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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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भी हो सकता है । तदनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती का यजुर्वेद १।१२ के भाष्य में प्रोषधि सेविका प्रयोग साधु होगा।
वैयाकरणों का मत है कि किसी अर्थ में अथवा किसी उपपद को निमित्त मानकर एक से अधिक विभक्तियों का विधान किया गया हो, तो भी समान वाक्य में उन विभन्न विभक्तियों का प्रयोग साधु नहीं होता। महाभाष्यकार ने कहा
'एकस्याकृतेश्चरित: प्रयोगो द्वितीयस्यास्तृतीयस्याश्च न भवति । तद्यथा गवां स्वामी अश्वेषु च ।' ३३११४०।
अर्थात् -एक प्राकृति से प्रारब्ध प्रयोग दूसरी और तीसरी १० प्राकृति से नहीं होता । यथा-गवां स्वामी अश्वेषु च ।
स्वामी शब्द के योग में स्वामोश्वराधिपतिदायाद० (२।३।३६) से षष्ठी और सप्तमी दोनों का विधान होने पर भी गवां स्वामी प्रवेषु च प्रयोग साधु नहीं होता । गवां स्वामी प्रश्वानां च अथवा
गोषु स्वामी प्रश्वेषु च ही प्रयोग साधु है। १५ वस्तुतः महाभाष्यकार का यह मत एकान्त सत्य नहीं है, अपित
प्रायिक है। प्राचीन ग्रन्थों में समानवाक्य में उक्त प्रकार के विभन्न विभक्तियों के प्रयोग उपलब्ध होते हैं । यथा--.
१-शतपथ ब्राह्मण का पाठ है-अनस एव यजू पि सन्ति । न कौष्ठस्य, न कुम्भ्यै । १११।२।७॥
२-तैत्तिरीय संहिता का वचन है-धेन्वै वा एतद् रेतो यदाज्यम्, अनुडुहस्तण्डुलाः । २।२।६ ।।
३-तैत्तिरीय संहिता का दूसरा वचन है-इदमहममुभ्रातृव्यमाभ्यो दिग्भ्योऽस्यै दिवोऽस्मादन्तरिक्षात्...""। १६६ ॥
इन उदाहरणों में प्रथम दो में षष्ठ्यर्थ चतुर्थी वक्तव्या (२।३। २५ ६२) वार्तिक से विहित चतुर्थी, और पक्ष में यथाप्राप्त षष्ठी दोनों
का समान वाक्य में ठीक उसी प्रकार प्रयोग हुआ है (कोष्ठस्य कुम्भ्य, धेन्वे अनुडुहः) जैसे प्रयोग का भाष्यकार ने प्रतिषेध किया है। ततीय वाक्य में और भी अधिक वैशिष्टय है। उसमें अस्यै दिवः
विशेषण विशेष्य में भी विभिन्न विभक्तियों का प्रयोग उपलब्ध होता ३० है, जो साम्प्रतिक वैयाकरणों को सर्वया असह्य है।