रमेशचन्द्र मजुमदार I. ३७०,३॥ रसशाला औषधाश्रम हस्तलेख संग्रह (गोंडल) II. ३१४.७।३१८, २४१३३०।१६। राघव (नानार्थ मञ्जरीकार) I. ३८३,२७। १. आगे रामनाथ (कविकल्पद्र म व्याख्याकार, कातन्त्र धातु व्याख्याता) नाम पर टिप्पणी देखें। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट राघवन III. १२१,१०। 'वी० राघवन्' शब्द भी द्रष्टव्य । राघव सूरि (अर्थ प्रकाशिकाकार) I. ३५५, ६ | राघव सूरि ( ? ) I. ५४१,२२ राघव सोमयाजी (वंश) I. ४६०, ८ ४६१, ३। राघवेन्द्राचार्य' ( शब्दकौस्तुभ टीकाकार) I. ५३४,१३॥ राघवेन्द्राचार्य' (त्रिपथगाकार) II. ३२८, १३ २६१ राघवेन्द्राचार्य गजेन्द्रगढकर I. ४५१,१२ । III. १६१,२४५ राजकलश (ज्येष्ठ कलश का पिता ) I. ४२६,२। राजकीय (प्राच्य शोध हस्तलेख ) पुस्तकालय बड़ोदा I.. १०२,८ ४३४,२४॥ राजकीय (हस्तलेख) पुस्तकालय (संग्रह) मद्रास I. १३८, २० II. २६७,७/३२३,२४। राजकीय संस्कृत ( कालेज ) महाविद्यालय वाराणसी II. २११, २५/२५०, २६।२६७,२० ३१६,२ राजकीय संग्रह अलवर II. ३८३.२६ | राजकुमार माथुर ( जानकीलाल माथुर का पिता ) I. ५५६, २७ राजसिंह ( महाभाष्य व्याख्याकार) I. ४५०,७॥ राजरुद्र ( काशिकास्थ श्लोकवार्तिक व्याख्याता ) I. ३५५, १४ । राजशर्मा (उणादिवृत्तिकार ) II. २०४, १०।२३६१८ । राजशाही (बंगाल) संस्करण ( मुद्रित ) I. ८०, २७।१०७,२३ ४०१,३०।४ε६,२७ । II. १४०, २०/३०२,२६।३०६,२७॥ ३१४,२४ । IIIः ६१,२५ । राजशेखर I. १५७,१०।२०७१।२१०,१६।२४४,१६।२४५,१। २९२,२५/३१७,३।३३७,२७१३४६,१८/६७६,१३ II. ४६६,७|४७४,२३ । III. ६८,२१ । १. शब्द कौस्तुभ की 'प्रभा' टीका का लेखक राघवेन्द्राचार्य भी संभवतः राघवेन्द्राचार्य गजेन्द्रगढकर ही हैं। २. यह निश्चित ही राघवेन्द्राचार्य गजेन्द्रगढकर है । द्र० I. ४५१:१२ । III. १६१,२४ । ३. सम्प्रति 'सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय' । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास राजशेखर सूरि (प्रबन्धकोशकार) I. ६७२,६ । राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर I. ६३६,२६१६४५,१०। II. १६७.५।१६८,६। राजा शोह-द्र० 'शाह राजा' शब्द । राजानक शितिकण्ठ I. ६४४,१० । राजानक शूरवर्मा (=पुण्य राज) II ४४४,२५। राजेन्द्रलाल I. ५६६,१३१५६७.८ । II. २१६,७ । . रात (छन्दःशास्त्रकार) I. २८५,२।२८६,१ । रात्रि (भरद्वाज-पुत्री) I. ६६,२। राथ II. ५१०,१४।४१२,२३ । राधावल्लभ पञ्चानन I. ७२०,१६ । राम (दाशरथि) I. ६०,३७०,१२ । राम (कोई ग्रन्थ लेखक ?) I. ४०६,२७।४०८,२६ । राम (देवगिरि का यादव राजा) I. ७१७.१ । राम (अनन्त-पुत्र) II. ३८७,२२।३८६,५। राम अग्निहोत्री II. ३६०,९।३६१,४। राम अवध पाण्डेय I. ६२१,१४ । II. ११७,१११२३२,२११२३३, २११२३८,२७।२३९,२०।२७३,२१।२६६,१२ । रामकर (लोकेशकर का पितामह) I. ७१४,२० । [[. २६८,१७। राम किंकर (प्राशुवोधकार) I. ७२३,१६ । रामकिशोर (दुर्गवृत्तिकार) III. १३०,९। रामकृष्ण (रघुनाथ-पुत्र) II. ३५६,१। रामकृष्ण (गणपाठ कार) II. १७३,२१ । रामकृष्ण कवि I. ३६२,९।४००,६।५१९,३१।। रामकृष्ण दीक्षित सूरि II. ४०७,२११४०८,११४२७,२६ । रामकृष्ण भट्ट (सि० को० व्याख्याता) I. ६००,१० । II. २३०, २१ । रामगढ़ (राजस्थान) I. ५५४.१८ । रामचन्द्र (कृष्णाचार्यपुत्र-प्र० को० कार) I. १७६.८।२६३,२६। ४३६,२।५८६,११ । II. २५७,३०।२५८।४।२७७,४ । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : बारहवां परिशिष्ट २६३ रामचन्द्र (गोपालाचार्य को पुत्र) I. ४३६,१५। रामचन्द्र (नीलकण्ठ वाजपेयी का पितामह) I. ४४२,१ । रामचन्द्र (अष्टा० वृत्तिकार) I. ५४८,२६।। रामचन्द्र (कातन्त्र टीकाकार) I. ६३७२५ । रोमचन्द्र (सूपद्म-व्याख्याता) I. ७२१,१६ । रामचन्द्र (क्रिया कोशकार) II. ८१.६।। रामचन्द्र अध्वरी' (=रामभद्र अध्वरी=मखी) I. ५७६,३।। रामचन्द्र दीक्षित' (=रामभद्र दीक्षित) II २३४,१०।। रामचन्द्र तर्क वागीश (=रामचन्द्रविद्याभूषण) II. ३४२,३ ४। रामचन्द्र तर्कालंकार (=रामचन्द्र विद्याभूषण ?) I. ७१६,१७। रामचन्द्र पण्डित, (रामचन्द्र शेष) I. ४३६,१-२ । II. ३४०, ३ । III. १३३,६ । रामचन्द्र भट्ट तारे (वृत्तिकार) I. ५४२,१३ । III. १८५,११ । रामचन्द्र मखी' (=रामभद्र दीक्षित) II. ३२१,६ । रामचन्द्र यज्वा' (द्र० रामचन्द्र अध्वरी, रामचन्द्र दीक्षित) रामचन्द्र विद्याभूषण (=रामचन्द्र तर्कवागीश) I. ७१८,२२ । II ३४२,१-४ । रामचन्द्र शर्मा (भट्टि-व्याख्याता) II. ४८६,१ । रामचन्द्र सरस्वती (प्रदीप-व्याख्याकार) I. ४२५.७।४५३,७। . ४५५,१२।४५८,२।४५६,२। रामचन्द्र सूरि (हैम-लघु-न्यासकार) I. ६९६,२०॥ रामचन्द्राश्रम (=रामाश्रम) I. ७१३,२११७१४,१४। रामचन्द्र डु (पदमञ्जरी-सम्पादक) I. ५७५,२८। . . राम तर्कवागीश (मुग्धबोध व्याख्याकार) I. ७१८,२१७२००२३। II. १९६,१३॥ रामदास गौड़ I. ५२८,२११५३६,२२। १. रामचन्द्र अध्वरी-दीक्षित-मखी-यज्या 'मादि विशेषण वाले व्यक्ति का ही रामभद्र अध्वरी-दीक्षित-मखी-यज्वा प्रादि विविध विशेषण युक्त दूसरा नाम है । यह यज्ञराम दीक्षित का पुत्र है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास . रामदेव मिश्र ५०६,५।५८०,श रामनाथ" (कविकल्पद्रुम-व्याख्याकार) II. १४०,१३। रामनाथ' (=रमानाथ, कातन्त्र-धातुवृत्तिकार) II. १२१,२०। ४७१,२०1 III. ८४,२६। रामनाथ चक्रवर्ती (त्रिकाण्डशेषकार) II. २८८,२२॥ रामनाथ विद्यावाचस्पति II ३००,१०॥ रामनाथ सिद्धान्तवागीश II. ३४२,१। रामनारायण तर्कपञ्चानन II. ४६०,१३। राम पाणिपाद II. ४८१,१७।४६५,११ रामप्रसाद द्विवेदी II. ३२६,२३। रामभट्ट (सारस्वत-व्याख्याता) I. ७१२,६। रामभद्र अध्वरी (=रामचन्द्र अध्वरी) I. ४४४,२॥५७६,४। द्र० रामचन्द्र दीक्षित शब्द । रामभद्र दीक्षित (पतञ्जलि चरित लेखक) I. ३६३,३। रामभद्र मखी-यज्वा-दीक्षित' I. ४६४,२४।४६५,२। II. २३४; ६२३५,४।३१७,५।३२१,२-८।३५९,२१-२३। .. रामभद्र विद्यालंकार I. ७१६,६। रामभद्र सिद्धान्तवागीश I. ४६०,२२॥ रामराजा (रसरत्नप्रदीपकार) I.३०३,१८। रामलाल कपूर ट्रस्ट I. ३,२७११८,२५।१०६,२६।२३२,३०। ५४७,२८।५५२,७१५६०,२११ II. E२,६३८५,१०४१०, २६॥ रामलिङ्- द्र० 'तेनालि रामलिङ्ग' शब्द । १. कविकल्पद् म के व्याख्याकार का नाम रामनाथ और कातन्त्र धातु व्याख्याता का नाम रमानाथ है । लेखकों की असावधानेता से उभयत्र नामों का सार्य देखने में आता है । पूर्व लेखकों के उद्धरणों के निर्देश से हमारे ग्रन्थ में भी यह सांकर्य हो गया है। २. रामभद्र का ही दूसरा नाम रामचन्द्र है। उसके भी ये ही विशेषण प्रयुक्त हैं। द्र० पूर्व पृष्ठ २६३ की टिप्पणी १। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/३४ बारहवां परिशिष्ट, २६५ रामशङ्कर भट्टाचार्य I. २३३,२८।३०३,२०।३३८,१४। II. ११७,२७। III. ११६,५१७८,२४।१७६,६। राज शर्मा (उणादिकार) I. ७१८३३ II. २३९,१७। । रामसहायी नरूला I. ५५३,१०॥ रामसिंह (शृङ्गवेरपुर का राजा) I. ४६८,१२।। रामसिंह, रामसिंहदेव (सरस्वतीकण्ठाभरण-व्याख्याकार) I. ६६१,२०1 II. २६४,२३॥ रामसिंह वर्मा (धातुमञ्जरीकार) II. १४३,१३। । रामसुरेश त्रिपाठी II. १६९।२३।१७०।४। III. १७६,२०११७७, १२।१८१८ रामसूरि (लिङ्गनिर्णयभूषणकार) II. १९७,१८१२९८,८। रामसेवक (प्रदीपव्याख्याकार) I. ४२५,१२४६३,२०१५३४,१६। रामाज्ञा पाण्डेय III. १६७,२३। । रामाण्डार (आप० श्रोत व्याख्याकार) I..४७१,२४॥ रामानन्द (सि० को व्याख्याकार) I. ५९९,२१॥ रामानन्द (मुग्धबोध-व्याख्याकार) I. ७१९,८1 II. २३०.१९॥ २७८,४। रामाश्रम भट्ट (सिद्धान्तचन्द्रिकाकार) I. ७०८६७१४,१०। II. २६८,४।२७८,४। III. १३१,७। ' रामाश्रय शुक्ल सौदर्यशास्त्री II. १४३११॥ रामेश्वर (=वीरेश्वर, वटेश्वर) I. ४३६,१६।४३७,११-१२। ६०३,२७६०४,२१। II, २५८.५५३१८,१५॥ (द्र० 'वीरे. श्वर' वटेश्वर' शब्द) . . रामेश्वर (शुद्धाशुबोधकार) I. ७२३,१७ । रायमुकुट (अमरकोष-टीकाकार) I. ५१६,१६ । रायल एशियाटिक सोसाइटी बंगाल II. ३०६,६। राव (डाक्टर) I. ५३२,५। रावण (लकेश) II. ४७६,६ । रावट बिरवे . ६७५,२१६६८१,१६ । III. १७६,२५।। राष्ट्रकट II. २६१,४। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ... रिचर्ड गार्वे III. २३२१७. रीवां (मध्यप्रदेश) I. ४४१,१७ । रुद्रकुमार I. ५७४,१३ । रुद्रट I. ४२०,४ । III. ८३,२५३८४,२८ । रुद्र देवव्रत (प्रक्षरतन्त्र-भाष्यकार) II. ४२६.१ । रुद्रधर (वृत्तिकार) I. ५४७,२६ । । रुद्रनाथ (भूषणसार-विवृत्तिकार) II. ४५८.७ । रुय्यक (अलंकार सर्वस्वकार) II. ४७१,१८ । रूढ (रौढि का पिता) I. १४०,७। रूप कुमारी (सवाई माधवसिंह को माता) I. ५५७,१ । रूप गोस्वामी (हरिनामामृत-कार) I. ७२३२० । रूप नारायण पाण्डेय I. ४३५,३० । रेणु III. ११३.१७ ॥ रेमकशाला I. १४८,१५। रौढि I. ७२,११११३,१६३१३६,३०१२८३,२॥ रौढ्या (रौढ़ि की बहिन) I. १४०,६ । . लक्ष्मण (मुक्तापीड का मन्त्री) II. ४४५,२६।४४६.१ । लक्ष्मण भट्ट प्राङ् कोलर II. ४७१,२७ । लक्ष्मणसेन I. ४२६,५।४८७,१११६४१,८ । II. २१८,२०।२१६, २३। लक्ष्मणस्वरूप I. ६३३.२३। लक्षम्म (=श्री) I. ५७५,११।। लक्ष्मी (परम्भट्ट की माता) I, ५३५,१८।। लक्ष्मीधर (कल्पतरुकार) I. ११.०,६।१८३,६ । लक्ष्मीधर (विट्ठल का पुत्र) I. ४३६,१७ । लक्ष्मीधर (भट्टोजि दीक्षित का पिता) I. ५३०,२६१५३१,१ । लक्ष्मीधर (विश्वेश्वर सूरि का पिता) I. ५४१,५ । लक्ष्मीधर (रामभट्ट का पुत्र) I. ५१२,१५ । लक्ष्मीनसिंह I. ६०३,४ । II. २३०,२१ ।। लक्ष्मीपति (श्रीमान् शर्मा का पिता). II. ३१६,२१ ।' लक्ष्मीवल्लभ I. ६५८,२। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहों परिशिष्ट २६७ लक्ष्मी वेङ्कटेश्वर प्रेस (बम्बई) II. ३०००२२ । लखनऊ 1. ५५१,१८१६२७२०१६३९,१५ ॥ लङ्का ६५५,१७ । लन्दन I. १२१,२१। लाजरस कम्पनी (बनारस). ८५.३०॥६०४,१५ । लाजरस प्रेस (काशी) I. १७२,२७।३९३.२८॥ ..... लालचन्द पुस्तकालय (डी० ए० वी कालेज, लाहोर) F२४८, १२।४५०,२२१४६४.३६ | II. २८१,२०६३८४२६। लालभाई दलपति भाई संस्कृति विद्यामन्दिर I. ६३०,६। लासेन I. ३६९,१५॥ लाहुर ग्राम (शलातुर) २०२२॥ लाहौर I. १२,२८०४३,१५६१९४,३०१२४१,३०।४०५,२५७२४, २१३ II. २८,२७४४३६ से ४४१ पृ० । III. १२६,४। (...लिंग्विस्टिक सोसाइटी आफ इण्डिया (पूना) II. १४६,२८॥ लिबिश II. ६२,७९७,२७१६८,३।११६,२८११७,४१३०,२५॥ III. ११८,शा१२३,७॥ लीलाशुक मुनि-द्र० 'कृष्ण लीलाशुक मुनि' शब्द ।। लूणकरणजी का मन्दिर (जयपुर) III. १७८,१३।। लेखराम I. ५५५,२७१ : लेनिनग्राङ २ : .:. लोकेशकर I. १४.१५-11- २६८४१४५ - ६ वंशीधर I. ६६७,१३। II. १२६,६१ वंशीवादन (गोयीचन्द्र टीका का ब्याख्याता) ७०५,२४। वज्रट (उवट का पिता) I. ४१८,२७ : IT. ३८०,४ वज्रनन्दी (पूज्यपाद=देवनन्दी का शिष्य) I. ४६१:२१॥ वज्रस्वामी श्रार्य द्र. 'आर्य वजस्वामी' शब्द।। वटेश्वर (=वीरेश्वर) I. ४३७,१२।५९५,२६। (,. 'वीरेश्वर' तथा रामेश्वर' सन्द . ....... वनमाली I. ६२२, वन्द्योपाध्याय सुरेशचन्द्र-द्र० 'सुरेशचन्द्र वन्द्योपाध्याय। . . . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास वरतन्तु (रघुवंश में उद्धृत) I. २०१८ II. ४१५,८। वरदत्त (प्रानीय ब्रह्मदत्त का पुत्र) Il.३८३,१८१ : वरदराज (वामनाचार्य का पिता) I. ४६४,२६॥५७८,८१६०१, १५॥ वरदराज (प्र० को व्याख्याकार) I. ५६७८॥ वरदराज (लघुकौमुदीकार) I. ६५५,१९।। वरदराज (धातुरूपभेदकार ?) II. ८१,१७। .. वरदेश्वर (नीलकण्ठ का पिता) 1. ४४२.. वरनेल I. ३१७,५॥ वररुचि (फुल्लसूत्रकार ?) I. ७२,१८१ II. ४०४,१६-२० वररुचि (वात्तिककार) I. २०११३२६,२३।३३५,६३ । • वररुचि (निरुक्त समुच्चयकार, विक्रम समकालिक) I.२३१, __ १८१२३२,१।३२७.१६॥३२८०२। II. २६२,३। वररुचि (काव्यकार, वात्तिककार)I. २६२,१९।३२३,२३३८,३। ....... II. ४७०,४१४७४,६१४७५,१४।४७६.६। .. " वररुचि (उभयसारिकाभाणकार विक्रमकालिक ?) I. ३३६, वररुचि कात्यायन (स्वर्मारोहकाव्यकार) II. ६३,१४, वररुचि कात्यायन (?) II. ३००,६ : '. वररुचि कात्यायन (कात्यायन-पुत्र, वात्तिककार) . २०१॥२४॥ ३२६,४-५॥३३१,२१ II. ३८६२।३९८१॥ वररुचि (अष्टाध्यायी वृत्तिकार) 1 ४८५.१६॥ वररुचि (कात्यायन गोत्रज, कातन्त्र कृत्प्रकरण-प्रवक्ता) I. . . ६२३,१६ । II. २५८,२० .. वररुचि (कातन्त्र वृत्तिकार) I. ६२६०७६३०,३। वररुचि सस्तवर्मा L.६२२,१८. बरखचि (लिङ्गानुशासनकार) II. २८०,२२८१०५।२८३,१९॥ २८९,११६३००-७1 III. १७४,२६..... वररुचि (ले० प्रा० भाष्यकार) II. ३६७२३॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट वराहमिहिर ( ज्योतिषाचार्य) I. ४८७, १६ वराहमूल (= बारामूला ) II. ४७८७ । वर्धमान, वर्धमान सूरि ( व्या० प्रवक्ता गणरत्न महोदधिकार) I. ७८,११।११६,१६।१२४,२६।१२५, १४।१४६,२०।१७५, ३।१६७,१५२०२, ८ २२५, २२३६६, २६।३७१,२४।३७२, २।३८६,२२/४०२,१५/४०५, १३ ४०६,१५४८१,३२४६१, २/६०८,६१६५४,१९।६६३,१३।६७०,१३।६७१,१।६८३, २:६६२,१७१६६३,२०१६६४, २३।६६७, २३ । II. ४,१८ । ६३,२५।११६,४।१६४,६।१६८,४११६६,१०।१८३५।१८७ २६६ २४ । १६२,७/१६८,६१६६,६२००, २२६८,२३३००, १४।४३६,२३।४७१,२२| III. १२३, ५ वर्धमान (त्रिविक्रम का गुरु ) I. ६३६, ६ । वर्धमान ( कातन्त्रविस्तर का कर्ता) I. ६३८, १५॥ : वर्धमान (धातुवृत्ति में उद्धृत) II. १४२,७ | वर्धमान ( काव्यकार ) III. ६५,१८ । वर्नेल - द्र० 'वरनेल' शब्द । वर्मदेव (प्र॰ सर्वस्व का टीकाकार) I. ६०५, २३६०६,१५ वर्मलात (राजा) 1. ५०६, २० / III. १२३, २४ वर्ष (पाणिनि का गुरु ? ) २००,६ । वलभी ( गुजरात प्रान्त) I. १६७,१७।३९७५/४० १,२१५१४, २० II. ३३३,२२/४८५,५१ वलभी-भंग I. ६७२,११।६७३.११ । III. १७४, १८ वलाकपिच्छ I. ६६६,४ वल्लभ (सि० कौ० टीकाकार) I. ६०३,१०। II. २३०,३५। वल्लभ ( ज्ञानविमल का शिष्य) I. ७००,७॥ वल्लभ गणि ( है ० लिङ्गा० व्याख्याकार) II. २९६,१६। बल्लभजी (मूलशंकर=स्वामी द० का भाई ) I. ५४४,१४। वल्लभदेव ( शिशुपालवध का टीकाकार ) ). ३५७, १६४७१,८। II. २४, ६।२३००१६। वल्लभ देव (भोजप्रबन्धकार ) I ६८५,१११ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास वल्लभदेव (सुभाषितावलीकार ) II. २४, २०४७२, १० । वल्लभाचार्य I. ६२७,४ ॥ वल्लभी ( कश्मीरस्थ - वारामूला के पास ) II. ४७८,७१ वसन्नगढ़ I. ५०६, २५ • IIF. १२३,२४ । वसन्तगढ़ का शिलालेख I. ५०६, २५ । III. १२३,२४ । वसिष्ठ I. ८,७१३५,३।१३४,२०१४८३,१७। वसु (भरद्वाज - पुत्र) I. ६६.१ । वसु ( गणरत्नमहोदधि में उद्धृत ) II. १६३, ३ १९६,१८ । वसुभाग भट्ट I. ५०५, ५ । वसुरात (भर्तृहरि का गुरु ) I. ३८६२ । II. ४३६,६ । वहीनर ( उदयन - पुत्र ) I. ३३३,३।३३४,२ । वाक्पति (बृहस्पति-सुराचार्य) I. ६४,६ । वाक्पतिराज ( मुञ्ज) II. ४६१,६ । वाक्यकार ( वार्त्तिककार - कात्यायन) I. ३१६६ । ३२०,३२१ । II. ३,८ । २७० वागेश्वर भट्ट I. १०३,२४ । वाग्भट्ट (वैद्य) I. ८६, ३ १०७,२७।३०३, १२/३६१, ४३२, ४० ५२४,८ । II. ३७७,६ । वाग्भट्ट (वैया ) I. ६०६६। वाग्भट्ट (द्वितीय, वैया० ) I. ६०६,१६ । वाग्भट्ट (अलङ्कारशास्त्र प्रवक्ता ) II. ४७२, ५ । Ift. ८५,२३ । वाचस्पति गैरोला I. २१३,३० । II. २२२, ५।२३३, २८४७८, २८ । वाचस्पति मिश्र (दार्शनिक) I. ३६३, ६ । वाजसनेय याज्ञवल्क्य' I. १३७३ । II. २६३.६ । वाडव I. ३१६,१२ । वाडव ( कुणरवाडव ? ) 1. ३४३, १२ वाडवी ( भी ) कर I. ७६, १४ । १. ' याज्ञवल्क्य' शब्द भी द्रष्टव्य ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट वात्सप्र I. ७६,१५ । ! वात्स्यायन ( न्यायभाष्यकार ) I २१, २३/२२, १८/२३,१३। २२०,१५।३२६,२३ ॥ वात्स्यायन (कामसूत्रकार) I. ११४,२० । वात्स्यायन (लिङ्गानुशासनकार ) II. ३००, ३ ! वादिपर्वतवत्र I. ६८२.१४ । २७१ वादिराज सूरि I. ६७६,४।६८२,१७ ॥ वान् नूतेन III. १०८, १३ १०६,४ । वामन (विश्रान्तविद्याधर व्या० कर्त्ता ) I. ७७,२७।१२१,२८। ५६३,१६।६०८, १३।६७०, ११।६७४,६ । II. ११६,१७। १२६,१८१८३,१२६३,१ । III. १७४, १७ । वामन ( काशिकाकार) I. ११४, ६ । १३६, ३१।१४४,११।१४६, १०।१७६,७।१३६,६।३००, १०३८७, २२ ३८८, २२५०१, १।६३२ १।६६६,१० । II. ४१, १४।८२१५।११५,१७ २१२,ε।२१७,२६ ॥ वामन (लिङ्गानुशासनकार) I. ३१४, २३।४६१.५ । II. २७३० १५।२७५,१।२८७,२२/२८८,२५ । वामन (काव्यालंकार सूत्रकार ) II. ५२, ८ । बामनाचार्य ( रङ्गनाथ यज्वा का पुत्र, वरदराज का पुत्र) I. ४६५,२५।५७६८/६९६१५ । वामनेन्द्र सरस्वती (ज्ञानेन्द्र सरस्वती का गुरु ) I. ५६६,२-4 वामदेव ( कातन्त्र विस्तर- व्याख्याकार) I. ६३६, ३ । वामदेव (ऋषि) I २६४,२८ । वायु (शब्दशास्त्र प्रवक्ता ) I. ६०, २४५७१,२२/६७, ३२८३, २० । II. २७,१६ वायुपुर (नगर) 1. 8८, ६ . वारणवनेश (प्र० कौ० टीकाकार) I. ५६५,२२ । वारल (तैलंग देश) I. ७१२,१३ । वाराणसी' I. ११,२६।१४६, १ । II. १३८.२०११४०,१३३८१० १. 'काशी' तथा 'बनारस' शब्द भी देखें । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास २७ । II. ४६,९।१८२,३ । वाराणसेय संस्कृत विद्यालय' I. ४६९०२८।६०१,७।६१८,२१ । II. ४४०,२६ । वाराणसेय सं० विश्वविद्यालय, सरस्वती भवन III. ४६,४१५८, २।५६,४ । वारेन्द्र चम्पाहटि कुल II. ३१६,२२। वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी (राजशाही-बांग्ला देश) I. ४६,२८ । ३१०,३० । II. १०१,५।३६३,२० । वारेन्द्र रिसर्च म्यूजियम राजशाहो I. ४३०,२२१४३३,१० । वार्ट्स ('ह्य नसांग' का अंग्रेजी अनुवादक) I. १०,२१ । वात्तिककार' (कात्यायन) III. १३,१४।३०,२५ । वाल्मीकि (मुनि) I. २५,२०७६,१६।११७.१६।१४८,२१॥ - २६२,१४।३१२,२२ । II. ४०३,२१४६५,२७ । वाष्कल II. ३७१,१० । वासुकि (पतञ्जलि ?) I. ३८३,२०३८४,३ । II. ४७६,३ । वासुदेव (रावणार्जुनीय का व्याख्याकार) II. ४८०२।४८१,५॥ वासुदेव (शेषवंशीय) I. ४३६,१५ । वासुदेव (परमेश्वर-पुत्र) II. ४५०,२१ । वासुदेव अध्वरी-दीक्षित-वाजपेयी I. ६०१.२१ । II. २०६,२१। २११,५२१२,५२२३०२३।२३३,५।२३६,८ । वासुदेव कवि (वासुदेव विजय का लेखक) II. ४६३,१ । वासुदेव भट्ट (सारस्वत-टीकाकार) I. ७१२,१ । वासुदेवशरण अग्रवाल I. १२०,३०।२०७,३०।२०६,१८।२१०, २२११,४।२१५,२३।२६८,३०।४६३,२७ । वासुदेव सार्वभौम भट्टाचार्य I. ७१६,२५ । II. १४०,१७ । वाहद (सार० टीकाकार मण्डन का पिता) I. ७११,२७ । १. द्र० 'संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी' शब्द, तथा 'सम्पूर्णानन्द सं० वि०वि० वाराणसी' शब्द २ द्र० कात्यायन (वात्तिककार)' शब्द । ............ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/३५ ... बारहवां परिशिष्ट २७३ विकुण्ठा (इन्द्र की माता) III. १२५,१० । विक्रम (संवत्प्रवर्तक तथा संबस्) I. २१.२६।५४,६१७०,१। १०५,१४१११५,८११२५,१।१३५,४।१४९,१५१६१,२४। १६३,४।१६७,२ इत्यादि बहुन । II. ११२.१६।१२६,१॥ १६२,१८६३२६,६।३७१,११४५१,२१४७०,२० । विक्रम विजय (मुनि) II. १३६,२६।१३७,३।३६५,२२।। विक्रम विश्वविद्यालय उज्जन I. ५६०,७।६१३,२८ । विक्रम साहसाङ्क I. ४८६,२०। । विक्रमाङ्क साहसाङ्क I. ३८७.२३ । विक्रमादित्य (संवत्प्रवर्तक) I. ६९,२६।३६९,५३८६,१०।३६२, २।३६४,२।४८५,२८।४८७,१८१६८६,३ । II. २८०,१५ । III. १७४-१७६ पृष्ठ। .. विक्रमादित्य त्रिभुवनमल्ल I. ४२६,२७ । विजयक्षमा भद्र सूरि II. २९६,१४॥ विजयनगर I. ५३७,२३ । विजयनगर साम्राज्य III. १६३,४ । विजयपाल आचार्य, विद्यावारिधि H. ३६६,२६।४५२,१३ । विजयपाल शास्त्री (शोधकर्ता) II. ४७२,२६ । III. ६३,३०। १८८,११।१८६,१३। विजयलावण्यसूरि . ६६६,३ । II. ३३८.१७।३४१.६ । विजयानन्द (अपरनाम 'विद्यानन्द' कातन्त्रोत्तरकार) I. ६२४, । १३॥६२५,२ । II. ८१,५३३५,६ । विजयानन्द (हंसविजय गणि का गुरु) I. ७१३,१२ । विजयानन्द सूरि I. ४१६,२ ।। विजयोन्द्रतीर्थ'I. ५३८,१० । III. १६२,१४।। विज्ञान भिक्षु (सांख्य-व्याख्याता) II, २३२,१० । विट्ठल (रामचन्द्र का पौत्र. प्र० को० टीकाकार) I. ३१२,६। ४३६,१६।४३७.१६।४४०,११४५४,१२:५२३,२११५३२, १. पृष्ठ ५३८, पं० १० पर विजयेन्द्रतीर्थ' अशुद्ध छपा है, विजयीन्द्र - तीर्थ होना चाहिये । द्र० 11. पृष्ठ १६२, पं० १४,१७॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १५१५३६,३१५३७.१४।५३६,५३५४०,२२५६०,२१५६२ - ५६४।६६२,७१७०७,६७१६.२ । 1. १०७।१३३,३४। ... २०५,१३३२११,१७।२५७,२६।२५८.३।३१८,८३५८,६ । विठ्ठलाचार्य (अनन्ताचार्य का पौत्र) I. ४३६,१३॥ विट्ठलेश (स्वरप्रक्रियाकार) III. १३४,६१ . विण्टरनिट्ज I. ५३२,७ विदग्ध शाकल्य I.१८४,२। विदेह जनक I. २७१,२।। - विद्यानन्द (विद्यानन्द व्याकरणकार) I. ६०६,२१॥ विद्यानन्द (अपरनाम विजयानन्द) I. ६२४,१५।६२५,८। II. ८१,६। .............. विद्यानन्द (प्रकीर्णकार) I. ३३५,२॥ .. . विद्यानाथ दीक्षित I. ५९७४। विद्यानाथ शुक्ल (शब्दकौस्तुभ टोकाकार) I. ५३४,१२। विद्यानिधि (लिङ्गानुशासनकार?)-I. ३००,२४। . विद्यानिवास (मुग्धबोध-टीकाकार) I. ७१६,१६ विद्यापति I. ५६६,२० विद्यारण्याचार्य III. ३,२।१२.२४. . . विद्यावागीश (मुग्धबोध-टीकाकार) I. ७१९,६॥ विद्याविनोद (न्यायपञ्चानन का पिता) I. ७०५,१८६ - II. ४८५,११४८६,१३। ... .... विद्याविनोद (भट्टचन्द्रिका का कर्ता) II. ४८३,५। . . विद्यासागर (कन्दर्प शर्मा द्वारा स्मृत) II. ४६०,१५॥ . विद्यासागर(अष्टोत्तरशतनाममालिका का कर्ता)III. १६४,२७१ विद्यासागर मुनि (काशिका व्याख्याता) L ४९६,११४५७३,१॥ विनयचन्द्र (हैम ढुण्ढिकाकार) I.७००,१ विनयविजय I. ६५८.२॥ विनयविजय गणी I. ७००,१४। 11. १३८,रा - विनयसागर (उपाध्याय) I. ६०८,१७।६८५,६७०४,२९७२१, २४।७२२, रा. ११६,११११३८,१०1 III. १२५,६॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट विनयसुन्दर (मेघरत्न का गुरु ) I. ७११,२३। विनयसुन्दर' (भोज व्या० कर्त्ता) I. ७२३, १७ विनायक ( रघुनाथ का पिता ) I. ७११,१५ । विनायक ( भावसिंह- प्रक्रियाकार) I. ७२३, १८ विनीतकीर्ति (व्याकरणकार) I. ६०६,२० विन्ध्य ( विन्ध्याचल ) I. ३२४,६। विन्ध्यनिवासी, विन्ध्यवासी, विन्ध्यस्थ ( व्याडि) I. २६८,१४ १६-१७/२६६, २ २७५ ८. विन्ध्यवासी सांख्याचार्य ( ? ) I. २६६, १ विपाट (श्) (व्यासनदी) I. २१३,२३८ विबुधनन्दी (अभयनन्दी का गुरु ) I. ६६४,२ । विमलमति ( भागवृत्तिकार ) I. ३६७, १५/४०१, ६ ५१४,७। III. १२२,२१। विमल सरस्वती (रूपमालाकार) I. १३६, १२३५८६ ४ II. ११३२६ 1. बिरजानन्द आश्रम (लाहौर) II. २६६, १७ विरजानन्द देवकरण II. १६६, १६ । III. १८०, २ बिरजानन्द सरस्वती ( द्र० 'स्वामी विरजानन्द सरस्वती' शब्द ) विरूपाक्ष (भृगुवंशीय वैहीनरि) I. ३३३,७। विशालाक्ष (शिव) I. ८१ २०८२,१० विश्वकर्मा शास्त्री (प्र० को० व्याख्याता) I. ५६६१४ विश्वनाथ (साहित्यदर्पणकार) I. ६३६,१२ | विश्वनाथ (क्रियाकोशकार का पिता ) II. ८१, हा विश्वनाथ भट्ट II. ३२८, १७ विश्वनाथ मिश्र I ६४९।१३।७०३,१२। . विश्वनाथ शास्त्री एम० ए० II. ४६४, २६ विश्वबन्धु शास्त्री (अथर्व प्रांति० सम्पा० ) I. २२६,१८ । II ३६३, ११४०८, ८४११,१४१४१२, २५४१३२ १. सम्भव है यह भाग १, पृष्ठ ७२१ पर निर्दिष्ट भोज व्याकरणकार विनयसागर उपाध्याय ही हो । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास विश्वामित्र (ऋषि) I. ८६,२४॥ विश्वेश्वर तर्काचार्य I. ६३७,२४॥ विश्वेश्वरनाथ रेऊ I. ३७०.२४॥ विश्वेश्वर भट्ट-द्र० 'विश्वेश्वर सूरिं' शब्द । विश्वेश्वर वाजपेयी (वासुदेव वाजपेयी का अग्रज) I. ६०१,२६॥ 'विश्वेश्वर, विश्वेश्वर सूरि (भट्ट) (व्या० सि• सुधानिधिकार) .....५१६,२१५४०,१६ HI. १८६,१२११८७,१५॥ विश्वेश्वरानन्द शोध संस्थान (अनुसन्धान विभाग) होशियारपुर I. ४६१,२६। II. १३८,१८।२६६,६।२७८,१०।२८१,३॥ ३०७.२४।३७८,१७४३८०,१७। विश्वेश्वराब्धि (अद्वय सरस्वती का शिष्य) I. ७०६,१२। विषमादित्य (=विक्रमादित्य) I. ३९४,२६। विष्ण (द्वादस आदित्यान्तर्गत) I. ८७,२१॥ विष्णुगुप्त चाणक्य I. २१,२५॥ विष्णुगुप्त (राजा) II ६४,२॥ विष्णपुत्र (विष्णु मंत्र को पाठा०) II. ३७९१०॥ विष्णमित्र (ऋक्प्रा० व्याख्याता) H.१४,२०२१६२८०,२०॥ ____II. ३७०-३८१ तक । विष्णुमित्र (क्षीरोद-कार) I. ४४०,२११४४१,४४४५,२८॥ विष्णमिश्र (सुपद्म व्याख्याता) I ७२०१८।। विष्णुशेष' (शेषवंशीय पण्डितः) II. ३१७,१६।३१८.१॥ विहीनर (=वहीनर) ३.३३३,१३। वीरनन्दी (अभयनन्दी का शिष्या) I.६६३,२१६६४। वीर पाण्डय II. F१,५॥ वीर राघव कवि (ते० प्रा० व्याख्याताः) II. ४००,२५॥ वी० राघवन एम० ए० I. ५२१,१७।६१५,२४१ II. २३२,२३॥ वीरवर (महाराजा) I. ५६१,२४। वीर संवत् (महावीर संपत्) I.६७३११॥ वीरेश्वर' (=रामेश्वर शेषवंशीय) I.-४३५२६१४४०,५४४५४, १. 'शेषविष्णु' शब्द। . २. कोण्डभट्ट ने वैयाकरणभूषणसार में इसका स्मरण 'सर्वेश्वर' नाम से किया है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २७७ १२१५३१,५२५३२,१८१५३३,३।५३६,२१५६५,७/ II. . २५८,५। (द्र० 'रामेश्वर' शब्द ) वी० वरदाचार्य II. ४७८,२०१४७६,५॥ वो० वी० गोखले III. ६१,११॥ वी० स्वामीनाथन् I. ४१०,१०॥ वहलर-द्र० 'बल्हर' शब्द।। वृकोदर (भीमसेन) II. ४६४,२० । वत्तिकार (काशिकाकार) III. ६,२ । वृत्तिकृत् (धातुवृत्तिकृत्) II. १४२,८ । वृद्ध वैयाकरण (?) (गणरलमहो० उद्धृत) I. १९३,१॥ २००१ । वृषणदेव (वाक्यपदीय व्याख्याता) I. १,१६,२३।१५७,११।२८२० १८।४६५,१८ । II. ४४०।८।४४२,३।४४३,२२।४४४. ४ । III. १३९,२२। वृषवदनचन्द्र तर्कालंकार I. ७२०,१४ । वैङ्कट (प्रतिरात्राप्तोर्यामयाजी) I. ४७०,३ । वेङ्कट, वेङ्कटपति (राजा) I. ५३८,२३ । वेङ्कट माधव (ऋग्व्याख्याता) I. २२१,२६।२२३,१ । वेङ्कट रङ्ग (लिङ्गप्रबोध कर्ता) II. २९८,१५ । वेङ्कट रङ्गनाथ स्वामी (पाख्यातचन्द्रिका का सम्पा०) II. ८०,१८८१,१। वेङ्कट रङ्गनाथ स्वामी द्र० श्री पर वस्तु वेङ्कट रङ्गनाथ स्वामी' -शब्द । वेङ्कट राम शर्मा-द्र० 'वे. वेङ्कट रामाशर्मा' शब्द । वेङ्कट सुब्रह्मण्य (अप्पा दीक्षितः का पितामह) II. २३२३,६ । वेङ्कटाचार्य, वेङ्कटाचार्य शतावधानी I. स५७६६६। III. १७२,२७ । (द्र० 'यन् सी० : वस्० वेङ्कटाचार्य ' 'शब्द) वेङ्कटाद्रि भट्ट I. ६००,१४१६०२,२१ । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास ..aar (अप्पन नैना का पिता ) I. ५२६,१३ । वेङ्कटेश पुत्र ( त्रिपथगाकार) II. ३२८.२० । बेङ्कटेश्वर ( उणादि व्याख्याता ) II. २३५.१५ । २७८ वेङ्कटेश्वर प्रेस बम्बई I. ४००, २४ । वेदपति मिश्र I. २५१,२३ । वेदमित्र (शाकल्य ) I. ७६ १७ १८४,२१८७, १०१६६६,८ ॥ वेदमित्र' (विष्णुमित्र का पिता ) II. ३७०, २१ ३७६,६ ॥ वेदपद = वद पदास्पद = वेदपदोक (ग्राम) I. ७१६,१७ । वेदो (ग्राम) I. ७१६,२७ ॥ वेदव्यास' (कृष्ण द्वैपायन व्यास) II. ३८३, २३ | ४८०, १४ । वेल्लनाडु (= पण्डितराज जगन्नाथ ) I. ५३५,१६ । वेल्लूर (नगर) I. ५३८, ३ । वे० वेङ्कट राम शर्मा II. २७३, १६।२७४, १४ २७७,२।२८४,१। २८५,६/२६०,११।२६४,३।२६८,२०१३००, १२/३८६,२१। ४०१,१५ । वैजयन्ती कोषकार ( ) I. ३४६,१९ वैदिक पुस्तकालय अजमेर I. ५४४, ३ । वैदिक यन्त्रालय अजमेर I. १६४, १५ ५५५, १३ । II. २४०.३ । वैदेह जनक I. ३३१,२२ वैद्यनाथ ( राम अग्निहोत्री का पिता ) II. ३६०, २५ । वैद्यनाथ (गोपाल शास्त्री का पिता ) I. ४४४, १४ । वैद्यनाथ ( यज्ञराम दीक्षित का दौहित्र) I. ४६४, २५ । वैद्यनाथ, वैद्यनाथ पायगुण्ड I. ६५८ ४०६, १६।४३०, ११।४४७, २५।४४८,३।४६६,६।४६७-४६६।५३४,१११५४२,१८ । ६०१,१२ । II. ५०,२०१५७, १२१३०६, ४३२८६१५।४५७, १६।४५६,५ । III. १८५,११ । वैद्यनाथ भट्ट विश्वरूप ( = श्ररम्भट्ट) I. ५४३, १५ । • वैद्यनाथ शास्त्री II. ३१७, १७/३२० २० / ३२१,३।३२२,९ । १. 'देवमित्र' पाठा० । द्र० 'देवमित्र' शब्द | २. 'व्यास' तथा 'कृष्ण' पायन व्यास' शब्द भी देखें । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २७६ . वैनतेय (वैयाकरण) III. २,६।१३,१८ । वैबर I. २०५,२३।२०६,२०।२०६,१७।३१७,५२३३१,१३ । II. ४१९,२४। वैयाघ्रपद्य (व्याकरणकार) I. ७२,१।१३४,१०॥३४४,२० । वैयाघ्रपद्य (वात्तिककार) I. ३१६,१५ । वैशम्पायन I. २२०,२८।२६२,६ । II. ४८०,२५ । III. ६४,२३ वैष्णवदास (= अप्पन नैनार्य, तेनालिरामलिङ्ग का गुरु) 1. । ५२६,३ ( III. १६३,६। वैहिनरि (वहीनर=विहीनर का पुत्र) I. ३३३,४।३३४,२ । वोटलिंक-5. 'बोटलिंक' शब्द। . . वोपदेव I. ६६,४७८,०६१,२११११६,२।११८,१२१४३४,१०॥ ५८६,११५६४,६।५९५,४।६०८,१५१६३६,१६।६७०,७। ७०४,३०७०८,७७१५,२६७१७,२१७१८,२। II. ११६, ९।१३८,८।१४०,४।१६६,६।२६७,१६३३४१,१६ । III. १२८,२७।१३०,१७।१३१,२। । वोप्पदेव (=वोपदेव) III. ३३। .. व्यड (व्याडि का पिता) I. १६८,२।३००,१८ । : व्याघ्रपद I. २६७,८। व्याघ्रपाद् (वैयाघ्रपद्य का पिता) I. १३४.१७॥ व्याघ्रपाद् (द्वितीय) I ६०६,१॥ .. व्याघ्रभूति I. १३६,७१३१६,१५६३४४,५। II. ८२,१०। व्याडि I. २८,२१७२,२७६,१९।१४३,३।१९८,१५५२१७-२१॥ २८३,२१२८८,६।२६१,११२६४,१५।२६७,१६॥३९८-३१॥ ४३४,३।४८१,२१। II. २७४,१६।२८३,१६२८६,९३०७, ।। १६।३१२,२६।४३३,२८।४७३,१२। III ६३,४१६४,६॥ व्याडिशाला l. ३०२,१४॥ ::.: व्याड्या (व्याडि की बहिन) I. ३०१,१॥ व्यालाचार्य (=व्याड्याचार्य) I. ३०३,१७॥ व्यास (कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास) [.३०३,१०॥३१४,६। II. ३६४, ११३८२,२६।४६६,४। III. ३,१०॥४३॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श २८० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास व्यास (लिङ्गानुशासनकार) II. २९६,२५॥ व्यूडमिश्र सारस्वत I. ६०३,६। व्रजराज (उणादि व्याख्यातां) II. २७१,२३। व्रजविहारी चौबे - द्र० 'ब्रज विहारी चौबे' शब्द । व्हिटनी' (WHLINEY) I. ७२०२६। II. ३६५,६।४१०.१४॥ ... ..४१२,२३।४१४,१६। शक, श क (संवत् पर्याय) II. १२२.१॥ शकट (शाकटायन का पिता) I. १७४,११११५५,२। II. २०३, . २१॥ .. शकटाङ्गज (शाकटायन-पाल्यकीति) II. १९३,३।। शकल (साकल्य का पिता) I. १८३.१५॥ शक्ति (जयन्त का पूर्वज) 1. ५२०,१४॥ शक्तिस्वामी (शक्ति का पौत्र-जयन्त का पूर्वज) I. ५२०,१५॥ ...: ५२१०६। .... ..... . शङ्कर (शिव) I. ८१,१६६ शङ्कर (लिङ्गानुशासन कर्ता) II. २०३८। शङ्कर (शङ्कराचार्य) I. २१७,२३॥३१६,२७।३७७,२७१४००, ११ । II. २४२,२२।४४८.६।४४६,३ । III. २,२५१४।२। १२। १६५,१७ । शङ्कर, (शङ्कर पण्डित महाभाष्यलघुवृत्ति का व्याल्याता) I. ४३०,४१४३१,१२६२८.७ ।। शङ्कर (प्रक्रियासर्वस्त्र में उद्धृत) I. ५८७.१६ । । शङ्करदेव (लेखक के गुरु) II. १७६२२० । शङ्कर पाण्डुरङ्ग II. ४१०,१४०४१२,२३ । शङ्कर बालकृष्ण (दीक्षित) I. १४२,३० । II. ३७७.५ । शङ्करभट्ट (परिभाषेन्दुशेखर-व्याख्याता) -I. ३२८२३ । शङ्करराम (रूपावतार ध्याख्याता) I. ५२७.१२.२८३६२४ १. ग्रन्थ में 'ह्विटनी' छपा है, शोध लें। - ---- - -- - ---- Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३/३६ बारहवां परिशिष्ट . २१ शङ्कराचार्य (वेदान्तभाष्यकृत्) द्रष्टव्य 'शङ्कर, शङ्कराचार्य' । शब्द। शकु (ऐन्द्र व्याकरण-संक्षेप्ता ?) I. ६२२,१६ । शतानीक (जनमैजय-तृतीय का पुत्र) I. २१८,२३।२१६,१ । शन्तनु' I. ७२,१११३४,१।२८३,२१ । If. १४,१६।१४८,१६। २०७,१।२७४,१।३४६-३४८ । III. १२५,२१।१३२,१८। शन्नोदेवी (देहली) ७१६,३०।७१८.१ । II. २६७,२०।२९७,८१ शबर, शवर स्वामी, (हर्षवर्धनीय लिङ्गाटीकाकार) I. २८५, १८१२८६.३.३०१२८७,८ । शबर स्वामी (मीमांसा भाष्यकार) I. ५,८।२३.६।३३२,७॥ ३७७,२३।३६२,१८१३६३,१३१४८०२६३ II. ४५४,१। शरणदेव I. ४०४,१६।४२६,१०॥४७२,१५.१.६,३१५२४-५२७। ५९६६ । II. २२२,१।२२५,२२२२२६,११४७०२३।४७१, १०॥४८७.१६ । शरभ जी (भोंसलवंशीय राजा) I. ६०२,१ । II. २३३,८ । शर्ववर्मा I. ३६,१४।४०,७।६१२,२८१६१३,४.६१६,११६२८, २६४६४२,१७१७०८,४ । II. ११७-११६,३३२।४ । शलङ्क, शलकु (शालङ्कि=पाणिनि का पिता) I. १९७१४। शलातुर (ग्राम) I. २०२,१३। । शशाङ्क (शशाङ्कधर भट्ट) H. ४४४,२६ । शशाङ्कधर भट्ट II. १००,२९१४२,५१४४५,१-२ । शशिदेव (कातन्त्रवृत्तिकार) I. ६३०.१२ । शाक (=शक संवत्) II. १२२.१ । शाकटायन (प्राचीन आचार्य) I. ३६,३१६८,२६३७१०२०। १. इन निर्दिष्ट स्थानों में फिट्सूत्र-रवक्ता गन्ननु को स्वीकार करके 'शन्तनु' का निर्देश किया है। फिट्सूत्र शान्तनव प्राचार्य प्रोक्त मानने पर शान्त'नव होना चाहिये। २. व्याकरणकार तथा ऋस्तन्त्रकार दोनों का यहां निर्देश हैं। हमारे मत में दोनों का कर्ता एक ही व्यक्ति है। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ७३,७७६,२०११५८,२०११६३,१३६१७४,४।२८२,२६। २८५,११६६६,८ 1 II. १२,२२।१३,२।१४,१।२६,७।३६, १०.२०२.१.१।३०३,२२।२०६,१३।२११,४।२४०,२५॥ ३४५,१५१४२०,१०।४२२,१४१४२८,१० । III. ८,२६। १०७.२७।१०८.६। शाकटायन (जैनाचार्य=पाल्यकीर्ति) I. ६६,१.६।४६५,२१५९५, २।६७५,१४ । II. ७७,४।१३१,१०११४२,२२॥१८३,२८। २६१,५।२६२,२३॥३३७,५। III. २,१२॥३,३ । शाकटायन (कातन्त्र- कृत्प्रकरण-कर्ता) I. ६२३,१८। शाकपूणि (नरुक्ताचार्य) I. १८०,६। शाकल (शाकल्य संहिता के अध्येता) I. ७६,२३। शाकल (=शाकल्य) I. १८३,११। .... शाकल्य I. ६८,२६७६,२५।१४४,७ १८३,२२२३,३।२८२० २६।२८८,२०१२८६,१२६६,२६।६१०,१६।६११,१५॥ ६६६,८ । II. ३६३,१६ । III. १०७,२७।१३४,१३ । शाकल्यपिता (=शकल) I. ७७.१। ..... शाक्यमुनि (बुद्ध) I. ३७१,१५। शाङ्खमित्रि I. ७७२। शाङ्खायन II. ४०३,८ । III. ६३,१२ । । .. . शाट्यायन I. २४,२५१०५,१६ । शान्तनव प्राचार्य II. ३४७,२४ ॥३४८,१०१३४६,१२।३५१,७। ३५३,१३।३५५,२७.३५७,११ । III. १२५,१२'१३२,८॥ १३३,१॥ शाम शास्त्री I. ११४,२३.२७ । । शारदातनय (भावप्रकाशनकार) I. ३८४,१७। । शार्ङ्गधर (शाङ्गंधर पद्धतिकार) II. ४७२,६ । शालकायन (शालङ्कि का पुत्र) I. १६६,१२ । शालङ्कायनि (शालङ्कायन का पुत्र) I. १९६,१४ । शालङ्कि (शालङ्क या शलङ्कु का पुत्र पाणिनि) I. १९३,६) १६६,३। १५। . . Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २८३ शालातुरीय (पाणिनि) I. १९३,२०।१९७.६ । . शालिवाहन शक I. ४८७,२१ । II. १२१,२६ । । शाश्वत (कोषकार) II. २८३.१५।। शाश्वत (लिङ्गानुशासनकार) II. ३००,४। शास (भरद्वाज-पुत्र) I. ६६.१ । शाहजहां (बादशाह) I. ५३५,२१ ॥५९३२५ । ... शाहजी (तजौर के राजा) I. ४६५,३१५७६,१५२६०२.१ । ___II. २३४.२२।२३५,३। शाहदरा (बारहदरी) लाहौर II. २६६,१७ । शाहपुर (तौर राज्यस्थ) II. २३४,२३ । शिक्षाकार (हैम व्याकरण में उद्धृत) I. ६६६.१२ । शिक्षासूत्रकार-भाष्यकार' I. २८२,१७। . शिरिम्बिठ (भरद्वाज-पुत्र) ६६,१। .. शिलालि (नटसूत्रकार) I. २८७,६। , .. शिव (=महेश्वर) I. ७६.७४२२३६।२८३,२० । शिवकुमार छात्रावास, वाराणसी I. ५६०,६ । शिवदत्त शर्मा (दाधिमथ) I. १९६,४१४६६,१९।५५७,२ ॥ ____II. ४७७,१८।४७६.२१ । शिवदास (चक्रदत्त-टोकाकार) I. ३८४,२०॥ शिवदास चक्रवर्ती II. २६७,५। । शिवप्रसाद (शीघ्रबोध-प्रणेता) I. ७२३,१८ । शिवभट्टा (नामेशभट्ट का पिता) I. ४६७,६। ... शिवभट्ट (पदमजरी-व्याख्याकार) I. ५७९.१९ । । शिवयोगी (व्याकरणकार ?) I. ६०६,१६।। शिवयोगी (षड्गुरुशिष्य का गुरु) I. ६८३,२३।। शिवराम (उणादि वृत्तिकार) II. २०४,१०।२३८,१६ । । शिवराम (परिभाषेन्दुशेखर-टीकाकार) II. ३२८,१६ । शिवराम (शु० य० प्रति० टीकाकार) II. ३६१,२०।। १. भर्तृहरि वचन में । 'शिक्षाणानेब ये भाष्यकारास्ते गृह्यन्ते' । वृषभदेव टीका। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शिवराम-शिवरामचन्द्र II. ३९२,३। द्र० 'शिवरामचन्द्र सरस्वती' शब्द। शिवरामचन्द्र सरस्वती' (= शिवरामेन्द्र सरस्वती) I."६०३,७ । II २३०,२२। शिवरामेन्द्र सरस्वती (यति) I. ६१,२२।२२५,११४०६,६।४४०, २३।४४४-४४६।४७७,५५६०३,१२१ : ५०,१०॥५६,२१॥ ५७,५१३६२,१। III. २७.३०॥ शिवस्वामी I. ७८,२'६०८,१५२६०६,१२६८२,२११ II, ११६, ९।१३२,६ III. १७४।१०। शीलादित्य (वलभी का सजा) I. ६७२७। शुक (=वैयासकि व्यासपुत्र) ३३३,२। शुक्राचार्य I. ८८,१० , शुचिव्रत शास्त्री एम० ए० II. ७६,२८। शुद्धबोध तीर्थ-द्र० 'स्वामी शुद्धबोध तीर्थ' शब्द । शुनहोत्र (भरद्वाज-पुत्र) I. ६६१॥ शुभचन्द्र (पाश्वनाथचरित-व्याख्याता) I. ६७६,१४॥ शुभचन्द्र (चिन्तामणि व्याकरणकार) I. ७२३,१४॥ शुभशील (उणादिनाममालाकार) 1. २६६।। शूद्रक I. ३६४,८।६१६,६६२८११II. ९७,२३।१७५,२७। १७६,२। " शूरवीर (ऋक्प्रातिशाख्य में उद्धृत) : ७७,४॥ शूरवीर-सुत' (ऋप्रातिशाख्य में उद्धृत) I. ७७,५॥ शूलपाणि (शिव) I. ८७,१६॥ शृङ्गवेरपुर I. ४६८,१२। शृङ्गेरी मठ 1. १६५,२१॥ शेरवात्सकी द्र०टी० शेरवात्संकी' शब्द। . शेवप्प नायक I: ५३८.१ II. १६२,१३॥ शेष पतञ्जलि ? कोषकार) I. ३८३,२०१३०४,३ १. 'शिवरामेन्द्र सरस्वती' शब्द भी देखें। २. 'शौरवीर माण्डुकेय' शब्द भी द्रष्टव्य । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । बारहवां परिशिष्ट . २८५ शेष' (परम्भट्ट का गुरु) I. ५३५,२०। शेष अनन्त' I. ४३८,१२।। शेषकार (नानार्थ-मञ्जरी में उद्घत) I. ३८३,२७। शेष कृष्ण I. ४३५,२६१५३१.६१५३२,१८१५३३,११५३६,२। ५६२,३।५६५,७१५६६,२६। II. २५८,४।४५६,४। शेष कृष्ण कवि (स्फोटतत्त्वकार) II ४४५.११॥ शेष गोविन्द-द्र० 'गोविन्द (शेषवंशीय)' शब्द । शेष चक्रपाणि-द्र० चक्रपाणि (शेषवंशीय)' शब्द । शेष नृसिंह (कृष्णाचार्य का पुत्र) I. ४५४,५। अन्य शेषवंशीय नृसिंहों के लिये 'नृसिंह' शब्द देखें। शेषनारायण I.'३१७,३।४०६,१६१४३४,१९।४४०,५०४४३,५॥ ५३७,१३॥ शेष भट्टारक (हैम व्या० में उद्धृत): I. ६६६.६। शेषराज (=पतञ्जलि) I. ३५६,१७।३५७,१४४ शेष समचन्द्र (प्र. कौमुदीकार से भिन्न) द्र० रामचन्द्र पण्डित' शब्द। शेष रामेश्वर II. ४५६,४। शेष विष्णु I.४३६,१८१४३७,२।४३८,६।४४२,२२ II. ३१८,६। शेष वीरेश्वर I. ६०३,२क्ष, वीरेश्वर'.."शब्द । शेष शर्मा (परिभाषेदुशेखरस्टीकाकार).३२८,२० शेष शाङ्गधर I.४३८.१४॥ शेषाद्रि, शेषाद्रि सुधी, शेषाद्रिनाथ सुधी II. ३११,२२।३२७,१३। ३२६१० शेषाहि (पतञ्जलि) I. ३५६,१७।३५७११६॥ शैत्वायन I: ७७.६॥ II. ४०३,१०॥ १. यहां 'शेष' से अभिप्राय सम्भवतः शेषंकृष्ण' से है। २. यहां 'अनन्त शेषवंशीय' शब्द भी देखें। ३. 'कृष्ण (शेषवंशीय)' शब्द भी देखें। ४. वहां 'रामेश्वर (=वीरेश्वर वटेश्वर) शब्द तथा 'वीरेश्वर' 'वटेश्वर' शब्द भी देखें। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शैलवाचार्य II. १०३,१९।। शैशिरायण गाये I. १६२,११॥. शौनक I. ४८,२१७२,१५१७३,६७७.८।१०१,११११०६,१४। १४२,७।१४३,२३।१४८,१७।१६६,१७।१७७,१७।१८१, १७।१८३,५।१८४.१७।१८५,१।२१७.११२१८,१४।२१६, १।२२०,११२६०,१०।२७२.२१।२७३,२४।२७८,२७।२७६, २।२८४,२।२६४,२।३०१,७३०५,१४।३१५,१॥ II. ३७१, १४।३७२,१॥३७६,२६।३७७.१२। शौनकि (शौनक का पुत्र) I. ७२,१३१४१,६।२८३,२१॥ . शौरवीर' माण्डकेय I. ७७.२८॥ श्रवण वेल्गोल I. ६६९,३। .. ., श्रीकर -श्रीकार I. ५१७,१७। श्री कवि कण्ठाहार I. ३१०,१५ । 'कवि कण्ठाहार' शब्द भी द्रष्टव्य) श्री कान्त (पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर का पिता) I ५७०.६ । II. ४६०,१५।। श्री काशीश (मुग्धबोध व्याख्याता) I.७२००२ । श्रीकृष्ण (वसुदेव-पुत्र) 1. २१०,२७।२५८,१८।३७३,८ । ____II. ४६४,१५ । III. ६२,३ । श्रीकृष्ण (प्र. कौमुदीकार) I. ५६१,२३ । श्रीकृष्ण (वर्धमान संग्रहकार) L ६३९,३ । श्रीकृष्ण भट्ट (स्फोटचन्द्रिकाकार) II. ४५५,१२ । श्रीदत्त (व्याकरणकार) I. ६०६,७६१०,५२६६२,७ । श्रीदत्त (पद्मनाभ का पिता) I. ७२१,२। श्रीदेव (स्यादवादरत्नाकर-कर्ता) I.३०६,२२५२१०१७ । श्रीदेवी (देवनन्दी की माता) I. ४६०,१२। श्रीदेशल (का० पञ्जिका-टीकाकार) I. ६३७,२० । . : श्रीदेववश (वृषभदेव का पिता) II..४४४,१०। .. १. 'शूरवीर-सुत' शब्द भी द्रष्टव्य है। २. यह 'श्रीधर' शब्द का अपपाठ हो सकता है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' बारहवां परिशिष्ट २८७ श्रीधर (भागवृत्ति-व्याख्याता) I. ५१७,५। .... श्रीधर अण्णा शास्त्री वारे II. ४०२,२४ । III. १६६,१७/१७०, २२ । श्रीधर (विष्णुपुराण का व्याख्याता) II. ३६४,१।। श्रीधर चक्रवर्ती I. ७२१,१८ । श्रीधरदास (सदुक्तिकर्णामृतकार) II. ४६६,११।४७२,७ । श्रोधरसेन (राजा) I. ३६७,५१५१४,१-२।५१५,१ । II. ३३३, २३।४८५,८ । III. १३३,२। श्रीनाथ (वृत्तरत्नाकर-व्याख्याता) II. ३६६२७।४००,४ । श्रीनिवास, श्रीनिवास यज्वा (स्वरसिद्धान्त-मञ्जरीकार) I. .४६५२७ । II. २३५,४।२४७,४।३५६,१३ । III. १३४, श्रीपतिदत्त (कातन्त्र परिशिष्टकार) I. १६९,१।३९७,१॥ . ४६६.१२।५००।२।५१४,४।५१६,५२६२४,५। । श्रीपरवस्तु वेङ्कट रङ्गनाथ स्वामी II. ९६.२२१००,१ । श्रीप्रभ सूरि I. ७००,९ श्रीभद्र (=श्रीभद्रेश्वर ?) I. ६९४,७ । II. १३४, १४ । श्रीमती (सायण की माता) I.११०,१३ । श्रीमान् शर्मा I. ५७१.१४ । II. ३१६,१११३१७,३।। श्री रघुनाथ (श्री काशीनाथ शास्त्री का पुत्र) II. ४४०.२२ । श्रीरङ्ग (सिद्धान्तरलावलीकार माधव का गुरु). I. ७१०.६ । श्रीरामशर्मा (मुग्धबोध-टीकाकार) I. ७१९,३०। श्री रामशर्मा (शु० य० प्राति० व्याख्याता) II. ३८६,१७ । श्रीलाल शास्त्री I. ६५८,२८१६५६,११ । श्रीवल्लभ विद्यावागीश (बालबोधनीकार) I. ७२०,४। श्री वेङ्कटेश्वर (पेरुसूरि का पिता) II. २३६.५। - श्रीशचन्द्र चक्रवर्ती, श्रीशचन्द्र भट्टाचार्य I. ५५,२३।४०१,२७। ४२६,२११५००२।५०६,१८१५६३,७१५७२:२८ । II... १७०,१३ । III. ६१,२६।१८८,१६ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : " संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास श्री स्वामी (भट्टि कवि का पिता) II. ४८२,१७१४८४,३० । श्रीहर्ष (नैषधचरितकार) I. ५२७,३ । श्रीहर्ष (=श्रीहर्षवर्धन' राजा) II. २८४,१३ । श्रीहर्ष मुनि (कातन्त्र दोपिकाकार) 1. ६४५,१८ । श्रुतकीति (परमेष्ठी प्रकाशसार, योगसार का कर्ता) Ii. १७८.२ श्रुतकीर्ति आर्य द्र० 'आर्य श्रुतकीति' शब्द । अंतधर (कात्यायन') I. ३२३,४॥३३४,९ । श्रुतपाल (काव्यादर्श टीकाकार) I. १६०,२७ । श्रुतपाल (कुण्डली-कार) I ४३०,१६ । श्रुतपाल (व्याकरणकार) I. ५२२,११६०६११४। श्रुतपाल (देवनन्दीय धातुपाठ-व्याख्याता) I. ६३५,८ । श्रुतपाल (? हैम व्याकरण में स्मृत) I. ६९६,११ । . श्रुखपाल (धातुपाठ व्याख्याता) १२०१७ । श्रुतिधर (वि० समकालिक वररुचि कात्यायन का नामान्तर) ___I. ४६५,२५॥ श्वभूति (पाणिनि का शिष्य ?) II: ४६३,२५ । श्वेतकेतु प्रौद्दालकि III. १५८,६ । .. श्वेतगिरि (विद्यासागर मुनि का गुरु) I. ५७३,१५ । श्वेतवनवासी (उणादिवृत्तिकार) I. १६३,१३३३६६,२५।४८०, '२३३५१६,७ । II. ६५,१८॥२०६,१११२११,४२१७,११॥ २२७,१०।२२८,४।२२६,३।३४४,१७४८३,१७१४८४,३ । श्वोभूति (अष्टाध्यायी-वृत्तिकार) I. ४८१,१३ । - - १. द्र० 'हर्षवर्धन' शब्द। २. श्रुतिधर' शब्द भी द्रष्टव्य । ३. देवनन्दीय धातुपाठ व्याख्याता श्रतपाल भी द्रष्टव्य। श्रतपरकात्यायन' शब्द भी द्रष्टव्य । (४. भम २, पृष्ठ ४६७, पं० १७ में 'श्वभूते' के स्थान में श्लोभूते' पढ़ें। इसी प्रकार इसी पृष्ठ में सर्वत्र 'श्वभूति' के स्थान में श्वोभूति' पड़े। 'श्वभूति' का निर्देश न्यासकार ने ७।१११ की काशिका की व्याख्या में किया है। द्र० भाग १, पृष्ठ ४८१, पं० १८।। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ बारहवां परिशिष्ट षड्गुरु शिष्य - १८६,१२।१६८ २७।२७२,१५१२७३,६।३३८, - २०३६४,२२१३८४,४ । H. ६६.२६ । संस्कृत कालेज बलिया II: २६६२४ संस्कृत महाविद्यालय, महाकाल मन्दिर, उज्जन I. ६४३,२१ । संस्कृत महाविद्यालय सरस्वती भवन काशी I. १७२,२५ । । संस्कृत मेन्युस्कृष्ट्स प्राइवेट लायब्रेरी साउथ इण्डिया II. ४६३, संस्कृत विश्वविद्यालय', वाराणसी I. ३६८,२३।५८०, १३ । - II. ३५.१,२११३२०,७।३५८,५।३६०,१६ । । संस्कृत साहित्य परिषद ग्रन्थमाला, कलकत्ता II. ३८१,१३ । सखी देवी (हरिभट्ट की माता) II. ४५७,३ । सङ्कर्षण (गोवर्धन का पिता) II. २१८,१८ । सङ्गम (राजा) I. ११०,२०।१११,१ । सच्चिदानन्द तीर्थ स्वामी III..१६१,१६ । सच्चिदानन्द भारती II. ४४८,२४ | I. १६५,१६ । । सच्चिदानन्द शंकर भारती (= सच्चिदानन्दभारती) III. १६५, २१। सच्चिदानन्द सरस्वती (स्वयंप्रकाशानन्द सरस्वती) II. २३२,५॥ सज्जनसिंह (महाराणा उदयपुर) II. २४०,६ । सतलज I. ३०२,५। सतारा-सातारा (महाराष्ट्र) [ ४५१,१३ । सतीदेवी (नागेश भट्ट की माता) I. ४६७,७ । सत्यकाम वर्मा (भारद्वाजः) I. १६१,८।२०१,१२२२३७,१७ इत्यादि । II. ३६८,१७।४४१,६ । III. १०७,१३।१२६.६ सत्यनारायण वर्मा I. ७०५,२८ ! .. १. 'संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी' शब्द भी द्रष्टव्य । २. स्वतन्त्र सरस्वती भवन' शब्द भी द्रष्टव्य ।। ३. पुराना 'संस्कृत महाविद्यालय, काशी' । ४. 'संस्कृत व्याकरण का उद्भव और विकास' का लेखक । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण- शास्त्र का इतिहास सत्यप्रबोध (सारस्वत दीपिकाकार) I. ७१०, ३ । सत्यप्रबोध भट्टारक (सारस्वत सुबोधिनीकार ? ) I. ७०६,१३ । सत्यप्रिय तीर्थ स्वामी I. ४४६, २५ । सत्ययशाः ऋक्प्राति० व्याख्याता II. ३८०, १६ । २६० सत्यव्रत समिश्रमी I. १०, २२ १५८, १२।१६५,७१२७३,१६।२७७, ३७१,१४ । II. ७६, २७/४०५, ३१४२७,६।४२८,३ । . सत्यानन्द, सत्यानन्द सरस्वती I. ४५६, ३ । ४५७,११।४५८,६। ४५६,१० । सदानन्द (सिद्धान्तचन्द्रिका - व्याख्याता) I. ७१४,२५ । II. २६८० १८ । सदानन्दनाथ (प्रष्टा० वृत्तिकार ) I. ५४६, १० । सदाशिव (भट्ट) I. ४५१, १ । III. १२६, २६ । १३०,२ । सदाशिव' (बालकृष्ण का पिता ) II. ३६१, १/३९३,४ । सदाशिव अग्निहोत्री (राम श्रग्निहोत्री का पिता ) II. ३६००१८ सदाशिव एल० कात्रे (सदाशिव लक्ष्मीधर कात्रे ) I. ६६, २५/७४, २१।३८८,२३।४८६,१७ । II. ४१४,२५।४४६,२६ । सनातन जैन ग्रन्थमाला I. ६६६,१८ । सनातन तर्काचार्य (तन्त्रप्रदीप - व्याख्याता ) I. ५६७,१६ । सनातनमिश्र (जगदीश तर्कालंकार का पितामह) II. ४६०,१ । सप्रथ (भरद्वाज का पुत्र) I. &&,१ । सभ्य (क्षीरतरङ्गिणी आदि में उद्धृत) II. १४२,९ । समन्तभद्र (व्याकरणकार ? ) I. ६१०, १६६२,८१ समयसुन्दर (जैन ग्रन्थकार ) I. ६५८, ५ । समिद्धेश्वर मन्दिर (चित्तौड़गढ़ ) I. ७०१.२९ । समुद्रगुप्त (गुप्तवंशीय) I. ४४, ११६६, १२२६, १/२६८,५ ३०३,२।३१४,३।३२३,१।३३७, १३।३६३, १५/३६४,५॥ ३६७,१७।३७३,१६।३७४, ४१३८२,२० ३६४,७१३६७,२० II. ४६६,२७/४७०,११४७३,१५/४७४,१११४७५,१६ । III, ६३,२।१२७,६ ॥ १. इसके विषय में भाग २, पृष्ठ ३९१, पं० १ – ५ देखें । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट सरदार नन्दसिंह I. १६०,८ । सरयू प्रसाद व्याकरणाचार्य II. २६६, १२ । सरस्वती भवन (सं०वि० वि० वाराणसी) I. ६१,२३।४४१, ७।४४५, १ इत्यादि II. १४०, १३ । १७२,२।२५७,१।३३०, ७ इत्यादि । III. ४६, ४५८, २ इत्यादि । सरस्वती भवन ग्रन्थमाला ( सीरिज ) काशी II. २११,१६ । III. १६६,२ । सरस्वती महल पुस्तकालय (लायब्रेरी, तंजौर ) I. ५८०, १६ । II. ८१,२४ । सरस्वती विहार ( देहली ) I. ४८८, २३ । सरहिन्द ( पञ्जाब) II. १३६११ । सर्वधर उपाध्याय (उपाध्यायसर्वस्वकार) II. २६०,१ । सर्व रक्षित ( दुर्घटवृत्ति-संस्कर्त्ता ) I. ५२८७ । II २२६१ । सर्वानन्द वन्द्यघटीय ( अमर टीकासर्वस्वकार) I. १०६, ५ ४२०, २१।४२३,२४।४२६,१४ इत्यादि । II. ८० १६ ६०,३०५ १२२,७ इत्यादि । III. १२,२६ । सर्वेश्वर' ( = रामेश्वर ) II. ४५६, ४ । सर्वेश्वर दीक्षित ( सोमयाजी ) I. ४२५, ६४५०, २१।४७०,१४ ॥ सवाई माधवसिंह (जयपुर नरेश ) I. ५५७, १ । सहजकीर्ति (सारस्वत व्याख्याकार) 1. ७१३,३ । सहदेव (शशाङ्कधर को शिष्य ) II. ४४५, १२ सहस्राक्ष (इन्द्र) 1. C०, ६ साकेत (अयोध्या) I. ३७६,१६ । सागरनन्दी (नाटक लक्षण रत्न कोष ) I. ११५, १७ 1 साङ्कृत्य I. ७७,१२ । II. ४०३,११ । 1 सातवलेकर I. ७४,२८ । II. २,२७ । 'दामोदर सातबलेकर' शब्द भी द्रष्टव्य । १.. द्र० शेष कृष्ण - पुत्र वीरेश्वर रामेश्वर = वटेश्वर शब्द | "" २६१ = Wr Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सातवाहन (नृपति) I. ३६५,७।६२२.३।६२६,५।६१६,३ । ११७,२० । सात्यमुनि प्राचाय I २६६,५।। साधु पाश्रम होशियारपुर II. ८७,१। साधु चारित्रसिंह (कातन्त्रविभ्रमावर्णिकार) I. ६११,२२ । _ 'चारित्रसिंह' शब्द भी द्रष्टव्य । साधुरत्न (गुणरत्न सूरि का गुरुभाई) II. १३६,५।। साधुराम एम० ए० I. ३६३,२२ । साम्ब शास्त्री I. ६०६,१३।६०७.८६८७२६।६९०,४ । II. ३६६,७ । सायण, सायणाचार्य I. ४७,२१५४,१९।६६,१६।१०६,२ इत्यादि । _II. ५६,६।६७,५२६६,६७१,८७६,२३ इत्यादि । III. " ३६,२२ । सायण-पुत्र (कण्ड्वादि धातुवृत्तिकार) II. १३१,२७ ।। सारङ्ग कवि (प्रयुक्ताख्यात-मञ्जरीकार) II. ८१,१३ । सारस्वतकार II. ११६,८११३८,७। सारस्वत व्यूढ मश्र II. २३०,२४ । 'व्यूढमिश्र सारस्वत' शब्द भी द्रष्टव्य । सावित्रीदेवी बागडिया ट्रस्ट (कलकत्ता) II. ४५२,३०।. साहसाङ्क (विक्रम) I. ५०५.१० । विक्रम साहसाङ्क तथा : 'विक्रमाङ्क साहसाङ्क' शब्द भी द्रष्टव्य। सिंहसूरिगणि (द्वादशारनयचक्र-व्याख्याता) I. १०७.२६।१४१, १४१३४३,१। सिकन्दर I. २०६.११२१०.२। ..... .. सिकन्दर सूर II. १३६,१०।। सिकन्दराबाद (आन्ध्र प्रदेशस्थ) I. ५७५,१ । III. १७१,४। सिद्धनन्दि, सिद्धनन्दी (व्याकरणकार) I. ६०६,१२।६१०,२। ६७६,३.। ..... सिद्धराज ('जयसिंह' नामान्तर) I. ४६२,२३।६६५,६६९६, २६१६६७.५। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २९३ . सिद्धसेन (वैयाकरण) J. ६०६,३११६१०,६।६६२,७ । । सिद्धसेन दिवाकर (जैनाचार्य) I. ६५६,१४ । सिद्धसेन गणी (उनास्वातिभाष्य-व्याख्याता) II. ६४,१ । सिद्धान्तमित्र-द्र० 'कातिकेय सिद्धान्तमित्र' शब्द । सिन्धिया प्राच्यशोध-प्रतिष्ठान (उज्जैन) I. ६.१३,२८ । सिन्धु (नदी) I. ३०२,६ । सिन्धुल (धाराधीश भोज का पिता) I. ६८४,२६ । सिमला (शिमला) III. १३९:१२ । द्र० 'शिमला' शब्द । सिरसा (जिला हिसार) III. १७३,१६।१७५,१२ । । सोता (जनक-पुत्री) | ३३१,२८ । सीता-स्वयम्बर I..१०१,३। सीतानाथ सिद्धान्तवागीश ६३८,११ । सीताराम जयराम जोशी I. ५१६७१०१६६१,१० । II. २२५८ । ४६४,२६.४७८,१५। सीताराम दातरे (रीवां, म०प्र०) सीताराम सहगल (शास्त्री) II. ३८२,२६ । सी० नरसिंहाचार्य I. १.६,६ । सीरदेव (परिभाषा-वृत्तिकार) I. २५४,१०।४०४,२२।४०५,१५॥ ४२६.२६ इत्यादि। II १०२,१५।३०४-३०६।३१०,८ इत्यादि । III. ११,३० । सीरध्वज (सीता का पिता) I: ३३१,३० । सुकेशा भारद्वाज I. १७२,१३ । सुचरित मिश्र (मी० श्लोकवात्तिक-व्याख्याता) . ८४,१३ । सुदर्शन प्रेस काञ्ची II. २६०,१३। . सुधाकर (वैयाकरण) I. २४६,१२ । II. ६०,२३।१४४,११॥ - १६६,१८।१६३, ३।२००,२० । III. १४१,२२ । सुनन्दा (चक्रवर्ती भरत की रानी) I. ६६,६।१०५,१० । सुनाग (वात्तिककार) I. २६६,३०।३१६,१२।३४१,१ । सुन्दर सूरि मुनि-द्र० 'मुनि सुन्दर सूरि' शब्द। . सपद्मनाभ I. ७२०,२७ । (द्र० 'पद्मनाभ' शब्द) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास सुबन्धु (वासवदत्ताकार) I. ४८६,१ । II. ४६६,१२ । सुबोधिनीकार' (माधवीय धातुवृत्ति में उद्धृत) II. १४२,१३ । सुबोधिनीकार' (अपाणिनीयप्रमाणता में उद्धृत) III. १२,२७ सुब्बरायाचार्य (शब्देन्दुशेखर व्याख्याता) III. १६८,१ । सुब्रह्मण्य अय्यर द्र० 'को० अ० सुब्रह्मण्य अय्यर' शब्द । सुब्रह्मण्य (परमेश्वर-पुत्र) II. ४५००२१ । सुभद्रा I. २६१,१४। सुभूतिचन्द्र (अमरकोष टीकाकार) II २१६,२६।२२०.७। २२१,८ । सुरभि (शिव-माता) I. ८०,१६ । सुराचार्य (=बृहस्पति) I. ६४,५२६८,२२ । सुरेन्द्रनाथ मजुमदार I. । सुरेश्वराचार्य I. ३१६,२७ । II. ४४६,१२। III. २२६ । सुलभा (सौलभ ब्राह्मण प्रवक्त्री) I. २७१,२। सुशील विजय I. ६६७,३१६६८,२७७००,२२। ... सुशीला (गोकुलचन्द्र की माता) I. ५४३,७ । सुषेण कविराज, सुषेण विद्याभूषण-द्र० 'कविराज सुषेण' सुषेण____ विद्याभूषण शब्द। सुहोत्र (भरद्वाज पुत्र) I. ६६,२। सूरमचन्द कविराज I. ८४,८ । II. ६१,२७ । सूरसिंह (जोधपुर नरेश) II. २६६।२२।। सूर्यकान्त डा. I. ६०६,२६ । II. ४०७,२७।४०८।६।४१०६। - ४१५,१८।४२०-४२५ तक . . सृष्टिधर, सृष्टिधर चक्रवर्ती, सष्टिधराचार्य I. १०६,४।१५४,४। २२७,१८।३६७:१३।४२९,४।४७५,२७।५०१.१९५०६, ६।५१३,१९०५१३,१९५१४,६३५१६,१८५२२,२०।५२६, १८ । II. २२०,१९,२२१,४ । III. १२३,१॥ १. सुबोधिनी' नाम की व्याकरणादि अनेक विषयों के ग्रन्थों की टोकानों का नाम है। इन दोनों ग्रन्थों में कौन सा 'सुबोधिनी' ग्रन्थ का कर्ता अभिप्रेत है, यह अज्ञात है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २६५ सेण्ट्रल प्रोविस् एण्ड बरार मैन्युस्कृप्ट्स् II. ३८५,५। सेतु माधवाचार्य III. १६२,६।१६७,२६। सेनक I. ६८।२७।७१,२०११८८,२४।२८२,२६। III. १०७,२७१ सेन संवत् II. २१६,११।। सैतव (छन्दःशास्त्रकार) I. २८५,२५।२८६,२। , सोनीपत (हरयाणा) II. ४५२,३१॥ .. सोमदेव सूरि I. ६६७,२४।६१,१६॥ ६६९,१६। II. ४७१,१॥ III. १२५,११ . सोमयार्य (तै प्रा० व्याख्याता) II. ३७८,१२।३९६,१३।३९८, ....., १२३ III. ६६,२६। . ... सोमसुन्दर सूरि II १३६,५१३३६,२३। सोमेश्वर कवि (साहित्यकल्पद्रुमकार) I. १०८,११॥ सोमेश्वर दीक्षित III. १४,६। .. सोमेश्वर सूरि I. ६१,१६। III. १२५,११॥ सौनाग (वार्तिककार) I. ३३७,७१३४२,२।३५४,१५॥ सौभव (शुष्कताकिंक) I. ३७,२६। सौभाग्यसागर I. ६६६,२८। सौराष्ट्र I. ६२५,६७०१,१६७२२,४। सौर्य (नगर) I. ३४८,१०॥ सौर्य भगवान् I. ३४५,१८।३४८.७। सौर्यायणि गाये I. १६२,१३। स्कन्द, स्कन्दस्वामी I. १६३,२५॥१८०,११२३८,१९।२६८,२। इत्यादि । II. ४०,२१४१,६।२२६,१६। । १ । । स्कन्द गुप्त I. ४६३,२३। स्कन्द-महेश्वर II. ४८७,१।। . - . स्टाईन I. ३६९,१५१५८७.ह स्थविर कौण्डिन्य I. ७५,३११७७,१०॥ .:: स्थविर शाकल्य I. ७६,३१७७,११।१८४,१॥ १. पृष्ठ ६१, पं० १६ में सोमदेव सूरि' के स्थान में 'सोमेश्वर सूरि' अशुद्ध छपा है। . . . . . . . . Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास स्थाणुः (=शिव) I. ८१,२०। स्थाणुदत्त (पण्डित) I[..१६६।२७। III. १८०,१७१८११२। स्फोट (स्फोटायन' का पिता) I. १८६,२०। II. ४३१,२४। स्फोटायन I. ६८.२७।७१,२०११८६,५०।२८३,१. II. ४३१, १४। III. १०७,२७। स्फौटायन' (पाठान्तर) I. १८६,२०। II. ४३१.२४॥ स्वयंप्रकाश सरस्वती; स्वयंप्रकाशानन्द सरस्वती, (=सच्चि: दानन्द सरस्वती') II. २३२,३।३२१,१६।३२२.६। -- स्वाध्याय मण्डल (पारडी जि० सूरत) 1. ११२,२५॥ स्वामी (क्षीरतरङ्गिणी में उद्धृत) II. १४२,१४। स्वामी दयानन्द सरस्वती I. ३,२५।३४,२३।४०,३०१५४,२३। इत्यादि II. ८.२१।१४,२८।११२,६। इत्यादि । II0. ३२, २७।४०,११६२,१५। इत्यादि। स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती (स्व० द० स० दीक्षागुरु) I. ५४५,६। स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती (ब्रह्मदत्त जिज्ञासु के गुरु) ५५६,१३। स्वामी ब्रह्ममुनि (प्रियरत्न आर्ष पूर्वनाम) I. १९०,२.७ । III. १२४,२१॥ स्वामी विरजानन्द सरस्वती (ग्वा० द० स० के विद्यागुरु) I. ३८०,५१५५१,२२।५५२,१०६५५६,१७।५८५,७।७०६, २०) II. ११२,६११७६,१३। स्वामी शुद्धवोध तीर्थ I. ५५६,२४। , स्वायम्भुव मनु I. २,१६।५८,५। द्र० 'मनु (स्वायम्भुव)' शब्द । हंसराज शर्मा (राजगुरु) . १६०,१४। हंस विजय गणि I. ७१३,१०। हट्टचन्द्र I. ५२७,१॥ हण्टर (डबल्यू डबल्यू हण्टर) I. २२४.१॥ हरदत्त, हरदत्त (पदमञ्जरीकार) I. ३६२६।४५।२८.७२,२७। १. 'ये त्वौकार (=स्फौटायनं) पठन्ति, ते नडादिषु अश्वादिषु वा स्फोटशब्दस्य पाठं मन्यन्ते ।' हरदत्त पदमञ्जरी ६३१।१२३।। २. ये एक ही व्यक्ति के नाम हैं । द्र० भाग २, पृष्ठ २३२,३-५ : Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट ११६,६ इत्यादि । II. ३, ४ ४१, ११५०,२५।५७, २३ इत्यादि । III. ११६,२५।१२०,२४।१७१,१७११७२ १। हरनामदत्त भाष्याचार्य I. ५५६१६ । हरप्रसाद शास्त्री I. ७१८,३। II. ३४२, ५३४३,३१ हरिदत्त एकादशतीर्थ I. १६०,२८ हरिदीक्षित I. ४६७,६५०२,८१५३१,५१५४१,६। ५६८,२२। II ३२६,५१ हरिभट्ट ( = हरिभद्र ) I. ७०८,२३ । हरिभट्ट (हरिभास्कर का पितामह) II. ३२४,१८ । हरभट्ट (केशव दीक्षित का पुत्र) II. ४५६, २६।४५७,१ । हरिभद्र ( जैन श्राचार्य ) I. ६३५, २६ । ६५८,७१७०३, २३.२४ । हरिभद्र ( = हरिभट्ट) I. ७०८,२३ । हरिभद्र सूरि I. ६७२,१ । हरिभास्कर, हरिभास्कर अग्निहोत्री' I. ४०४,१० । II. ३०८, २।३२३,२१।३२४,१.२।३२७,१२ । ३/३८ हरि मिश्र (पदमञ्जरीकार ) I. ४३३,२६ । हरियोमी II. १०३, १।१०४,१ । हरिराम I. ४२५, १०।४७०,१७ । हरिराम ( कातन्त्र व्याख्याकार) I ६२६,११ ॥ हरिराम ( दुर्गवृत्ति व्याख्याता) 1. ६४०,९१ । हरिराम (गोयीचन्द्र टीका - व्याख्याकार) I. ७०५,२५ । हरि वल्लभ II. ४५६,१६ । २६७ हरि शर्मा I. ४३३,२६ । हरिश्चन्द्र (कवि ) II. ४६६,१२ | HII. ६६,१ हरिश्चन्द्र यति ( = हरीन्दु यति) I. ६६६, २२ । हरिषेण ( कवि, रघुकार अपनाम कालिदास) I. ३६७, ४ III. &&,8 1 हरिस्वामी (शतपथ व्याख्याता) I. ६६, २५।२६८,१६३८८, १. 'भास्कर, भास्कर भट्ट, भास्कर अग्निहोत्री' शब्द भी द्रष्टव्य । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास १०।३८६,१२।३६०.११४१८,१२३४८६.१०।६३३,२२। ६३४,४ । II. ४४६,१६ । हरिहर (प्रथम) II. ११०,१८ । हरिहर (द्वितीय) II. ११०,२२। हरिहर (भट्टि-टीकाकार) II. ४८३,११।४६०,१७।। हरिहरेन्द्र सरस्वती (शिवरामेन्द्र सरस्वती का गुरु) I. ४४५,२३ हरीन्दु यति (=हरिश्चन्द्र यति) I. ६६९,३० । हर्यक्ष (शुष्क तार्किक) I. ३७८,२५। हर्ष (कवि) II. ४८५,१८ । हर्ष (लिङ्गानुशासनकार) २८५,२ । द्र० 'हर्षवर्धन' शब्द । हर्षकीर्ति सूरि (सारस्वत टीकाकार) I. ७११,६७१५,११ । ___II. १२६,१११३८,१६ । हर्षकुल गणि II. १३७।१४।१४०.५। हर्षनाथ मिश्र (डा.) I. ५१२,२४।६४८,२१६५२,१६।६५४,८। ६५५,२३ । हर्षवर्धन (लिङ्गानुशासनकार) I. ३१४,२३।३२०,२।६६३,१२। II. २७३,१४।२७५,३।२७७,१।२८०८।२८३,६।२८४,५॥ २८५,१६।२६०,११३००,२५ । हर्षवर्धन (महाराजा') I. ६३१,२२ । हलायुध I. ८१,३।४६१,१ । III. ८४,२५। हस्सन (कर्नाटक) I. ७२२,१७ । III. १८३,५। हारीत (ऋषि) I. २२.१६।७७.१४ । हार्वर्ड ओरियण्टल सीरिज I. ४३,२७ । हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) प्रेस II. ४७२,२७ । III. ६१,६। हाल (सातवाहन नपति) I. ६१६,१३ । हालदार II. ३८१,३ । द्र० 'गुरुपद हालदार' शब्द । हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय (बम्बई) III. १६८,१६ । १. हमारे विचार में महाराजा हर्षवर्धन ही लिङ्गानुशासनकार है । द्र० भाग २, पृष्ठ २८४, पं० ११ से पृष्ठ २८५ पं० २ तक। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां परिशिष्ट २९६ हिन्दू विश्वविद्यालय काशी I. २९६,८।४१०,१० । .-हिरण्यनाभ कौसल्य I. १७२,१४। . हुमायूI. १३६,११। . हूण (जातिविशेष) I. ३६६,२२।३७०,२ । हेनरी टामस कोलबुक II.४५७,१६। 'कोलब्रुक' शब्द भी द्रष्टव्य । हेम. हेमचन्द्र (आचार्य, सूरि) I. १८,१६।२८.२४।३४,२५५३७, २८ इत्यादि । II. ७६,१८७७,३।८६,१६६४,१६,९५,१ इत्यादि । II. ८५,२७ ।। हेमनन्दन गणि I. ७१३,५।। हेमराज वैद्य (गंगादत्त शर्मा के पिता) I. ५५६,१६ । हेमसिंह खण्डेलवाल II. १३९४ । हेमसूरि (= हेमचन्द्र सूरि ?) I. ५९४,२८।६६६,२७ । : हेमहंस गणि I. ३२१,५१६६६,२७ । II. २४१,२७।३३२,१२।। ३३८,१३'३३६,४१३४०,११३४१,११ । III. २४,२६।। हेमाद्रि I. १०३,१९।१७८.७।१८२,२२१५६३,६७१६,२६ । ___ III. १४१,७।। हेमाद्रि-सचिव I. ७१७,१२ । हेलाराज I. १२३,२८।१५२,६।३१३,२२।३२०,१६।३५४,२७। ... ४०२,१८ । II. १०६.१८.११०,११२६७,१२।४३६,१८॥ ४३७.१२१४४१,२११४४५,१६१४४६,२१४४७,३॥ हेवाकिन II. १४२,१५। ..होडा (नगर) I ७१४,८ ।. . . . होशियारपुर I ५८०,१७ । II. १३८,१८ । III. १८२,१५।। होशियारपुर विश्वेश्वरानन्द शोध संस्थान' I. ४६२,७।४६३,१५॥ ह्यनसांग I. १०,४।२२.०,२३।२२२,१६।३६८,२४ । ह्विटनी-द्र. 'व्हिटनी' शब्द । . ५ १.० विश्वेश्वरानन्द शोध संस्थान' शब्द । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० व्या० शा ० इ० के तृतीय भाग में परिवर्धन तथा संशोधन पृष्ठ ८३ पं० १६ में उद्धृत 'सन्ध्यावबूं गृह्य करेण भानुः पद्यांश का सकल पाठ इस प्रकार है सौ रविः कुमुदचचताङ्गी रक्तांशुकेनेव कृतोत्तरीयः । सन्ध्यां वधू गृह्य करेण गाढं जामातृवद् वासगृहं प्रविष्टः ।। यह श्लोक महामहोपाध्याय पुरुषोत्तम विद्यावागीश प्रणीत 'प्रयोग रत्नमाला व्याकरण', कृद्विन्यास के सूत्र २७, पृष्ठ ३३२ पर उद्धृत है । यह 'असम संस्कृत बोर्ड गोहाटी' से सन् १९७३ में प्रकाशित हुआ है। इसके सम्पादक शिवनाथ शास्त्री हैं । यह विशिष्ट सूचना विजयपाल शास्त्री ( शोधछात्र, दिल्ली) ने २१-२-८५ के पत्र में दी हैं । तदर्थं शुभाशीः । हमने पृष्ठ ८३ पर जो पद्यांश छापा था वह 'नमि' साधु द्वारा उद्धृत है ( द्र० इसी पृष्ठ की टि० ४) । उसने केवल 'गृह्य' पद के लिये उक्त पद्यांश उद्धृत किया है । सम्भव है पद्यांश की अर्थवत्ता के लिये उसने 'गढ' पद के स्थान पर 'भानु' का प्रयोग कर दिया हो । प्रयोगरत्नमाला में द्वितीय चरण में 'रक्तांशुकेनैव' पाठ छपा है । यह मुद्रण दोष प्रतीत होता है । 1 पृष्ठ ८४, पं० २६ – 'रामनाथ' के स्थान में 'रमानाथ' होना चाहिये । पृष्ठ १२, पं० १५ २८ तक का लेख पूर्व पृष्ठ ६१ की २४वीं पक्ति के प्रागे छपना चाहिये था। सावधानता से अस्थान में छप गया । पृष्ठ १८३, पं० २ - श्री म० देवे' के स्थान में 'श्रो मा० देवे' शोधें । पृष्ठ १८५, पं० ε- 'प्रो० भ० दा० साठे' के स्थान में 'श्री क० दा० साठे' शोधें । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० व्या० शा० इति० में पृष्ठ निर्देश पूर्वक उद्धृत ग्रन्थों का विवरण प्रमरटीका सर्वस्व-सम्पादक-गणपति शास्त्री । चार भागों में। त्रिवेन्द्रम का छपा। अमरटीका ( क्षीरस्वामी )-सम्पादक–कृष्ण जी गोविन्द प्रोके । पूना सन् १९१३ । अल्बेरूनी की भारतयात्रा-सम्पादक-सन्तराम बी. ए.। इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद। . इत्सिग की भारत यात्रा-अनुवादक-सन्तराम बी. ए.। इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद। उणादिवृत्ति ( श्वेतवनवासी )-प्रकाशक-मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास । उणाद्विवृत्ति (कातन्त्र)-प्रकाशक-मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास । उणादिवृत्ति ( नारायण भट्ट )-प्रकाशक-मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास। . उणादिवृत्ति ( उज्ज्वलदत्त )-प्रकाशक-जीवानन्द विद्यासागर, कलकत्ता। उणादिवृत्ति (हेमचन्द्र)-सं०-जोहन क्रिस्ते । एज्यूकेशन सोसाइटी प्रेस, बायकोला. सन् १८४५। ऋक्तन्त्र-सम्पादक-डा. सूर्यकान्तः । प्रकाशक-मेहरचन्द मुंशी राम, लाहौर । . .। ऋक्सर्वानुक्रमणी-सम्पादक-डा. विजयपाल। प्रकाशक सावित्री देवी बागडिया ट्रस्ट, कलकत्ता । सन् १९८५। । ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन-सम्पादक-पं० भगवद्दत्त । प्रकाशक-रामलाल कपूर ट्रस्ट, अमृतसर । तृतीये संस्करण, चार भागों में । सन् १९८१८३ । कातन्त्र-दुर्गसिंह वृत्ति सहित, नागराक्षर मुद्रित, कलकत्ता संस्करण। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास कातन्त्रवृत्ति-दुर्गसिंह, नागराक्षर प्रकाशन, कलकत्ता संस्करण । 'काव्यमीमांसा ( राजशेखर )-गायकवाड संस्कृत सीरिज बड़ोदा । प्रथम संस्करण। कविकल्पद्रुम - आशुबोध विद्याभूशण · सम्पादित । सिद्धेश्वर प्रेस कलकत्ता, सन् १९०४ । । काशकृत्स्नधातुव्याख्यानम्-संस्कृत अनुवाद-युधिष्ठिर मीमांसक, । भारतीय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, अजमेर । काशिका-सं०-बालशास्त्री, मेडिकल हाल प्रेस, बनारस । संस्करण - २, सन् १८६८। काशिका विवरण पञ्जिका (न्यास)-जिनेन्द्र बुद्धि । वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी राजशाही, बङ्गाल । दो भागों में। क्रियारत्न समुच्चय-गुणरत्न सूरि । चन्द्रप्रभा यन्त्रालय, काशी। क्षीरतरङ्गिणी-सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक । प्रकाशक-रामलाल कपूर ट्रस्ट, अमृतसर।। गणरत्न महोदधि-सम्पादक-भीमसेन शर्मा। प्रकाशन स्थान - इटावा। जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह संग्रहीता-जुगलकिशोर, मुख्तार। वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज, दिल्ली। जैन साहित्य और इतिहास-नाथूराम प्रेमी। हिन्दी ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय वम्बई । प्रथम संस्करण सन् १९४२; द्वितीय संस्करण सन् १९५६ । जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास-मोहनलाल दलीचन्द देसाई। बम्बई, सन् १६३३। जैनेन्द्र महावृत्ति-(अभयनन्दी)-भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस । ज्ञापक समुच्चय-वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी, राजशाही, बंगाल । ज्योतिष शास्त्राचा इतिहास-शंकर बालकृष्ण दीक्षित। द्वितीया वृत्ति सन् १९३१, पूना। ..... .. . टेक्निकल टर्न्स आफ संस्कृत ग्रामर-क्षितीशचन्द्र चटर्जी । कलकत्ता। दो स्ट्रक्चर प्राफ अष्टाध्यायी-लेखक-आई० एस० पावटे । प्रकाशक-आई० एस० पावटे, हुवली । सन् १९३३ ई० । दुर्घटवत्ति-सम्पादक-गणपति शास्त्री। त्रिवेन्द्रम। प्रथम संस्करण, सन् १९२४। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धृत ग्रन्थों का विवरण दैवम् -पुरुषकार वृत्तिकोपेतम्-सं० युधिष्ठिर मीमांसक, भारतीय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, अजमेर । धातुप्रदीप-मैत्रेयरक्षित । प्रकाशक-वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी, राज शाही, बंगाल। धातुवृत्ति (सायण)-प्रकाशक--काशी संस्कृत सोरिज, नं० १०३ । बनारस, सन् १९३४ । निघण्टीका ( देवराज यज्वा ) सम्पादक-सत्यव्रत सामश्रमी, कलकत्ता, सन् १८८०। निरुक्त दुर्गवृत्ति-आनन्दाश्रम, पूना। निरुक्त (स्कन्द टीका)-सम्पादक-डा. लक्ष्मणस्वरूप । प्रकाशक पजाब विश्वविद्यालय, लाहौर। निरुक्त समुच्चय- ( वररुचि )-सम्पादक-युधिष्ठिर मीमांसक । ... भारतीय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, अजमेर। द्वितीय संस्करण, सं० २०२२। निरुक्तालोचन-सत्यव्रत सामश्रमी, कलकत्ता। न्यायमञ्जरी ( जयन्त भद्र)-दो भागों में । प्रकाशक-मेडिकल हाल यन्त्रालय, बनारस ।। न्यास (जिनेन्द्र बुद्धि) द्र०-काशिका विवरण पञ्जिका शब्द । पदमञ्जरी (हरदत्त)-मेडिकल हाल प्रेस, बनारस । प्रथम भाग, सन् १८६५। द्वितीय भाग, सन् १८६८। । परिभाषाभास्कर ( शेषाद्रि )-सम्पाo--कृष्णमाचार्य, श्री कृष्ण विलास यन्त्रालय, तजा नगर । सन् १९१२ ।।.. परिभाषावृत्ति ( सीरदेव )--ब्रजभूषणदास कम्पनी, काशी। सन् १८८७ । परिभाषावृत्ति (पुरुषोत्तम देव) वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी, राजशाही, .. बंगाल। परिभाषासंग्रह-सं० काशीनाश अभ्यङ्कर । मुद्रणस्थान-पूना। पुरातन प्रबन्ध संग्रह-सिंधी ग्रन्थमाला, शान्तिनिकेतन, सं० १९६२ । पुरुषकार-(द्र०-देवम्) । ...... .. पूना-प्रवचन -( उपदेश-मंजरी) प्रकाशक-रामलाल कपूर ट्रस्ट, सोनीपत, हरयाणा। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास प्रक्रिया कौमुदी - दो भागों में, भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टी टट, पूना । - उणादिवृत्ति, नारायण भट्ट । प्रक्रिया सर्वस्व ( उणादिप्रकरण) प्रक्रिया सर्वस्व ( तद्धित प्रकरण) - मद्रास विश्वविद्यालय मद्रास | प्रबन्ध कोश - ( राजशेखर सूरि ) - सिंधी जैन ग्रन्थमाला, शान्ति 1SKI निकेतन, सं० १९९१ । प्रबन्धचिन्तामणि (मेरुतुङ्गाचार्य ) - सिंधी जैन ग्रन्थमाला, शान्तिनिकेतन, सं० १९८६ । प्रौढ मनोरमा ( भट्टोजि दीक्षित ) - दो भागों में । विद्याविलास प्रेस बनारस, सन् १९०७ । बृहत्त्रयी - ( गुरुपद हालदार) हालदार पाड़ा रोड़ कालीघाट, कलकत्ता । बृहद् विमान शास्त्र – सम्पादक - स्वामी ब्रह्ममुनि । प्रकाशक - प्रार्य सार्वदेशिक प्रतिनिधि सभा, देहली । बौधायन गृह्यशेषसूत्र-- द्र० - बौधायन गृह्यसूत्र । मैसूर विश्वविद्यालय, मैसुर, सन् १९२० । भारतवर्ष का बृहद् इतिहास - पं० - भगवद्दत्त | प्रकाशक - इतिहास प्रकाशक मण्डल, ११२८ पंजाबी बाग, देहली - २६ । भाषावृत्ति ( पुरुषोत्तमदेव ) - वारेन्द्र रिसर्च सोसाइटी, राजशाही, बङ्गाल । भागवृत्ति संकलन- पं० युधिष्ठिर मीमांसक । भारतीय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, अजमेर | 1 भास-नाटक-चक्र – प्रकाशक - प्रोरियण्टल बुक एजेन्सी, पूना महाभाष्य - ( अ. १-२ ) निर्णयसागर प्रेस, बम्बई । महाभाष्य - ( अ. ३-८ ) - सं० - गुरुप्रसाद शास्त्री, काशी । माधवीय धातुवृत्ति ( द्र० - धातुवृत्ति, सायण) । मीमांसा भाष्य - ( शबर स्वामी) तन्त्र वार्त्तिक टुप् टीका सहित, पूना संस्करण । यज्ञफलनाटक–सम्पादक - जीवाराम कालिदास वैद्य । रसशाला श्रम, गोंडल (काठियावाड़) । रूपावतार - धर्मकीर्ति । दो भागों में मुद्रित । बंगलोर प्रेस, मैसूर रोड, बंगलोर 1 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - उद्धृत ग्रन्थों का विवरण लिङ्गानुशासन-(हर्षवर्धन) मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास । लौगाक्षि गृह्यभाष्य (देवपाल)-दो भाग। कश्मीर संस्कृत ग्रन्थावली, श्रीनगर, कश्मीर। वाक्यपदीय-(ब्रह्मकाण्ड) सम्पा०-५० चारुदेव शास्त्री। रामलाल कपूर ट्रस्ट, लाहौर। वाक्यपदीय- (पुण्यराज टीका)-वाराणसी। वाक्यपदीय-(हेलाराजीय टीका)-वाराणसी तथा दक्खन कालेज, पूना। वाक्यपदीय ( वृषभदेव टीका )-प्रथमकाण्ड । सम्पादक-चारुदेव ___शास्त्री । प्रकाशक-रामलाल कपूर ट्रस्ट, लाहौर सं० १९८१ । वाजसनेय प्रातिशाख्य- उब्वट तथा अनन्त भाष्य सहित । मद्रास यूनिवर्सिटी, मद्रास। वामनीय लिङ्गानुशासन-प्रकाशक-भारतीय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, अजमेर। वेदार्थदीपिका-ऋक्सर्वानुक्रमणी टीका । षड्गुरु शिष्य-सम्पादक.. मैक्डानल, आक्सफोर्ड। वैदिक सम्पत्ति-रघुनन्दन शर्मा । द्वितीय प्रावृत्ति, संवत् १९६६ । व्याकरण दर्शनेर इतिहास- (गुरुपद हालदार)-हालदार पाड़ा रोड़, कालीघाट, कलकत्ता। शब्दशक्तिप्रकाशिका - चौखम्वा संस्कृत सीरिज, बनारस । संस्कार रत्नमाला- प्रकाशक--प्रानन्दाश्रम, पूना। संस्कृत कवि चर्चा--बलदेव उपाध्याय । प्रकाशक-मास्टर खेलाड़ी लाल एण्ड संस, बनारस, सन् १९३२ । संस्कृत साहित्य का इतिहास-(कीथ) हिन्दी अनुवाद, डा० मङ्गल देव शास्त्री। प्रकाशक-मोतीलाल बनारसीदास, देहली। संस्कृत साहित्य का इतिहास-कन्हैयालाल पोद्दार । रामविलास पोद्दार ग्रन्थमाला, नवलगढ़ । न्यू राजस्थान प्रेस, कलकत्ता । संस्कृत साहित्य का इतिहास (वाचस्पति गैरौला)- चौखम्बा संस्कृत . सीरिज, बनारस। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास संस्नत साहित्य का सक्षिप्त इतिहास-लेखक - सीताराम जयराम ___जोशी तथा विश्वनाथ शास्त्री भारद्वाज । बनारस (सन् १९३३)। सांख्य दर्शन का इतिहास -उदयवीर शास्त्री। विरजानन्द शोध संस्थान, गाजियाबाद। सिस्टम्स् आफ संस्कृत ग्रामर-डा० वेल्वाल्कर, ओरियण्टल बुक एजेंसी, शुक्रवारपेठ पूना, सन् १९१५ । हर्षवर्धन लिङ्गानुशासन-प्रकाशक-मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास । हिन्दुत्व-( रामदास गौड़)-ज्ञानमण्डल यन्त्रालय, काशी सं० १९६५ । हिस्ट्री आफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर (कृष्णमाचार्य)। हैमधातुपारायणहैमलिङ्गानशासन स्वोपज्ञ-विवरण-सम्पादक-प्राचार्य विजयक्षमा भद्र सूरि (प्रकाशक-शाह हीरालाल सोमचन्द, मोदी स्ट्रीट, कोट, बम्बई । सं० १९९६ । ह्य नसांग-वार्ट्स का अंग्रेजी अनुवाद।। यू नसांग का भारत भ्रमण-अनु० -ठाकुरप्रसाद शर्मा, इण्डियन प्रेस, प्रयाग।. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-परिचय जन्म और अध्ययन मेरा जन्म राजस्थान राज्य के पुष्कर क्षेत्र अन्तर्गत अजमेर (=अजयमेरु) मण्डल के बिरकच्यावास (=विरच्यावास) में बसे हुए भारद्वाज गोत्र, त्रिप्रवर, प्राचार्य टंक, यजुर्वेदीय माध्यनन्दिन शाखा अध्येता सारस्वत कुल में हुआ है। मेरे दादा का नाम रघुनाथ प्राचार्य, पिता का गौरीलाल प्राचार्य एवं माता का नाम यमुनाबाई था। यद्यपि कई पीढ़ियों से निर्वाह का मुख्य साधन कृषि था, परन्तु मेरे पिताजी ने कृषि कर्म छोड़कर अध्यापन कार्य स्वीकार किया था। - हमारे गांव में एक सूरजमल पटेल थे। उन्होंने अजमेर में नवभारत के निर्माता वेदोद्धारक स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाषण सुने थे (मुझे भी बचपन में उनसे स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व के संस्मरण सुनने का सौभाग्य प्राप्त हना था)। इनके संसर्ग से पिताजी एवं ग्राम के दो नवयुवक रामचन्द्र जी लोया मौर शिवचन्दजी इनाणी भो आर्यसमाज की ओर आकृष्ट हुए। अध्ययनार्थ पिताजी कुछ वर्ष अजमेर में रहे । वहां प्रार्यसयाज के संसर्ग में आने से वे स्वामी दया. नन्द सरस्वती के दृढ़ अनुयायी बन गये। पिताजी का लगभग २३ वर्ष की अवस्था में विवाह हुआ । उन दिनों कन्याओं को पढ़ाने की परिपाटी नहीं थी। पिताजी ने स्वामी दयानन्द के अनुयायी होने से मेरी माता को स्वयं पढ़ा लिखा कर सुशिक्षित किया और उन्हें अपने विचारों के अनुकूल बना लिया। सुसंस्कृत माता-पिता ने निश्चय किया कि हम अपनी सन्तान को अपने वंश के अनुरूप सच्चा वेदपाठी ब्राह्मण बनायेंगे। पिताजी ने अध्ययन के पश्चात् बीकानेर तथा किशनगढ़ राज्य के कई स्थानों पर अध्यापन कार्य किया, परन्तु सन १९०८ में वे इन्दौर राज्य की सेवा में चले गये। अतः मेरा जन्म इन्दौर राज्य के नीमाड़ जिले के मुहम्मदपुर ग्राम में भाद्र सुदी प्रष्टमी संवत् १९६६ तदनुसार २२ सितम्बर सन् १९०६ को हुआ। सातवें वर्ष में मुझे Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-परिचय स्थानीय (मण्डलेश्वर की) पाठशाला में प्रविष्ट किया। इस अवधि में मेरे एक भाई और एक बहन हुई। पर वे दोनों अकाल में ही कालकवलित हो गये। माता-पिता ने उपनयनोचित (आठ वर्ष की) अवस्था में मुझे गुरुकुल भेजने का निश्चय कर लिया था और आठवें वर्ष के मध्य में गुरुकुल कांगड़ी (हरद्वार) से मुझे प्रविष्ट करने की अनुमति भी प्राप्त कर ली थी, परन्तु विधाता को यह स्वीकार न था । अतः कुछ समय पूर्व ही मेरी माता का स्वर्गवास हो गया। इस कारण पिताजी ढाई तीन वर्ष अन्यमनस्क रहे। मुझे तत्काल गुरुकुल में अध्ययनार्थ न भेज सके । १९२१ में महात्मा गान्धी का असहयोग आन्दोलन चल रहा था। अमतसर के जलियांवाला बाग का नरमेध हो चुका था। उन दिनों देशोद्धारक स्वामी दयानन्द सरस्वती के सभी अनुयायी प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष रूप से स्वतन्त्रता-संग्राम में बढ़ चढ़ कर भाग ले रहे थे। अतः पिताजी ने भी महात्मा गान्धी के 'स्कल कालेज छोडो आदेश के अनुसार मुझे राजकीय पाठशाला से उठाकर पूर्व संकल्पानुसार ब्राह्मणोचित वेद-वेदाङ्ग के अध्ययनार्थ गुरुकुल भेजने का विचार किया । अवस्था अधिक हो जाने के कारण गुरुकुल कांगड़ी में मुझे प्रवेश नहीं मिला। अतः उस समय सान्ताक ज बम्बई में चल रहे गुरुकुल में मुझे भेजा । उस समय मैं प्राइमरी उतीर्ण कर पाचवीं में पढ़ रहा था। मराठी और गुजराती भाषा का भी मुझे परिज्ञान था। अतः मैं उस समय प्रविष्ट होने वाले ३५ ब्रह्मचारियों में बौद्धिक परीक्षा में सर्वप्रथम आया। यहां भी प्रवेश पाना विधाता को स्वीकार न था । जन्मजात पैरों की विकृति के कारण शारीरिक परीक्षा में डाक्टर ने अनुतीर्ण कर दिया। अतः स्वामी दयानन्द के अनुयायो होते हए भी वेदपाठी ब्राह्मण बनाने की अदम्य इच्छा के कारण सनातन धर्म के ऋषिकुल (हरद्वार) में प्रविष्ट कराने का विचार किया और पत्र-व्यवहार करके अनुमति प्राप्त कर ली। दैव-गति विचित्र होती हैं । उसे मानव कभी जान नहीं सकता। विधाता के प्रत्येक कार्य में मानव का हित निहित होता है। इसी के अनुरूप ऋषिकुल में प्रविष्ट कराने से पूर्व ही आर्यप्रतिनिधि सभा उत्तरप्रदेश के 'पार्यमित्र' (साप्ताहिक) में स्वामी सर्वदानन्द जी के Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..: आत्म-परिचय --- साधु आश्रम (पुल काली नदी, अलीगढ़) की एक विज्ञप्ति प्रकाशित हई। इसमें स्वामी दयानन्द निर्शित 'प्रार्ष पाठविधि के अनुसार अध्ययनाध्यापन का उल्लेख था। उसे पढ़कर पिताजी ने उक्त प्राश्रम के प्राचार्यजी से पत्र-व्यवहार किया। उन्होंने मुझे अपने आश्रम में प्रविष्ट कर लेने की अनुमति दे दी। - ३ अगस्त १९२१ को पिता जी मुझे लेकर श्री स्वामी सर्वदानन्द जी के आश्रम में पहुंचे। वहां की सब व्यवस्था देखकर और सन्तुष्ट होकर मुझे गुरुजनों को सौंप दिया। उस समय आश्रम में श्री पं० ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु, श्री पं० शंकरदेवजी एवं श्री पं० बुद्धदेवजी (धारवाले) अध्यापन कार्य करते थे। पांच मास के पश्चात् ही विद्यालय गण्डासिंहवाला अमृतसर में स्थानान्तरित हो गया। वहां इसका नाम विरजानन्द प्राश्रम रखा गया। कुछ समय पश्चात् श्री पं० बुद्धदेवजी आश्रम से पृथक् हो गये। कुछ कारणों से 'सर्वहितकारिणी' नाम्नी संचालकसमिति आश्रम को अधिक दिन न चला सकी। अतः दोनों गुरुजन १२-१३ ब्रह्मचारियों को लेकर काशी चले गये। प्राय की यथावत् स्थिति न होने से एक समय अन्नक्षेत्र में भोजन करते कराते हमें व्याकरण पढ़ाते रहे और स्वयं दर्शनशास्त्रों का अध्ययन करते रहे । सन् १९२८ के प्रारम्भ में अमृतसर के प्रसिद्ध कागज के व्यापारी लाला रामलाल कपूर का स्वर्गवास हुआ (गण्डासिंहवाला में विरजानन्द आश्रम के लिए जितनी कागज कापी आदि की आवश्यकता होती थी, उसकी पूर्ति ये ही करते थे)। तदनन्तर इनके वैदिक धर्मनिष्ठ पुत्रों ने श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु को काशी से बुलाकर उनकी सम्मति से अपने पिता की स्मृति में रामलाल कपूर ट्रस्ट की स्थापना की और ब्रह्मचारियों के सहित अमृतसर आनेमा अनुरोध किया । तदनुसार श्री पं० ब्रह्मदत्त जी (इस समय तक श्री पं० शंकरदेव जी भी आश्रम से पृथक् हो गये थे) सभी छात्रों के सहित प्रमतसर चले गये और.सन् १९३१ के अन्त तक अमृतसरः में रहे। इस अवधि में मैंने श्री पं० ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु से पातञ्जल महा १. इनको सन् १९६३ में राष्ट्रपति ने संस्कृतभाषा की विशेष सेवा के लिये सम्मानित किया था। . ...... Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास भाष्य पर्यन्त पाणिनीय व्याकरण, निरुक्तशास्त्र एवं अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन पूर्ण कर लिया था। पूर्व काशीवास के समय पूज्य गुरुवर्य पूर्वमीमांसा शास्त्र का अध्ययन न कर सके थे। उसकी न्यूनता उन्हें बराबर खलती रही। अतः मीमांसा दर्शन के विशिष्ट अध्ययन के लिये हम सभी छात्रों को साथ में लेकर सन् १९३१ के अन्त में पुनः काशी गये। वहां मैंने स्व० श्री म० म० चिन्नस्वामीजी शास्त्री और श्री पं० पट्टाभिरामजी शास्त्री से समग्र पूर्वमीमांसा का, श्री पं० ढुण्डिराज जी शास्त्री से न्याय वैशेषिक के अनेक प्राचीन दुष्कर ग्रन्थों का, श्री पं० भगवतप्रसादजी मिश्र वेदाचार्य से कर्मकाण्ड, विशेषकर कात्यायन श्रौतसूत्र का अध्ययन किया। कतिपय अन्य विषयों का भी अन्य गुरुजनों से अध्ययन किया। तदनन्तर सन् १९३५ में काशी से लौटकर लाहौर में रावी पार बारहदरी के समीप रामलाल कपूर के उद्यान में आश्रम की स्थिति हुई। यहां रहते हुए स्व० श्री पं० भगवद्दत्त जी के सान्निध्य में भारतीय प्राचीन इतिहास तथा अनुसन्धान कार्य की शिक्षा प्राप्त की। ___ इस प्रकार सन् १९२१ से १९३५ तक श्री गुरुवर्य पं० ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु तथा अन्य मान्य गुरुजनों के चरणों में रहकर संस्कृत वाङ्मय के विविध विषयों का अध्ययन किया, परन्तु कोई राजकीय परीक्षा नहीं दी। अप्रेल १९३६ में विरजानन्दाश्रम (लाहौर) का मैं विधिवत् स्नातक बना। इससे कुछ मास पूर्व २६ दिसम्बर १९३५ को मेरे पिताजी का इन्दौर राज्य के नन्दवाई ग्राम (चित्तौड़गढ़ से ३० मील दूर) में अध्यापन कार्य करते हुए एक मतान्ध स्थानीय राजकीय मुसलमान डाक्टर द्वारा मारक इजेक्शन देने के कारण स्वर्गवास हो गया था। २ जून १९३६ को मेवाड़ अन्तर्गत शाहपुरा के श्री प० मूलचन्दजी तुगनायत (त्रिगुणातीत) की पुत्री एवं श्री पं० भगवानस्वरूपजी (अजमेर) द्वारा पालिता 'यशोदा देवी' के साथ मेरा विवाह हा। इस समय मेरे तीन पुत्र और दो पुत्रियां हैं। ये सभी अपने अपने व्यवसायों वा घरों में सुव्यवस्थित हैं। राजकीय परीक्षा के परित्याग के कारण जीवन-निर्वाह का निश्चित साधन न होने से स्वीय परिवार के निर्वाहार्थ यत्र तत्र विविध Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रात्म-परिचय ११ कार्य करते हुए भी संस्कृत वाङ्मय की श्रीवृद्धि तथा ऋषि ऋणनिर्मोचन के लिए अध्ययन-अध्यापन और शोध कार्य में अद्ययावत् यथाशक्ति संलग्न हूं । मैंने अपने जीवन में जो कुछ भी कार्य किया है, उसका प्रधान श्रेय मेरी सहधर्मिणी यशोदादेवी को है जिसने ब्राह्मणोचित प्रयाचित-वृत्ति से प्राप्त स्वल्प प्राय में परिवार का भरणपोषण करते हुए जीवन निर्वाह करने में मुझे पूर्ण सहयोग दिया है। अध्ययन और विवाह के अनन्तर संस्कृत वाङ् मय के रक्षण और प्रचार के लिये किये गये प्रध्यापन और शोधकार्य का विवरण प्रस्तुत किया जाता है— कृतकार्य-विवरण मैंने परिवार के निर्वाह के लिये भी अद्य यावत् प्रधानतया दो प्रकार के कार्यों का ही आश्रय लिया है। प्रथम अध्यापन, द्वितीय शोध कार्य । (१) अध्यापन-कार्य मैंने संस्कृत वाङ्मय के अध्यापन का कार्य दो प्रकार से किया । एक किसी संस्था के साथ संबद्ध होकर और दूसरा स्वतन्त्ररूप से यथा (क) सन् १९३६ से १९४२ पर्यन्त लाहौर रावी पार 'विरजानन्द साङ्गवेदविद्यालय' में महाभाष्यपर्यन्त पाणिनीय व्याकरण और froad शास्त्र का अध्यापन कार्य किया । (ख) सन् १९४३ - ४५ पर्यन्त अजमेर में रहते हुये स्वतन्त्ररूप से महाभाष्य और निरुक्त आदि का अध्यापन किया । (ग) सन् १९४६ से ३१ जुलाई १९४७ तक लाहौर के पूर्व निर्दिष्ट विद्यालय में अध्यापन कार्य किया । (घ) सन् १९४७ के देश-विभाजन के पश्चात् सन् १९४७ के अन्त से १९५० के आरम्भ तक अजमेर में रहते हुये स्वतन्त्ररूप से व्याकरणशास्त्र का अध्यापन करता रहा । (ङ) सन् १९५०-५५ के आरम्भ तक लाहौर से स्थानान्तरित Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास 'विरजानन्द साङ्गवेदविद्यालय' अपर नाम 'पाणिनि महाविद्यालय (मोतीझील) वाराणसी में अध्यापन कार्य किया। (च) सन १९५५ से १९५६ के प्रारम्भ तक देहली में स्वतन्त्ररूप में शास्त्री और संस्कृत एम० ए० के छात्रों को पढ़ाता रहा। [सन् १९५६ के मई मास से सन् १९६१ तक 'महर्षि दयानन्द स्मारक महालय' टंकारा में शोध कार्य किया।] (छ) सन् १९६२ से १९६६ तक अजमेर में अष्टाध्यायी, महान भाष्य, निरुक्त, पूर्वमीमांसा तथा कात्यायन श्रौत्रसूत्र प्रादि का स्वतन्त्ररूप से अध्यापन करता रहा। (ज) सन् १९६७ में केन्द्र द्वारा भुवनेश्वर ( उड़ीसा ) में स्थापित 'सान्ध्य संस्कृत महाविद्यालय' में ३ मास तक प्राचार्य पद पर कार्य किया। वहां का जलवायु स्वास्थ्य के अनुकूल न होने से मुझे यह स्थान छोड़ना पड़ा। (झ) जुलाई १९६७ से रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा) के पाणिनि विद्यालय में यथासम्भव अध्यापन कार्य कर रहा हूँ। विशेष-ख-घ च-छ निर्दिष्ट कालों में घर पर अध्ययनार्थ आये हुये छात्रों को निःशुल्क पढ़ाता रहा। (२) शोध-कार्य शोध कार्य का प्रारम्भ-मैंने छात्रावस्था में सन् १९३० से ही शोधकार्य प्रारम्भ कर दिया था। तब से अब तक निरन्तर इस कार्य में संलग्न हूं। .. अध्ययन के पश्चात् सन् १९३६ से जो शोधकार्य किया, वह दो प्रकार का है। एक किसी संस्था के साथ सम्बद्ध होकर दूसरा स्वर तन्त्ररूप से। - (क) सन् १९३६ से १९४२; १९४६ से ३१ जुलाई १९४७ तथा १९५०-१९५५ के प्रारम्भ तक 'विरजानन्द साङ्गवेद विद्यालय' लाहौर में अध्यापनकार्य के साथ-साथ श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा क्रियमाण शोधकार्य में सहयोग देता रहा Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्म-परिचय (ख) सन् १९४३ से १९४५ तक 'परोपकारिणी सभा अजमेर का कार्य करते हुये अथर्ववेद (शौनकशाखा) और सामवेद (कौथुमशाखा) का विशिष्ट संशोधनकार्य किया (सभा को नीति के अनुसार मेरे द्वारा शोधित संस्करणों पर मेरा नाम नहीं दिया गया)। (ग) सन् १९४८ से १९५१ के प्रारम्भ तक 'प्रार्य साहित्य मण्डल अजमेर' में कार्य करते हए श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित व्याकरण-सम्बन्धी वेदाङ्गप्रकाश के १४ भागों का संशोधन कार्य किया। [इनका मुद्रण मेरी अनुपस्थिति होने के कारण ये ग्रन्थ शुद्ध नहीं छपे।]. (घ) सन् १९५५-१९५८ तक क्षीरस्वामी विरचित पाणिनीय धातुपाठ की प्राचीनतम व्याख्या क्षीरतरङ्गिणी का सम्पादन, तथा वैदिकछन्दोमीमांसा का लेखन कार्य रामलाल कपूर ट्रस्ट की ओर से किया। (ङ) सन् १९५६-१९६२ तक महर्षि दयानन्द स्मारक महालय टङ्कारा ( सौराष्ट्र ) द्वारा स्थापित अनुसन्धान विभाग के अध्यक्ष के रूप में अनुसन्धान कार्य किया। इस काल में स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित ४० ग्रन्थों में उद्धत तथा व्याख्यात २५ पच्चीस सहस्र वचनों की सूची तैयार की। (यह प्रकाशित नहीं हुई। पञ्जाब की शास्त्री परीक्षा में नियत श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती के यजुर्वेद भाष्य के नियत अंश का सम्पादन तथा प्रकाशन, और गोपथ ब्राह्मण के कुछ भाग के अनुवाद और व्याख्या का कार्य किया। (च) १३ अप्रेल १९६१ के दिन मैंने कतिपय मित्रों के सहयोग से अजमेर में भारतीय-प्राच्यविद्या-प्रतिष्ठान की स्थापना की। और उसके उद्देश्य के अनुसार शोधकार्य तथा संस्कृत-वाङ्मय के प्राचीन दुरूह ग्रन्थों (महाभाष्य निरुक्त पूर्वमीमांसा) का अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। १ मार्च १९६३ से अन्य सेब कार्य छोड़कर एकमात्र . इसी कार्य में संलग्न हो गया तब से सन् १९६६ तक अनेक ग्रन्थ लिखे, वा प्राचीन ग्रन्थों के सम्पादन वा प्रकाशन का कार्य किया। ... (छ) जुलाई १९६७ से आज तक रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा) में शोधकार्य कर रहा हूं। इस काल में अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को सम्पादित करके प्रकाशित किया है। ..... Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास (ज) रामलाल कपूर ट्रस्ट के कार्य करते हुए मैंने वैदिक आर्षवाङ्मय के प्रकाशन और प्रचार के लिये कई ग्रन्थों का सम्पादन एवं हिन्दी व्याख्या लिखकर (श्री चौ० नारायणसिंह प्रतापसिंह धर्मार्थ ट्रस्ट (करनाल), द्राक्षादेवी प्यारेलाल धर्मार्थ ट्रस्ट (देहली) तथा सावित्रीदेवी बागड़िया धर्मार्थ ट्रस्ट (कलकत्ता) के द्वारा प्रकाशित करवाया। ... सन् १९६१ से आजतक लिखे गये शोध ग्रन्थों और सम्पादित ग्रन्थों का वर्णन आगे किया जायेगा। विशिष्ट शोधपूर्ण लेख . मेरे संस्कृत-वाङ्मय, विशेषकर वेद और व्याकरणविषय में जो शोधपूर्ण अनेक लेख संस्कृत और हिन्दी में प्रकाशित हुये, उनमें से कतिपय विशिष्ट लेख इस प्रकार हैं - संस्कृतभाषा में निबद्ध लेख १. मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् --इत्यत्र कश्चिदभिनवो विचारः । इस निवन्ध में 'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्' इस सूत्र पर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सर्वथा नये रूप में विचार किया है। वेदवाणी (वाराणसी) मासिक पत्रिका में यह लेख छपा था। सन् १९५२ २. वैदिकछन्दः-संकलनम्-इस लेख में निदानसूत्र, उपनिदानसूत्र, पिङ्गल छन्दःशास्त्र, ऋक्प्रातिशाख्य, ऋक्सर्वानुक्रमणी आदि ग्रन्थों में वैदिक छन्दःसम्बन्धी जितने भेद-प्रभेद दर्शाये हैं, उन सब का संकलन किया है । यह लेख 'सारस्वती-सुषमा' (वाराणसी) वर्ष ६ अङ्क १,२ में प्रकाशित हुआ। . सन १९५४ ३. ऋग्वेदस्य ऋक्संख्या-ऋग्वेद की ऋग्गणना सम्बन्धी मतभेदों का विवेचन यह 'सारस्वती-सुषमा' (वाराणसी) वर्ष ६ प्रक ३, ४; वर्ष १० अङ्क १-४ में छपा है। सन् १९५५ ____४. यजुषां शौक्ल्यकाjविवेकः-इस लेख में यजुर्वेदसम्बन्धी शुक्लकृष्ण भेदों की मीमांसा की है। यह सारस्वती-सुषमा (वाराणसी) वर्ष ११ अंक १-२ में छपा है। सन् १९५६ ५. काशकृत्स्नीयो धातुपाठः-इसमें कन्नड लिपि में कन्नडटीका Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-परिचय सहित प्रकाशित काशकृत्स्न धातुपाठ का परिचय दिया है। यह 'संस्कृत रत्नाकर' (देहली) पत्रिका के वर्ष १७ अंक १२ में छपा है । ६. अष्टाध्याय्या अर्धजरतीया व्याख्या--इसमें अर्वाचीन वैयाकरणों द्वारा की गई अष्टाध्यायी की व्याख्या की आलोचना की है। 'सारस्वती-सुषमा' (वाराणसी) भाद्र संवत् २०१७। सन् १९६० ____७. भारतीय भाषाविज्ञानम्-भाषाविज्ञान के सम्बन्ध में भारतीय मत की विवेचना । यह लेख बड़ौदा की 'संस्कृत-विद्वत्सभा' में अगस्त १९६० में पढ़ा गया। 'गुरुकुल पत्रिका' के मई, जून, जुलाई के अङ्गों में प्रकाशित ।। सन् १९६१ ८. प्राविभाषायां प्रयुज्यमानानाम् अपाणिनीयप्रयोगाणां साधुत्वविवेचनम्-इस लेख में संस्कृतभाषा के प्राचीन आर्ष ग्रन्थों में प्रयुज्यअपाणिनीय पदों के साधुत्व की विवेचना की है । 'वेदवाणी' (वाराणसी) वर्ष १४ अंक १,२,४,५ में प्रकाशित। सन् १९६१-६२ ६. वेदानां महत्त्वं तत्प्रचारोपायाश्च-यह लेख राजस्थान संस्कृत सम्मेलन (सन् १९६६) के भीलवाड़ा (राज.) के अधिवेशन के अवसर पर वेद-परिषद के सभापति-भाषण के रूप में पढ़ा था (सम्मेलन द्वारा मुद्रापित)। यह लेख गुरुकूल-पत्रिका के अंकों में और संस्कृत-रत्नाकर में भी प्रकाशित हुआ। सन् १९६६ १०. संस्कृतभाषाया राष्ट्रभाषात्वम्-यह लेख 'राजस्थान संस्कृत सम्मेलन' के भीलवाड़ा. अधिवेशन. (सन् १९६६) के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका में छपा है । यह अगस्त सितम्बर अक्टूबर सन् १९६६ की 'गुरुकुल पत्रिका' में भी छपा है। सन् १९६६ ११. प्रसाधुत्वेनाभिमतानां संस्कृतवाङमये प्रयुक्तानां शब्दानां साधुत्वासाधुत्वविवेचनम्-यह लेख 'अखिल भारतवर्षीय संस्कृतसाहित्य सम्मेलन' के अक्टूबर १९६६ के देहली अधिवेशन में पढ़ा गया था। यह अप्रेल मई १९६७ को 'गुरुकुल-पत्रिका' में छपा है। १२. श्रीमद्भगवद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिनो वेदभाष्यस्य वैशिष्टयम-यह लेख 'आर्यप्रतिनिधि सभा राजस्थान की हीरक जयन्ती के अवसर पर 'वेद-सम्मेलन' अजमेर (नवम्बर १९६६) में पढ़ा था। यह 'गुरुकूल-पत्रिका' के जनवरी फरवरी के अंक में छपा है। १९६७ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास पित। १३. वेदसम्मेलनस्याध्यक्षीय भाषणम् -'राजस्थान संस्कृत परिषद्' के अजमेर नगर में १६-१८ मार्च १९७५ में हुए द्वितीय अधिवेशन में वेद-सम्मेलन के अध्यक्ष का भाषण । परिषद् द्वारा मुद्रा । सन् १९७५ हिन्दी में निबद्ध लेख-. . १. महाभाष्य से प्राचीन अष्टाध्यायी को सूत्रवृत्तियों का स्वरूप । 'प्रोरियण्टल मेगजीन' (लाहौर) में छपा। सन् १९३६ २. वेद के अनक्रमणीसंज्ञक ग्रन्थ और तत्प्रतिपादित ऋषि-देवताछन्दों पर विचार-'दयानन्द-सन्देश' (देहलो) में छपा । सन् १९३६ ३. ऋग्वेद की ऋक्संख्या--प्रथमवार, 'वैदिकधर्म' (औंध--जि० सातारा) में छपा। सन् १९४४ • परिष्कृत संस्करण 'सरस्वती' (प्रयाग)में छपा। सन् १९५० ४. महाभाष्य के टीकाकार प्राचार्य भर्तृहरि--'जर्नल ऑफ दि यूनाइटेड प्रोवेंसिस् हिस्टोरिकल सोसाइटी' (लखनऊ) सन् १९४८ ___५. सामस्वराङ्कनप्रकार--सामवेद को मन्त्रसंहिता और उसके पदपाठ में प्रयुक्त स्वराङ्कन प्रकार की सोदाहरण व्याख्या। 'वेदवाणी' (वाराणसी) सन् १९४६ ६. संस्कृत-व्याकरण का संक्षिप्त परिचय- 'कल्याण' पत्रिका (गोरखपुर) के 'हिन्दू-संस्कृति अंक में छपा। सन् १९५० ७. प्राचार्य पाणिनि के समय विद्यमान संस्कृत वाङमय'सरस्वती' (प्रयाग) सन् १९५० ८. ऋग्वेद की कतिपय दानस्तुतियों पर विचार--'वेदवाणी' (वाराणसी).... सन् १९५२ ६. दुष्कृताय चरकाचार्यम्-मन्त्र पर विचार--'वेदवाणी' (वाराणसी) सन् १९५२ १०. दशमे मासि सूतवे-मन्त्र पर विचार-यह 'कल्याण' पत्रिका (गोरखपुर) के बालक मंक'.. सन् १९५३ ११. भारतीय संस्कृति में नारी-'सम्मेलन पत्रिका' (प्रयाग) ..... . .. . सन् १९५३. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्म-परिचय १७ १२. वेध प्रतिपादित प्रात्मा का शरीर में स्थान--'वेदवाणी' (वाराणसी) सन् १९५३ (परिष्कृत संस्करण, 'सरस्वती', प्रयाग) सन् १९५५ १३. वेदार्थ को विविध प्रक्रियाओं का ऐतिहासिक अनुशीलन'वेदवाणी' (वाराणसी) सन् १९५४ ___१४. जनेन्द्र व्याकरण और उसके खिल-पाठ-'काशी ज्ञानपीठ' द्वारा प्रकाशित जैनेन्द्र-महावृत्ति के प्रारम्भ में मुद्रित । सन् १९५६ १५. मूल पाणिनीय शिक्षा-इसमें पाणिनीय शिक्षा के विविध पाठों की विवेचना करके सूत्रात्मक शिक्षा के प्रामाण्य का प्रतिपादन किया है । 'साहित्य' पत्रिका (पटना)। सन् १९५६ १६. काशकृत्स्न व्याकरण और उसके उपलब्ध सूत्र-चन्नवीर कवि कृत कोशकृत्स्न धातुपाठ की कन्नड टीका के आधार पर काशकृत्स्न व्याकरण का परिचय तथा उसमें उद्धृत १३५ सूत्रों की व्याख्या सहित । 'साहित्य' (पटना)। सन् १९६०६१ संस्कृत ग्रन्थों का सम्पादन १. निरुक्त-समुच्चयः-वररुचिकृत यह नरुक्त सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है। निरुक्त-टीकाकार स्कन्दस्वामी ने इसे बहुत स्थानों पर उद्धृत किया है । इसके एकमात्र अशुद्धि-बहुल व त्रुटित हस्तलेख से सम्पादन कार्य किया है । 'प्रोरियण्टल मेगजीन' (लाहौर) में प्रथमवार प्रकाशित हुआ। सन् १९३८ द्वितीय संस्करण सन् १९६५ तृतीय संस्करण सन् १९८३ ": २, भागवृत्ति-संकलनम्-अष्टाध्यायी की अति प्राचीन विलुप्त भागवृत्ति नाम्नी वृत्ति के शतशः पाठ प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं । मुद्रित तथा लिखित लगभग २०० ग्रन्थों का पारायण करके इस वृत्ति के पाठों का संकलन करके टिप्पणियों के सहित प्रकाशित किया है। प्रथम संस्करण 'मोरियण्टल मेमजीन', (लाहौर) सन् १९४० .. परिष्कृत , . (सारस्वती सुषमा, काशी) सन् १९५४ .... परिवर्धित , (पुस्तकरूप में) ... ... सन् १९६५ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ३. दशपाधुणादिवृत्तिः-पाणिनीय व्याकरण सम्प्रदाय में यह वृत्ति अत्यन्त प्रामाणिक मानी जातो है। परन्तु इसके हस्तलेख अति दुर्लभ हो गये हैं। अत्यन्त प्रयास से इसके विविध स्थानों से अनेक हस्तलेख उपलब्ध करके शतशः अन्य ग्रन्थों के साहाय्य से इस वृत्ति का सम्पादन किया है। आरम्भ में ५५ पृष्ठों में संस्कृतभाषा में उणादिसूत्र और उनकी वत्तियों का इतिहास लिखा है। यह वृत्ति राजकीय संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी (वर्तमान संस्कृत विश्वविद्यालय) की सरस्वती-भवन ग्रन्थावली में प्रकाशित हुई है। सन् १९४२ ४. शिक्षा-सूत्राणि-आचार्य प्रापिशलि, पाणिनि और चन्द्रगोमी के मूलभूत शिक्षासूत्रों का सम्पादन तथा प्रकाशन। सन् १९४६ परिष्कृत वा परिवर्धित संस्करण। सन् १९६७ ५. क्षीर-तरङ्गिणी-पाणिनीय धातुपाठ के प्रौदीच्य पाठ पर क्षीर-स्वामी विरचित क्षीर-तरङ्गिणी नाम्नी सबसे प्राचीन व्याख्या का सम्पादन । इसमें लगभग ७०० महत्त्वपूर्ण टिप्पणियों में अनेक विषयों का स्पष्टीकरण किया है। प्रारम्भ में संस्कृत में ४० पृष्ठों में पाणिनीय धातुपाठ और उनके व्याख्या ग्रन्थों का इतिहास लिखा है। (रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित)। सन १९५८ ६. देवं पुरुषकारवात्तिकोपेतम् -पाणिनीय धातुपाठ पर प्राचीन अतिप्रामाणिक ग्रन्थ का विविध प्रकार की लगभग ६५० टिप्पणियों के साथ सम्पादन तथा प्रकाशन । सन १९६२ ७. काशकृत्स्न-धातुपाठ-की चन्नवीर कविकृत कन्नड टीका का संस्कृत रूपान्तर तथा सम्पादन । उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कृत। सन् १९६५ ८. काशकृत्स्न-व्याकरणम्-काशकृत्स्न-व्याकरण का परिचय, तथा उपलब्ध १३५ सूत्रों की संस्कृत में व्याख्या। सन १९६५ ___. माध्यन्दिन-पदपाठ-वि० संवत् १४७१ के विशिष्ट हस्तलेख तथा अन्य विविध मुद्रित वा हस्तलिखित ग्रन्थों के आधार पर आदर्श संस्करण का सम्पादन । इस कार्य पर राजस्थान सरकार ने ३ वर्ष तक १५०-०० डेढ़ सौ रुपया मासिक सहायता दी है। उत्तरप्रदेश शासन से पुरस्कृत। सन् १९७१ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रात्म-परिचय १६ १०. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका - स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत ग्रन्थ के सटिप्पण संस्करण का सम्पादन । सन १९६७ ११. ऋग्वेद भाष्यम् – स्वामी दयानन्द कृत ऋग्वेदभाष्य का सम्पादन, सहस्रों टिप्पणियों एवं १०-१२ प्रकार के परिशिष्टों के सहित । भाग १-२-३ प्रकाशित तीनों भाग उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कृत । सन १६७२-७६ १२. उणादि - कोष – स्वामी दयानन्द सरस्वती विरचित पञ्चपांदी उणादिपाठ की उणादिकोष नाम्नी व्याख्या का सम्पादन 1 सन १६७४ १३. महाभाष्य ( हिन्दी व्याख्या) - पतञ्जलि मुनि विरचित महाभाष्य की हिन्दी व्याख्या | भाग १ - २-३ मुद्रित । द्वितीय तथा तृतीय भाग उत्तरप्रदेश राज्य से पुरस्कृत । सन १९७२-७६ १४. मीमांसा - शाबर भाष्य हिन्दी व्याख्या - जैमिनिमुनि प्रोक्त मीमांसा शास्त्र पर सबसे प्राचीन भाष्य शबर स्वामी का है । इस पर श्रार्षमतविर्माशिनी नाम्नो हिन्दी व्याख्या लिखी जा रही है। अभी तक ४ भाग छपे हैं। इनमें मीमांसा के ५ अध्यायों की व्याख्या है | सन १६७७-८४ १५. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन - प्रस्तुत तृतीय संस्करण में दो भागों में ऋ० द० के पत्रों और विज्ञापनों का संग्रह है और तृतीय चतुर्थ भाग में ऋ० द० के प्रति अन्य व्यक्तियों द्वारा लिखित पत्रों और विज्ञापनों का संग्रह किया है । द्वितीय और चतुर्थभाग के अन्त में पत्रों से सम्बद्ध अनेक परिशिष्ट जोड़ े गये हैं । सन् १६८१-१६८३ मौलिक शोध-पूर्ण ग्रन्थ १. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास ( भाग १ ) – इस ग्रन्थ में पाणिनि से प्राचीन तेईस वैयाकरणों का इतिवृत्त, उनमें अनेक श्राचार्यों के उपलब्ध सूत्रों का संकलन, पाणिनि और उसके व्याकरण पर टीका-टिप्पणी लिखनेवाले लगभग १६० श्राचार्यों, तथा पाणिनि से उत्तरवर्त्ती १८ प्रमुख व्याकरण - प्रवक्ताओं, और उनके लगभग १०० व्याख्याताओं का इतिहास लिखा गया है । न केवल राष्ट्रभाषा हिन्दी, Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास में, अपितु संसार की किसी भी भाषा में संस्कृत व्याकरण-शास्त्र के . इतिहास पर इतना विस्तृत ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ। प्रथम संस्करण (उत्तरप्रदेश सरकार से पुरस्कृत) सन १९५१ द्वितीय परिवर्धित संस्करण (१५० पृष्ठ बढ़े) सन १९६३ तृतीय , , (५० पृष्ठ बढ़े) सन १९७३ चतुर्थ , , (८४ पृष्ठ बढ़) सन १९८४ २. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास (भाग २)-इसमें व्याकरणशास्त्र के परिशिष्टरूप धातुपाठ उणादिसूत्र लिङ्गानुशासन परिभाषापाठ और फिटसूत्रों के प्रवक्ताओं और व्याख्यातायो का इतिवृत लिखा गया है । अन्त में प्रातिशाख्यों के प्रवक्ता और व्याख्याता, व्याकरण शास्त्र के दार्शनिक ग्रन्थकार तथा व्याकरणप्रधान लक्ष्यात्मक काव्यग्रन्थों के रचयिताओं का इतिहास भी दे दिया है। प्रथम संस्करण सन् १९६२ द्वितीय परिवधित संस्करण (५८ पृष्ठ बढ़े) सन् १९७३ तृतीय , , (३३ पृष्ठ बढ़े) सन् १९८४ ३. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास (भाग ३)-इसमें अवशिष्ट विषय तथा अनेक परिशिष्ट तथा सूचियां आदि दी हैं। प्रथम संस्करण सन् १९७३ परिवर्धित संस्करण (१०८ पृष्ठ बढ़े) सन् १९८५ ४. वैदिक-स्वर-मीमांसा-इसमें वैदिक ग्रन्थों में प्रयुक्त उदात्त अनुदात्त स्वरित आदि स्वरों का वाक्यार्थ के साथ क्या संबन्ध है, स्वर-परिवर्तन से अर्थ में किस प्रकार परिवर्तन होता है, स्वर-शास्त्र की उपेक्षा से वेदार्थ में कैसी भयंकर भूलें होती हैं, इत्यादि अनेक विषयों का सोपपत्तिक सोदाहरण प्रतिपादन किया है । अन्त में वैदिक उदात्तादि स्वरों के विभिन्न प्रकार के संकेतों स्वरचिह्नों की सोदाहरण व्याख्या की है। परिशिष्ट में मन्त्र-संहिता पाठ से पदपाठ में परिवर्तन के नियमों की सोदाहरण विवेचना की है। द्वितीय संस्करण में पाणिनीय व्याकरण के अनुसार स्वर विषय का संक्षेप से ज्ञान कराने के लिये स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत 'सौवर' ग्रन्थ भी अन्त में जोड़ दिया है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-परिचय २१ . प्रथम संस्करण (उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कृत) सन् १९५८ । द्वितीय , (इसमें लगभग ७०-८० पृष्ठ बढ़े हैं) सन् १९६३ । तृतीय , सन् १९८५ ५. वैदिक-छन्दोमीमांसा-इसमें वैदिक वाङ्मय से सम्बन्ध रखनेवाले ५-६ उपलब्ध छन्दःशास्त्रों के अनुसार सभी छन्दों के भेद-प्रभेदों के लक्षण और उदाहरण दर्शाये हैं। साथ में छन्दोज्ञान की वेदार्थ में उपयोगिता, छन्दःपरिवर्तन के कारण, और छन्दःशास्त्र का संक्षिप्त इतिहास आदि अनेक विषयों का समावेश किया है। वैदिक-छन्द:सम्बन्धी इतनी विशद विवेचना किसी भी भाषा के ग्रन्थ में नहीं की गई है। प्रथम संस्करण (उत्तरप्रदेश सरकार से पुरस्कृत) सन् १९६० । द्वितीय परिवर्धित संस्करण (२० पृष्ठ बढ़) सन् १९७६ । ६. ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का इतिहास - इस ग्रन्थ में स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रत्येक ग्रन्थ का विशद इतिहास दिया है। उनके ग्रन्थों की पाण्डुलिपियों और उस समय तक अमुद्रित ग्रन्थों का विस्तृत विवरण दिया है। अनेक परिशिष्टों में विविध प्रकार की प्राचीन उपयोगो ऐतिहासिक सामग्री का संकलन किया है। : . प्रथम संस्करण . . सन् १९५० द्वितीय परिष्कृत तथा परिवर्धित सं० (१३२ पृष्ठ बढ़े)सन् १९८३ ७. ऋग्वेद की ऋक्संख्या (हिन्दी तथा संस्कृत)-ऋग्वेद की ऋक्संख्या के विषय में प्राचीन और अर्वाचीन विद्वानों में अत्यन्त मतभेद है । इस निबन्ध में सभी लेखकों की दी गई ऋक्संख्या की विवेचना और उनको गणना-सम्बन्धी भूलों का निदर्शन कराते हुये वास्तविक ऋग्गणना दर्शाई है। कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। अप्रकाशित ग्रन्थ ८. छन्दःशास्त्र का इतिहास । ९. शिक्षा-शास्त्र का इतिहास । १०. निरुक्त शास्त्र का इतिहास । इन ग्रन्थों की सामग्री का संकलन तो बहुत वर्ष पूर्व कर चुका Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास था, परन्तु कार्याधिक्य से लिख न सका । अब स्वस्थ्य अत्यन्त गिर जाने से इनका प्रकाशन सम्भव नहीं। विशिष्ट सम्मान एवं पुरस्कार पूर्व लिखित लगभग ५० वर्ष के संस्कृत भाषा के अध्यापन तथा उसमें किये गये विविध शोधकार्य के लिये जो विशिष्ट सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए वे इस प्रकार हैं विशिष्ट सम्मान १-राजस्थान राज्य के संस्कृत विभाग ने वेद और व्याकरण शास्त्र सम्बन्धी शोधकार्य पर ३०००-०० रुपया देकर सम्मानित किया । सन् १९६३ २-भारत के राष्ट्रपति ने संस्कृत भाषा की उन्नति और विस्तार तथा साहित्यिक सेवा के लिये सम्मानित किया । सन् १९७७ (राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित व्यक्ति को सरकार सम्प्रति ५००० रु० वार्षिक सहायता देती है।) ३-उत्तर प्रदेश शासन ने व्याकरण शास्त्र सम्बन्धी विशिष्ट सेवा के लिये १५००००० का विशिष्ट पुरस्कार दिया । नव० १९७६ ग्रन्थों पर पुरस्कार-उत्तर प्रदेश शासन द्वारा १. सं० व्या० शास्त्र का इ० भाग १ पर ६००.०० सन् १९५२ २. वैदिक स्वर-मीमांसा पर ७००.०० सन् १९५६ ३. वैदिक छन्दोमीमांसा पर ५००.०० सन् १९६१ ४. काशकृत्स्नधातुव्याख्यानम् पर ५००-०० सन् १९७२ ५. माध्यन्दिन-पदपाठ पर ५००.०० सन् १९७३ ६. महाभाष्य-हिन्दी व्याख्या, भाग २ पर ५००.०० सन् १९७४ ७. ऋग्वेदभाष्य (स्वा० द०स०)भाग१पर २५००.०० सन् १९७५ ८. ऋग्वेदभाष्य , , भाग २-३ पर ३०००-०० सन् १९७६ ६. महाभाष्य-हिन्दी व्याख्या, भाग ३ पर ३०००-०० सन् १९७६ (इस के पश्चात् उ० प्र० सरकार के उत्तर प्रदेशीय लेखकों तक यह पुरस्कार सीमित कर देने से अगले ग्रन्थों पर प्राप्त नहीं हो सका । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-परिचय २३ विशिष्ट संस्थाओं द्वारा सम्मान१. आर्यसमाज (बड़ा बाजार) पानीपत द्वारा ११०१-००. सन् १९७५ २. गङ्गाप्रसाद उपाध्याय स्मारक समिति द्वारा 'वैदिक सिद्धान्त मीमांसा' पर गङ्गाप्रसाद उपाध्याय पुरस्कार . १२००००० ३. दयानन्द बलिदान (निर्वाण) शताब्दी के अवसर पर परोपकारिणी सभा अजमेर द्वारा १०००-०० सन् १९८३ ४. श्री घुड़मल आर्य धर्मार्थ ट्रस्ट (हिण्डौन सिटी) द्वारा 'मीमांसा शाबर भाष्य' की हिन्दी व्याख्या पर, १२०१-०० सन् १९८४ ५. आर्यसमाज (बड़ा बाजार) पानीपत की स्थापना शताब्दी के अवसर पर १५००.०० सन् १९८४ शोषकार्य के लिये विशिष्ट सहायता-राज्यस्थान राज्य के संस्कृत शिक्षा विभाग द्वारा माध्यन्दिन पदपाठ पर ३ वर्ष तक १५०.०० मासिक सहायता । सन् १९६५-१६६७ . रामलाल कपूर ट्रस्ट विदुषां वशंवदःबहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा) युधिष्ठिर मीमांसक Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित वा प्रसारित प्रामाणिक ग्रन्थ १. ऋग्वेदभाष्य ( संस्कृत हिन्दी वा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका सहित).-प्रतिभाग सहस्राधिक टिप्पणियां, १०-११ प्रकार के परिशिष्ट व सूचियां प्रथम भाग ३५-००, द्वितीय भाग ३०-००, तृतीय भाग ३५-००। २. यजुर्वेदभाष्य-विवरण-ऋषि दयानन्दकृत भाष्य पर पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु कृत विवरण । प्रथम भाग १०० रुपये है । द्वितीय भाग मूल्य ४०.०० रुपये। ... ३. तैत्तिरीय-संहिता-मूलमात्र, मन्त्र-सूची सहित। ४०.०० ४. तैत्तिरीय संहिता-पदपाठ-७० वर्ष पूर्व छपा दुर्लभ ग्रन्थ पुनः छापा है। मूल्य ८०.०० ५. अथर्ववेदभाष्य-श्री पं० विश्वनाथ जी वेदोपाध्याय कृत । ११-१३वां काण्ड ३०-००; १४-१७ वां काण्ड २४-००; १५-१६वां काण्ड २०-००; बीसवों काण्ड २०-००। ६. ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका-पं० युधिष्ठिर. मीमांसक द्वारा सम्पादित एवं शतशः टिप्पणियों से युक्त । साधारण जिल्द २५-००, - पूरे कपड़े की ३०-००, सुनहरी ३५-०० । ७. माध्यन्दिन (यजुर्वेद) पदपाठ - शुद्ध संस्करण। २५-०० ८. गोपथ ब्राह्मण (मूल) -सम्पादक श्री डा० विजयपाल जी विद्यावारिवि । सबसे अधिक शुद्ध और सुन्दर संस्करण । मूल्य ४०-०० ___E. कात्यायनीय ऋक्सर्वानुक्रमणी-( ऋग्वेदीया ) षड्गुरुशिष्य विरचित संस्कृत टीका सहित । टीका का पूरा पाठ प्रथम बार छापा गया है । विस्तृत भूमिका और अनेक परिशिष्टों से युक्त । १००-०० १०. ऋग्वेदानुक्रमणी-वेङ्कट माधवकृत । व्याख्याकार-डा. विजयपाल विद्यावारिधि । उत्तम-संस्करण ३०-००; साधारण २०-०० ११. ऋग्वेद की ऋक्संख्या-युधिष्ठिर मीमांसक मूल्य २-०० १२. वेद संज्ञा-मीमांसा-युधिष्ठिर मीमांसक १३. वैदिक छन्दो-मीमांसा-यु० मी० नया संस्करण २०.०० १४. वैदिक-स्वर-मीमांसा-यु० मी० (नया सं०) २०.०० १-०० Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. वैदिक-साहित्य-सौदामिनो-श्री पं० वागीश्वर जी वेदालंकार 'काव्य प्रकाश' आदि के ढंग पर वैदिक-साहित्य पर यह महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय विवेचनात्मक ग्रन्थ लिखा है। मूल्य ४०-०० १६. देवापि और शन्तनु के पाख्यान का वास्तविक स्वरूपलेखक-श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु। मूल्य २-०० १७. वेद और निरुक्त-श्री पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु । मूल्य २-०० १८. निरुक्तकार ग्रोर वेद में इतिहास-,, मूल्य २.०० १६. त्वाष्ट्री सरण्य की वैदिक कथा का वास्तविक स्वरूपलेखक-श्री पं० धर्मदेव जी निरुक्ताचार्य। मूल्य २-०० २०. शिवशङ्करीय-लघुग्रन्थ पञ्चक-इसमें श्री पं० शिवशङ्कर जी काव्यतीर्थ लिखित वेदविषयक चतुर्दश-भुवन, वसिष्ठ-नन्दिनी, वैदिक-विज्ञान, वैदिक-सिद्धान्त और ईश्वरीय पुस्तक कौन ? ६-०० २१. यजुर्वेद का स्वाध्याय तथा पशुयज्ञ समीक्षा-ले०पं० विश्वनाथ जी वेदोपाध्याय । बढ़िया जिल्द २०-००, साधारण १६-०० । २२. वैदिक-पीयूष धारा-लेखक-श्री देवेन्द्रकुमार कपूर । चुने हुए ५० मन्त्रों की प्रतिमन्त्र पदार्थ पूर्वक विस्तृत व्याख्या, अन्त में भावपूर्ण गीतों से युक्त । उत्तम जिल्द १५-००; साधारण १०.०० । २३. उरु-ज्योति-श्री वासुदेवशरण अग्रवाल लिखित वेदविषयक स्वाध्याययोग्य ग्रन्थ । सुन्दर छपाई पक्की जिल्द १६-०० २४. वेदों की प्रामाणिकता-डा० श्रीनिवास शास्त्री। १-५० २५. ANTHOLOGY OF VEDIC HYMNSSwami Bhumananda Sarasvati. ५०.०० २६. बौधायन-श्रोत-सूत्रम्-(दर्शपूर्णमास प्रकरण)- भवस्वामी तथा सायण कृत भाष्यसहित (संस्कृत)। ४०-०० २७. दर्शपूर्णमास-पद्धति-पं० भीमसेन कृत,भाषार्थ सहित २५-०० २८. कात्यायन-गृह्यसूत्रम्-(मूल मात्र) अनेक हस्तलेखों के आधार पर हमने उसे प्रथम बार छापा है। २०-०० २६. श्रौतपदार्थ-निर्वचनम्-(संस्कृत) अन्न्याधान से अग्निष्टोम पर्यन्त प्राध्वर्यव पदार्थों का विवरणात्मक ग्रन्थ । सजिल्द ४००० ३०. संस्कार-विधि-शताब्दी संस्करण, ४६० पृष्ठ, सहस्राधिक टिप्पणियां, १२ परिशिष्ट । मूल्य लागतमात्र १५-००, राज-संस्करण २०.०० । सस्ता संस्करण मूल्य ५-२५, अच्छा कागज सजिल्द ७-५० ट । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त श्रोत यज्ञों का संक्षिप्त परिचय- इस याग में अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, सुपर्णचिति सहित सोमयाग, चातुर्मास्य और वाजपेय याग का वर्णन है। १०.०० ३२. संस्कार-विधि-मण्डनम-संस्कार-विधि की व्याख्या। ले०वैद्य श्री रामगोपाल जी शास्त्री। अजिल्द १०-००; सजिल्द १४-०० ३३. वैदिक-नित्यकर्म-विधि-सन्ध्यादि पांचों महायज्ञ तथा बृहद् हवन के मन्त्रों की पदार्थ तथा भावार्थ व्याख्या सहित । सजिल्द ५-०० ३४. वैदिक-नित्यकर्म-विधि-(मूलमात्र) सन्ध्या तथा स्वस्तिवाचनादि बहद् हवन के मन्त्रों सहित। मूल्य १-०० ३५. पञ्चमहायज्ञ-प्रदीप-श्री पं० मदनमोहन विद्यासागर ५-०० ३६. हवनमन्त्र-स्वस्तिवाचानादि सहित । ०-५० ३७. वर्णोच्चारण-शिक्षा-ऋ० द० कृत हिन्दी व्याख्या ०-६० ३८. शिक्षासूत्राणि-प्रापिशल-पाणिनीय-चान्द्र शिक्षा-सूत्र । ६-०० ३९. शिक्षाशास्त्रम्-(संस्कृत) जगदीशाचार्य। ७-५० ४०. अरबी-शिक्षाशास्त्रम्- , ४१. निरुक्त-श्लोकवात्तिकम्- नीलकण्ठ गार्य विरचित । सम्पादक-डा० विजयपाल विद्यावारिधि। मूल्य १००-०० ४२. निरुक्त-समुच्चय-आचार्य वररुचि विरचित (संस्कृत)। सं०-युधिष्ठिर मीमांसक। मूल्य १५-०० ४३. अष्टाध्यायी-(मूल) शुद्ध संस्करण । ३-५० ४४. अष्टाध्यायी-भाष्य- (संस्कृत तथा हिन्दी) श्री पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु कृत। भाग I ३०-००, भाग II २५-००, भाग III ३०-०० ४५. धातुपाठ-धात्वादिसूची सहित, सुन्दर शुद्ध संस्करण ३-०० ४६. वामनीयं लिङ्गानुशासनम् - स्वोपज्ञ व्याख्यासहितम् ८-०० ...,४७. संस्कृत पठन-पाठन की अनुभूत सरलतम विधि-लेखकश्री पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु । भाग 1 १०-००, भाग II १०-०० । ys. The Tested Easiest Method Learning and Teaching Sanskrit (First Book)-यह पुस्तक श्री पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु कृत 'विना रटे संस्कृत पठन-पाठन को अनुभूत सरलतम विधि' भाग एक का अंग्रेजी अनुवाद है। २५-०० ४६. महाभाष्य-हिन्दी व्याख्या (द्वितीय अध्याय पर्यन्त) पं० यु० मी० । भाग I ५०.००, भाग II २५-००, भाग III २५-०० ५०. उणादिकोष-ऋ० द० स० कृत व्याख्या, तथा पं० यु० मो० कुत टिप्पणियों, एवं ११ सूचियों सहित । सजिल्द १२-०० Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. दैवम् पुरुषकारवात्तिकोपेतम्-लीलाशक मुनि कृत १०.०० ५२. काशकृत्स्न-धातु व्याख्यानम्-संस्कृत रूपान्तर। १५.०० ५३. शब्दरूपावली-विना रटे रूपों का ज्ञान करानेवाली ३-०० • ५४. संस्कृत-धातुकोश-धातुओं का हिन्दी में अर्थ । १०-०० ५५. अष्टाध्यायीशुक्लयजुःप्रातिशाख्ययोर्मतविमर्श:-डा. विजयपाल विरचित पी० एच० डी० का महत्त्वपूर्ण शोध-प्रबन्ध । ५०-०० ५६. ईश-केन-कठ-उपनिषद्-वैद्य रामगोपाल शास्त्री कृत हिन्दी अंग्रेजी व्याख्या । मूल्य–ईशो० १-५०; केनो० १-५०; कठो० ३-५० ५७. तत्त्वमसि-श्री स्वामी विद्यानन्द जी सरस्वती मूल्य ४०-०० ५८. ध्यानयोग-प्रकाश-स्वामी लक्ष्मणानन्द कृत । मूल्य १६.०० ५६. प्रार्याभिविनय (हिन्दी)-स्वामी दयानन्द । सजिल्द ४०० ६०. Aryabhivinaya-English translation and notes (स्वामी भूमानन्द) दोरङ्गी छपाई। ४-००, सजिल्द ६-०० ६१. विष्ण-सहस्रनाम स्तोत्रम- (सत्यभाष्य सहितम)-सत्यदेव वासिष्ठ कृत वैदिक भाष्य (४ भाग)। प्रति भाग १५-०० ६२. श्रीमद्भगवद्-गीता-भाष्यम-पं० तुलसीराम स्वामी ६-०० ६३. अगम्यपन्थ के यात्री को प्रात्मदर्शन-चंचल बहिन । ३-०० ६४. शुक्रनीतिसार-व्याख्याकार श्री स्वा० जगदीश्वरानन्द जी सरस्वती। विस्तृत विषय-सूची तथा श्लोक-सूची सहित । मूल्य ४५-०० ६५. विदुर-नीति-युधिष्ठिर मीमांसक कृत प्रतिपद पदार्थ और व्याख्या सहित । बढ़िया कागज, पक्की सुन्दर जिल्द । मूल्य ३६-०० ६६. सत्याग्रह-नीति-काव्य-आ० स० सत्याग्रह के समय जेल में पं० सत्यदेव वासिष्ठ द्वारा विरचित । हिन्दी व्याख्या। मूल्य ५-००. ६७. संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास-युधिष्ठिर मीमांसक कृत नया परिष्कृत परिवर्धित संस्करण । तीनों भागों का मूल्य १२५.०० ६८. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन-इस बार इसमें ऋषि दयानन्द के अनेक नये उपलब्ध पत्र और विज्ञापन संगहीत किये गये हैं। इस बार यह संग्रह चार भागों में छपा है। प्रथम दो भागों में ऋ० द० के पत्र और विज्ञापन प्रादि संगृहीत है। तीसरे और चौथे भाग में विविध व्यक्तियों द्वारा ऋ० द० को भेजे गये पत्रों का संग्रह है। प्रत्येक भाग-३५-०० । पूरा सेट १४०-०० । ६६. विरजानन्द-प्रकाश-लेखक-पं० भीमसेन शास्त्री एम. ए । नया परिवर्धित और शुद्धसंस्करण । मूल्य ३-०० Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०. ऋषि दयानन्द सरस्वती का स्वलिखित और स्वकथित प्रात्म-चरित्र-सम्पादक पं० भगवद्दत्त । मूल्य १-०० ७१. ऋषि दयानन्द और प्रार्यसमाज की संस्कृत-साहित्य की देन-लेखक--डा० भवानीलाल भारतीय एम०ए० । सजिल्द २०.०० ७२. नाडो-तत्त्वदर्शनम्-श्री पं० सत्यदेव जी वासिष्ठ। ३०-०० ___७३. मीमांसा-शाबर-भाष्य -हिन्दी व्याख्या सहित । यु०मी० कृत भाग I ४०.०० भाग II ३०.०० भाग III ५०-०० भाग IV ४०-०० ७४. सत्यार्थप्रकाश - (आर्यसमाज-शताब्दी-संस्करण) -१३परिशिष्ट ३५०० टिप्पणियां तथा सन् १८७५ के प्रथम संस्करण के विशिष्ट उद्धरणों सहित । राजसस्करण ३५-००, साधारण संस्करण ३०.०० ७५. दयानन्दीय लघुग्रंथ-संग्रह -१४ ग्रन्थ, सटिप्पण, अनेक परिशिष्टों के सहित। ३०-०० ७६. भागवत-खण्डनम् - ऋ० द० की प्रथम कृति । अनु०युधिष्ठिर मीमांसक ३-०० ७७. ऋषि दयानंद के शास्त्रार्थ और प्रवचन-इसमें पौराणिक विद्वानों तथा ईसाई मुसलमानों के साथ ऋषि दयानंद के अत्यन्त प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण शास्त्रार्थ दिये गये हैं। अनन्तर पूना में सन १८७५ तथा बम्बई में सन् १८८२ में दिये गये व्याख्यानों का संग्रह है । उत्तम कागज, कपड़े की जिल्द । मूल्य लागत-मात्र ३०.०० ७८. दयानन्द-शास्त्रार्थ-संग्रह-संख्या ७७ के ग्रन्थ से पृथक स्वतन्त्र रूप से छपा है। सं० डा० भवानीलाल भारतीय । सस्ता संस्करण २०.०० ७६. दयानन्द-प्रवचन-मंग्रह - (पूना-बम्बई प्रवचन) । पूर्ववत् स्वतंत्र रूप में छपा है। अनुवादक और सम्पा० पं० युधिष्ठिर मीमांसक । सस्ता संस्करण १०.०० ५०. ऋषि दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थों का इतिहास-लेखकयुधिष्ठिर मोमांसक । नया परिशोधित परिवर्धित संस्करण। ४००० पुस्तक प्राप्ति स्थानरामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ [सोनीपत-हरयाणा] ' रामलाल कपूर एन्ड संस, नई सड़क देहली Page #340 -------------------------------------------------------------------------- _