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पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या
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पठित 'भृ' का हरण अर्थ नहीं है, यह भी कहना तुच्छ है । वैयाकरणों का सर्वसम्मत सिद्धान्त है कि धातुपाठ में लिखित अर्थ उपलक्षणमात्र हैं, धातु बह्वर्थक होते हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार भृ का हरण अर्थ स्वीकार किया जा सकता।
वैज्ञानिक व्याख्या-'ह' के हकार को भकार होकर जो 'भ' रूप ५ होता है, उसका अर्थ वह भी हैं, जो 'हरति' का हैं । इसी प्रकार ग्रह (गृह) के हकार को भकार रूप होकर जो रूप निष्पन्न होता है, वह गृह्णात्यर्थक स्वतन्त्र धातु है।' ___इस प्रकार की व्याख्या करने से 'भ' के हरणरूप अर्थान्तर की प्रतीति होती है और ग्रह (गृह') के वर्ण-परिवर्तन से स्वतन्त्र गृभ १० धातु का परिज्ञान होता है । इस गृभ धातु के प्रयोग वेद में तो उपलब्ध होते ही हैं, यास्क भी गर्भ शब्द का निर्वचन इसी धातु से दर्शाता है
'गर्भो गमे: गणात्यर्थे । निरुक्त १०॥२३॥
अर्थात्-गर्भ 'गृणाति" (शब्द) अर्थ में वर्तमान 'गृभ' धातु से १५ निष्पन्न होता है।
ङ-पाणिनि का समासान्त विधायक एक सूत्र है-राजाहसखिभ्यष्टच । अ० २४६१ ॥
इसका अर्थ है-राजन् प्रहन और सखि शब्द जिसके अन्त में हों, ऐसे तत्पुरुष समास से 'टच' प्रत्यय होता है । टच् प्रत्यय होने पर २० पाणिनीय नियम के अनुसार 'अन्' भाग का लोप होता है, और रूप बनता है-मद्रराजः, काशीराजः; यहः, व्यहः । ___ इस व्याख्या के अनुसार नागराज्ञा (महा० आदि० १६।१३); सर्वराज्ञाम् (आदि० २११०२); काशीराज्ञे (भासनाटकचक्र पृष्ठ १८७); महाराजानम् (भास, यज्ञफल, पृष्ठ २८) आदि शतशः २५
१. इसी प्रकार ग्राहक आदि में ग्रह की उपधा को दीर्घत्व द्वारा निर्शित 'ग्राह भी स्वतन्त्र धातु है । देखिए महाभारत वन० १३२।४ का 'निजग्राहतुः' प्रयोग।
२. यहां पाठभ्रंश हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है। 'गृह्णात्यर्थे' पाठ होना चाहिए। क्योंकि वेद में 'गृभ' धातु का प्रयोग 'ग्रह' धातु के अर्थ में ही मिलता है। स्वयं यास्क ने भी आगे 'यदा १० हि स्त्री गुणान् गृह्णाति .....' वाक्य में गृह्णाति का ही प्रयोग किया है।