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पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या
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होने से षत्व होकर दधिष्यति मधुष्यति शुद्ध रूप होना चाहिए । तुलना करो - मधुषा संयोति ( तै० सं० २।४१६ ) | सुगागम के द्वारा सान्त ( षान्त ) प्रकृत्यन्तर के सद्भाव के सामान्य ज्ञापक से अनायास ही शतशः शब्दों के दो-दो स्वतन्त्ररूप ज्ञात हो जाते हैं।' इसी तत्त्व का विपरीत प्रक्रिया से ज्ञापन पाणिनि ५ केतु : क्यङ् सलोपश्च ( ० ३|१|११ ) सूत्रस्थ सलोपो वा वार्तिक से भी होता है । तदनुसार पयस्यते पयायते; यशस्यते, यशायते द्वारा पयस् यशस् सान्तों का सकार रहित पय यश प्रकृत्यन्तर का भी सद्भाव ज्ञात हो जाता है । अतएव चरक (सूत्रस्थान ११।१६ ) का नीरजस्तमा: ( तम अकारान्त का ) प्रयोग भी उपपन्न हो जाता है । इसी प्रकार का कात्यायन का वार्तिक है - नयतेः षुक् च ( श्र० ३ |२| १३५ ) । इस वार्तिक के द्वारा नेष्टा शब्द में 'नी' को ( गुण करके ) बुक् श्रागम का विधान किया है। यह षुगागम का विधान निष् प्रकृत्यन्तर का ज्ञापक है । यह हम पूर्व (भाग ३, पृष्ठ २३ विस्तार से दर्शा चुके हैं ।
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ख - पाणिनि का सूत्र है - कन्यायाः कनीन च । प्र० ४।१।११६ ।। इसका अर्थ किया जाता है - षष्ठी समर्थ ( षष्ठ्यन्त) 'कन्या' से अपत्य अर्थ में 'ण' प्रत्यय होता है, और कन्या को कनीन प्रदेश हो जाता है । कन्या ( कुंवारी) का पुत्र = कानीन ।
शब्द
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यहां पर यह विचारणीय है कि 'कन्या' का 'कानीन' से दूर का २० भी सम्बन्ध नहीं । कन्या से अण् होकर कान्य प्रयोग होना चाहिये अथवा ढक् होकर कान्येय । कानीन की प्रकृति तो 'कनीना' ही हो सकती है ।
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वैज्ञानिक व्याख्या - पाणिनि के उक्त सूत्र सूत्र की वैज्ञानिक व्याख्या होगी - 'कन्या' शब्द से अपत्य अर्थ में 'ण' प्रत्यय होता है, और कन्या के स्थान पर 'कनीन' ( प्रातिपदिकमात्र, स्त्रीत्व - विवक्षा में
१. इस नियम के अनुसार 'अग्निस्' भी स्वतन्त्र शब्द है । इसी सान्त ! शब्द के अपभ्रंश इण्डोयोरोपियन भाषानों में 'इग्निस् ' ' उ निस्' आदि विविध रूप मिलते हैं । इन्हें संस्कृत के सुप्रत्ययान्त 'अग्निस्' का अपभ्रंश मानना चिन्त्य है । क्योंकि इण्डोयोरोपियन भाषाओं के सान्त शब्द प्रातिपदिक के रूप 1 में माना जाता है ।
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