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________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ४३ कराता है। प्रोदनं पचति-दूसरे के लिए अर्थात् स्वामी आदि के लिए प्रोदन पकाता है। जब ते. प्रत्यय का एक अंश क्रियाफल का कर्तृगामित्व स्वं पद से बोधित हो गया तो वक्ता की आत्मनेपदांश की विवक्षा नहीं रहती। शेष अर्थ जो ते और ति में समान है, उसे व्यक्त करने के लिए किसी का भी प्रयोग कर सकते हैं। इसी . ५ नियम को भाष्यकार उक्तार्थानामप्रयोगः शब्दों द्वारा अभिव्यक्त करते ___इसी प्रकार का दसरा उदाहरण लीजिए-परोक्ष भूत अर्थ को व्यक्त करने के लिए परोक्षे लिट् (अ० ३।२।११५) से लिट् का विधान किया है। यदि परोक्षभूत अर्थ स्म पद से कह दिया जाये, तो १० लिट् प्रत्यय की आवश्यकता नहीं रहती । केवल पदपूर्त्यर्थ किसी भी काल विशेष बोधक लकार का प्रयोग कर सकते हैं। प्रथमातिक्रमे मानाभावात् नियम के अनुसार तथा रूप की सरलता की दृष्टि से साधारण जन लट् का प्रयोग करते हैं । इसी बात को पाणिनि ने लट् स्ने (अ० ३।२।११८) सूत्र द्वारा अभिव्यक्त किया है। १५ ____ यदि उक्त सूत्रों द्वारा ज्ञापित उक्तार्थानामप्रयोगः नियम को खुली आखों से देखें तो विदित होगा कि इस एक नियम से सहस्रों वैदिक और प्राचीन आर्ष प्रयोग बड़ी सरलता से समझ में आ जाते हैं। यथा. (१) सोमो गौरी अधि श्रितः (ऋ०६।१२।३) में सप्तम्यर्थ २० के अधि द्वारा उक्त हो जाने से सप्तमी विभक्ति का प्रयोग नहीं होता । इसे ही पाणिनि ने सुपां सुलुक (अ० ७।१।३६) द्वारा दर्शाया ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् (ऋ० १११६४।३६) में परमे विशेषण गत सप्तमी से सप्तम्यर्थ का बोध हो जाने से व्योमन् विशेष्य में ६.५ सप्तमी का अभाव देखा जाता है।' . .. १. अनेन लोपेनानुत्पत्त रेवान्वाख्यानमुक्तम् । महाभाष्यप्रदीपोद्योत ११२। ६४, पृष्ठ ८६ निर्णयसागर सं०।। २. द्रष्टव्य–किंच विशे यविभक्त्या विशेषणीयसंख्यादीनामुक्तावपि विशेषणाद यथा साधुत्वाय विभक्तिः क्रियते। महाभाष्यप्रदीपोद्योत १५२१६४, १० पृष्ठ ८३ निर्णय० सं०।
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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