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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
है यद्यपि व्याख्या ठीक है, परन्तु आधुनिक वैयाकरण श्रु धातु का शणोति प्रयोग ही साधु मानते हैं । इन वैयाकरणों से पूछना चाहिये कि पाणिनि ने श्रु धातु को भ्वादि में पढ़कर श्न विकरण और श
आदेश का विधान क्यों किया? यदि 'शृणोति' ही रूप बनाना है, तो ५ 'श्रु' को स्वादिगण में पढ़ा जा सकता था, और इनु प्रत्यय सरलता से प्राप्त हो सकता था । केवल 'श' आदेशमात्र के विधान की आवश्यकता रहती। ___ अब यदि पाणिनीय पाठ को ध्यान में रखा जाये, तो मानना होगा कि श्रु धातु के भ्वादिपाठ-सामर्थ्य से श्रवति श्रवतः श्रवन्ति रूप भी साधु हैं । वेद में तो श्रवति आदि प्रयोग बहुधा उपलब्ध भी होते हैं। इतना ही नहीं, धात्वादेश रूप से पठित शब्द स्वतन्त्र धातु रूप है, यह हम पूर्व दर्शा चुके हैं। तदनुसार श्रवणार्थक 'श' भी स्वतन्त्र धातु है।' ___ लोक में एक से अधिक विकरणों का सहप्रयोग-हमने ऊपर कहा है कि पाणिनि ने गणों का विभाग विकरण-प्रत्ययों की दृष्टि से किया है । इसी दृष्टि को ध्यान में रखकर एक विकरण-व्यवस्था बनती है । परन्तु वेद में कहीं दो विकरणों का सहभाव देखा जाता है । काशिकाकार ३।१।८५ की व्याख्या में लिखता है
___ 'क्वचिद् द्विविकरणता क्वचित त्रिविकरणता च । द्विविकरणता२० इन्द्रो वस्तेन नेषतु, नयत्विति प्राप्ते। त्रिविकरणता-इन्द्रेण युजा तरुषेम वृत्रम्, तीर्यास्मेति प्राप्ते ।'
१. सायण आदि भाष्यकारों ने शण्विरे शविषे को लिट् का प्रयोग माना है। हमारे विचार में यह प्रयुक्त है। पाणिनि ने विदो लटो वा (अ. ३।३।८३) से विद धातु से लट में भी तिप् प्रादि के स्थान में णल अतुस् उस आदि प्रादेश कहें हैं। यदि इन आदेशों को लट् के भी स्थानापन्न प्रत्यय स्वीकार कर लिया जाये, तो शविरे शविषे में छान्दसत्वात सार्वधातुकत्व मानकर श्नु आदि विधान की आवश्यकता नहीं रहती। साथ ही 'द्विवचनप्रकरणे छन्दसि वेति वक्तव्यम' (अ० ६।१८) वार्तिक की भी
आवश्यकता नहीं होती। जागार आदि लौकिक वेद विदतुः विदुः प्रयोगों के ३० समान लट् में उपपन्न हो जायेगा 'जागार' का वर्तमानकालिक 'जागता है' अर्थ
ही-यो जागार तमृचः कामयन्ते (ऋ० ५।४४।१४) में सम्बद्ध होता है ।