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पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या
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इससे यह स्पष्ट है कि पाणिनीय अनुशासन के नियम प्रायिक हैं ।
लिङ्ग नियम - पाणिनि ने अष्टाध्यायी और लिङ्गानुशासन में लिङ्ग का विधान किया है, परन्तु स्वयं पाणिनि ने अनेक प्रयोग स्वनियमों के विपरीत किये हैं । यथा
लिङ्गानुशासन का एक नियम है- इन्द्वैकरम् (नपुंसकाधिकार सूत्र ७ ) । इस नियम के अनुसार समाहारद्वन्द्व में नपुंसकलिङ्ग होना चाहिए, परन्तु पाणिनि का एक सूत्र है - उकालोऽज्भूस्वदीर्घप्लुतः ( ० १ २ २७ ) | यहां समाहारद्वन्द्व में एक वचन तो है, परन्तु नपुंसकलिङ्ग के स्थान में पुल्लिङ्ग का प्रयोग किया है । ऐसा ही एक प्रयोग युवोरनाको ( श्र० ७ १1१ ) में है । यहां समाहारपक्ष में १० नपुंसकलिङ्ग होने पर युवुनः होना चाहिए । यदि इतरेतरयोग मानें तो युव्वोः रूप का निर्देश युक्त होगा । वस्तुतः यहां नपुंसकलिङ्ग के स्थान में पुल्लिङ्ग का प्रयोग जानना चाहिये ।
समासनियम - समास के सम्बन्ध में पाणिनि ने विविध नियमों का विधान किया है । उनमें किस समास में किसका पूर्व प्रयोग होना १५ चाहिये का भी विधान किया है । यथा - अल्पाच्तरम्, द्वन्द्वे धि अजाद्यदन्तम् (श्र० २।२।३४, ३२, ३३ ) आदि । परन्तु पाणिनीय सूत्रों में इन्हीं नियमों का उल्लङ्घन देखा जाता है, यथा
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ऋतौ कुण्डपाय्यसंचाय्यौ ( अ० ३|१|१३० ) में अल्पाच्तर 'संचाय्य' का पूर्व प्रयोग नहीं किया है। उत्तर सूत्र अग्नौ परिचाथ्योपचाय्य समूह्या: ( ० ३|१|१३|१ ) में अल्पाच्तर होने से 'समूहा' का और अजादि प्रदन्त होने से 'उपचाय्य'' का पूर्व प्रयोग होना चाहिए, परन्तु किया है 'परिचाय्य' का पूर्व प्रयोग ।
इसी प्रकार इको गुणवृद्धी ( प्र ० १|१|३ ) तथा नाडीमुष्ट्योश्च ( ० ३ |२| ३० ) में घिसंज्ञक 'वृद्धि' और 'नाडि' शब्द का पूर्वनिपात २५ नहीं किया ।
समास का प्रधान नियम है - समर्थः पदविधिः (अ०, २1१1१ ) इससे समर्थ पदों का ही समास होना चाहिए। परन्तु पाणिनि ने सुडनपुंसकस्य ( ० १|१|४३ ) असमर्थ नञ्समास का प्रयोग किया है । ऐसे असमर्थ नञ्समास लोक में भी देखे जाते हैं । यथा
'असूर्यं पश्या राजदाराः, श्रसूयं पश्यानि मुखानि श्रश्राद्धभोजी
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