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________________ ४२ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ब्राह्मणः, अपुनर्गेयाः श्लोकाः । द्र०-महाभाष्य १।१।४२,४३॥ . इनमें नत्र का सम्बन्ध क्रिया के साथ है, उन पदों के साथ नहीं जिनके साथ समास हुआ है। इनके अर्थ हैं -सूर्य को न देखनेवाली : ‘रानियाँ, सूर्य को न देखनेवाले मुख, श्राद्ध न खानेवाला ब्राह्मण, पुनः ५. ने याये जानेवाले श्लोक। , ... अब हम अन्त में एक ऐसे नियम का पाणिनीय शास्त्र से ज्ञापन दर्शाते हैं, जिसको हृदयङ्गम कर लेने पर वैदिक भाषा में अनेक , छान्दस कार्यों के विधान की आवश्यकता ही नहीं रहती। इतना ही . नहीं, यदि इस ज्ञापकसिद्ध नियम को स्वीकार कर लिया जाये, तो १० संस्कृत भाषा अतिशय सरल बन जाती है। वह नियम है-- (५) वक्ता के विशेष अभिप्राय का अन्य शब्द से बोध हो जाने पर अभिप्राय विशेष को प्रकट करनेवाले प्रत्यय आदि का अभाव । भाष्यकार ने तो अनेक स्थानों पर उक्तार्थानामप्रयोगः' कहकर इस नियम को स्वीकार किया है। अब इस विषय में पाणिनीय नियम पर ५ विचार कीजिये। ... पाणिनि का प्रसिद्ध नियम है-विभाषोपपदेन प्रतीयमाने (० ११३७७)। इसका अर्थ है- स्वरित और त्रित् धातुओं से कत्रभिप्रायक्रियाफल (कर्ता अपने लिये क्रिया कर रहा है इस अर्थ) में जो आत्मनेपद (१॥३।७२ से) कहा है वह अर्थ यदि किसी उपपद (= २० समीपोच्चारित पद) से ज्ञात हो जावे, तो आत्मनेपद विकल्प से होता है। यथा-देवदत्तः स्वमोदनं पचति, देवदत्तः स्वमोदनं पचते; स्वं , कटं करोति, स्वं कटं कुरुते । - पाणिनि के इस नियम से स्पष्ट है कि किसी अर्थविशेष का बोध कराने के लिए यदि कोई प्रत्यय कहा है, और वह अर्थ अन्य शब्द से २५, बोधित हो गया है तो उस विशेष प्रत्यय के उच्चारण की आवश्यकता - नहीं रहती। पचते में तीन अंश हैं-एक पच् धातु, यह क्रिया को कहता है। दूसरा (प्रशप), यह विकरण कर्ता का अभिधायक है। था तीसरा 'ते' यह पुरुष वचन तथा क्रियाफल के कर्तृगामित्व को कहता है। प्रोदनं पचते-अपने खाने के लिए चावल पकाता है। पचति में ३० भी ये ही तीन अंश हैं । इसमें तिप् क्रियाफल के परगामित्व का बोध १. द्रष्टव्य पूर्व पृष्ठ २२ टि० २ ।
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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