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पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या
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पर इक से परे यण का व्यवधान भी होता है इस नियमान्तर की कल्पना कर लें, तो संस्कृतभाषा के अनेक शब्दों की व्यवस्था सरलता से उपपन्न जाती है । भाषावत्तिकार ने तो इकां यणभिर्व्यवधानं व्याडिगालवयोः (६।११७७) वचन उद्धृत करके दधियत्र मधुवत्र प्रयोगों का साधुत्व दर्शाया है। इतना ही नहीं, इस नियम को तो हम सूत्रारूढ़ भी बना सकते हैं। इको यच (अ. ६११७४) सूत्र को हलन्त्यम् के समान द्विरावृत्त मानकर यणादेश पक्ष में इकः को षष्ठी मानकर, और यणव्यवधान पक्ष में इकः को पञ्चम्यन्त मानकर व्याख्या कर सकते हैं।
इस एक नियम की कल्पना करने पर संस्कृतभाषा पर जो १० व्यापक प्रभाव पड़ता है, उसकी संक्षिप्त मीमांसा हमने इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय (प्रथम भाग, पृष्ठ २८-३२) में की है। पाठक इस प्रकरण को अवश्य देखें। क्योंकि उसका यहां पुनः लिखना पिष्टपेषणमात्र होगा।
इसी प्रकार अन्य सन्धि-नियमों के सम्बन्ध में भी विचार किया १५ जा सकता है।
विभक्ति नियम-पाणिनि के विभक्ति-नियम के अनुसार 'पर' शब्द के योग में (२।३।२६ से) पञ्चमी विभक्ति होनी चाहिए। परन्तु पाणिनि ने ऋहलोर्ण्यत् (अ० ३।१।१२४) आदि में बहुत्र षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया है। इन प्रयोगों के अनुसार यदि हम २० यह ज्ञापन कर लें कि दिकशब्दों के योग में षष्ठी का प्रयोग भी होता है, तो ऐसे अनेक शिष्ट प्रयोग, जिनमें 'पर' आदि दिक्शब्दों के योग में षष्ठी का निर्देश है, अञ्जसा साध प्रयोग समझे जा सकते हैं। यथा-एकादशिनोः परः। ऋक्सर्वानुक्रमणी उपोद्घात । ॥५॥
हिन्दीभाषा में भी पूर्व पर शब्दों के योग में पञ्चमी और षष्ठी २५ दोनों का प्रयोग होगा है - ग्राम से पूर्व या परे, ग्राम के पूर्व या परे ।
पाणिनि के कर्तृ कर्मणोः कृति (अ० २।३।६५) के नियम से कृदन्त के प्रयोग में कर्म में षष्ठी होती है । परन्तु पाणिनि का स्व. प्रयोग है-तद् अहम् (अ० ५।१।११६) । यहां पाणिनि ने स्वनियम को उपेक्षा करके 'अहम्' के योग में 'तद्' द्वितीया का प्रयोग किया ३० है। इससे स्पष्ट है कि कृदन्त के योग में कर्म में द्वितीया का प्रयोग