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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
सर्वघातूनां बहुलं वेडित्यन्ये ( पृष्ठ ६६ ) । उदात्त धातुम्रों के अनिट् के, तथा अनुदात्त घातुनों के सेट् के रूप प्राचीन प्रार्षवाङमय में प्राय: उपलब्ध होते हैं ।
प्रातिपदिक गणों में कुछ ही गण ऐसे हैं, जिन्हें नियत माना ५ जाता है, यथा – सर्वादीनि । अधिकतर गण तो प्रायः श्राकृतिगण ही है । परन्तु नियतगण समझे जानेवाले सर्वादि प्रभृति गणों में भी शब्दों का पाठ प्रायिक है । सर्वादिगण में अन्यतम शब्द का पाठ नहीं हैं । परन्तु प्रापिशल और पाणिनि दोनों ही प्राचार्यों ने शिक्षा ग्रन्थ के आठवें प्रकरण के प्रथम सूत्र में ' स्थानानामन्यतमस्मिन् स्थाने' १० प्रयोग में सर्वनाम संज्ञा मानकर प्रयोग किया है। जब नियत माने जानेवाले गण की ही यह स्थिति है, और वह भी प्रापिशलि और पाणिनि के मत में, तब अन्य गणों का प्रायिकत्व तो सुतरां सिद्ध है ।
इससे स्पष्ट है कि धातुगण और प्रातिपदिक गणों के पाठों के प्रायिक होने से पाणिनि प्रभृति प्राचायों द्वारा साक्षात् अनुपदिष्ट १५ किन्तु विष्ट प्रयुक्त प्रयोग साधु हैं, यह स्वीकार करना हो होगा।
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४ - पाणिनीय नियमों से प्रसिद्ध पाणिनीय प्रयोग द्वारा नियमान्तर की कल्पना, अथवा नियमों का प्रायिकत्व द्योतित करना - इस प्रकरण में हम पाणिनि के कतिपय प्रयोगों द्वारा यह दर्शाने का प्रयत्न करेंगे कि पाणिनि ने जिस विषय में जो नियम अष्टाध्यायी में लिखे हैं, उनके विपरीत जिन शब्दों का पाणिनि ने अपने सूत्रों में प्रयोग किया है, ऐसे कुछ प्रयोगों के द्वारा वैयाकरण कुछ नियमों का ज्ञापन करते हैं । यदि उसी प्रक्रिया को अधिक विस्तार दे दिया जाए, तो बहुविध प्रपाणिनीय शब्दों का साधुत्व अनायास अभिव्यक्त हो जाता है । हम इसके कुछ उदाहरण उपस्थित करते
२५ हैं -
सन्धि नियम - पाणिनि का प्रसिद्ध सूत्र है - इको यणचि (प्र० ६ ॥ १। ७४) । इसके द्वारा अव्यवहित अच् परे इक् को यणादेश होता है । इसी नियम के अनुसार भू श्रादयः = भ्वादयः प्रयोग होना चाहिये । परन्तु पाणिति का वचन है- भूवादयो धातवः (प्र० १३०१ ) | यहां ● 'भू प्रादयः' के मध्य वकार का आगम या व्यवधान हुआ है । इस स्वनियम विरुद्ध पाणिनीय प्रयोग से यदि 'श्रव्यवहित श्रच् परे रहने
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