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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
'कनीना') आदेश होता है । अर्यात्-कन्या अर्थवाले कनीना (स्त्रीत्व विशिष्ट) प्रकृति से अपत्य अर्थ में अण् प्रत्यय होता है, ऐसा जानना चाहिये । कन्यावाचक कनीना पद वैदिक साहित्य में बहुत्र उपलब्ध होता है।
ते० प्रा० २२७।६ में कनीना का दूसरा रूप कनीनी भी प्रयुक्त है।' दोनों मध्योदात्त कनीन प्रातिपदिक से स्त्रीलिङ्ग में टाप् और डीप होकर निष्पन्न होते हैं । 'कानीन' शब्द की निष्पत्ति 'कनीनो' शब्द से भी अपत्यार्थ में अण् प्रत्यय होकर हो सकती है।
__कनीना प्रकृति-कल्पना का लाभ-पाणिनि के उक्त सूत्र की १० वैज्ञानिक व्याख्या करने से कन्या अर्थ में जो 'कनीना' प्रकृति का
सद्भाव ज्ञापित होता है, उसके प्रकाश में अवेस्ता के 'हनोमयश्त' ६।२३ का पाठ पढ़िए-ह प्रोमा तास् चित् या कइनीना (संस्कृत -सोमः ताश्चित् याः कनीना") इसमें पठित 'कइनीना' 'कनीना' का
ही अपभ्रंश है, यह स्पष्ट है। कनीना के अज्ञान में इसका सम्बन्ध १५ 'कन्या' से समझा जायेगा, जो कि सर्वथा अयुक्त है । इससे स्पष्ट है
कि वैज्ञानिक व्याख्या द्वारा लुप्त प्रकृतियों का उद्धार करने से भाषाविज्ञानिकों को भाषाओं की पारस्परिक तुलना के लिये एक नई दष्टि
और विस्तृत क्षेत्र उपलब्ध हो जाता है । ___ग-इसी प्रकार का पाणिनि का अन्य सूत्र है-तवकममकावेक२० वचने (प्र० ४।३।३) । इससे एकवचनान्त युष्मद् अस्मद् के स्थान में
खा प्रत्यय के परे तवक-ममक आदेश होते हैं। तव इदं तावकीनम, मम इमामकीनम् । वस्तुतः ये आदेशरूप से उपदिष्ट तवक ममक प्रकृत्यन्तर हैं। ऋग्वेद १॥३५॥११ में मम कस्य, तया ऋ० ११३४।६ में
ममकाय प्रयोग उपलब्ध होते हैं। २५ घ-वातिककार का एक वार्तिक है-हग्रहोर्भश्छन्दसि हस्य । ८ ।
३॥३२॥
___अर्थात्-'ह' और 'ग्रह' (गृह) के हकार को भकार होता है। भरति, गृभ्णाति । यहां प्रयम विचारणीय है-'ह' के 'ह' को 'भ' करने की आवश्यकता ही क्या है ? जब कि स्वतन्त्र 'भू' धातु का धातुपाठ में सर्वसम्मत पाठ उपलब्ध है । यदि कहा जाए कि धातुपाठ
१. इस विषय में प्रथम भाग के १२ वें पृष्ठ पर टि० १ भी देखें।