________________
पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या
३७
अर्थात्-'नेषत' में सिप और शप दो विकरण हए हैं, और 'तरुषेम' में उ सिप् और शप् तीन विकरण।।
काशकृत्स्न व्याकरण के अनुसार लोक में भी द्विविकरणता देखी जाती है। काशकृत्स्न भ्वादिगण में शुची शूची चुची चूची अभिषवे । (१।२।३०) धातुसूत्र पढ़ता है। इसकी व्याख्या में चन्नवीर कवि ५ दिवादेर्यन् सूत्र उद्धृत करके उससे यन् (तथा भ्वादिपाठ से अन्) विकरण करके शुति शूच्यति चुच्यति चूच्यति प्रयोग दर्शाये हैं । पाणिनि इस द्विविकरणता से बचने के लिए शुच्य चुच्य अभिषवे (१।३४३) धातुसूत्र यकार सहित धातु पढ़ता है।
इसी प्रकार काशकृत्स्न उर्ण प्राच्छादने (२।६२) की टीका १० और उस पर हमारी टिप्पणी भी द्रष्टव्य है। ___ यदि देवादिक श्यन् विकरण के 'य' को धातुरूप में सम्मिलित करके द्विविकरणता हटाई जा सकती है, जैसा कि पाणिनि ने शुच्यादि में किया है, तो वेद में भी वैसी ही धात्वन्तर की कल्पना करना युक्त होगा। 'नेषतु' में निष धातु (यह रूप भाष्यकार को इष्ट है, १५ यह हम पूर्व पृष्ठ २३ पर लिख चुके हैं) और 'तरुषेम' में कण्ड्वादिगणस्थ उषस प्रभातभावे (१।१।६) के समान 'तरुष' स्वतन्त्र धातु मानी जा सकती है। उस अवस्था में 'तरुषेम' में त्रिविकरणता की आवश्यकता नहीं होगी, 'श' विकरण से रूप निष्पन्न हो जायेगा। और यदि वेद में द्विविकरणता या त्रिविकरणता इष्ट है, तो लोक में २० भी इसे स्वीकार करके धातुशब्दों को अधिक संक्षिप्त बनाया जा सकता है । जैसे पाणिनि के शूच्य चच्य का रूप काशकृत्स्न ने शूच चुच इतना ही माना है। उस अवस्था में शुच की धात्वन्तर रूप से पढ़ने की आवश्यकता नहीं रहेगी। ___ इसी गण कार्य के अन्तर्गत आत्मनेपद या इट आदि के लिये पढ़े २५ गए अनुबन्धों का निर्देश भी प्रायिक मानना चाहिये । प्रात्मनेपदार्थ अनुदात्तत्व की प्रायिकता स्वयं पाणिनि ने चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि (२७) में इकार और डकार दो अनुबन्धों से दर्शाई है। इट् विधान की अनित्यता का ज्ञापन भी पाणिनि के पतित (अ० २।१।२३)
आदि प्रयोगों से स्पष्ट है । इसी व्यवस्था का विचार करके हैम धातु- ३० पाठ के व्याख्याता गुणरत्न सूरि ने स्कन्द धातु पर लिखा है