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________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ३५ दो अर्थवाले 'तस् थस्' के स्थान में दो अर्थवाले 'ताम् तम्', और बहुत अर्थवाले 'थ' के स्थान में बहुत अर्थवाला 'त' हो जायेगा । यहां यह विचारणीय है कि जब तक ये प्रदेश किसी के स्थान में नहीं होते, तब तक पाणिनीय मतानुसार इनमें अर्थवत्ता ही उपपन्न नहीं होती । तब भाष्यकार ने भावी प्रदेशों की प्रर्थवत्ता कह कर ५ अर्थसादृश्य से स्थान्यादेश भाव का नियमन कैसे उदाहृत किया ? इससे जाना जाता है कि भाष्यकार की दृष्टि में अन्य कोई प्राचीन ऐसा व्याकरण था, जिसमें ङित्लकारों में स्वतन्त्र रूप से इन्हें प्रत्यय माना था । तन्निबन्धक अर्थवत्ता को ध्यान में रखकर भाष्यकार ने पाणिनीय मतानुसार प्रदेशरूप प्रत्ययों की अर्थवत्ता का निर्देश किया । इस प्रकार प्रदेशरूप में कहे गये प्रत्ययादेश स्वतन्त्र प्रत्यय हैं, यह जानना चाहिये । इसी प्रक्रिया के अनुसार आर्ष ग्रन्थों के वे प्रयोग.. जहां समास होने पर भी क्त्वा को ल्यप् नहीं होता, और विना समास के भी ल्यप् के रूप देखे जाते हैं, सरलता से उपपन्न हो जाते हैं । ३- गणकार्य का उपलक्षणत्व - पाणिनि ने स्वीय शास्त्र के उपदेश के लिये दो प्रकार के गण पढ़े हैं। एक - धातुगण, और दूसरा प्रातिपदिकगण । धातुगणों का समूह 'धातुपाठ' के नाम से प्रसिद्ध है, प्रातिपदिकगणों का समूह 'गणपाठ' के नाम से । आधुनिक वैयाकरण इन गणों के विभागों को पूर्ण व्यवस्थित मानकर प्रयोग करने का आग्रह करते हुए पाणिनीय गणविशेष में पठित पाठ की भी उपेक्षा करते हैं । यथा ܕ २० धातुपाठ में समस्त धातुएं १० गणों में व्यवस्थित की गई हैं । यह व्यवस्था विकरण प्रत्ययों की दृष्टि से की गई है। उक्त गणव्यवस्था प्रायिक है । इसका निर्देश स्वयं पाणिनि ने धातुपाठ के अन्त में बहुलमेतन्निदर्शनम् ( १० । ३६६ ) सूत्र द्वारा कर दिया है । यदि पाणिनि के अनुसार इनका प्रायिकत्व स्वीकार कर लिया जाये, तो वेद में अनेक स्थानों पर छान्दस विकरण- व्यत्यय मानने की कोई २५ मावश्यकता नहीं रहती | - १५ ३० पाणिनि का सूत्र है - श्रुवः शुच ( प्र० ३ | १|७४ ) । इसका अर्थ है-श्रु धातु से श्नु प्रत्यय होता है, और श्रु को शू प्रादेश हो जाता
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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